Proceedings of the Darbhanga Meeting 5th and 6th April 2000
उत्तर बिहार की बाढ़ समस्या और उसका समाधान गोष्ठी में हम आप सभी का स्वागत करते हैं। दरभंगा में इस तरह का कार्यक्रम करने की हमलोगों की बहुत दिनों से इच्छा थी और हमें प्रसन्नता है कि यह कार्यक्रम आज हो रहा है।
यह कार्यक्रम हम क्यों कर रहे हैं और आज के दिन का क्या महत्त्व है इसके बारे में हम थोड़ा बतला दें। आज से 53 वर्ष पूर्व 6 अप्रैल 1947 को देश की आजादी से पहले, निर्मली में बाढ़ पीड़ितों का एक सम्मेलन हुआ था जिसमें लगभग 60 हजार लोग शामिल हुए थे। इस सम्मेलन में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, श्री कृष्ण सिन्हा, गुलजारी लाल नंदा, ललित नारायण मिश्र तथा हरिनाथ मिश्र जैसे बड़े-बड़े नेता शामिल हुये थे। उस दिन प्रायः सभी नेताओं ने उत्तर बिहार की बाढ़ समस्या पर अफसोस व्यक्त किया था और उसी दिन तत्कालीन योजना मंत्री सी. एच. भाभा ने कोसी पर बाराह क्षेत्र बाँध के निर्माण की औपचारिक घोषणा की थी। उन्होंने कहा कि इस बाँध के निर्माण से उत्तर बिहार की बाढ़ समस्या का समाधान हो जायेगा। लगभग 12 लाख हेक्टेयर जमीन पर सिंचाई हो सकेगी और 3300 मेगावाट बिजली पैदा होगी। यह काम कभी नहीं हुआ मगर इसका आश्वासन आज भी बरसात में बाढ़ पीड़ित जनता को मिलता रहता है। 1997 में हमने निर्मली में उसी दिन और उसी स्थान पर बाढ़ मुक्ति अभियान का एक सम्मेलन किया था और पिछले पचास वर्षों में बाढ़ नियंत्रण पर किये गये कामों की समीक्षा और मूल्यांकन किया। उस समय यह भी तय किया गया कि प्रत्येक वर्ष हम इसी तारीख पर एक सभा करें। हमने किसी न किसी रूप में इसमें सफलता पाई है कि भले ही सांकेतिक रूप से ही सही, मगर कार्यक्रम 5/6 अप्रैल को करने का प्रयास किया है। पिछले साल हमने यह मीटिंग खगड़िया में की थी और इस वर्ष दरभंगा में कर रहे हैं।
बराह क्षेत्र बाँध तो नहीं बना। पता नहीं कभी बनेगा भी या नहीं। पिछले पचास वर्षों में बड़े बाँधों के जो अनुभव आये हैं उसने बाँधों की सार्थकता पर ही चिन्ह लगा दिया है। इनकी लागत, इनके निर्माण में लगने वाला समय, भूकम्प की समस्या, विस्थापन और पुनर्वास की समस्या इनकी सामरिक सुरक्षा आदि कितने ही ऐसे प्रश्न हैं जिन्होंने बड़े बाँधों को कठघरे में ला खड़ा किया है। उत्तर बिहार में जब भी बाढ़ आती है तब नेता लोग बराह क्षेत्र बाँध की दुहाई देने लगते हैं। वह यह भी कहते हैं कि नेपाल अगर राजी हो जाये तो यह बाँध बना लिया जायेगा मगर 50 साल से अधिक का समय हो गया और इस पर कोई समझौता नहीं हो पाया है। बाँध का काम अगर आज भी शुरू हो जाय तो इसके निर्माण में 15 वर्ष का समय लग जायेगा। इन 15 वर्षों में बाढ़ से बचाव की कोई योजना है क्या हमारे पास।
1955 में बाराह क्षेत्र बाँध के बदले हमें कोसी पर तटबन्धों की सौगात मिली और उसके बाद बिना किसी बहस या तैयारी के प्रान्त की बाकी नदियों पर भी तटबन्ध बन गये। 1952 में हमारी नदियों के किनारे मात्र 160 किलो मीटर लम्बे तटबन्ध थे जोकि आज बढ़कर 3,465 किलोमीटर हो गये हैं और इस बीच लगभग 800 करोड़ रुपया सरकार ने बाढ़ नियंत्रण के नाम पर खर्च किया। मगर बिहार का बाढ़ प्रभावित क्षेत्र जो 1954 में मात्र 25 लाख हेक्टेयर था वह बढ़कर अब 68.8 लाख हेक्टेयर हो गया है। बाढ़ का जो अब विकृत स्वरूप देखने को मिल रहा वह पहले तो कभी नहीं था और यह आप लोगों से छिपा नहीं है।
अब हमारे हिस्से केवल रिलीफ की नौटंकी और बराह क्षेत्र बाँध का आश्वासन बचा है। विकल्प के तौर पर अब अपनी खेती छोड़कर पंजाब/हरियाणा की खेती का भरोसा रह गया है। ऐसी परिस्थिति में हम क्या कर सकते हैं, कुछ कर भी सकते हैं या नहीं, इस पर हम आज और कल में चर्चा करेंगे।
हमारे लिये आज यह बड़ी खुशी का विषय है कि इस मीटिंग में बहुत से स्थानीय बुद्धिजीवियों, अध्यापकों, अधिवक्ताओं तथा छात्र छात्राओं के अलावा पश्चिम में सारण तथा पूर्व में कटिहार तक के मित्र मौजूद हैं। एक साथी दिल्ली तथा एक बंगलोर से भी यहाँ आये हुए हैं। बाढ़ मुक्ति अभियान आप सभी का स्वागत करता है और आशा करता है कि आज और कल हम बाढ़ के विषय पर गहन चिन्तन कर सकेंगे।
भारत एक कृषि प्रधान देश है। बाढ़ और सूखा कृषि को काफी प्रभावित और निरुत्साहित करते हैं। बाढ़ गंगा घाटी की प्रमुख समस्याओं में से एक है। अभी यहाँ की 50 प्रतिशत आबादी कृषि से अपनी आजीविका चलाती है। कृषि पर अधिकारियों को जितना ध्यान देना चाहिये था वह उन्होंने नहीं दिया।
उत्तर बिहार बाढ़ वाला क्षेत्र है। यह बाढ़ जब तक प्राकृतिक बाढ़ थी तब तक यह क्षेत्र खुशहाल रहा। अब जो बाढ़ है वह तो अप्राकृतिक है और मानव निर्मित है। मेरा क्षेत्र दरभंगा में है। 1975 के पहले तक हमलोग साल में तीन फसल पैदा कर लिया करते थे और अब केवल गेहूँ होता है वह भी तब जबकि बाढ़ का पानी समय से निकल जाये। जब से जठमलपुर-हायाघाट वाला तटबन्ध बना तभी से हमारी हजारों हजार एकड़ खेती की जमीन बाढ़ में डूब गई। धान तो अब देखने तक को नहीं मिलता।
तटबन्ध बनने के पहले पानी आता था और चला जाता था। तटबन्ध बनने के बाद जो तटबन्धों के अन्दर फँस गया वह तो पहले से भी ज्यादा असुरक्षित हो गया और जो तटबन्धों के बाहर है और जिसे सुरक्षित होना चाहिये था वह भी इस डर से असुरक्षित है कि कब तटबन्ध टूटेगा और उसका सफाया हो जायेगा। बाढ़ नियंत्रण के नाम पर सरकार ने हमारे लिये बर्बादी की मजबूत व्यवस्था तैयार कर दी है।
सरकार नहीं चाहती है कि बाढ़ जाये क्योंकि अगर बाढ़ चली जायेगी तो लुटेरों के पेट कैसे भरेगा? हमारी पूरी की पूरी फसल की बर्बादी के बदले में हमें 5 किलो आटा/दाल और दिया-सलाई-मोमबत्ती देकर सरकार अपने दायित्व से मुक्त हो जाती है। जब यह मारक बाँध नहीं बने थे तब बाढ़ एक बार आती थी और जमीन को जैसे एक स्थान करवा करके जाती थी। हमको स्थायी बाढ़ के दुष्चक्र में इंजीनियरों और नेताओं ने फँसा दिया है। बेनीबाद से जठमलपुर तक का सारा पानी हायाघाट से गुजरता है। जिस इलाके में इतना पानी बाहर से आयेग वहाँ तो बाढ़ आयेगा ही। मगर यह पानी घुसाने का काम सरकार ने किया है।
तटबन्धों को समाप्त करना चाहिये और इस तरह का कोई आन्दोलन चलता है तो हम सभी लोग साथ देंगे। तटबन्धों के खिलाफ हमलोगों ने 1987-88 में, 1990 में तथा 1995 में हायाघाट में आन्दोलन किया हुआ है। दुःख है कि सरकार हमारी बात सुनती ही नहीं है। इस प्रश्न को हमलोगों को राजनैतिक पार्टियों के साथ भी उठाना चाहिये कि वह अपने दलगत स्वार्थों को भुलाकर आम जनता के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर काम करें और समस्या का समाधान करने का प्रयास करें।
हमारे यहाँ जेठ महीने में बाढ़ आ जाती है और पानी घरों में घुस जाता है। हमलोगों की अब बाढ़ की नहीं दुर्दशा सहने की आदत बन गई है। बाल बच्चे, जान-माल, घर-दुआर सबकी रक्षा करते-करते ही छः महीना बीत जाता है। इस बीच में खाना-पीना सब खत्म हो जाता है तो फिर डोका, केकड़ा, मछली और करमी खाना पड़ता है। इसको भी पकाने के लिये ईंधन नहीं है। एक ही तरह का खाना खाने से तथा बाढ़ का प्रदूषित पानी पीने से भी तरह-तरह की बीमारियाँ फैलती हैं।
बाढ़ के समय महिलाओं की परिस्थति के बारे में क्या कहें। बच्चे संभालना, जानवर संभालना, खाना बनाना सब पानी में करना पड़ता है। जरा सी चूक हुई तो जान से हाथ धो बैठे। किसी महिला को अगर प्रसव होना हो तब तो तकलीफ की सीमा ही नहीं है। इसके अलावा भी कभी हकीम-डॉक्टर को दिखाना पड़ गया तब भी परेशानी कम नहीं है।
आज इतने लोग इकट्ठा हो करके भविष्य के लिये योजना बनायेंगे तो उससे हमें बड़ी आशा है।
यह कार्यक्रम यहाँ बन्द कमरे में हो रहा है शहर में। यह किसी गाँव में खुली जगह हुआ होता तो इसका ज्यादा असर पड़ता। बाढ़ क्षेत्र के ग्रामीण लोग अगर अपने विचार यहाँ रखते तो यह सच्चाई के ज्यादा नजदीक होता।समस्या यह है कि हम निदान सुझायेंगे भी तो उस पर अमल कौन करेगा और कैसे करेगा। सत्ताधारी लोग जब कोई निदान सुझाते हैं तो आशा बनती है कि अब कुछ होगा। मगर अफसोस है कि जो सत्ता में है उनका कहा हुआ भी कुछ नहीं हो पाता है। वह भी धरातल पर नहीं उतरता है। बाढ़ के सवाल पर हमने भी हायाघाट के क्षेत्र में आंदोलन चलाये हैं तथा मंत्रियों और अधिकारियों से बातचीत की है। हमारी राहत कार्यों में कोई रुचि नहीं है क्योंकि राहत कार्य कभी भी समस्या का समाधान नहीं हो सकता। सरकार को चाहिये कि तटबन्धों की जो योजनायें आधी-अधूरी पड़ी है उनको वह पूरा करें। बाँधों को ऊँचा और मजबूत करें।
हायाघाट प्रखण्ड साल में 4 महीने पानी में डूबा रहता है। यह पानी वहाँ न रहे-इस दिशा में अगर कोई काम होता है तो हम हमेशा उसमें साथ देने के लिये तैयार हैं।
हमारे पूर्व वक्ताओं ने कहा है कि तटबन्ध नहीं बनने चाहिये पर मेरा मानना है कि तटबन्ध न केवल बनने चाहिये बल्कि उन्हें ऊँचा और मजबूत भी किया जाना चाहिये।
नदी की बाढ़ को तो चीन वाले भी नहीं रोक पाये जो हमसे 2500 वर्ष पहले से कोशिश कर रहे हैं। इसलिये बाढ़ से तो बचा नहीं जा सकता। अब यह बाढ़ प्राकृतिक हो या आदमी की बनाई हुई- इस पर बहस हो सकती है।
हमारे इंजीनियरों को अपनी तनख्वाह से मतलब है और ठेकेदारों को उनके बिल के भुगतान से। उसके बाद बाढ़ रहे या जाये- उनकी बला से। हमारा गाँव कमला के किनारे है। 25-30 साल पहले जब कमला पर तटबन्ध नहीं था तब बड़े आराम से जीवन चलता था। फिर तटबन्ध बना तब उम्मीद हुई कि अब सारी परेशानी खत्म हो जायेगी पर परेशानियाँ तो बढ़ती ही गई। सरकार को कितनी बार कहा और लिखा, कुछ नहीं हुआ। तब हार कर हमलोगों ने खुद तटबन्ध को काट दिया और काटते जा रहे हैं। तब हमारी जमीन पर मिट्टी पड़ती है और जल जमाव खत्म हो गया। इसे आस पड़ोस के गाँव वाले भी देखते हैं तब उनको भी लगता है कि फलाने गाँव की तो जमीन पानी से निकल आई और खेती भी होने लगी है तब वह भी सीखते हैं।
इस साल भी 57 किलोमीटर और 59 किलोमीटर पर हमलोगों ने कमला का तटबन्ध काटा है। तटबन्ध के बाहर एक साल में ही 10 फुट मिट्टी की भरावट हुई है। फसल भी हो रही है। किसान को और क्या चाहिये? सरकार कमला जैसी छोटी नदी के तटबन्ध को सम्भाल कर रख ही नहीं सकती तब चल के बनायेगी डैम। यह भी अगर सम्भाल में नहीं आया तो। सरकार डैम के नाम पर राजनीति कर रही है और लोग बेवकूफ बन रहे हैं।
बाढ़ की समस्या तो काफी गंभीर है पर यह लगभग तय है कि अब सरकार कुछ कर सकने की स्थिति में नहीं है। यहाँ इस गोष्ठी में बहुत से बुद्धिजीवी, समाजकर्मी, अध्यापक, छात्र, युवक और सहृदय व्यक्ति इकट्ठे हुए हैं तो एक आम राय बनायें कि अब हमलोग क्या कर सकते हैं। आने वाले दो दिनों में हमारा प्रयास रहे कि हम बाढ़ समस्या से सम्बद्ध सभी बिन्दुओं को छूने का प्रयास करें क्योंकि हमारे बीच में अच्छी जानकारी रखने वाले बहुत से विद्वानों के साथ-साथ बहुत से लड़ाकू किस्म के भी लोग उपस्थित है। अतः कुछ कार्यक्रम हम जरूर निकाल सकेंगे।
हम बाढ़ मुक्ति अभियान का शुक्रिया अदा करते हैं कि उन्होंने इस सम्मेलन का दरभंगा में आयोजन किया। इससे हमको और हमारे वाटर मैनेजमेंट के छात्रों को बाढ़ की समस्या को समझने का मौका मिलेगा। इससे समस्या के समाधान की दिशा में भी कोशिश शुरू हो सकेंगी।
पानी बहुत से जीवों को रहने का स्थान देता है। रत्नों की खान है और बहुत सी लोगों की मृत्यु का भी कारण बनता है। पिछली साल हमारे यहाँ 32 लोग पानी में डूबकर मरे। नवोदय स्कूल के बच्चे परिवार के साथ नाव में बैठकर जा रहे थे। नाव डूब गयी सभी मर गये। नाव खेने वाले मल्लाह नाव लेकर जा रहे हैं। रास्ते में बिजली की हाई वोल्टेज की लाइन है। पानी में करंट आ जाता है। सब को किनारे पहुँचाने वाला मल्लाह बीच धारा में डूब कर मर जाता है। मरने के कितने साधन है हमारे पास। कहीं डूब कर, कहीं स्पर्शाघात से, कहीं नाव पलटने से तो कहीं घर के अन्दर दब कर।
जनतंत्र ने हमें वोट का अधिकार दिया मगर जीने के अधिकार को हमसे छीन लिया। यहाँ जहाँ हम बैठे हैं यही से थोड़ा दूर पश्चिम पानी का क्षेत्र शुरू होता है। हायाघाट, कल्याणपुर, सिंहवारा, जाले, गायघाट, औराई, कटरा जैसे प्रखण्डों के लगभग 1500 गाँव हर साल डूबते हैं। इनमें से 700 से 800 गाँवों में तो मैं भी घूमा हूँ। इन गाँवों की वेदना कैसे कही जाय। माँ-बाप कितनी मेहनत से बच्चों को पालते हैं, श्रम करते हैं, खेतों में कुछ पैदा करने की कोशिश करते हैं। वह बच्चा जिन्दा भी बचेगा या डूब मरेगा यह निश्चित नहीं है। यहाँ हम आर्थिक रूप से संतप्त हैं। तीन फसल की मालगुजारी देते हैं जबकि एक फसल भी ठीक से नहीं हो पाती है। यह पीड़ा प्राकृतिक नहीं है, मानव प्रदत्त पीड़ा है, सरकार प्रदत्त पीड़ा है।
यहाँ एक कमीश्नर हुये थे। मिलिट्री से रिटायर्ड थे और स्वयं भी इंजीनियर थे। 1987 में हमारा आन्दोलन चलता था जठमलपुर के पास बाँध टूटने के बाद। उनसे बातचीत के दौरान मैंने उनसे कहा कि यह बाढ़ प्राकृतिक तो नहीं है यह राजनेताओं और अफसरों की पैदा की हुई बाढ़ है तो वह बहुत बुरा मान गये और मुझसे साबित करने को कहा। मैंने उनसे कहा कि आप तो आई.ए.एस. हैं। आपको समझाना मुश्किल है कभी गाँव का और गरीब का बेटा आई.ए.एस. बने तो उसे समझाया भी जा सकता है। वह तो कभी बनेगा नहीं।
मैंने अपना नक्शा निकाला और उन्हें पूरी तरह समझाया पहाड़ों और नदियों की स्थिति। उन्हें यह भी बताया कि 1956 के पहले पानी की आवा जाही की क्या स्थिति थी और नदियों को बाँध देने के बाद क्या-क्या परिवर्तन आये और अब क्या परिस्थिति बन गई है। उनकी समझ में थोड़ी बहुत बात आई। बी.बी.सी. के एक सम्वाददाता सुनील कुमार सिंह को मेरे साथ लगा दिया। वह आदमी सारे दिन मेरे साथ घूमता रहा और शाम को जब हमारी यात्रा समाप्त हुई तब उसने कहा कि यहाँ के आम आदमी के सोच और इंजीनियरों/अफसरों के सोच में जमीन आसमान का अन्तर है। क्यों नहीं लोग गाँव वालों की राय लेकर योजनायें बनाते हैं। लेकिन सवाल यह है कि कोई अफसर या इंजीनियर हमारी बात क्यों सुनेगा। एक देहाती कहावत है कि ‘जिसके पैर न फटे बिवाई सो क्या जाने पीर पराई।’ समस्या की चोट उन पर तो पड़ती नहीं है- आम आदमी पर पड़ती है। वह क्यों हमारी बात को समझेंगे।
तीन फसल के स्थान पर अब हमारे यहाँ एक फसल होती है। भले ही जैसी भी हो-इस फसल का हमको मोह होता है। हमें अपने बाप दादों के घर-जायदाद का भी मोह होता है। हम अपना घर छोड़ कर भाग भी नहीं सकते- रह भी नहीं सकते। पहले पानी कभी भी 10-15 दिन से ज्यादा नहीं रहता था। अब कम से कम चार महीने रहता है। इतने ज्यादा दिन पानी लगे रहने के कारण हमारे आम, जामुन, शीशम के पेड़ पानी में गल गये। मवेशियों की संख्या बदस्तूर हर साल घटती जा रही है। वनस्पतियाँ न रहें, जीव-जन्तु न रहें तो प्राकृतिक रूप से सन्तुलन निश्चित रूप से गड़बड़ा जायेगा। अब वहाँ क्या पैदा होगा-झुलसे हुये पेड़ पौधे और मृतप्रायः जानवर। अब तो बच्चे भी अपंग और निपंग पैदा हो रहे हैं। न केवल आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था असंतुलित है बल्कि प्राकृतिक व्यवस्था भी असंतुलित हो गई है।
हमारे जीने के नैसर्गिक अधिकार को इस बाढ़ ने छीन लिया है जोकि अब प्राकृतिक चीज नहीं है। हिमालय से समुद्र तक के पानी के मार्गों को हम नदी कहते हैं। इन नदियों के किनारे सभ्यतायें विकसित हुई हैं। इन नदियों की हम पूजा करते हैं। जब यातायात का कोई साधन नहीं था तब नदियों का उस रूप में भी उपयोग होता था। नदियों से हमारी बहुत सी जरूरतें पूरी होती थीं। मवेशी पलते थे। खेती होती थी। आज भी बाँध के अन्दर वाले लोग नदी वाले क्षेत्रों में अपनी भैसें चराने के लिये ले आते हैं बैसाख में। 15-20 दिन के अन्दर इन भैंसों का दूध दोगुना हो जाता है। मगर फिर भी एक फसली क्षेत्र हो जाने के कारण अब हमारे पास 8-9 महीने कोई काम नहीं बचता। हर आदमी की कोशिश है कि खेत बेचकर ही सही शहर में एक टुकड़ा जमीन ले लें और बरसात में वहीं चले जायें। इस तरह बाढ़ की मार परोक्ष रूप से शहर पर भी पड़ने लगी है। फिर इतना कर पाने की सामर्थ्य कितने लोगों में है। आज कितने ही लोग ऐसे हैं जिनके बच्चे पढ़ सकते थे, अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकते थे वह घर छोड़कर दिल्ली, पंजाब जाने को मजबूर हो गये। वह अपने परिवार का केवल भरण-पोषण कर सकते हैं। अपने बच्चों को पढ़ा लिखा नहीं सकते।
जल जमाव बढ़ रहा है नदियों को बहने से रोकने के कारण। उनको खोल दीजिये पानी निकल जायेगा। मगर प्रखर चिन्तन करने वाले लोगों की समझ ही दूसरी है। उनकी साजिश है कि इस क्षेत्र के लोगों को रोजी रोटी की जरूरतों से ऊपर उठने ही मत दो क्योंकि अगर वह उठ खड़े हुये तो फिर अपने हक की लड़ाई लड़ेंगे। इसलिये इनको उलझाकर रखो।
दोष हमारा भी है कि हमारे जैसे लोग सब कुछ जानते-समझते हुये भी खामोश बैठे हैं। आगे आने वाली पीढ़ियाँ हमलोगों को भी माफ नहीं करेंगी। स्पष्टवादिता की हमारी एक समृद्ध परम्परा रही है। आज यदि कुछ नेताओं, इंजीनियरों या ठेकेदारों के व्यक्तिगत स्वार्थों के कारण कुछ गलत हो रहा है तो हमें इसके विरोध में खड़ा होना ही पड़ेगा। मछलियाँ पानी में उछलती हैं, कूदती हैं, इठलाती हैं पर बंशी का एक काटा उन्हें पानी के बाहर खींच लेता है। आइये हम सब मिलकर प्रयास करें।
हमारी तकलीफें इतनी बढ़ी-चढ़ी हैं कि किधर से शुरू करें यही समझ में नहीं आता। नदियाँ कोई नई चीज तो नहीं हैं। हमारे आपके जन्म के पहले सदियों से यह अपनी जगह पर हैं। उनमें बाढ़ भी आती थी और फसल भी बर्बाद होती थी। मगर पहले यह एक बार बर्बाद होती थी तो कई बार जबर्दस्त उत्पादन भी होता था। जीवन धारा चलती रहती थी। हमलोगों के होश सम्भालने के पहले ही नदियों को बाँध दिया गया। सब्ज बाग दिखाये गये थे हमें। सम्भव है आजादी के बाद के हमारे देश के कर्णधारों को कुछ कर के यश प्राप्त करने की चिन्ता ज्यादा थी इसलिये उन्होंने सबसे पहले कोसी को बाँधने का काम किया। इंजीनियरों ने पता नहीं इन नेताओं को कोसी या कोई भी नदी बाँधने के परिणाम से आगाह किया या केवल उनकी हाँ में हाँ मिलाई- मेरे लिये कह पाना मुश्किल है मगर कोसी बाँध दी गई और नेताओं की खूब वाहवाही हुई।
हमारी पारम्परिक कथाओं में कोसी और कमला-दोनों नदियों की धाराओं में परिवर्तन की बात आती है। यह नदियाँ सदियों से पूरब और पश्चिम के बीच में घूमती रहती है। मैं इन्हीं दोनों नदियों के दोआब का रहने वाला हूँ और हमारी जमीन दुनियाँ के सबसे उपजाऊ इलाकों में से एक है। इन दोनों नदियों को घेरा गया। स्थानीय लोगों ने नदियों की इस घेराबन्दी का विरोध किया जिसका तत्कालीन सरकार ने संज्ञान ही नहीं लिया और उसके बाद की सरकारों ने भी काई ध्यान नहीं दिया।
कोसी का तटबन्ध चलता है उत्तर-पूरब से शुरू होकर दक्षिण-पश्चिम दिशा में तो दूसरी तरफ कमला बलान का तटबन्ध उत्तर-पश्चिम से शुरू होकर दक्षिण-पूरब की दिशा में आगे बढ़ता है। यह सारा काम हुआ यश और धन कमाने की इच्छा से। आज अगर आप कमला और कोसी तटबन्धों के बीच वाले इलाके में चले जायें और आप के साथ वह इंजीनियर हों जिन्होंने कमला और कोसी के तटबन्धों के निर्माण की योजना बनाई थी और उनका उसी रूप में परिचय कराया जाय तो स्थानीय लोग उनके साथ क्या व्यवहार करेंगे कह पाना मुश्किल है।
कमला का तटबन्ध जयनगर से शुरू होकर दक्षिण-पूर्व दिशा में बढ़ता है। कोसी का तटबन्ध भारदह से शुरू होकर दक्षिण पश्चिम की दिशा में घोंघेपुर की ओर बढ़ता है। निचले इलाकों में इन तटबन्धों के बीच का फासला दो-तीन किलोमीटर तक रह जाता है। अब नेपाल से लेकर कमला और कोसी के बीच के पानी की निकासी के लिये बस इतना ही रास्ता बचता है। इस बीच में कई नदियाँ भी पड़ती है। यह पानी कहाँ जायेगा, इंजीनियर साहब। जब आप कमला और कोसी पर तटबन्ध बना रहे थे तो यह बीच वाला हिस्सा आप को दिखाई नहीं पड़ता था? इस क्षेत्र में क्या समस्यायें पैदा होंगी वह नेताओं को भी नहीं मालूम थीं। तब वह किस बात के इंजीनियर और यह किस बात के नेता।
मैं व्यक्तिगत रूप से ऐसे लोगों को मूर्ख मानता हूँ और अगर उन लोगों को पता था और उन्होंने जानबूझकर यह सब किया तो उन्हें किस नाम से पुकारा जाय? हमलोग उस इलाके के हैं जो कि कमला और कोसी-दोनों के तटबन्धों से सुरक्षित है। हमारी खेती बर्बाद होगी और हमारे मवेशी मरें तो हम क्या करें। कोसी और कमला दोनों नदियों के तटबन्धों के बीच जिन लोगों को फँसाया उनका तो मनुष्य होने का दर्जा ही खत्म हो गया क्योंकि उनको तो आदमी समझा ही नहीं गया मगर जो सुरक्षित थे उनकी क्या गत बनी। हमारी खरीफ की फसल तो अब नहीं ही होती है; रबी की फसल के समय इलाके से पानी निकले तब तो गेहूँ, मूंग या मसूर की फसल हो। यह पानी निकलता ही नहीं है। इस समस्या का निदान सरकार और इंजीनियर क्या सोचते हैं। उन्होंने किस चीज की शिक्षा पाई है और उसका क्या उपयोग है जिस पर हमारा आपका सबका करोड़ों रुपया खर्च हुआ।
पिछले सत्र में कहा गया कि लोग अब तटबन्ध काटने लगे हैं। सही बात है- हमारे यहाँ भी कटता है। सरकार पहले कहती थी कि तटबन्ध में चूहे और गीदड़ छेद कर देते हैं इसलिये तटबन्ध टूट जाता है। फिर कहने लगी कि असामाजिक तत्व तटबन्ध काट देते हैं। हमारे लोग असामाजिक हैं क्या? 1995 में हमारे यहाँ 2-3 जगह तटबन्ध काटा गया था जिसके बाद हमलोगों ने तटबन्धों के खिलाफ प्रखण्ड मुख्यालय पर धरना/प्रदर्शन किया। एस.डी.ओ. साहब आये और कहा कि यह तो बड़ी अजीब बात है, आप तटबन्ध काटेंगे और धरना/प्रदर्शन भी करेंगे। हमलोगों ने पूछा कि आप यह बताइये कि कमला का तटबन्ध किसकी सुरक्षा के लिये बना है? यह कमला नदी के दोनों तटबन्धों के बीच रहने वालों के लिये बना है या बाहर वालों की सुरक्षा के लिये बना है। हमने यह भी पूछा कि आप जाँच कर के बताइये कि तटबन्ध को किसने और क्यों काटा। एस.डी.ओ. साहब तैश में आ गये और बोले कि आप तो पत्रकारों की तरह सवाल करते हैं। कहा कि तटबन्ध को असामाजिक तत्वों ने काटा है।
हमलोगों ने कहा कि असामाजिक तत्वों ने नहीं हमने काटा है और अब आप उन सामाजिक तत्वों को लाकर दिखाइये जिनकी इस तटबन्ध से रक्षा होती है या फिर स्वीकार कीजिये कि आपने कटवाया है।
1954 से अब तक के बीच का घटनाक्रम देखते हुये हमारी जो समझदारी बनती है उसके अनुसार पैसा कमाने का सबसे आसान जरिया मिट्टी का काम है जिनमें किसी की कोई जिम्मेवारी ही नहीं बनती है। तटबन्ध बनाओ, काटो, तोड़ों और फिर बनाओ। यही किस्सा है। कभी-कभी रिलीफ छींट दी। मंत्री, इंजीनियर और ठेकेदार मस्ती करते हैं- लोग मरें या जियें। आप ने बालू की भीत का मुहावरा सुना होगा- हमारे यहाँ आकर देख जाइये सचमुच की बालू की भीत। कमला पर, कोसी पर, गण्डक पर- नाम लीजिये और सब जगह मौजूद है।
जब तक इंजीनियरों की समझ में यह नहीं आयेगा कि जहाँ कमला और कोसी के तटबन्ध शुरू होते हैं वहाँ उनका फासला 100 किलोमीटर के पास है- जहाँ यह समाप्त होते हैं वहाँ उनके बीच की दूरी दो से तीन किलोमीटर है तब यह बीच का पानी कैसे निकलेगा और तब तक हमें कैसे विश्वास होगा कि नेता, इंजीनियर और ठेकेदार जनहित में काम करते हैं। पहले गाँवों में डाका पड़ता था। डकैत आते थे और जो चाहते थे और जिसके यहाँ से चाहते थे ले जाते थे। मगर एक बार डाका डाल देने के बाद 20-25 साल तक फिर नहीं आते थे। यहाँ तो हमारे यहाँ हर साल डाका पड़ता है। अब ठेकेदार समाज सेवक है, इंजीनियर तो पहले भी विद्वान ही थे आगे भी रहेंगे और मंत्री जी का सेवा व्रत किसी से छिपा नहीं है। उन्हें अपने सात पुश्तों की सेवा करनी है और बच्चों को भी नेता बना देना है। वह चाहें या न चाहें, उनमें क्षमता हो या नहीं- कोई फर्क नहीं पड़ता है।
जहाँ कहीं और जब कभी अफसरों और इंजीनियरों ने गलती से ही ग्रामीणों से बात करके कोई योजना बनाई वह कारगर हुई है।
वरना अभी मौसम है उनका बाढ़ नियंत्रण पर काम करने का। बैसाख जेठ में वह काम करेंगे, तटबन्ध मरम्मत करेंगे, सावन भादों में वह फिर धराशायी हो जायेगा। हर साल ढहेगा मगर डिजाइन कभी नहीं बदलेगी। हमारे गाँव के पास पांकी गाँव के पास एक पुल बना पिछली साल, इस साल बह गया। पुल के बगल से पुल की चार गुनी लम्बाई में कटान हुआ। कहाँ गई डिजाइन और कहाँ गई तकनीक? हम गाँव में बांस या लकड़ी का पुल बनाते हैं वह तो तभी टूटता है जब बाँस या लकड़ी गल जाये। एक बार बनाया तो 20-25 साल की फ़ुरसत लेकिन 85 लाख का कंक्रीट पुल एक साल भी नहीं चलता।
पहले पहल जब हमलोगों ने यह प्रश्न उठाना शुरू किया तो इंजीनियर/अफसर डाँट दिया करते थे कि क्या पागलों जैसी बात करते हो। इंजीनियरिंग की कुछ समझ है आपको? अब कहने लगे हैं कि हम तो सरकार के नौकर हैं, सरकार चाहती है कि तटबन्ध बनें या उनको ऊँचा या मजबूत किया जाय तो हमें करना पड़ता है। मंत्रियों से बात कीजिये तो कहते हैं कि हम सरकार तक बात पहुँचा सकते हैं, मगर अकेले सरकार की नीति तो नहीं बदल सकते। वह यह बयान जरूर दे सकते हैं कि सरकार तटबन्ध नहीं बनायेगी। बनायेगी भी कहाँ से- पैसा तो है ही नहीं। इस साल पैसा सरकार को मिल गया है तो इस साल तटबन्ध बनना भी शुरू हो गया है।
तटबन्ध बनाने में नदी का चरित्र, जमीन की बनावट, पानी की मात्रा किसी भी चीज पर ध्यान नहीं है। ध्यान है तो केवल तटबन्ध पर क्योंकि पैसा तो वहाँ है। योजना के नक्शे देख लीजिये, पी.डब्लू.डी.आर.ई.ओ. डिस्ट्रिक्ट बोर्ड तथा जल संसाधन विभाग- सबके अलग-अलग नक्शे हैं। बस पानी की निकासी का नक्शा किसी के पास नहीं है। इन सारी समस्याओं पर हम यहाँ विचार करें और आगे की रणनीति तैयार करें।
मैं अपनी बात दो भागों में रखना चाहूँगा। एक तो बचपन से अब तक का बाढ़ देखने का मेरा अपना अनुभव है। दूसरा यह कि अब किया क्या जा सकता है, उस पर चर्चा करना बड़ा आवश्यक हो जाता है।
मधेपुर के दक्षिण में बहुत सारे गाँव हैं, रहुआ संग्राम, भीठ भगवानपुर, भेजा या रसियारी आदि। इन गाँवों में गर्मी की छुट्टी नहीं होती स्कूलों में। यह सब जुलाई से लेकर सितम्बर तक बन्द रहते हैं। इस इलाके में हर साल बाढ़ आती है और जहाँ-जहाँ जल जमाव होता है वहाँ-वहाँ मलेरिया की आशंका बनी रहती है। कालाजार और हैजा भी इस क्षेत्र में फैलता रहता है। आज से 20-25 साल पहले तक अगर इस इलाके में बाढ़ के समय कोई बीमार पड़ता था तो वह नजदीक के मधेपुर के अस्पताल तक भी नहीं पहुँच पाता था और गाँव में ही मर जाता था।
मिश्र जी ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि जिन इलाकों में बाढ़ आती थी वहाँ की जनसंख्या ज्यादा होती है तो मेरा उनसे आग्रह है कि जरा कोसी क्षेत्र घूमें। मेरे गाँव रहुआ संग्राम में आज से 15 साल पहले हमलोगों के भोज में 18 मन चावल लगता था वह घटकर 5-6 मन रह गया है। इसलिये बाढ़ के कारण हमारे यहाँ आबादी घटी है। इसके अलावा हमारे गाँव में जब भी कोई लोकसभा या विधानसभा का चुनाव का समय आता है तो अधिकांश मतपत्र वापस चले जाते हैं क्योंकि गाँव में बहुत कम लोग बचे हैं। जिनका बाहर कोई आश्रय नहीं है वही लोग अब गाँव में है। इसके अलावा केवल सरकार पर ही सारा दोषारोपण ठीक नहीं है। कुछ हद तक हमलोग खुद भी जिम्मेवार हैं। अब लकड़ी का पुल बनेगा तो लोग उसमें से पटरा खोल कर ले जायेंगे चौकी बनाने के लिये तब वहाँ सरकार क्या कर लेगी? यह सच जरूर है कि हमारे जनप्रतिनिधियों ने इस क्षेत्र के लिये कभी कुछ नहीं किया।
कोसी और कमला के बीच के क्षेत्र को हमारे यहाँ स्थानीय भाषा में थप या थपहर कहते हैं जोकि बहुत ही पिछड़ा हुआ इलाका है। इस क्षेत्र के बारे में विभूति भूषण बन्द्योपाध्याय तथा उधर फणिश्वरनाथ ‘रेणु’ ने बहुत कुछ लिखा है जो कि पठनीय है। जिस जल की हमारे पूर्वज पूजा करते आये हैं वह जल अब हमारे लिये समस्या बन गया है। जो जल हम पीते हैं वह जल है, जिससे पैर धोते हैं वह पानी है, जो बहता है वह सलिल है जो पूज्य है वह आप हैं। ऋगवेद ने अग्नि तत्व, वायु तत्व और जल तत्व में सबसे महान जल तत्व को ही माना है। हमारे पूर्वजों ने जल से ही अपनी रक्षा करने को कहा-यह सम्मान अग्नि या वायु को नहीं दिया गया। हम कभी श्मसान से शवदाह के बाद लौटते हैं तब भी पानी से ही प्रार्थना करते हैं कि हे जल! हममें जो दूषित तत्व हैं उससे हमें मुक्त करो।
पानी को देखते हुए लगता है कि यह क्षेत्र बहुत समृद्ध होना चाहिये। मगर यहाँ की गरीबी और फटेहाली ने यहाँ से लोगों को उजाड़ दिया। आप किसी भी बड़े शहर में जायेंगे तो मिथिला के लोग मिलेंगे-मगर उसी फटेहाली में जीते हुये।
शतपथ ब्राह्मण में मिथिला शब्द का शायद पहली बार प्रयोग हुआ है और वहाँ भी मिथिला में प्लावन का वर्णन हुआ है अतः बाढ़ इस क्षेत्र के लिये कोई नई चीज नहीं है। मगर उस समय उसे बुरा नहीं माना जाता था। धर्मग्रंथों में किसी भी क्षेत्र को दो भागों में बाँटा गया था। एक था नदी मातृक क्षेत्र जहाँ कि किसान अपनी खेती के लिये नदी और उसके पानी का उपयोग करते थे और दूसरा देव मातृक जोकि वर्षा पर आधारित था। तीर भुक्ति या तिरहुत को नदी मातृक क्षेत्र माना जाता था। बाढ़ अगर विभीषिका रहती तो कहीं न कहीं उसका उस रूप में वर्णन अवश्य मिलता।
दरभंगा में हर साल बाढ़ आती है। मैं वैज्ञानिक या इंजीनियर तो नहीं हूँ मगर जितना अध्ययन मेरा है उसके हिसाब से मैं पूरी तरह सरकार को दोषी नहीं मानता। इसके लिये पर्यावरण में गिरावट भी दोषी है। अलग-अलग स्थानों पर बाढ़ के अलग-अलग कारण हो सकते हैं। अभी उड़ीसा में बाढ़ चक्रवात के कारण आई थी। यहाँ की बाढ़ का दूसरा ही स्वरूप है। 1987 की बाढ़ के बाद इस क्षेत्र में बड़ी तेजी से चर्म रोग का विस्तार हुआ है- यह हिमालय में पर्यावरणीय छेड़छाड़ का भी नतीजा हो सकता है।
मैं गण्डक और बूढ़ी गण्डक के क्षेत्र से आया हूँ। आज से 50-55 वर्ष पूर्व हम अपने बचपन में इन नदियों की बाढ़ देखने जाया करते थे। बाढ़ कभी घुटने के ऊपर नहीं चढ़ती थी। पानी दो तीन दिन से ज्यादा कभी रुकता नहीं था। बस आया और गया। खेत में नयी मिट्टी पड़ जाती थी। चौरों में भी मिट्टी पड़ती थी और जमीन की उर्वरा शक्ति खूब बढ़ जाती थी। धान खूब होता था। गहरे पानी के खेतों में बोये जाने वाले धान की अलग किस्म थी। आज बाढ़ का स्वरूप भयावह हो गया है। पिछले चार-पाँच वर्षों में कई गाँव कट गये हैं। बहुत पुराने गाँव विलीन हो गये। धनी परिवार तो शहर चले गये पर कम जमीन वालों की हालत खराब हो रही है। उन्हें जैसे भी हो अपनी व्यवस्था करनी पड़ रही है। पलायन बढ़ रहा है। शोषण की पकड़ समाज पर मजबूत हो रही है।
चम्पारण के बारे में कभी मशहूर था कि ‘‘ऐसन देस मजउआ-जहाँ भात नू पूछे कौआ’’। कोई नौकरी नहीं खोजता था चम्पारण में पर आज वही लोग बाहर काम खोजने जाते हैं। जल जमाव के कारण धान घट रहा है और गन्ना धीरे-धीरे बढ़ रहा है। मगर चीनी की मिलें बन्द हैं अतः अब क्रशर की मदद से गुड़ बनता है जिसे नेपाल में जाकर लोग बेच देते हैं। गन्ने के खेत अपराधकर्मियों के आश्रयस्थल बन गये हैं। लूटपाट और अपहरण अब उद्योग बन रहा है। कुछ संस्थायें इन कुरीतियों के खिलाफ अब खड़ी हो रही हैं।
बाढ़ का जो स्वरूप चम्पारण में बदला है उसमें कुछ बाढ़ तो अब हिमालय में बर्फ पिघलने के साथ ही शुरू हो जाती है। फिर उसके बाद के समय में हल्की-फुल्की बाढ़ों को सरेही बाढ़ कहते हैं जिसका पानी निचले खेतों में फैलता है। फिर बड़ी बाढ़ तो है ही। हमारा मानना है कि बाढ़ रोकने में तटबन्ध तो विफल रहे हैं- यह तो हमलोगों ने देख लिया। अब जो नेपाल में बड़े बाँधों की बात चल रही है उससे भी कुछ भला होगा या नहीं, कह पाना कठिन है। हमें बाढ़ को सहने की आदत बनानी होगी। बड़े बाँध गाँव के शोषण की योजना हैं। इससे शहरों को ही फायदा होगा गाँव को नहीं। इस प्रश्न को नेताओं के साथ उठाना चाहिये। हमें जल-निकासी पर जोर देना चाहिये और गंगा के माध्यम से समुद्र तक पानी को जल्दी पहुँचाने की व्यवस्था करें। विद्युत उत्पादन के तमाम विकल्पों को हमको खोजना पड़ेगा। गाँवों में ऊँचे प्लेटफार्म बन सके तो भी काफी लोगों और मवेशियों का बचाव हो सकेगा।
हमलोगों के लिये यह अप्रैल/मई का महीना बड़ा व्यस्त होता है क्योंकि इसी महीने में हम कुछ काट सकने की स्थिति में होते हैं, हमारे हाथ में हंसुआ होता है। जून में थोड़ी फुरसत मिलेगी तब इस साल बाढ़ के पहले एक सम्मेलन करेंगे अपने गाँव में। हमलोग जब बच्चे थे तो हमारे बाबा केवल पुआल बेचकर हाथी खरीदने की हैसियत रखते थे, हमलोग पैदल नहीं चलते थे। इतनी उपज होती थी हमारे यहाँ। हरिहर क्षेत्र का मेला जाते समय ट्रेन और घोड़े का मुकाबला होता था और घोड़ा जीतता था। खेत कभी भी खाली नहीं रहता था। अतिथि के आने पर कष्ट नहीं होता था और जानवरों को भी अनाज खिला देने में संकोच नहीं होता था। आज हम भूसा खरीदते हैं। तीन साल पहले मैंने 8,500 रुपये में बैल खरीदा था तो आस पड़ोस के लोग कहते हैं कि अब यहाँ से तो यह बैल कसाई के यहाँ ही जायेगा।
हमारी बाढ़ तो एकदम बनावटी है। सुरमार से हायाघाट तक तीन छोटी नदियाँ बहती हैं। 1957 की बात है। महेश बाबू मंत्री थे। उन्होंने बाढ़ से बचाव के लिये नदियों को बाँधने की बात उठाई और आपको आश्चर्य होगा भोगेन्द्र झा ने उसका विरोध किया था। आज भले ही भोगेन्द्र जी बड़े बाँध की बात करते हों पर उस समय वही विरोध में खड़े थे पर महेश बाबू का प्रभाव अधिक था। लोग उनके पीछे खड़े हो गये और तटबन्ध बन गया। आज एक ही छप्पर पर-छत पर नहीं-तीन पीढ़ी के लोग एक साथ बरसात में रहते हैं- वहीं खाना भी होता है और उसी छप्पर पर पखाना भी जाना पड़ता है सबको। हमारी स्थिति तो यह है कि या तो आत्महत्या कर लें या फिर इन सारे तटबन्धों को तोड़ डालें। यह तटबन्ध हमारी तबाही का सबसे बड़ा कारण है।
हमारे घर कोई मेहमान अब आता है तो उसके लिये खाने पीने का सामान लाने के लिये हम पहले किसी आदमी को दुकान भेजते हैं तब कहीं उसको नाश्ता करवा पाते हैं। बीस बीघे खेत के मालिक के बच्चे दिल्ली में ईंट ढो रहे हैं। हायाघाट से मुक्तापुर के बीच आठ बड़े-बड़े रेल पुल बने हुये हैं। कहीं कोई समस्या ही नहीं है, बाँध काट दो पानी सब निकल जायेगा। बाढ़ से हमलोगों को कोई परेशानी ही नहीं थी। आप क्यों आ गये बाढ़ का नियंत्रण करने के लिये। कहते हैं कि समस्तीपुर बह जायेगा। अब इस पागलपन का कोई इलाज है। पिछले साल मैट्रिक की परीक्षा में जहाँ 21 लड़के फेल हुये तो परीक्षा का कानून बदल गया और 35 आदमी बाढ़ में डूब कर मर गये तो कुछ हुआ ही नहीं।
हमलोग बाँध हटाने की बात करते हैं तो इंजीनियर लोग कहते हैं कि क्यों आप बाँध के पीछे पड़े हैं? अरे! रिलीफ की व्यवस्था कर दी जायेगी और आपलोगों को कोई परेशानी नहीं होगी। हमारी जो समझ आज तक बन पाई है उसके अनुसार 90 फीसदी बाँध इंजीनियरों द्वारा लूटपाट को ध्यान में रखकर बनाये गये हैं और बाकी 10 फीसदी उनकी अज्ञानता की वजह से। बिस्फी के पश्चिम लालपुर टोला के पास बागमती का मुँह बन्द हो गया है तो सारा पानी घूम कर दरभंगा में घुस जाता है। बरसात के बाद नदी के निचले हिस्से में पानी नहीं रहता है। थोड़ा सा काम है। सब से कह के देख लिया, कोई कुछ नहीं करता है। यहाँ शान्ति नहीं है, घोघराहा धार और पंचफुटा धार है उसकी धार खोल दीजिये, पानी निकल जायेगा। सरकार तो चाहे जो कुछ भी हो भाषा केवल आन्दोलन की ही समझती है।
आपलोग हमारे साथ खड़े होइये बाकी काम हमलोग कर लेंगे। हमारे प्रतिनिधि जो चुनकर गये वह वापस हाल नहीं पूछने आये। हमलोग संघर्ष करेंगे, आप भी मदद कीजिये।
हमलोगों ने जब दरभंगा में कार्यक्रम तय किया था तब उसके पीछे उमेश जी के क्षेत्र की परेशानियाँ हमारे दिमाग में थीं। आज से दो साल पहले हमारे एक परिचित यहाँ बिहार की बाढ़ पर फिल्म बनाने के लिये आये थे। उनको हमलोगों ने जठमलपुर की ओर ले जाने का प्रयास किया। रास्ते में डिहलाही के पास सड़क पर से होकर पानी गुजर रहा था। रास्ता बन्द था और आगे जा नहीं सकते थे। फिर भी हमलोग जहाँ से पानी सड़क पर होकर गुजर रहा था वहाँ तक गये। वहाँ का दृश्य और भी हृदय विदारक था। एक आदमी की चिता सजाई जा रही थी सड़क पर। जो फिल्मकार थे अरविन्द जी, वह यह दृश्य देखकर फूट-फूट कर रोने लगे कि उसे श्मशान भी नसीब नहीं। जैसे-तैसे उनको शान्त किया गया। उन्होंने कुछ शॉट लिये और हमलोगों ने लोगों से बातचीत की। लोगों का कहना था कि घोघराहा, शान्ति और पंचफुटा धार का मुँह खोल दीजिये हमारी समस्या का समाधान हो जायेगा। हमको रिलीफ नहीं चाहिये, धार का मुँह खोलकर हमको जगह बता दीजिये, अगली साल वहाँ रिलीफ हम बाँटेंगे। यह वही समय था जब दो बड़े नेता क्रमशः दरभंगा और सीतामढ़ी में बराह क्षेत्र नुनथर और शीसापानी बाँधों के समर्थन में धरने पर बैठे थे। नेताओं और आम जनता की दूरी अब इस कदर बढ़ गई है।
आप के संघर्ष में हम साथ देने का वायदा करते हैं।
हमलोग पुराने सारण जिले में हैं जोकि तीन तरफ से -पूर्व में गण्डक, पश्चिम में घाघरा तथा दक्षिण में गंगा और उन पर बने तटबन्धों के बीच घिरे हुये हैं। नदियों से घिरे इस क्षेत्र में बहुत से चौर हैं जिनका आकार समय के साथ बढ़ता जा रहा है। इन्हीं में से एक हरदिया चौर है जिसकी लम्बाई अब 24 किलोमीटर तथा चौड़ाई 6 किलोमीटर हो गई है। पानी की निकासी के रास्ते बन्द हैं। हमलोगों के इलाके में वर्षा का पानी अगर इकट्ठा हो जाता है तो जाता नहीं है जिसके कारण आम और शीशम के पेड़ अब मरने लगे हैं।
गण्डक नहरों से हमलोगों को बहुत आशायें थीं कि हमारे क्षेत्र में खुशहाली आयेगी। इन नहरों में पानी नहीं आता। अगर कभी आया तो आस-पास की जमीन को दलदल बना देता है। पानी के दबाव में अगर नहर कहीं टूट गई तब और भी ज्यादा मुसीबत पैदा हो जाती है। सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है कि इन नहरों के कारण पानी की सहज निकासी में बाधा पड़ी है और इससे भी जल जमाव बढ़ता है।
1987 की जो प्रलयंकारी बाढ़ बिहार में आई थी मैं तब से बाढ़ को बड़े नजदीक से देख रहा हूँ। हायाघाट के पश्चिम तथा पटौरी तक इस साल 12 लोग बाढ़ में मरे हैं और मैं उसी क्षेत्र का रहने वाला हूँ। बाढ़ के कुप्रबंधन का परिणाम है कि हमारी सड़कें, स्कूल, अस्पताल, स्वास्थ्य केन्द्र , सार्वजनिक भवन आदि सब समाप्त हो गये हैं। कहाँ इनमें सुधार और वृद्धि होती यहाँ तो जो है वह भी जा रहा है। ग्रामीणों के घर तो गिरते ही हैं और जो नदी के किनारे वाले लोग हैं वह नदी के बीच पहुँचते जा रहे हैं। जिन गाँवों से देश की समृद्धि का अन्दाजा लगता था वह गाँव अब वीरान हो गया है, उजड़ गया। मजदूर पलायन कर गये हैं। शहरों में भी उनकी स्थिति अच्छी नहीं है।
हायाघाट की जो स्थिति है वह तो इंजीनियरों और नेताओं के दिमागी दिवालियापन की जीती जागती मिसाल है। बागमती के दाहिने किनारे पर सुरमार हाट से हायाघाट तक 25 किलोमीटर लम्बा तटबन्ध बनाया गया है। उत्तर में कमला-बलान आदि नदियाँ आती हैं, उन पर भी तटबन्ध बना हुआ है पर हायाघाट में सब को खुला छोड़ा हुआ है। हमारी नदियाँ अन्य जगहों की तरह अकेली धारा में नहीं बहतीं। यह तो समूह है नदियों का। अब सिरहा (नेपाल) से जो भी पानी चलता है वह सब का सब बहता हुआ हायाघाट आ जाता है। यदि रास्ते के सारे पुलों की चौड़ाई नापें तो 2000 फुट की आस पास आयेगी। इतने पानी को हायाघाट से 200 चौड़े पुल से गुजरने को बाध्य किया जाता है। यह कैसे सम्भव हो सकेगा। हायाघाट का ही जलग्रहण क्षेत्र 6,200 वर्ग किलोमीटर है। इस साल केवल हायाघाट में 35 लोग नौका दुर्घटना में मरे। पानी घरों में घुसा रहता है। 4-5 महीने तक निकलते ही नहीं बनता। नाव की व्यवस्था नहीं है। आदमी जानवर बीमार पड़े तो फिर मृत्यु की ही प्रतीक्षा रहती है।
प्रशासन की नींद तोड़ने का हमलोग हर सम्भव प्रयास करते हैं। इस साल भी 36 घंटे के लिये कमिश्नर के यहाँ अनशन पर बैठे कि आप बाढ़ का स्थाई समाधान कीजिये या फिर 1987 में हमलोगों को जेल में ठूँसकर सरकार ने हम से जो समझौता किया था उसे लागू कीजिये। मगर प्रशासन सुनने को तैयार नहीं है।
हमें अपनी समस्या का स्थायी समाधान चाहिये। अगर यह बाँध बनाने से हो सके तो वह किया जाय। मगर जब तक यह स्थायी समाधान नहीं हो पाता है तब तक अस्थाई समाधान हो ताकि हम अपनी कृषि को जिन्दा रख सकें और हमारी सारी नागरिक सुविधायें बहाल रहें। हायाघाट के पश्चिम में ऐसे गाँव हैं जहाँ से लहेरियासराय आने के लिये 20-25 किलोमीटर पैदल चलने के अलावा कोई चारा नहीं है। आइये हमलोग मिलकर संघर्ष को आगे बढ़ायें।
मैं कार्यकर्ता और भुक्त भोगी हूँ। राजनीति से बढ़कर असरदार जादू आज तक कोई और नहीं हुआ है। हमारे जीने के हक का प्रश्न है, मानवाधिकार का प्रश्न। आपकी नदियों के किनारे बालू की भीत बना दी जाय- यह कौन तय करता है। इन दिवारों पर पेड़ लगा कर उन्हें काट दिया जाय, यह कौन तय करता है। अब तो चुनाव कहीं पाँच साल बाद होता है लेकिन अब तो यह हर साल होता है। हम जिसे चुनकर भेजते हैं उसका तो हर दिन होली और हर रात दिवाली होती है। यहाँ से जाने के बाद वह हमें भूल जाता है। जो आपकी बात नहीं करता है उसे रोक दीजिये।
बाढ़ के समय हमारे यहाँ शौच पानी में करते हैं। यह बाहर वाले नहीं जानते। भुक्त भोगियों की एक सेना तैयार कीजिये जोकि रिलीफ की गड़बड़ी से लेकर बचाव आदि के ऊपर काम करे। सरकार में अगर इंजीनियर, डाॅक्टर या वकील आदि हैं तो जनता के बीच भी तो इस तरह के लोग हैं। हमारे यहाँ तो सरकार से अधिक विभिन्नता के लोग हैं। हम अपनी योजना बनायें और सरकार को मजबूर करें कि वह उस पर काम करे।
उमेश राय जी जून में सम्मेलन करने को कह रहे हैं तो इस सम्मेलन को उसकी तैयारी के रूप में लिया जाय और इस बार बाढ़ से पहले एक कार्यक्रम किया जाय और हम सबलोग सहयेाग करेंगे।
मौलिक प्रश्न है कि जिस दिन से कोसी का तटबंध निर्माण हुआ उसका प्रभाव हमारे ऊपर क्या पड़ा। बाल्यावस्था में गाँव से स्कूली शिक्षा पास करने के उपरांत क्लास छह में सन 1952 में मैने अपना नामांकन कराया। उस समय मधेपुर कॉलेज की व्यवस्था थी। यह एक बड़ी समस्या शुरू से ही थी कि जो लोग कोसी क्षेत्र से आते हैं मधेपुर से कैसे आ जा सकते थे। नजदीक के स्कूलों में तो लोग पैदल भी आ जा सकते थे। उस समय मैंने सुना कि कोसी पर तटबन्ध का निर्माण होने वाला है। उस समय इस क्षेत्र के लोग जब गंगा स्नान के लिये पैदल जाते थे तो रास्ते में हमारे ही गाँव से गुजरना पड़ता था। इसी क्षेत्र में अमरनाथ जैसे ही एक शिव जो कि अजन्मा थे, का मंदिर था जिसे लोग कोसी के काका कहकर पुकारते थे। कोसी के काका की पूजा अर्चना और सेवा भाव से सभी लोग सुरक्षित थे।
इस बीच स्कूल से आते-जाते वक्त हमने चाचा से सुना कि तटबंध का निर्माण होने वाला है और राजेन्द्र बाबू इसका उद्घाटन करेंगे। तब लोगों ने जानना चाहा कि तटबन्ध क्या है। तब किसी का कहना था कि कोसी की जितनी धारा है उसे समेट कर इस स्थान पर समा दिया जाएगा। जगतजननी सीता का जन्म, जनक द्वारा हल जोतने के बाद इस स्थान पर क्यों हुआ? इस पवित्र जमीन पर ऐसा निर्माण क्यों हो रहा है। यहाँ पर धान चावल की खेती हमारे वंशज करते आए हैं। पर यहाँ तटबंध का निर्माण अनुकूल नहीं है। यह तो काल को नियंत्रण करने वाली जैसी बात हुई। हमलोगों का कहना था कि चाहे वो राजेन्द्र बाबू हों या गुलजारी लाल नंदा- ऐसी योजना क्यों बनाई गई। हमलोग इसे नहीं बनने देंगे। राजनीति और तकनीकी अवधारणाओं की सलाह पर अधवारा समूह की नदियाँ, गंडक, बाया आदि का तट बाँध कर जल जमाव जैसी समस्या को निमंत्रण दिया। पहले तो हर साल हमारे क्षेत्र में सर्वे हुआ करता था। बराह क्षेत्र से अंतिम क्षेत्र तक जहाँ पानी गंगा में समाहित होता है; का स्तर कितना है।
हिमालय भुरभुरी मिट्टी का ढेर सा है। सर्वेयर की आपसी गठजोड़ से 1960-62 तक सर्वे कार्य चला और हमारे यहाँ तटबन्ध बन गया। अब देखते हैं कि करीब 80 प्रतिशत खर्च व्यवस्था पर और 20 प्रतिशत योजना पर हुआ- यह क्यों? आज उसके प्रतिफल में 12-14 फीट बालू जमाव हुआ। अधवारा समूह की नदियाँ कोसी, बलान, दरभंगा से खगड़िया तक गाद के जमा होने से इस ओर समुद्र का रूप ले चुकी है। इसका एक कारण मानसी-सहरसा रेलवे लाइन भी है। एक तरफ हिमालय की चोटी और दूसरी ओर गंगा के बीच की सीमा के मध्य मिथलांचल पड़ता है। अब हम और ज्यादा भुलावे में नहीं आयेंगे और बाँध का विरोध करेंगे।
बाढ़ के सवाल पर इस तरह की कोई मीटिंग, बाढ़ मुक्ति अभियान दरभंगा शहर में पहली बार कर रहा है। इस मीटिंग में बहुत से नये लोग शामिल हो रहे हैं जो कि एक शुभ संकेत है। कॉलेज, विश्वविद्यालय के अध्यापकों तथा छात्र छात्राओं को यहाँ देख कर विशेष रूप से खुशी होती है।
उत्तर बिहार की बाढ़ की समस्या पर जब हम विचार करने बैठते हैं तो घाघरा से लेकर महानन्दा तक प्रभाव के तौर पर लगभग एक जैसी स्थिति है। आप यदि आँख बंद करके वक्ताओं की बात सुनें तो सब की समस्या एक लगती है केवल नामों में अंतर आता है।
मैं एक घटना सुनाता हूँ। सीवान जिले के रघुनाथपुर प्रखण्ड में एक अमवारी चौर है। काफी समृद्ध और खुशहाल इलाका था यह कभी। सत्तर के दशक में यहाँ गण्डक नहरों का निर्माण हुआ। स्थानीय नहर और उसकी एक शाखा नहर ने तीन तरफ से इस चौर और उसके किनारे के गाँवों को घेर लिया। नतीजा यह हुआ कि इस इलाके के पानी की निकासी का रास्ता लगभग बन्द हो गया। उस पर यदि कभी दोनों में से कोई नहर टूट जाय तब तो कोढ़ में खाज निकल आयेगी। इसी नहर पर रघुनाथपुर से अन्दर जाने वाले रास्ते पर एक आदमी से मुलाकात होती है। वह कुछ भैंसों को चरा रहा था। बातचीत के दौरान उसने बताया कि 1971 में धान की कटाई के बाद नौकरी खोजने बोकारो चला गया था और तीन-चार साल बाद लौट कर वापस अपने गाँव आ गया क्योंकि बोकारो में उसे नौकरी मिली नहीं। जब मैंने पूछा कि उसकी शिक्षा कहाँ तक हुई है तो वह गंभीर हो गया और बोला कि जिस शिक्षा को हासिल करके नौकरी न मिले वह चाहे चौथी कक्षा तक हो या पी.एच.डी. तक की हो-क्या फर्क पड़ता है। बात चीत आगे बढ़ी तो मैंने पूछा कि उसके पास कितना खेत है? उत्तर फिर वही कि जिस खेत से किसी का पेट न भरे वह चाहे दो बिस्वा हो या बीस एकड़ हो-सब बराबर है। उसका सारा खेत गण्डक नहर की भेंट चढ़ गया। उसने बताया कि बोकारो जाने के पहले जो उसने धान की फसल काटी थी वह उसकी आखिरी फसल थीं उसके बाद कभी धान काटने की रोजी नहीं हुई। वह भैंसे भी जो वह आदमी चरा रहा था वह किसी दूसरे की थी, उसकी नहीं।
यह आदमी केवल घाघरा के किनारे या रघुनाथपुर प्रखण्ड में ही नहीं रहता। आज उत्तर बिहार में किसी भी जगह और किसी भी नदी के किनारे ऐसे आदमी को आप पायेंगे जो कि अपने बाप दादों की बात करने और अपने उन्मुक्त बचपन के बारे में बात करेगा और फिर अपनी मजबूरी और बदहाली के किस्से आपको सुनायेगा। ऐसे आदमी या समाज के संसाधनों के साथ जरूर कहीं न कहीं और किसी न किसी ने अनाचार किया है। यह सारा काम नदियों को नियंत्रित करने के नाम पर हुआ ताकि बाढ़ खत्म की जा सके और खेतों को सींचा जा सके। मगर न तो बाढ़ खत्म हुई और न खेत सींचे गये।
श्री रमेश झा ने पानी को पूज्य बताया। जीवन का आधार पानी है। नदियाँ मातृ स्वरूपा हैं। गंगा का सम्बोधन ही ‘‘मैया’’ है और जब किसी को नदी का नाम याद नहीं आता तो वह उसे गंगा कह कर काम चला लेता है। वहीं दूसरी तरफ दामोदर बंगाल का शोक है, कोसी बिहार का शोक है। मातायें किसी का शोक कैसे हो जाती है। यह शोक शब्द अंग्रेजों का दिया हुआ है। वह तो भारत में आये ही थे पैसा बनाने के लिये। जब वह दामोदर के किनारे खड़े होते थे लगान वसूल करने के लिये तो नदी का व्यवहार ही उनके समझ में नहीं आता था और न ही वह दामोदर की बाढ़ का अर्थ लगा पाते थे। उन्हें इतना लगता था कि जिस तरह की परेशानी दामोदर से होती थी उसको देखते हुये उस इलाके में लगान वसूली उचित नहीं होगी और क्योंकि वह लोग लगान वसूल नहीं कर पाते थे इसलिये दामोदर को बंगाल का शोक कहते थे। यही बात कोसी के साथ भी रही होगी।
तब यह मातृ शक्ति एक शोक शक्ति में कैसे बदल जाती है- इसे समझना होगा। अंग्रेजों ने वर्षा का मौसम नहीं देखा था, उनके यहाँ पानी लगभग पूरे साल बरसता है।
बाढ़ का जो रूप हमारे यहाँ होता है वह उससे भी वाकिफ नहीं थे। उसके ऊपर से उनकी हर चीज पर विजय पा लेने की जिद उन्हें नदियों को छेंकने और नियंत्रित करने के मुकाम पर ले आई। अपने शासन काल के शुरू के वर्षों में यह काम उन्होंने प्राथमिकता के स्तर पर किया और मुँह की खाते गये। उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में जब उन्होंने दामोदर पर हाथ लगाया और बुरी तरह नाकाम रहे तब उन्होंने नदियों को नियंत्रित न करने की कसम खाई जिसे उन्होंने तब तक निभाया जब तक वह भारत में रहे। दामोदर के तटबन्धों को उन्होंने बिना कोई प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाये 1850 के दशक में तोड़ कर समाप्त कर दिया। उनकी एक मजबूरी और थी कि नदियों के किनारे तटबन्ध बना देने के बाद भी अगर वह बाढ़ से सुरक्षा नहीं दे पायें तो उन पर राहत कार्य चलाने के लिये दबाव पड़ता था। यह खर्च उन पर भारी पड़ता था अतः उन्होंने तटबन्धों से किनारा कर लिया और राहत कार्यों से भी अपने को बचा लिया।
अंग्रेजों के चले जाने के बाद बाढ़ से निपटने का जिम्मा भूरे इंजीनियरों पर आ गया। उधर नई सरकार पर भी दबाव था कि वह कुछ करती हुयी दिखाई पड़े जिससे जनता को लगे कि हमारी अपनी सरकार कुछ कर रही है। 1953 में सहरसा में बाढ़ आई तो यह मसला भी हल हो गया। लोगों को बाढ़ से सुरक्षा देनी थी और तुरन्त देनी थी जिसके लिये नदियों के दोनों किनारों पर तटबन्ध बनाने के अलावा कोई चारा नहीं था क्योंकि तुरन्त तो यही काम किया जा सकता था। यह कुछ इसी तरह है कि अगर कोई किरायेदार मकान खाली न करता हो और मकान खाली करवाने की सारी कोशिशें कर लेने के बाद गुण्डों से सम्पर्क किया जाय। नदियों के किनारे तटबन्ध कुछ इसी तरह के गुण्डे हैं। किरायेदार तो नहीं रहा पर उसकी जगह गुण्डा बैठ गया।
प्राकृतिक बाढ़ की जगह अब अप्राकृतिक और मानव निर्मित बाढ़ ने ले ली। अब बाढ़ के साथ जल जमाव, नदियों के तल का ऊपर उठना, स्लुइस गेट का काम न करना तथा तटबन्धों का टूटना और कभी-कभी परेशान होकर ग्रामवासियों द्वारा खुद काटा जाना आदि सब भोगना पड़ता है। अब अगर इस गुण्डे से फुर्सत पानी है तो उससे बड़ा गुंडा खोजकर लाना होगा। हमारी सरकार ने यह गुण्डा खोज भी रखा है वह है कोसी पर प्रस्तावित बराह क्षेत्र बाँध और उस जैसे अन्य 29 बाँध जो कि नेपाल में बनेंगे। यह बाँध शायद सब कुछ कर सकते हैं- बिजली पैदा कर सकते हैं, सिंचाई दे सकते हैं मगर बाढ़ नहीं रोक सकते। यह सारा विवरण ‘‘बाढ़ तो फिर भी आयेगी’’ नाम की पुस्तिका में दिया गया है इसलिये उसके विस्तार में हम नहीं जायेंगे।
बराह क्षेत्र बाँध सरकारी तौर पर पहली बार 1947 में प्रस्तावित किया गया था। यह आज भी प्रस्तावित ही है। इस बीच 53 साल गुजर गये। कब बनेगा यह बाँध। कुछ दिन पहले मेरी केन्द्रीय जल संसाधन मंत्री से मुलाकात हुई थी और यही बात मैंने उनसे पूछी- कब बनेगा यह बाँध और उनका वही पुराना जवाब था कि वार्ता जारी है। हमने उनसे कहा कि किसी भी समस्या के तकनीकी समाधान खोजने के लिये इंजीनियरों को बहुत सी शर्तों, परिस्थितियों और बन्धनों को स्वीकार करना पड़ता है। क्या इंजीनियरों से यह नहीं कहा जा सकता कि जिस बाँध को बनाने का वह प्रस्ताव कर रहे हैं या जिस जगह उन्हें समस्या का समाधान दिखाई देता है वह जगह भारत में है ही नहीं- यह एक और शर्त है और अब खोजो बाढ़ समस्या का समाधान। तब देखिये इंजीनियर लोग क्या जवाब देते हैं। तब शायद वह भी स्थानीय रूप से बाढ़ से निपटने की बात करेंगे, आपदा-प्रबंधन की बात करेंगे, तटबन्धों को हटा देने की बात करेंगे और जल-निकासी की बात करेंगे। बराह क्षेत्र बाँध के बारे में बात करते रहना इंजीनियरों तथा राजनीतिज्ञों के अनुकूल बैठता है जिससे वह अपनी अकर्मण्यता पर परदा डाल सकते हैं।
बराह क्षेत्र बाँध एक ऐसा छींका है जिसके टूट कर गिरने के इंतजार में हमारे सारे राजनीतिज्ञ, पूरा अमला तंत्र, पूरा तकनीकी समुदाय टकटकी लगाये बैठा है। यह लोग यह भी अपेक्षा रखते हैं कि बाढ़ प्रभावित जनता भी उन्हीं की तरह ध्यान लगाये। अन्तर केवल इतना है कि राजनीतिज्ञों, प्रशासकों या इंजीनियरों पर बाढ़ का असर नहीं पड़ता और अगर पड़ता भी है तो उन्हें लाभ ही होता है, नुकसान नहीं। नुकसान तो लोग भुगतते हैं और फिर भी कोई यह नहीं पूछता कि अभी और कितने साल वार्ता चलेगी और जब तक यह वार्ता चलेगी या बाँध बनेगा तब तक के लिये कोई योजना सरकार के पास है क्या?
हमने मंत्री जी को सुझाव दिया कि आप उत्तर बिहार में कोई 5-10 गाँव चुन लीजिये और उनके पानी की निकासी की व्यवस्था करवा दीजिये। पानी निकल जायेगा तो उस पर रबी की खेती शुरू हो जायेगी और अगली फसल से उस पर सम्भव है, खरीफ की खेती भी होने लगेगी। इतना करने के लिये न तो आपको नेपाल से आज्ञा लेनी पड़ेगी और न ही बांग्लादेश को सूचित करना पड़ेगा। यह काम आप अपनी जमीन पर अपने संसाधन से बिना किसी दूसरे तीसरे को शामिल किये बड़े आराम से कर सकते हैं। अगर यह प्रयोग सफल होता है तो इसको विस्तृत किया जाय। इस हालत में कम से कम बाढ़ नियंत्रण के लिये बराह क्षेत्र बाँध नहीं बनाना पड़ेगा।
बिहार सरकार के जल संसाधन विभाग की रिपोर्टों में हर साल यह बात कही जा रही है कि बिहार के 9 लाख हेक्टेयर जमीन पर जल जमाव है जिसमें से 8 लाख हेक्टेयर जमीन तो केवल उत्तर बिहार में पानी में फँसी है। इतनी सूचना दे देने के बाद विभाग उन योजनाओं के बारे में जानकारी देता है जो कि 1985 के बाद से योजना आयोग, केन्द्रीय जल आयोग और वित्त मंत्रालय में ठोकरें खा रही हैं। यह योजनायें अरबों रूपये की हैं और जमीन पर धेले पर का भी काम नहीं है। विभाग के इंजीनियर पुरानी योजनाओं का नया एस्टीमेट बना देने से ही अपनी उपयोगिता बनाये रखते हैं।
सरकार अपने ही आंकड़ों का कभी विश्लेषण नहीं करती। 8 लाख हेक्टेयर जमीन का जल जमाव में फँसे होने का मतलब है कि उत्तर-बिहार की लगभग 15 प्रतिशत खेती लायक जमीन पर उपज नहीं होती। यदि इतना ही प्रतिशत प्रभावित जनता का हो तो केवल जल-जमाव के कारण कम से कम 60 लाख लोगों की रोजी-रोटी पर आफत है। जुलाई के महीने में जब जल संसाधन विभाग/राहत पुनर्वास विभाग बाढ़ से प्रभावित जनसंख्या का आंकड़ा देते हैं तो यह गिनती 10 लाख के आस-पास से शुरू होती है। सच यह है कि 60 लाख लोग तो पानी की एक बूँद बरसे बिना ही पानी में हैं फिर यह 10 लाख लोग कौन हैं। यह गिनती तो 60 लाख के ऊपर शुरू होनी चाहिये।
अब इस समस्या का समाधान श्रमजीवी एक्सप्रेस, श्रमशक्ति या जन सेवा एक्सप्रेस के चलाने से तो नहीं हो सकता और न ही उनमें अनारक्षित डिब्बों की संख्या बढ़ाने से हो सकता है ताकि ज्यादा से ज्यादा बेरोजगार मजदूर दिल्ली/पंजाब जा सकें। अभी कुछ दिन पहले दरभंगा से एक मिलेनियम एक्सप्रेस शुरू हुई है जिसमें दो ब्रेकवान डिब्बे हैं और बाकी 16 बिना रिजर्वेशन वाले डिब्बे हैं। यह नई रेल सेवा किसके फायदे के लिये शुरू की गई है- पंजाब के किसानों के लिये या बिहार के मजदूरों के लिये? नई रेलगाड़ियों का चलना बहुत अच्छी बात है लेकिन देश के बाहरी हिस्सों में क्या संदेश जाता है। दिल्ली में बिहारी मजदूरों को लोग किस नजर से देखते हैं यह किसी से छिपा नहीं है। यह बातें किसी नेता, किसी अफसर या किसी इंजीनियर के जमीर को क्यों नहीं झकझोरती है।
आज सुबह जो कुछ बातें हुईं उसमें नेताओं, प्रशासकों या इंजीनियरों के प्रति अविश्वास की एक धारा बहती थी। आज से पचास साल पहले यह स्थिति नहीं थी। लोगों का अपने नेताओं, प्रशासकों तथा इंजीनियरों पर विश्वास था जो कि अब सन्देह में बदल चुका है। सुबह विजय जी बता रहे थे कि उत्तर बिहार का 76 प्रतिशत क्षेत्र बाढ़ से प्रभावित बताया जाता है और सरकारी आंकड़ों के अनुसार 87 प्रतिशत जनता कृषि को अपने जीवन का आधार बताती है। यह स्थिति अपने आप में चौंकाने वाली है। जहाँ कि 76 प्रतिशत जमीन पर बाढ़ आये और 87 प्रतिशत लोग कृषि पर आधारित हों वहाँ लोग रोजगार के लिये पलायन नहीं करेंगे तो क्या तीर्थ यात्रा करने जायेंगे। बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों के साथ एक और दिक्कत है। एक रिपोर्ट के अनुसार देश का 11 प्रतिशत क्षेत्र लगातार की बाढ़ से तथा 28 प्रतिशत निरन्तर पड़ने वाले सूखे से परेशान रहता है। इस तरह से सूखे के नक्कार खाने में बाढ़ की तूती तो वैसे भी कोई नहीं सुनता क्योंकि बाढ़ प्रभावित क्षेत्र सूखे वाले इलाके से लगभग तीन गुना कम है। उसके बाद बाढ़ की समस्या लगती है जबकि इसका प्रभाव बारहमासी है। यह बात मानने को कोई तैयार ही नहीं होता। इस पृष्ठभूमि में बिहार की बाढ़ पर बात करने पर लोग उसे सीधा भ्रष्टाचार से जोड़ देते हैं और कहते हैं कि जो रोज मरता है उसके लिये क्या अफसोस करना?
इसके बाद थोड़ी चर्चा इंजीनियरिंग की शिक्षा पर करें। मैंने आज से 30-35 वर्ष पूर्व यह शिक्षा प्राप्त की थी। हमलोग जो ड्राइंग सीखते थे उसकी शीट एकदम साफ सुथरी हुआ करती थी। अध्यापक यह बताते थे कि जो लाइन तुम इस कागज पर खींचोगे, उसी लाइन पर साइट पर बुलडोजर चलेगा। हमलोगों को अपने ऊपर बड़ा गर्व होता था कि हम इतने ताकतवर हैं। हमको जो नहीं पढ़ाया गया था वह यह कि लाइन खींचने के पहले एक बार जाकर देख लेना कि वहाँ लोग तो नहीं रहते। वहाँ अगर जीवन है तो लाइन खींचने के पहले उसका ध्यान रखना। मुझे दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि यह बात वहाँ आज भी नहीं बताई जाती।
विभिन्न योजना क्षेत्रों में चले आन्दोलनों ने इंजीनियरों को इस मानवीय समस्या से आगाह किया है। तब इंजीनियर अपने द्वारा तैयार की गई योजनाओं की जिम्मेवारी सरकार पर डाल देते हैं कि सरकार ऐसा चाहती है, इसलिये हमने यह काम किया है। अब यह सरकार बड़ी अजीब चीज है। मंत्री जी से बात कीजिये तो वह कहेंगे कि वह सरकार से बात करेंगे। इस तरह के शब्दों का उपयोग मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री जैसे लोग भी करते हैं। वह कौन है जिससे हम अपनी तकलीफ कहें और वह खुद उस पर कार्यवाही करे। इंजीनियरों की तो खैर जनता से कभी साहब सलामत रही ही नहीं मगर यह रिश्ते निर्णय की क्षमता रखने वाले राजनीतिज्ञों से भी नहीं बन पाते हैं। तब किसके सामने फरियाद की जाय? हमारी समस्या क्या है- इसका कोई मतलब नहीं है। नेताओं और इंजीनियरों को जब लगता है कि अमुक क्षेत्र के लोगों की यह समस्या होनी चाहिये तब वह उस समस्या का समाधान तैयार करते हैं। बहुत सम्भव है यह हमारी समस्या हो ही नहीं। अब आप चिट्ठी लिखते रहिये और स्मरण पत्र भेजते रहिये। बहुत संगठन की क्षमता है तो जुलूस/धरना प्रदर्शन कर लीजिये। नतीजा फिर भी कुछ नहीं निकलेगा क्योंकि तब तक उनका गलत निर्णय उनके लिये प्रतिष्ठा का प्रश्न बन चुका होता है।
यहाँ हमारे बीच कमला के झंझारपुर के नीचे के क्षेत्र से लोग आये हैं। 1993 के बाद से लगातार कमला का तटबन्ध कुछ टूट रहा है कुछ काटा जा रहा है। दोनों ही परिस्थितियों में कन्ट्री साइड में मिट्टी पड़ती है और जमीन जल जमाव से निकल कर खेती लायक बन जाती है। दोनों ही परिस्थितियों में तटबन्ध की उपयोगिता पर प्रश्न चिन्ह लगता है। इस घटना से सबक लेने के स्थान पर सरकार तटबन्ध काटने वालों को असामाजिक तत्व कह कर दामन झाड़ लेती है। जिन लोगों की लापरवाही से तटबन्ध टूटता है उन्हें सरकार क्या कहती है यह तो वही जाने क्योंकि यह तो उसके घर की बात है जो कि वह बाहर नहीं आने देती; अब सरकार जिसे असामाजिक तत्व कहती है वह लोग कोई आसान काम क्यों नहीं करते। वह जेब काट सकते हैं, राहजनी कर सकते हैं या उठाईगिरी कर सकते हैं वह क्यों जान हथेली पर रखकर बाढ़ के समय नदी का तटबन्ध काटते हैं। यह बात केवल कमला की ही नहीं है महानन्दा का तटबन्ध भी तीन जगह कटा हुआ पड़ा है। 1993 में बागमती के टूटे तटबन्धों की मरम्मत स्थानीय जनता ने नहीं करने दी। यह सब के सब असामाजिक तत्व हैं। आखिर किस तरह लोग अपनी बात ऊपर तक पहुँचायें।
सरकार उधर समाधान के तौर पर नेपाल में प्रस्तावित बाँधों की चर्चा करते नहीं थकती है। नेपाल में बनने वाले बाँधों के लिये पैसा न तो नेपाल के पास है और भारत के। अर्थ व्यवस्था को बाजार में ला खड़ा करने के पहले परिस्थिति यह थी कि अगर भारत-नेपाल इन बाँधों के निर्माण के लिये तैयार हो जाते तो विश्व बैंक, अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष या इसी तरह की कोई संस्था ऋण देती जिससे दोनों देश इन बाँधों का निर्माण करते। विश्व बैंक का बड़े बाँधों के प्रति अब मोह भंग हो चुका है और इन वित्तीय संस्थाओं का स्थान अब बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ ले रही हैं। यह कम्पनियाँ बिजली पैदा करने के लिये बाँध बनायेगी, नेपाल को उसकी रायल्टी/टैक्स देंगी। भारत को बिजली बेचेंगी। इसमें से एक एनरॉन है जिसको लेकर पिछले वर्षों में महाराष्ट्र में धबोल में अच्छा खासा आन्दोलन हुआ था। यह कम्पनी अब धड़ल्ले से 4.95 रुपये प्रति यूनिट की दर से बिजली बेच रही है। कोजेन्ट्रिक्स ने अपने निवेश पर नुकसान न होने की गारन्टी सरकार से मांगी थी और यह गारन्टी मिल जाने के बाद भी उसने विद्युत उत्पादन से हाथ खींच लिया। ऐसी ही कम्पनियाँ अब नेपाल में बाँध बनायेंगी। अगर इन कम्पनियों को फायदा होता नहीं दिखेगा तो यह बाँध बनेंगे भी नहीं। बाढ़ों का नियंत्रण इन कम्पनियों के एजेण्डा में नहीं है। इसको सुनिश्चित करने के लिये अभी से लड़ाई लड़नी हेगी वरना यह कम्पनियाँ खैरातखाना तो चलती नहीं हैं। यह बाँध आज बनना शुरू हों तो 15 साल समय लगेगा इनके निर्माण में। उस वक्त बिजली की जो कीमत होगी उसका अनुमान करके यह कम्पनियाँ भी डरती हैं कि उनको कहीं घाटा न हो। यह कम्पनियाँ अगर नहीं चाहेंगी तो अब बाँध बनाना आसान नहीं होगा।
जहाँ तक राजनीतिज्ञों का चरित्र है वह बड़ा अजीब है। वह बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के खिलाफ रैली भी करेंगे और बरसात के मौसम में नेपाल में प्रस्तावित बाँधों की वकालत भी करेंगे। उस समय उनका बहुराष्ट्रीय कम्पनी विरोध पता नहीं कहाँ जाकर दुबक जाता है।
एक बार फिर इंजीनियरों की बात करें। ब्रिटिश हुकूमत के दौरान उन्होंने प्राण-प्रण से तटबन्धों का विरोध किया क्योंकि सरकार का तटबन्धों पर से विश्वास उठ गया था। उस वक्त इंजीनियरों की दलील थी कि नदी पर तटबन्ध बना देने पर नदी का पानी बाहर नहीं फैलने पायेगा मगर बाहर का जो पानी अपने आप नदी में आ जाता था वह नहीं आने पायेगा और तटबन्धों के बाहर जल जमाव बढ़ेगा। बाढ़ रुक जाने के कारण जमीन को जो हर साल नई मिट्टी मिलती थी वह नहीं मिलेगी इससे उसकी उर्वरा शक्ति घटेगी। नदी के तटबन्धों के बीच सीमित हो जाने के कारण उसमें मिट्टी/रेत का जमाव बढ़ेगा और नदी का तल ऊपर उठने लगेगा। पानी के निकासी के लिये बनाये गये स्लुइस गेट इसी बढ़ते हुये नदी के तल के कारण जाम हो सकते हैं और उन्हें बरसात के मौसम में इसलिये खुला नहीं रखा जा सकता है कि नदी का पानी कन्ट्री साइड में फैलने लगेगा। इसलिये स्लुइस गेट रहें या न रहें बाढ़ की परिस्थिति पर कोई अन्तर नहीं पड़ेगा। किसी नदी पर तटबन्ध बन जाने से उसकी सहायक नदी का मुहाना बन्द हो जाता है। जब स्लुइस गेट काम नहीं कर पायेंगे तो इस सहायक नदी पर भी तटबन्ध बनाना पड़ेगा। अब वर्षा का पानी ही दोनों नदियों के तटबन्ध के बीच में फँस जायेगा और तभी निकल पायेगा जब दोनों में से कोई तटबन्ध टूट जाए अथवा पम्प की मदद से पानी को भी किसी एक नदी में डाला जाये। फिर आज तक दोनों में से दुनियाँ के किसी कोने में ऐसा तटबन्ध नहीं बना जो कि टूटा न हो और उस हालत में तबाही पहले से कहीं ज्यादा होती है। इतने कारण गिना कर अंग्रेजों के जमाने में इंजीनियरों ने तटबन्धों का विरोध किया था।
आजाद भारत में जब तटबन्ध बनने की बात उठी तब उन्हीं इंजीनियरों ने दलील दी कि अगर पानी की एक ही मात्रा को कम क्षेत्र से बहाया जाय तो उसका वेग बढ़ जाता है। आपने किसी माली को गमलों में पाईप से पानी देते देखा हो तो इस बात को आसानी से समझ सकते हैं। वह जब पानी का मुह थोड़ा बंद करता है तो पानी का वेग बढ़ जाता है और उसकी धारा दूर तक जाती है। वेग बढ़ने से पानी की कटाव क्षमता बढ़ती है। इंजीनियरों का एक वर्ग मानता है कि तटबन्ध बना देने से पानी का प्रवाह क्षेत्र सीमित हो जाता है और इसलिये तटबन्ध बनाने से उनके बीच बहते हुये पानी क वेग बढ़ जायेगा। पानी का वेग बढ़ने से उसकी कटाव क्षमता बढ़ेगी और वह नदी को चौड़ा तथा गहरा कर देगा। बदली परिस्थिति में नदी से होकर ज्यादा पानी पास करेगा और बाढ़ अपने आप घट जायेगी। इसलिये तटबन्ध बनने चाहिये।
यह बात उसी तरह है जैसे कि कोई गंगा के किनारे जाकर गंगा राम बन जाये और जमुना के किनारे जमुना दास। विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में मोल-तोल नहीं चलता है। वहाँ जो चीजें होती हैं वह बस होती हैं। केवल राजनीतिज्ञों के इशारे पर अगर कोई तकनीक के मामले में एकदम शीर्षासन करने लगे तब उसे क्या कहेंगे। चक्कर यह है कि इंजीनियर लोग राजनीतिज्ञों के मातहत होते हैं जनता के नहीं। कोई भी आदमी उसी की सुनता है जिसका वह मातहत होता है। राजनीतिज्ञ पाँच वर्ष में केवल एक दिन जनता के अधीन होता है जिस वह उसे वोट देती है। उसके पहले और उसके बाद वह मालिक ही रहता है। इन्हीं राजनीतिज्ञों और इंजीनियरों के पास बाढ़ नियंत्रण की कुंजी समाज ने सौंप रखी है। इनको किस तरह अपनी बात कही जाय यह एक यक्ष प्रश्न है।
जहाँ तक पश्चिमी कोसी नहर का प्रश्न है इस नहर का मूल एस्टीमेट (1962) में 13.49 करोड़ रुपये का था। इस योजना का शिलान्यास लाल बहादुर शास्त्री ने किया था जिनके बाद ग्यारह अन्य लोग प्रधानमंत्री हो चुके हैं मगर योजना कब पूरी होगी कोई नहीं जानता। सरकारी तौर पर 1979 से यह कहा जाता रहा है कि अगले दो वर्षों में इसे पूरा कर लिया जायेगा। यह स्थिति आज भी कायम है। 1998 तक इस योजना पर 278 करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं और इसका एस्टीमेट 694 करोड़ रुपये जा पहुँचा है। पिछले वर्ष इस योजना से 27,000 हजार हेक्टेयर क्षेत्र पर सिंचाई हुई जबकि मूल अनुमान 2,62 लाख हेक्टेयर क्षेत्र पर सिंचाई करने का था। इस नहर से लगभग हर वर्ष मधेपुर, लखनौर और घोघरडीहा प्रखण्ड की रबी की फसल विभाग के कर्मचारियों की लापरवाही से बर्बाद होती है जिसकी कोई सुनवाई नहीं होती। इस नहर के बारे में हमलोग कभी अलग से मीटिंग करेंगे। कमला साइफन का शिलान्यास 1992 में हुआ था और तब कहा गया था कि यह काम 1995 तक पूरा कर लिया जायेगा। जब तक यह साइफन पूरा नहीं होगा कमला के पश्चिमी कोसी नहर का कोई मतलब ही नहीं होगा। यह काम कब पूरा होगा कोई नहीं जानता।
इधर खबर है कि भुतही बलान पर तटबन्ध बनने वाला है। इसके पहले सरकार कहती रही है कि तटबन्ध बनाना गलत है और वह यह काम नहीं करेगी। यह परिस्थिति तब थी जब सरकार के पास पैसा नहीं था। इस साल पैसा हो गया तब विचारधारा को तिलांजलि देकर तटबन्ध बनना शुरू हो गया। यही द्वन्द्व है। बात फिर वहीं अटकती है कि सरकार की पानी से सम्बन्धित नीति क्या है यह किसी को पता नहीं है और ऐसे संवेदनहीन तंत्र को अपनी बात किस तरह समझाई जाये वह भी तरीका हमें मालूम नहीं है। संगठित होने के अलावा शायद कोई रास्ता नहीं है।
प्रश्न: देश में कई आन्दोलन चल रहे हैं जैसे नर्मदा बचाओ आन्दोलन है, बहुगुणा जी का टिहरी वाला आन्दोलन, इन सब की चर्चा राष्ट्रीय स्तर पर है। आपकी बात चर्चा में ही नहीं आती। इसका क्या कारण है।
दिनेश कुमार मिश्र - आप राष्ट्रीय स्तर की बात कर रहे हैं। हमको तो लगता है कि हम प्रान्तीय स्तर पर भी चर्चा में नहीं हैं। इस पूरे घटनाक्रम में हमलोगों का अपना विश्लेषण भी है। इसे हम आपके सामने रखना चाहेंगे।
पहली बात शायद हमारी योजनाओं के वित्तीय स्रोत की है। नर्मदा परियोजना जितना दूर न जायें, अपने दक्षिण बिहार की सुवर्णरेखा परियोजना की बात कर लें। वहाँ 26 गाँवों के लगभग 12,000 परिवारों का विस्थापन हुआ है मगर योजना के लिये पैसा विश्व बैंक से आया था। आप अगर सुवर्णरेखा में पुनर्वास के विरुद्ध आवाज उठाते हैं तो आप एक तरह से विश्व बैंक के खिलाफ खड़े होते हैं। इतनी बड़ी संस्था के विरोध में खड़े होने पर आपका कद उसी के अनुरूप बढ़ता है। नर्मदा में सरदार सरोवर में केवल 1,29,000 लोगों के पुनर्वास की समस्या है- वहाँ भी विश्व बैंक है। उसका लाभ वहाँ होता है। बिहार के तटबन्धों पर विश्व बैंक जैसी किसी संस्था से पैसा मिल जाय तब देखिये यहाँ क्या नहीं होता है। यहाँ अगर आप आवाज उठाते हैं तो वह बिहार सरकार के खिलाफ उठती है और उसकी क्या औकात है, हम आप सभी जानते हैं। सुवर्णरेखा परियोजना में पुनर्वास की आवाज उठाने सहरसा, चम्पारण आदि जगहों से कार्यकर्ता गये हैं। उनको अपने घर की समस्या नहीं दिखाई पड़ती है।
उत्तर बिहार में नदियों के तटबन्धों के बीच लगभग 20 लाख लोग आज की तारीख में फँसे होंगे। 338 गाँवों के 8 लाख के करीब लोग अकेले कोसी तटबन्धों के अन्दर होंगे जो हर साल बाढ़ भोगते हैं। इतने ही लोग तटबन्धों के बाहर जल जमाव में फँसे होंगे। सारी नदियों का हिसाब करें तो तीस से चालीस लाख लोग फँसे होंगे पानी में। यहाँ की दुर्दशा के बारे में अगर हम बाहर सभाओं गोष्ठियों में कभी बात करते हैं तो सुनने वाले कहते हैं कि आप नौटंकी कर रहे हैं। ऐसा कैसे हो सकता है कि 40 लाख लोग इस तरह से तकलीफ उठा रहे हों और कोई आवाज न उठती हो। लेकिन यह सच है कि आवाज नहीं उठती है क्योंकि जो आवाज उठा सकते थे उन्होंने दिल्ली/पंजाब/गुजरात का रास्ता पकड़ लिया क्योंकि वह ज्यादा आसान था। लोग यह भी पूछते हैं कि अगर 40 लाख लोग पूरी तरह फँसे पड़े हैं तो वहाँ की सरकार क्या करती है। यह भी सच है कि हमारी सरकार कुछ नहीं करती। उच्च शिक्षा के लिये हमारे सारे लोग खेत बेचकर अपने बच्चों को महाराष्ट्र, उड़ीसा, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल या दिल्ली में पढ़ा रहे हैं। कहाँ कोई आवाज उठती है। यहाँ भी वही बात है- जो आवाज उठा सकता था उसने आसान रास्ता अख्तियार कर लिया।
इसके अलावा जो भी कोई यहाँ आता है वह यहाँ की हरियाली और पानी को देखकर गदगद हो जाता है। कहता है कि यहाँ किस बात की कमी है। मगर वह जलकुंभी और धान में अन्तर समझे तब तो। हमने कितनी बार जलकुम्भी हटा कर पानी दिखाने की कोशिश की कि यह पूरे साल यहाँ रहता है और ऐसी जमीन पर खेती सम्भव नहीं है। मगर लोग पानी देखकर खुश होते हैं कि बाकी हिस्सों में इतना पानी बहा है। आप लोग खुशनसीब हैं आपके यहाँ इतना पानी है।
बाहर से आने वालों की बची खुची संवेदना पर बिहार में व्याप्त भ्रष्टाचार का झाड़ू लग जाता है और बात वहीं खत्म हो जाती है। स्थानीय लोगों द्वारा कमला या महानन्दा का तटबन्ध काटा जाना कोई छोटी घटना है क्या? मगर इसके बारे में कहीं चर्चा नहीं होती। यह घटना अगर महाराष्ट्र या पंजाब में होती तब भी क्या इसे इतना हल्के फुल्के ढ़ंग से लिया जाता? मगर विश्व बैंक पोषित योजना की घटना राष्ट्रीय स्तर की खबर बनती है। हमारी परेशानी परेशानी है और उनकी परेशानी आफत। हमारी आपकी बात अगर नहीं सुनी जाती है तो शायद इसलिये कि इस क्षेत्र के लिये सभी में उपेक्षा का भाव है और लोग यह मा बैठे हैं कि यह सब यदि इस इलाके में नहीं होगा तो और कहाँ जायेगा।
मैंने खुद कितनों को ले जाकर घोंघेपुर (यह स्थान पश्चिमी कोसी तटबन्ध के दक्षिणी किनारे पर है) में खड़ा किया कि यह जगह देखो और यहाँ की समस्या का समाधान बताओ। सभीलोग थोड़ी देर तक सोचते हैं और फिर वहाँ की बाढ़ को एक लाइलाज मर्ज बताकर चुप हो जाते हैं। वहाँ से जाने के बाद यह लोग मुझे एक धन्यवाद का पत्र भी लिखकर नहीं भेजते कि आपने हमको एक जिन्दा जहन्नुम दिखाया और वह इसलिये भी सम्पर्क नहीं रखते कि अगर सम्पर्क रखें तो हम शायद फिर कभी उनसे घोंघेपुर चलने के लिये कहें। यहाँ कृष्ण कुमार कश्यप जी बैठे हैं। कभी नदियामी में रह कर काम करते थे। इनके यहाँ टाटा एनर्जी रिसर्च इन्स्टीच्यूट से लोग आये थे ईंधन की उपलब्धता और विकल्प पर कुछ काम करने के लिये। उन्होंने उनको घुमाया फिराया, आवभगत की उनके पास भी धन्यवाद का पत्र नहीं आया। सहरसा के राजेन्द्र झा के यहाँ कितने लोग आते हैं मगर सम्पर्क नहीं रखते। ऐसी हालत में हम क्या करें।
विजय कुमार - प्रान्तों की विपदाओं पर जो आम आदमी की दृष्टि है वह बड़ी विचित्र है। 1996 में आन्ध्र प्रदेश में तूफान आया। वहाँ 1600 लोग मारे गये और 6 लाख घर गिरे। वह एक राष्ट्रीय विपत्ति घोषित हुई। हमारे यहाँ बिहार में 1987 में वहीं 1600 लोग मरे और 17 लाख घर ध्वस्त हुये- तब कोई हाल पूछने भी नहीं आया। कहीं न कहीं लोगों के दिमाग में यह बैठा हुआ है कि बिहारी लोग मरने के लिये हैं।
राम स्वार्थ चौधरी - बाढ़ के सम्बन्ध में एक बात बार-बार कही जाती है कि देश की उन नदियों को जिनमें पानी ज्यादा है ऐसी नदियों से जोड़ दिया जाय जहाँ पानी कम है तो क्या इसका समाधान हो जायेगा।
दिनेश कुमार मिश्र- इस तरह के दो प्रस्ताव आज से लगभग 25-30 सा पहले किये गये थे। एक तो दस्तूर का गारलैंड कैनाल का प्रस्ताव था जिसके तहत देश के अन्दर समुद्र तल से 350 मीटर की ऊँचाई पर माला की शक्ल में एक नहर बनाने का प्रस्ताव था जिसमें पानी की अधिकता वाले क्षेत्रों से पानी लाकर कमी वाले क्षेत्रों में पहुँचाने का प्रावधान था। यह प्रस्ताव एक पायलट ऑफिसर ने तैयार किया था जिसकी व्यावहारिकता पर इंजीनियरों को संदेह था। यह प्रस्ताव चर्चा में इसलिये आया क्योंकि तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने इसमें रुचि दिखाई थी।
दूसरा प्रस्ताव डॉ. के.एल. राव का राष्ट्रीय ग्रिड का प्रस्ताव है जिसमें गंगा नदी पर एक बराज बनाकर लगाग 1 लाख घनसेक पानी को विन्ध्य पर्वतमाला पार कर के दक्षिण की नदियों से जोड़ने का प्रस्ताव है। डॉ. राव स्वयं एक इंजीनियर थे और जब यह प्रस्ताव तैयार किया गया था तब वह केन्द्र में सिंचाई मंत्री थे। कार्यक्रम यह भी अव्यावहारिक है मगर राव साहब के खुद मंत्री के साथ-साथ इंजीनियर होने के नाते किसी भी इंजीनियर या नेता ने इस पर उंगली नहीं उठाई। सत्तर के दशक में इस योजना की लागत 24,000 करोड़ रुपये थी जो कि एक गरीब देश खर्च नहीं कर सकता। यह योजना इस कारण ठण्ढे बस्ते में चली गई मगर इसका भूत आज भी भटकता है और गंगा घाटी में बाढ़ आने पर या दक्षिण में सूखा पड़ने पर इंजीनियरों और नेताओं पर सवारी करता है।
वैसे भी बाढ़ के समय गंगा की जो हालत रहती है उसमें 1 लाख घनसेक पानी बढ़ जाय या घटा दिया जाय- कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता। राव साहब बहुत ही महत्वाकांक्षी इंजीनियर थे और कोसी के वर्तमान तटबन्धों की स्वीकृति में उनका बहुत बड़ा हाथ था। उसके बाद ही उत्तर बिहार की बाकी नदियों पर तटबन्ध बने। आज अगर तटबन्धों से लोग बदहाल हैं तो उसका कुछ न कुछ दायित्व उनपर भी जाता है। उनकी राष्ट्रीय ग्रिड वाली योजना भी कुछ ऐसी ही योजना थी जिसके लिये न तो हमारे पास पैसा है और न ही वह क्षमता और इच्छा शक्ति है जिससे नदियों और नहरों के इन नेटवर्क को संचालित किया जा सके। बिहार की अपनी नहरों की स्थिति देखकर यह बात हम ज्यादा विश्वास के साथ कह सकते हैं।
राव साहब की एक आत्मकथा है ‘‘दि क्यूसेक कैण्डीटेड’’। उसमें उन्होंने एक जगह लिखा है कि एक बार वह मंत्री की हैसियत से 1964 में भाखड़ा परियोजना देखने गये। वहाँ परियोजना के विस्थापितों ने उन्हें अपने पुनर्वासित गाँव चलने की दावत दी और वह वहाँ गये। पुनर्वास पहुँचने के बाद उन्हें गाँव की हालत को देखकर सदमा पहुँचा। क्योंकि गाँवों की जो फैल कर बसने वाला छवि उनके दिमाग में थी वैसा यहाँ कुछ भी नहीं था। यहाँ तो एक-एक कमरे के शेड वाले मकान थे और बुनियादी सुविधायें नदारद थीं। राव साहब ने गाँव वालों से पूछा कि वह मंत्री की हैसियत से गाँव के लिये कुछ कर सकते हैं क्या? तब गाँव वालों ने कहा कि अगर वह गाँव में बिजली की व्यवस्था करवा देते तो बड़ी कृपा होती। जी हाँ! यह वही भाखड़ा बाँध है जिसके बिजली और पानी की तारीफ करते हम अघाते नहीं हैं और उसके विस्थापितों को बिजली नहीं मिली थी। राव साहब ने कहा कि यह आसान सा काम है और वह जरूर करवा देंगे। उन्होंने वापस आकर भाखड़ा व्यास बोर्ड के अध्यक्ष से उस गाँव में बिजली लगा देने को कहा और अध्यक्ष ने उनको दो टूक जवाब दिया कि उनके बजट में इस तरह का काम करने का कोई प्रावधान है ही नहीं। और मंत्री के आदेश के बावजूद गाँव में बिजली नहीं लगी। राव साहब ने बड़े दुःख के साथ इस घटना का वर्णन किया है। हमें खुशी होती अगर उस समय भी राव साहब को यह ख्याल आता कि वह कोसी क्षेत्र के 338 गाँवों के 2 लाख लोगों (1995 की जगगणना) को, जिन्हें तटबन्धों के बीच कोसी की बेहरबानी पर छोड़ दिया गया, वह हमेशा के लिये अंधेरे में झोंक आये हैं।
प्रश्न: उत्तर बिहार की नदियों की बनावट पर 1934 के भूकम्प का बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा है। इस भूकम्प के बाद कोसी की धारा पश्चिम की ओर तेजी से खिसक गई है और अधवारा तथा कमला आदि नदियों का पूर्वी ओर विस्थापन होना शुरू हुआ। आजादी के बाद नदियों के इसी अस्थिर क्षेत्र में तटबन्धों का निर्माण शुरू किया गया जिसका परिणाम पहले से ज्यादा बाढ़ और जल-जमाव की शक्ल में सामने आया। अब हमारे पास क्या विकल्प बचता है। क्या यह अच्छा नहीं होगा कि तटबन्धों को हटाकर जल निकासी की व्यवस्था सुनिश्चित की जाय। कम से कम दरभंगा तथा हायाघाट के क्षेत्रों में इसकी शुरूआत की जाय। यदि पानी निकल जाये तो कृषि का विकास हो सकेगा, शिक्षा का विकास हो सकेगा, बेरोजगारी मिटेगी और सर्वांगीण विकासकी नींव पड़ सकेंगी।
विजय कुमार - यह एक व्यापक प्रश्न है इस पर कल आराम से बातचीत करेंगे। अभी अध्यक्षीय भाषण के बाद का सत्र समाप्त करें।
डॉ. योगेन्द्र प्रसाद - मैंने अभी पिछले अक्टूबर माह में वाटर रिसोर्स डवलपमेंट सेन्टर का कार्यभार संभाला है और मेरा चिन्तन भी कुछ इस प्रकार का है कि आज बाढ़ की जो परिस्थितियाँ पैदा हो गई हैं उसके लिये हम सब किसी न किसी रूप में जिम्मेवार हैं। इस पाप का प्रायश्चित होना चाहिये। मैं पिछले 37 वर्ष से इंजीनियरिंग पढ़ा रहा हूँ और अगले वर्ष दिसम्बर में सेवा निवृत्त होऊँगा। यद्यपि मैंने इंजीनियरों को पढ़ाये जाने वाले पाठ्यक्रम को तैयार करने में कभी सीधी भागीदारी नहीं की है परन्तु शिक्षा सम्बन्धी जो भी विचार यहाँ आये हैं उनसे मेरी सहमति है। हमारी तकनीकी शिक्षा हमें बम्बई, दिल्ली, बंगलोर, न्यूयार्क या वाशिंगटन की ओर देखने की प्रेरणा तो देती है मगर कभी अपने क्षेत्र या अपने समाज या गाँव की ओर देखने को प्रेरित नहीं करती। यही कारण है कि हम आजादी के इतने वर्षों बाद भी समस्या की तह तक नहीं पहुँच सके हैं और अगर समय रहते कुछ नहीं किया गया तो समस्या भविष्य में और भी ज्यादा गंभीर होगी।
पहले कभी हमने गोरे इंजीनियरों पर विश्वास किया फिर आजादी के बाद भूरे इंजीनियरों पर विश्वास किया मगर हर बार बाढ़ पीड़ित जनता को अविश्वास ही मिला। यहाँ यह अविश्वास ही विभिन्न शब्दों में व्यक्त हुआ है। मैं बिहार सरकार की एक अन्य संस्था शिक्षा शोध तथा प्रशिक्षण परिषद का भी निदेशक था। चार-पाँच वर्षों तक मैं वहाँ था और प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में भी काम किा। वहाँ का मेरा अनुभव है। प्रश्न है अब यहाँ के बाद क्या? बाढ़ की समस्या है, कृषि की समस्या है, बेरोजगारी की समस्या है। मैंने पढ़ा है कि धान की 30,000 किस्में हमारे पास थीं, आज कुछ सौ बची हैं। ऐसा कैसे हो गया? यह हमारे सभी के लिये चिन्ता का विषय है।
आज यहाँ इतने लोग बैठकर पानी की, बाढ़ की, कृषि की और रोजी रोटी की बात कर रहे हैं तो वहीं राजनीतिक पार्टियाँ और उनके द्वारा निर्मित सरकारें उन मुद्दों के प्रति चिन्तित हैं जो देश की अधिक से अधिक एक प्रतिशत आबादी के हक में जाता है। वह बात करते हैं सूचना की, संचार की, मनोरंजन की। भारत अब सुपर पॉवर बनने वाला है। भारत अब साइबर युग में प्रवेश कर रहा है। लेकिन हमारे यहाँ के गाँवों में क्या होगा- मलेरिया रहेगा, पीने का शुद्ध पानी नहीं मिलेगा, डायरिया फैलेगा, यहाँ के लोगों को चार-चार महीने तक घर से बाहर निकलने का मौका नहीं मिलेगा, लोगों का पलायन होगा। अब हम दिल्ली को बिहार बनायेंगे। वैसे भी दिल्ली में सरकार चुनने में अब यहाँ के लोगों ने एक महत्त्वपूर्ण क्षमता अर्जित कर ली है। लेकिन इतना सब होने के बाद भी हम अपनी बात नेताओं तक नहीं पहुँचा पाते हैं।
यह तभी संभव है जब हम अपनी ताकत बढ़ायें। कोई दूसरा आपकी मदद नहीं करेगा। हम अपना संगठन बढ़ायें और सरकार को बाध्य करें कि वह हमारी बात सुनें। हमारी योजनायें हम बनायें और उनका क्रियान्वयन करवायें। यह स्थानीय और सामूहिक भागीदारी से संभव होगा और तभी टिकाऊ भी हो पायेगा।
अंसार अहमद (छात्र वाटर मैनेजमेंट) (दरभंगा) - हमारी बाढ़ एक प्राकृतिक समस्या है। बाढ़ से लाभ और नुकसान दोनों हैं। जमीन की उर्वरा शक्ति बाढ़ के पानी मिलने से बढ़ती है। उधर बाढ़ से गाँव के गाँव ध्वस्त होते हैं, फसलें मारी जाती है, यातायात पर असर पड़ता है और बीमारियाँ फैलती हैं, प्रदूषण बढ़ता है। इन सब समस्याओं से बचने के लिये नदी पर बाँध बनना चाहिये। प्रदूषित पानी की परीक्षा करके उसी के अनुरूप पानी का शुद्धिकरण करना चाहिये। इससे बीमारियों पर नियंत्रण किया जा सकता है। आज बाढ़ की भयावहता पहले के मुकाबले ज्यादा बढ़ी है। हमारे तालाबों, चौरों की संग्रह क्षमता घटी है, अतः पानी अब खेतों और घरों की तरफ जाने लगा है। इसके लिये जल निकासी की व्यवस्था करनी चाहिये।
राजेश कुमार झा (जमशेदपुर) - आज छपरा से आये मित्रों ने जल जमाव के बारे में कुछ बताया। उन क्षेत्रों में कृषि पर जो असर पड़ रहा है तो वह अपनी जगह है ही, वहाँ भविष्य में पीने के शुद्ध पानी की भी दिक्कत हो सकती है क्योंकि जल जमाव से भूमिगत जल की सतह ऊपर उठती है। पेड़ पौधे की जड़ों के माध्यम से सोखे गये पानी का वाष्पीकरण लगातार चलता रहता है। इस प्रकार भूमिगत जल में घुले हुये लवण भी जड़ों के द्वारा पृथ्वी की सतह तक आ जाते हैं। पानी तो भाप बनकर उड़ जाता है मगर लवण जमीन की सतह पर ही बना रहता है। जल जमाव वाले क्षेत्रों में यूक्लिप्टस के पेड़ जल-जमाव को कम करने में मदद कर सकते हैं। इस पेड़ की लकड़ी का बड़ा उपयोग हो सकता है। हरियाणा में जल जमाव का निदान इस तरह की वनस्पतियों द्वारा किया गया है यह प्रयोग हम यहाँ भी कर सकते हैं।
सतेन्द्र प्रसाद (सारण) - हमलोग 36 चौरों के क्षेत्र से आये हैं। हमारे यहाँ जल जमाव उग्र रूप अख्तियार करता जा रहा है। जल-जमाव पहले भी रहा करता था मगर रबी की फसल तक पानी निकल जाया करता था। घाघरा, गंगा के तटबन्ध तथा गंडक की नहरों के निर्माण के बाद स्थिति बहुत ज्यादा खराब हो गई है। जल जमाव हटाने का काम इतना बड़ा है कि कोई भी संस्था या संस्थाओं का समूह भी इस काम को नहीं कर सकता। इसलिये हम सरकार से अपेक्षा रखते हैं कि वह इस काम को प्राथमिकता के स्तर पर करे। जिन लोगों के खेतों पर जल-जमाव हो रहा है वहाँ खेत तो उनका है पर मछली मारने का अधिकार इनका नहीं है। इस कारण से बिना वजह सामाजिक तनाव बढ़ता है इस क्षेत्र से प्रान्त को कई मुख्यमंत्री दिये मगर हमारे लिये किसी ने काम नहीं किया और संघर्ष के अलावा अब कोई रास्ता ही नहीं दिखता। हमने वहाँ जल-जमाव विरोधी संघर्ष मोर्चा बनाया हुआ है और आप सभी का सहयोग चाहते हैं।
अरुण कुमार सिंह (नवगछिया-भागलपुर) - नवगछिया बाढ़ के प्रश्न पर विषाद का कारण बना हुआ है। हमलोग कोसी और गंगा के बीच में फँसे हैं। आज से 20 साल पहले तक हमारे यहाँ बाढ़ दो तीन वर्ष के अन्तराल पर आती थी लेकिन अब यह हर साल की घटना है। यहाँ तो हम सभी लोग तटबन्धों का विरोध कर रहे हैं मगर हम तटबन्धों का समर्थन करते हैं क्योंकि जब से यह तटबन्ध टूटने लगे हैं हमारा बहुत नुकसान हो रहा है। हमलोगों के यहाँ केले की खेती होती है। 1987 के बाद से तटबन्ध टूटने के कारण फसल में पानी लग जाता है। अतः तटबन्धों को ऊँचा और मजबूत कर के बाँधना चाहिये जिससे वह टूटे नहीं। तटबन्ध टूटने से जल जमाव भी बढ़ता है और तरह-तरह की बीमारियाँ फैलती हैं। हमारी परिस्थितियाँ एकदम भिन्न हैं आप लोग कभी वहाँ कार्यक्रम करें तो समस्या को समझने का अवसर मिलेगा।
किशोर (कटिहार) - मैं महानन्दा के किनारे का रहने वाला हूँ और कटिहार जिले से आया हूँ। 1970 से हमारी नदी के किनारे तटबन्ध बने और 1974 से यह टूटना शुरू हो गये। 1987 में 13 अगस्त को हमलोगों ने मनिहारी के पास गंगा का तटबन्ध काटा, तब जाकर कहीं पानी निकला। मजा यह था कि महानन्दा का तटबन्ध हमारे माननीय पूर्व सांसद युवराज जी की पहल और कोशिश से बना था। जिसके लिये उन्होंने एक लम्बी लड़ाई लड़ी थी उन्हीं युवराज जी ने खुद खड़ा होकर यह तटबन्ध कटवाया।
1998 की बाढ़ में लोग महीनों तक बाढ़ में फँसे रहे। 1999 में वही हुआ। अब हमारे यहाँ केवल गरमा धान होता है जिसकी खेती करना हरेक के बस की बात नहीं है। यह बहुत ही महँगी है। पलायन शिखर पर है। मगर यह अच्छा ही है क्योंकि हमारे यहाँ जिसके पास 50 बीघा भी खेत हों उसके लिये खेती करने पर नफा नुकसान बराबर होता है। जो मजदूर हैं और बाहर जाकर कमा रहा है, उसके पास कुछ तो बचता है।
हमलोग उत्तर बिहार के एक कोने में पड़े हुये हैं और पानी के बहाव की दृष्टि से एक दम अन्त में हैं। आप के यहाँ भला-बुरा जो कुछ भी होगा उसका परिणाम अन्त में हमीं को भुगतना पड़ेगा। हम फरक्का बाँध का भी परिणाम भुगत रहे हैं क्योंकि इस बाँध से अब पहले जितना पानी नहीं निकलता है। बाँध के पास गंगा में जबर्दस्त सिल्टेशन हो रहा है जिसका नतीजा है कि गंगा छिछली हो गई है और महानन्दा का पानी उसमें नहीं जा पाता है। इस तरह हमारी बाढ़ स्थायी होती है। अब हम तटबन्ध का विरोध छोड़कर फरक्का बाँध का विरोध करने को बाध्य हैं।
तटबन्धों के खिलाफ हमारी लड़ाई पुरानी है। यह तटबन्ध टूट तो तभी से रहे हैं जब से यह बने मगर 1991 से एक निर्णायक परिवर्तन आया जब तटबन्ध टूटा भी और काटा भी गया मगर सरकार ने इसे फिर बँधवा दिया। 1996 में हमारे यहाँ 3 स्थानों पर महानन्दा का तटबन्ध काटा गया और यह हमारी उपलब्धि रही है कि हमलोगों ने इसे बाँधने नहीं दिया। हम भविष्य में भी महानन्दा का तटबन्ध बंधने नहीं देंगे।
तटबन्धों ने लोगों को आपस में लड़ाया है। बाढ़ के समय जो तटबन्ध के कन्ट्री साइड में है उसको तो बाढ़ से तथाकथित रूप से सुरक्षा मिलती है मगर तटबन्ध के टूटने का खतरा भी उसी पर रहता है। तटबन्ध के रिवर साइड में भी लोग रहते हैं। तटबन्ध यदि सुरक्षित रहता है तो इन लोगों का जीवन असुरक्षित हो जाता है। तब यह लोग तटबन्ध काटते हैं और बाहर वाले मरते हैं। 1996 में हमलोगों ने आपसी मतभेदों और झगड़ों को भुलाकर तटबन्ध तीन जगह काटा। अब बाढ़ का पानी जब भी बढ़ता है तो धीरे-धीरे निकल जाता है। यह तीनों स्थान महानन्दा के दाहिने तटबन्ध पर है। अभी विचार हो रहा है कि पानी को समान रूप से फैलाने के लिये महानन्दा का बाँया तटबन्ध भी खोल दिया जाय। देखना है लोग क्या फैसला करते हैं। हमलोग प्रतीक्षा कर रहे हैं कि बाँया तटबन्ध अपने आप बाढ़ में टूट जाय तो हमलोगों को मेहनत नहीं करनी पड़ेगी। उस हालत में तटबन्ध को केवल मरम्मत न होने देने का काम बाकी रह जायेगा।
कमल कुमार झा (दरभंगा) - कुछ लोग जो ईश्वर में विश्वास करते हैं उन्हें हम आस्तिक कहते हैं। जो ईश्वर में विश्वास नहीं रखते हैं उन्हें नास्तिक कहते हैं। हमारे किये हर काम का परिणाम कोई सत्ता शायद जरूर करती है। ईश्वर से हट कर प्रकृति को ही यदि सत्ता माने तो भी प्रकृति की मर्जी के खिलाफ किये गये काम का दण्ड निश्चित रूप से हमें मिलता है। आकल, प्रलयकारी बाढ़ और जानलेवा प्रदूषण प्रकृति के साथ इसी छेड़छाड़ का परिणाम है। मैंने 1987 की बाढ़ देखी है और आप सभी के अनुभव से मेरी सहमति है। भौगोलिक बनावट के कारण उत्तर बिहार वैसे भी बाढ़ का क्षेत्र रहा है। मगर पिछले 40 वर्षों में बाढ़ का क्षेत्र बढ़ा है। नदियों की पेटी में पत्थर, बालू और मिट्टी जमा होती जा रही है जिससे नदी का पानी फैलता है और बाढ़ आती है। जितना ध्यान और खर्च तटबन्धों पर किया जा रहा है उससे यदि नदियों की सफाई की गई होती तो शायद बेहतर परिणाम सामने आते। छः छः महीना बाढ़ का पानी नहीं निकल पाता है। ऐसा करने से रोजगार भी बढ़ता।
हमारा जल संसाधन विभाग सक्रिय तभी होता है जब बाढ़ आ जाती है। बाढ़ आने के पहले कोई सक्रियता नहीं होती। वनों का सफाया वैसे ही जारी है। अभी ठाकुर जी केन्द्र में मंत्री हैं हमलोग उनसे वार्ता करें तो शायद कुछ हो सकेगा।
चन्द्रमोहन मिश्र (दरभंगा) - मेरा क्षेत्र अधवारा समूह का क्षेत्र है। मेरा गाँव हायाघाट में है। हम छः महीना बाढ़ से घिरे रहते हैं और फसल खत्म है। बाढ़ आने के साथ ही घर में पानी घुस आता है। लोग तटबन्धों से परेशान हैं और उन्हें हटाना चाहते हैं जबकि सरकार उन्हें बनाये रखना चाहती है। बाढ़ के प्रश्न को हमें समग्रता में देखना होगा। तटबन्धों से अपेक्षित परिणाम नहीं निकला और नदियों की पेटी ऊपर उठ रही है। बाढ़ के समय अफरा तफरी मचाने से बेहतर है कि बाढ़ आने के पहले ही बाढ़ से मुकाबला करने की समुचित व्यवस्था कर ली जाये। यही अच्छा होगा। फिर सरकार पर स्थायी समाधान के लिये दबाव डाला जाये।
कमलेश झा (अली नगर कॉलोनी दरभंगा) - हमने पिछला समय भी देखा है और कमला मैया के प्रताप से आज के समय को भी देख रहे हैं। परम्परागत रूप से लोग बाढ़ को सूखे से अच्छा मानते थे। हमारे चौर में भले ही मोटा धान होता था मगर खूब होता था। वह सब समाप्त हो गया। अब अगर तटबन्ध टूट कर गाँव में पानी घुसता है वे बिना कुछ हमको दिये हुये महीनों रहता है। पहले लोग टूटे बाँध को बाँध देते थे। सामूहिक चेतना थी अब वह भी समाप्त है। यह सब किसने छीन लिया-वही नेता, वही इंजीनियर और वही ठेकेदार। अपनी समस्या का दूसरे से समाधान करवाइयेगा तो यही सब होगा।
तटबन्धों की मिथिला में कोई उपयोगिता नहीं है। जहाँ है वहाँ जाकर बाँधिये। हमारी समस्या का समाधान अब एम.एल.ए. या सांसद से नहीं होगा। अब खुद कुछ करना होगा।
मिथिलेश्वर झा (मधुबनी) - जनवरी महीने में जमशेदपुर में एक बहुत बड़ा सम्मेलन हुआ था मिथिला वासियों का। वहाँ बाढ़ की समस्या पर बहुत बातचीत हुई थी। इसलिये यह सोचना कि चेतना के स्तर पर कुछ नहीं हो पा रहा है शायद भ्रामक होगा। इस समस्या के प्रति लोगों की जागरूकता बढ़ रही है। रही स्थानीय स्तर पर समस्या से निपटने की बात तो अब अधिकारीगण भी बदली परिस्थितियों को समझने का प्रयास कर रहे हैं और निधि का भी अभाव नहीं है। छोटे स्तर के नदी, नाले, चौर-चांचर को अभी पंचायत स्तर पर दुरुस्त किया जा सकता है, वहाँ फण्ड भी आ रहा है मगर सचेत रहना पड़ेगा। जो पैसा उपलब्ध है उसका कुछ प्रतिशत सिंचाई और जल निकासी के लिये उपलब्ध है। इसलिये उस स्तर का निदान किया जा सकता है।
तटबन्धों की उपयोगिता पर तो काफी चर्चा हुई है। सीतामढ़ी में सोनबरसा और परिहारा प्रखण्ड में बहुत सी छोटी बड़ी नदियाँ हैं। वहाँ मैंने देखा है कि जहाँ नदी पर तटबन्ध नहीं है वहाँ की उपज जबर्दस्त होती है। बाढ़ क्षति का मूल्यांकन करने के लिये एक बार वहाँ केन्द्रीय टीम आने वाली थी और वहीं धान की अच्छी फसल लगी थी। कलक्टर चिन्तित कि क्या दिखायें। मेरा कहना केवल इतना है कि जहाँ जरूरत न हो वहाँ तटबन्ध न बनें, जहाँ यह उपयोगी न लगे वहाँ उसे हटा दिया जाये और जहाँ जरूरत हो वहीं रखें। स्थानीय स्तर पर क्या करना है इसकी जानकारी यदि रहे तो यह आसान होगा।
विनोद कुमार (झंझारपुर) - सन 1987 इस समस्या पर काम कर रहे हैं। उस समय इसका विश्लेषण करना सीख रहे थे। मिश्र जी से सम्पर्क हुआ। हम सभी लोगों ने अपनी समझदारी और विश्लेषण को नेताओं और इंजीनियरों के सामने रखने का प्रयास किया मगर उस समय हमलोगों की बात कोई सुनता नहीं था। उलटे लोग पागल कहते थे। एक बार सभी गाँववालों ने मिलकर 1995 में इसराइन चौर के पास कमला का बायाँ तटबन्ध काट डाला। झगड़ा झमेला हुआ, थाना पुलिस भी हुआ मगर मामला धीरे-धीरे शान्त हो गया। बाढ़ के बाद हमलोगों ने देखा कि निर्मला गाँव के सामने 5 किलो मीटर पूरब तक और 8 किलोमीटर उत्तर दक्षिण तटबन्ध के बाहर नई मिट्टी पड़ गई है और जहाँ जल जमाव रहा करता था वहाँ जमीन ऊपर आ गई है। उसी साल 1995 में निर्मला गाँव में एक लाख तीस हजार रुपये की मूंग किसानों ने बेची अपनी जरूरत के लिये रख करके।
उसके बाद से सरकार कमला के बाँध को हर साल बनवाती है और हमलोग उसे काटते हैं। वास्तव में जो कुछ समस्या है कमला पर बने तटबन्ध से है। बाढ़ पहले भी आती थी। बाढ़ का स्तर कभी 2 फुट से ज्यादा नहीं होता था। दो-तीन दिन बाढ़ रही और उसके बाद समाप्त हो जाती थी। तटबन्धों ने उसकी अवधि और गहराई दोनों बढ़ा दी है। हमलोग उसे काटकर बराबर कर देते हैं।
समस्या का समाधान नदी के तटबन्ध को ऊँचा या मजबूत करने में नहीं है। ऐसा किया जायेगा तो समस्या पहले से ज्यादा बढ़ेगी। नदी को चौड़ा और गहरा करना भी अव्यावहारिक है। इससे भी नेताओं, इंजीनियरों और ठेकेदारों का ही पेट भरेगा। हमारे यहाँ तो लोग कहते हैं कि तटबन्ध धनुष की तरह है। धनुष जितना मजबूत होगा उससे उतनी ही तेजी से तीर निकलेगा और घातक होगा। तटबन्धों को हटा दीजिये, हम अपनी रक्षा कर लेंगे।
रामलखन झा (मधुबनी) - आज के प्रदूषित सामाजिक परिवेश में यदि आप लोग जनहित के किसी प्रश्न पर सम्मेलन कर रहे हैं तो आपका यह प्रयास अभिनन्दन के योग्य है। आज विज्ञान का विकास मारक विकास है। वह सृजन का विकास नहीं कर पा रहा है। नदी से छेड़ छाड़ करके विज्ञान ने प्रकृति को कुपित कर रखा है, मगर प्रकृति के प्रकोप का उत्तर देने की वैज्ञानिकों में न तो क्षमता होती है और न ही इच्छा शक्ति। बाढ़ का वैज्ञानिक निदान करने के लिये इंजीनियरों ने नदियों के किनारे तटबन्ध बनाये। प्राकृतिक बाढ़ पहले से भयंकर रूप में मानवीकृत बाढ़ के रूप में सामने आ गई। तकनीक का सम्यक उपयोग समस्या को घटा सकता है मगर तकनीकी तिकड़म से तो यह काम नहीं हो सकता। 1987 की बाढ़ के बाद हमने कुदाल सेना के तहत एक पुस्तिका निकाली थी ‘‘बाढ़ रोको या बाँध तोड़ो’’। एक सम्मेलन भी किया था जिसका उद्घाटन पूर्व इंजीनियर-इन-चीफ भावानन्द झा ने किया था। तब इंजीनियरों ने स्वीकार किया था कि तटबन्ध ही बड़ी बाढ़ का कारण है। अब यह बहस का मुद्दा रहेगा ही नहीं। हमारे यहाँ पश्चिमी कोसी नहर बन रही है। मेरा दावा है कि इस नहर से आज ही नहीं, कभी भी इस नहर से सिंचाई नहीं हो सकती। यह नहर बरसात के बहते हुये पानी से हर साल टूटती है। जब इस नहर में फुल सप्लाई पर सिंचाई का पानी दिया जायेगा तब क्या होगा। हमलोगों को तो यह भी डर लगता है कि कभी कोसी का पश्चिमी तटबन्ध टूटे तो पश्चिमी कोसी नहर ही नई धार न बन जाये।
आप एक प्रस्ताव करके सरकार को लिखें कि पश्चिमी कोसी नहर का प्लान एस्टीमेट और उद्देश्य क्या था और आज स्थिति क्या है। इससे किस उद्देश्य की पूर्ति हुई है और भविष्य में कितनी हो पायेगी।
बाढ़ की समस्या के साथ-साथ इस नहर का भी औचित्य सिद्ध करने का सवाल उठना चाहिये। अगर ऐसा होता है तो हमलोग प्राण-प्रण से इस काम में आगे आयेंगे।
सूर्य नारायण ठाकुर (मधुबनी) - किसी रोग की कोई दवा खरीदने जाइये तो उस पर एक एक्सपायरी डेट लिखी रहती है। मुझे याद है जब बाढ़ की दवा के रूप में तटबन्ध बनाये गये थे तब उस समय भी 25 वर्ष की एक्सपायरी डेट थी। अब इस एक्सपायरी डेट बीते भी 20 वर्ष हो गया। तब यह दवा जान नहीं मारेगी तो क्या आराम पहुँचायेगी? छोटी दवा रहती है तो उसे हमलोग मिट्टी में गाड़ देते हैं, अब तटबन्ध गाड़ने के लिये कहाँ से रावण या कुंभकरण लायें। 16 फीट ऊँचा तटबन्ध बना था हमारे यहाँ जिनके बीच 8 फुट मिट्टी भर गई। बचा 8 फुट तो उसमें भी चूहों और गीदड़ों ने बिल बनाया हुआ है। हजार-हजार बीघे का चौर है और उसमें लोग झख मारते हैं। हमलोग मालगुजारी नहीं दे पाते हैं तो सरकार कहती हैं कि सर्टिफिकेशन होगा। सर्टिफिकेट का तो डर हमको नहीं है पर बॉडी वारन्ट से जरूर थोड़ी परेशानी है। सरकार ने हमारी जमीन को जलकर बना दिया। ले लो अपनी जमीन वापस।
यहाँ भी नदी को खोदने का या तटबन्ध को ऊँचा करने का प्रस्ताव आ रहा है। यह काम तो सरकार कर ही रही है तब हम में और उसमें फर्क क्या रह गया। हमारे यहाँ एक तालाब बनाने का प्रस्ताव हुआ कि उसके निर्माण से सारी समस्या का हल हो जायेगा। बन गया कागज पर और सब का हिस्सा बंट गया। फिर हुआ कि इस तालाब में बहुत से बच्चे डूब कर मर रहे हैं इसलिये पाट दिया जाय। वह भी कर दिया गया- मार्च महीने में फाइलें बंद कर दी गई। इस तरह के प्रस्ताव कम से कम यहाँ मत कीजिये वरना सरकार के लोग बड़े खुश होंगे।
तटबन्ध बना कर तो देख लिया। अभी पहाड़ में बाँध बनाना बाकी है। उसके साथ कुछ गड़बड़ होगा तो क्या होगा। आदमी बदलता है तो कुछ गडबड़ होता है मगर दिशा बदलती है तो बड़ा उलट फेर होता है। इसलिये दिशा परिवर्तन न करें। एक्सपायरी डेट वाली दवा समाप्त कैसे हो वह सोचिये।
संस्थायें जो रिलीफ का काम करती हैं उनको भी नये सिरे से सोचना चाहिये। मूल समस्या पर चोट कीजिये लक्षणों पर नहीं। अपनी बात अब हमें राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर भी उठानी चाहिये। राष्ट्रीय स्तर पर तो दिल्ली में हमारे चुने हुये लोग हैं। बात उसके आगे भी जानी चाहिये। हमारी उम्र कुछ ज्यादा हो रही है। कभी बलि देनी हो तो हमारी दे दीजिये। काम के समय आप लोग आगे रहिये। इतना जरूर है कि जितना आप लोग खड़े रहेंगे उससे एक घंटा ज्यादा हम रहेंगे।
महावीर प्रसाद महतो (पंचही-मधुबनी) - हमलोग बहुत दिनों से इस तरह चर्चा कर रहे हैं। निर्मला के तटबन्ध काटने से जो चेतना बढ़ी है और जो लाभ हुआ है वह अब देखने लायक है। मैं आजादी के पहले से सामाजिक काम में लगा हुआ हूँ और सब समय आपके साथ रहता हूँ। इस मीटिंग से मेरी अपेक्षा थी कि इस बार मिश्र जी कुछ कार्यक्रम देंगे पर वह नहीं हो पा रहा है।
डॉ. गंगाधर झा (दरभंगा) - बाढ़ की समस्या हमारे मिथिला क्षेत्र की स्थायी समस्या है। मिथिला से बाढ़ को अलग कर के नहीं देखा जा सकता। हम इसके राजनैतिक समाधान के समर्थक हैं। हमारी समस्या दूसरा न तो समझ सकता है और न उसका समाधान ही कर सकता है। जनवरी में जमशेदपुर में अन्तरराष्ट्रीय मैथिली परिषद का सम्मेलन हुआ था और वहाँ भी मिथिला को एक अलग राज्य बनाने की मांग की गई थी और हम उस मांग को यहाँ फिर दुहराते हैं। इसके लिये हमलोग क्षेत्रीय स्तर पर संगठित हों, एक राजनैतिक पार्टी बनायें। एक दैनिक समाचार पत्र या साप्ताहिक पत्रिका निकाली जाय और उनके माध्यम से बाढ़ की समस्या को उजागर किया जाय तथा समाधान की दिशा में पहल हो।
इ. आनन्द वर्धन (पटना) - कल से जो विचार आ रहे हैं उसके अनुसार बाढ़ नियंत्रण के प्रयासों के बाद बाढ़ की समस्या बढ़ी है। यह बात न केवल समाज के स्तर पर सही है बल्कि उपलब्ध सरकारी आंकड़े भी इस बात की पुष्टि करते हैं। एक तो यह बात है कि किसी भी नदी का तटबन्ध पूरा नहीं किया गया है। उसके बाद वह कई जगह से टूटा है जिसे बाँधा नहीं गया है। हाया घाट जैसे क्षेत्रों में जो परिस्थितियाँ बन गई हैं वहाँ शायद अब ऊँचे प्लेटफार्म बनाकर समस्या को सहने लायक बनाया जा सकता है। रेल पुल को चौड़ा करना और घोघराहा तथा पंचफुट्टा के मुहाने खोल देने से भी बाढ़ की समस्या पर सकरात्मक प्रभाव पड़ेगा। स्थानीय स्तर पर गाँवों की सुरक्षा के लिये रिंग बाँध भी बनाया जा सकता है। यह नदी के साथ छेड़-छाड़ करने से ज्यादा बेहतर है। बाढ़ के पहले अपनी सुरक्षा के सारे इंतजाम कर लेने चाहिये।
मैं आपको गंगा घाटी के इस नक्शे को गौर से देखने का आग्रह करता हूँ। यहाँ हमने घाघरा से लेकर महानन्दा तक की सारी नदियों को दिखाया है। जहाँ बिहार समाप्त होकर पश्चिम बंगाल शुरू होता है, लगभग उसी सीमा पर यहाँ गंगा नदी पर फरक्का बराज बना हुआ है। फरक्का के बाद गंगा दो हिस्सों में बट जाती है। पूरब वाली धारा पद्मा के नाम से बांग्लादेश चली जाती है और दक्षिण की ओर बहने वाली धारा का नाम भागीरथी है जो कि जलंगी से संगम के बाद हुगली कहलाने लगती है। कलकता और गंगा सागर के बीच में यह नदी कई भागों में बंट कर समुद्र में मिल जाती है।
बिहार में पड़ने वाली उत्तर बिहार की नदियों के बारे में यहाँ काफी बातें आ गई हैं इसलिये इसके विस्तार में न जाते हुये हम गंगा पर ही अपना ध्यान केन्द्रित करेंगे। यह नदी जब समुद्र में मिलती है तो वहाँ तो ज्वार-भाटा आता रहता है। ज्वार के असर से समुद्र का बालू नदी पर दबाव बनाता है- उसके मुहाने में घुसने का प्रयास करता है। समुद्र के इस दबाव का मुकाबला गंगा के पानी के साथ दामोदर और रूप नारायण नदियों का पानी भी करता था। इस तरह समुद्र के प्रभाव को यह नदियाँ क्षीण करती थीं। यह सब सामान्य प्रक्रियायें हैं।
अब हम दामोदर घाटी निगम की स्थापना करते हैं और उसके अधीन मैथन, पांचेत, तिलैया, कोनार आदि बाँधों का निर्माण करते हैं, दुर्गापुर, बराज बनाते हैं, उधर मयूराक्षी बाँध बनता है। पानी तो रुक गया और उसकी आवाजाही की रुकावट के फलस्वरूप बाढ़ वाला क्षेत्र बढ़ना शुरू हो गया। इसके अलावा नदी के पानी के मुक्त प्रवाह को हमने नियंत्रित कर दिया। पहले यह नदी का पानी पूरे वेग से जाकर नदी को खंगालते हुये समुद्र तक जाता था। नियंत्रित हो जाने से यह बेअसर होने लगा। अब कलकत्ता बन्दरगाह पर शामत होने लगी। फरक्का बराज का प्रस्ताव यूँ तो बहुत पहले से था मगर अब इसका निर्माण जरूरी हो गया ताकि गंगा के कुछ पानी को रोक कर एक सम्पर्क नहर द्वारा हुगली में डाला जाय जिससे समुद्र तक नदी की तलहटी की सफाई होती रहे और कलकत्ता बन्दरगाह सही सलामत बना रहे।
इसके साथ गंगा में कलकता और बनारस के बीच कोई रेल पुल नहीं था। बिधान चन्द्र राय गंगा पर एक पुल चाहते थे मगर राष्ट्रपति के प्रभाव से वह पुल बंगाल में न बन कर मोकामा में बन गया। तब बिधान बाबू ने फरक्का बराज की बात उठाई और उनका शायद यह मानना था कि फरक्का बराज अगर बनता है तो गंगा पर एक पुल बिना किसी प्रयास के बन जायेगा। इस तरह यह बराज बन गया।
नदी का एक धर्म होता है कि वह किसी भी इलाके में होने वाली बारिश के पानी को इकट्ठा कर के अपने से बड़े नदी में या फिर समुद्र में डाल दे। गंगा घाटी के इस क्षेत्र में, जिसकी हम बात कर रहे हैं 1500 से 2000 मि.मी. तक पानी बरसता है और इस पानी के एक अंश को यह नदियाँ समुद्र तक ले जाती है। यह उनका काम है- धर्म है। हिमालय पहाड़ एक कच्ची भुरभुरी मिट्टी का ढेर है। वहाँ से नदी के पानी के साथ-साथ यह मिट्टी भी आती है और इसको खेतों पर फैलाना भी नदी का काम है। इससे हमारी पैदावार बढ़ती है। हम जितने ज्यादा बाँध या बराज बनायेंगे उससे पानी रुकता है और नदी के काम में बाधा पड़ती है। फरक्का बराज का पानी अब पीछे की ओर ठेलता है।
फरक्का बराज से होकर बहाये जाने वाले पानी को लेकर भी भारी मतभेद है। कपिल भट्टाचार्य समेत कई इंजीनियरों का यह मानना था कि बराज पानी को ठीक तरह से बहा नहीं पायेगा और उसके रास्ते की रुकावट बनेगा। वही हुआ। बराज के फाटकों के सामने मिट्टी/रेत का जबर्दस्त जमाव शुरू हुआ और गंगा छिछली होने लगी और उसका पानी पीछे की ओर ठेलने लगा। इसका पहला असर महानन्दा पर पड़ा। उसका पानी अब पहले से ज्यादा देर ठहरने लगा। इससे कटाव भी बढ़ा है। पटना में गंगा की हालत अब क्या हो गई है- हम सब जानते हैं। नदियों के किनारे तटबन्ध बनाकर भी हमने पानी के रास्ते में रुकावटें पैदा की हैं।
बरौनी से पूर्णियाँ तक 203 किलोमीटर की दूरी है। कितने पुल हैं इस बीच में-केवल बूढ़ी गण्डक पर खगड़िया में और कुरसेला के पास कोसी में मात्र दो पुल हैं। इब इतने ज्यादा जल ग्रहण क्षेत्र का पानी आप इन दो पुलों में से कैसे गुजार पाएँगे? फिर इसके अलावा नदी में आने वाली सिल्ट का साल-दर-साल होने वाला जमाव ऊपर से है।
मैं पिछले वर्ष नेपाल गया था-लगभग चीन की सीमा तक। वहाँ जाने के पहले मुझे यही मालूम था कि नेपाल में जो लोग खेती करके जमीन को खुला छोड़ देते हैं या जंगल काट देते हैं उसकी वजह से मिट्टी वह बह कर हमारी नदियों में आती है। मैंने अपने नेपाली सहयोगियों को यह बात बताई तो उनका कहना था कि इस तरह की मिट्टी का नदी में आना केवल 10 प्रतिशत कारण है-असली कारण तो पहाड़ों में भू-स्खलन है। हल्का सा भूकम्प हुआ और पहाड़ ढेर हो गया- अगली बारिश में यह मिट्टी बह कर नदी में आ जायेगी। सड़कों के निर्माण के कारण भी बहुत सी मिट्टी नदियों में आ जमा होती है। नेपाल में हमने जगह-जगह बोर्ड लगे देखे हैं कि आगे देखकर जाइये, पहाड़ गिरने का अंदेशा है। इसी तरह भोट कोसी की तलहटी में मिट्टी जमा होती रहती है। एक बार जोर से पानी बरसेगा तो सारी की सारी मिट्टी हमारे यहाँ चली आयेगी। इसलिये जब तक हम इसको समग्रता में नहीं देखेंगे तब तक क्या समाधान बता सकेंगे।
यही मिट्टी फरक्का में भी है। मालदा जिले में गंगा पर छठी रिटायर्ड लाइन बन चुकी है। कहाँ तक सम्भालेंगे। वहाँ पगला नदी के माध्यम से गंगा नया रास्ता बनाने को प्रस्तुत है।
जहाँ बराह क्षेत्र बनने की बात है यहाँ भी मुझे जाने का मौका मिला। वहाँ नदी के किनारों की जमीन बहुत उपजाऊ है। वहाँ गाँव वालों से बात हुई मगर वहाँ गाँव वाले इसबात के लिये बहुत जागरूक हैं कि वह दूसरों के फायदे के लिये अपनी जमीन से नहीं उजड़ेंगे। डैम के सवाल पर नेपाल में एमाले जैसी पार्टी के दो भाग हो गये। इसलिये केवल कह देने मात्र से नेपाल में डैम नहीं बनने वाले हैं; हमारे यहाँ तो खैर धुर दक्षिण पंथी से लेकर धुर वामपंथी -सभी राजनैतिक पार्टियाँ डैम के प्रश्न पर एक हैं। इन सबको अपनी बाढ़ समस्या का समाधान दूसरी जगह दिखाई पड़ता है। क्यों नहीं अपनी जमीन पर समाधान खोजते हैं आप?
हम अपनी समस्या अपने तरीके से अपनी जमीन पर सुलझायें तो बेहतर होगा।
डॉ. योगेन्द्र प्रसाद (पटना) - बाढ़ भोगने वाले अपनी समस्याओं को अच्छी तरह समझते हैं और उनका सबसे अच्छा समाधान भी उन्हीं के पास है। इस समस्या के समाधान में मूलतः तीन चरित्र शामिल हैं- सरकार, जनता और स्वयंसेवी तथा संघर्षशील संगठन। इन तीनों के सहयोग से ही समाधान निकलेगा। आप जब कार्यक्रम तय करते हैं तब इन तीनों समूहों की भूमिका पर अवश्य विचार करें। जनता को विशेष रूप से इसमें शामिल किया जाना चाहिये। समस्या को समग्रता में देखे बिना समाधान कर पाना मुश्किल होगा। ऐसा अभी विजय जी ने भी कहा है। आपलोग लोक शिक्षण और उत्प्रेरक का काम कर रहे हैं जिससे जनता को सामाजिक राजनैतिक और तकनीकी बारीकियों को समझने का भी मौका मिलेगा।
सरकार की भूमिका एक नीति निर्धारक की और संयोजनकर्ता की होनी चाहिये। जैसा कि अभी वर्धन जी ने कहा कि रिंग बाँध बनाकर गाँवों की सुरक्षा की जा सकती है- हो सकता है आपके पास रिंग बाँधों का कोई अनुभव हो जिसके आधार पर आप इसे स्वीकार या अस्वीकार करें। इन सारी बातों को राजनीतिज्ञों को भी समझाना आपका काम होना चाहिये क्योंकि सारे निर्णय वही करते हैं।
मेरी अपनी भी एक योजना है। इंजीनियरों, भूगर्भ शास्त्रियों, राजनीतिज्ञों, समाजकर्मियों और आम जनता के प्रतिनिधियों की एक कार्यशाला करने का प्रस्ताव है। यदि सारे लोग एकत्र हो सकेंगे तो स्थानीय स्तर पर योजनाएँ बनाने में कुछ पहल हो सकेगी।
दिनेश कुमार मिश्र (जमशेदपुर) - कल से आज तक कई मित्रों ने सवाल किये हैं। मैं यथा संभव और अपनी जानकारी के आधार पर इन प्रश्नों के उत्तर देने का प्रयास करूँगा।
पहला प्रश्न है कि कमला का पूर्वी तटबन्ध हर साल टूटता है मगर ऐसी दुर्घटना पश्चिमी तटबन्ध पर कम होती है। इसका क्या कारण हो सकता है। मुझे लगता है कि नक्शे में अगर कमला की विभिन्न बदलती धाराओं को देखें तो समय के साथ वह पश्चिम से पूरब की ओर बढ़ती आ रही है। कमला की बछराजा धार, जीवछ धार, सकरी धार, पैट घाट कमला और अंततः कमला बलान - इन सबका क्रमिक विस्थापन पश्चिम से पूर्व की ओर हो रहा है। कमला की धारा जब 1954 में बलान के साथ मिल गई तो संयुक्त धारा का नाम कमला बलान पड़ा और इस धारा को तटबन्धों के बीच बाँध दिया गया। कमला के पूरब की ओर खिसकने की प्रवृत्ति अभी भी बनी हुई है और शायद इसीलिये पूर्वी तटबन्ध पर दबाव बना रहता है और वह अधिक टूटता है। जमीन पर 1934 के भूकम्प के बाद आये परिवर्तनों ने भी इस क्रिया को प्रभावित किया है। यह बातें मैं केवल अनुमान से कह सकता हूँ क्योंकि आधिकारिक सूचना हमारे पास नहीं है। आधिकारिक सूचना तो हमारे जल संसाधन विभाग के पास है जहाँ हमारी पहुँच नहीं है। वह हमें कुछ भी नहीं बताते हैं और अगर हम कभी उनसे पूछने जायें तो ऐसे-ऐसे सवाल पूछते हैं कि वहाँ कोई भी गैरतमन्द आदमी ज्यादा समय तक टिक नहीं सकता।
दूसरा प्रश्न है कि कमला नदी पर नेपाल में शीसा पानी में जो बाँध बनाने का प्रस्ताव है उससे हम बिजली पैदा कर सकते हैं। इस बाँध पर सिल्टिंग का क्या असर पड़ेगा।
इस सवाल पर हम फिर कहेंगे कि उत्तर बिहार की नदियों में हर साल कितनी सिल्ट आती है इस पर अध्ययन तो जरूर हुये हैं मगर फिर सारी सूचनायें गोपनीय हैं। हमें केवल कोसी नदी में आने वाली मिट्टी/रेत के बारे में कुछ अनुमान है। 1962 से 1974 के बीच कोसी तटबन्धों के बीच नदी के तल का नाप लिया गया था और इसके आधार पर नदी का तल किस रफ्तार से ऊपर उठ रहा है उसका अनुमान किया गया था। इस अध्ययन में पाया गया कि बीरपुर बराज से 3 किलोमीटर नीचे तक तो नदी का तल पहले से गहरा हो रहा है। यह समझ में आने वाली बात है क्योंकि बराज का फाटक खोलने पर तेज गति से निकलने वाला पानी इतनी दूरी में नदी की पेटी को खंगाल देता है। उसके बाद नदी में बालू/मिट्टी बैठना शुरू हो जाती है। महिषी से कोपड़िया के बीच में नदी तल का वार्षिक औसत उठान 12.03 सेन्टीमीटर (लगभग 5 इन्च) होता है। अगर हम तटबन्धों के बीच की दूरी को औसतन 10 किलोमीटर मान लें तो तटबन्धों के बीच महिषी और कोपड़िया के बीच हर साल 56 लाख ट्रक के बराबर मिट्टी और रेत जमा हो रही है। कोसी की पूरी लम्बाई पर पड़ने वाली मिट्टी की बात करेंगे तो यह कम से कम एक से डेढ़ करोड़ ट्रक के बीच होगी। यह हालत तब है जब कि कोसी का पानी तटबन्धों से जरूर घिरा हुआ है मगर गंगा में जाकर मिलने के लिये स्वतंत्र है। इसलिये बहुत सी सिल्ट/बालू उधर से भी प्रवाहित हो जाती है।
यह कुछ ऐसा ही है कि जैसे दो आदमी दोनों तरफ से मेरा हाथ पकड़ लें और कहें कि चलिये तो मुझे कुछ दिक्कत तो जरूर होगी मगर मैं आगे जा सकता हूँ। अब अगर मेरे सामने ही कोई मोटा-तगड़ा आदमी आकर खड़ा हो जाये और चलने को कहे तब तो मुझे वहीं खड़ा रहना पड़ेगा। उतने बड़े आदमी को हटा कर या उसकी अनदेखी करके आगे जाना सम्भव नहीं होगा। तटबन्धों और बड़े बाँधों की भूमिका कुछ इसी तरह की होती है। बड़ा बाँध सिल्ट को तटबन्धों के मुकाबले ज्यादा मात्रा में रोकेगा। बाँधों का जीवन काल इसी से नापा जाता है। जब सिल्ट/बालू से जलाशय पूरी तरह से भर जाये तब मानते हैं कि बाँध का जीवन काल समाप्त हो गया। नेपाल में बागमती पर एक कुलेखानी बाँध पिछले दशक में बना था। अनुमान था कि इसका जीवन काल सौ वर्ष का होगा। 1993 की बाढ़ में नदी में इतनी सिल्ट आई कि जलाशय पट गया और अब यह तीस साल से ज्यादा नहीं चल सकता। इस बीच अगर एक बार 1993 जैसी बाढ़ दोबारा आ जाय तो बाँध का प्रभाव समाप्त हो जायेगा। इसलिये सिल्ट का और बाँध पर सिल्ट का खतरा तो बना ही रहेगा। सिल्ट का खतरा रहेगा इसलिये कि आज जब हम कहते हैं कि बाढ़ आई। नई मिट्टी पड़ी और जबरदस्त फसल हुई तब बाँध बनने के बाद जिसे हम नई मिट्टी कहते हैं वह तो बाँध के जलाशय में ही रह जायेगी। उस समय जमीन की उर्वरा शक्ति घटेगी। यह एक ऐतिहासिक सत्य है। जहाँ-जहाँ बाँध बने हैं वहाँ-वहाँ जमीन की उर्वरा शक्ति घटी है।इसका एक दूसरा तकनीकी पक्ष भी है। आप किसी इंजीनियर के पास जाइये और कहिये कि भाई। तटबन्ध तो काम नहीं कर रहे हैं, कुछ कीजिये। तब वह जवाब देगा कि तटबन्ध तो वैसे भी काम नहीं करते, असली समाधान तो बड़े बाँध हैं। और वह बाँध बना देगा। समाज ने उसको ही काम सौंपा है। उसका काम बहस करना या तकलीफ आराम सुनना नहीं है। उनसे कहिये कि बाँध सिल्ट से भर जायेगा तब वह कहेंगे कि वह तो भरेगा ही। और जिस दिन भरेगा उस दिन देखा जायेगा। यही बात तटबन्ध के साथ भी हुई थी। जिस दिन नहीं काम करेंगे उस दिन देखा जायेगा। जनता के दुर्भाग्य से वह दिन आ ही गया है। मगर जवाब देने के लिये उनकी बिरादर का एक भी नेता, इंजीनियर या ठेकेदार हमारे बीच में आज नहीं है।
आज नेताजी से पूछा जाय कि ऐसी कैसे हुआ तो वह एक तीर से दो शिकार करते हैं। वह कहते हैं कि तटबन्ध बनाना पाप है और यह पाप हमने नहीं किया। सच यह है कि सरकार के पास पैसा ही नहीं है कि वह इस पाप कर्म में लिप्त हो। वह यह भी कहते हैं कि जब तटबन्ध बने तब दूसरी पार्टी की सरकार थी और इसलिये वह पार्टी जिम्मेवार है, हम नहीं हैं। इंजीनियरों से पूछिये तो कहेंगे कि यह तो सभी को मालूम है कि तटबन्ध बाढ़ समस्या का स्थायी समाधान नहीं है। कोसी टेक्निकल कमेटी ने तो 1974 में ही लिख कर दे दिया था कि बराह क्षेत्र बाँध नहीं बनेगा तो बाढ़ की जिम्मेवारी हमारा नहीं है। जिन पर हमने आपने भरोसा किया उनका यह हाल है।
अभी थोड़ी सी राहत है कि नेपाल में प्रस्तावित बाँध, अगर वह बनते हैं तो, बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ बनायेंगी। यह कम्पनियाँ व्यापार करती हैं और कोई भी घाटे का सौदा नहीं करेंगी। हमारी सरकार को अगर यह बाँध बनाने की क्षमता होती तो कभी के बन गये होते क्योंकि वैसे भी अगर किसी परियोजना के अपेक्षित परिणाम न निकलें या फायदे की जगह उल्टा नुकसान होने लगे तब भी सरकारी हलकों में किसी की जिम्मेवारी नहीं बनती। जब आप सवाल पूछने की स्थिति में आयेंगे तब तक पूरी टीम बदल चुकी होगी। आज यह लोग कहते हैं न कि तटबन्ध बनाने वाले ने सब कुछ सोचा मगर सिल्ट के बारे में नहीं सोचा। नेपाल के बाँध बनने के बाद भी आज से पचास साल बाद यही होने वाला है। वह कहेंगे कि बाँध बनाने वालों ने सब कुछ किया मगर वनीकरण के बारे में नहीं सोचा जिससे सिल्ट पर नियंत्रण होता। तब वह तीस साल तक जंगल लगायेंगे और कमायेंगे खायेंगे।
बाढ़ फिर भी नहीं रुकेगी क्योंकि अंग्रेजों ने 1723 से 1947 साल तक कोसी के विस्थापन के नक्शे बना कर रख छोड़े हुये हैं। 1723 में कोसी की तराई से लेकर पहाड़ तक जंगल ही जंगल थे। अंग्रेजों की एक भी कुल्हाड़ी तब तक इन जंगलों पर नहीं पड़ी थी मगर नदी फिर भी धारा बदलती थी। यह सवाल उठाइये तो नेताजी तो मुँह ताकेंगे और हो सकता है कि इंजीनियर साहब कहें कि हिमालय कच्ची मिट्टी के पहाड़ हैं और वहाँ भूकम्प बहुत आता है जिसके कारण पेड़ पौधे भी मिट्टी की रक्षा नहीं कर पाते, इसलिये नदियों में सिल्ट बहुत आती है और उनकी धारा बदल जाती है। तब प्रश्न है कि आपके बराह क्षेत्र बाँध बना देने से हिमालय में भूकम्प आना रूक जायेगा क्या? और यह रोज आने वाले भूकम्प बाँधों को छोड़ देंगे क्या? इन सारी चीजों का जवाब न तो उनके पास है और न ही वह इन सब फिजूल की चीजों के बारे में सोचना ही चाहते हैं। उन्हें तो अर्जुन की तरह चिड़िया की केवल एक आँख-बराह क्षेत्र बाँध ही दिखाई पड़ता है। उनके पास न तो बहानों की कमी है और न ही कभी काम की कमी रहेगी।
तीसरा प्रश्न कामेश्वर जी का है कि रिंग बाँधों की उपयोगिता के बारे में तो मैं कहना ही चाहूँगा कि बाढ़ से बचाव के इस तरीके में नदी को तो खुला छोड़ देते हैं मगर गाँवों या शहरों को रिंग की शक्ल में बाँध बना कर घेर देते हैं ताकि नदी का पानी रिंग में न घुस सके। बिहार में हमारे यहाँ निर्मली और महादेव मठ दो ऐसे कस्बे हैं जो कि रिंग बाँधों के बीच बसे हैं। यह निर्माण कोसी तटबन्धों के साथ-साथ पचास के दशक में किया गया था। रिंग बाँधों की मदद से सुरक्षित किये गये गाँव बरसात में प्रायः नदी की धारा में आ जाते हैं। नदी के द्वारा भूमि निर्माण की प्रक्रिया निरंतर चलते रहने के कारण अब सिल्ट का जमाव रिंग के बाहर शुरू होता है। विस्तृत इलाकों पर नदी के उन्मुक्त बहने के कारण रिंग बाँधों के बहार सिल्ट का जमाव तटबन्धों के बीच के सिल्ट जमाव से निश्चित रूप से कम होता है पर रुकता नहीं है। समय के साथ जब रिंग के बाहर सिल्ट का जमाव काफी ऊँचा हो जाता है तब रिंग बाँध को ऊँचा और मजबूत करने की मांग उठती है। रिंग बाँध को ऊँचा करेंगे तो गाँव उसी अनुपात में नीचे चला जायेगा और उस पर नदी के पानी का खतरा पहले से ज्यादा बढ़ जाता है। अगर कभी दुर्योग से रिंग बाँध टूट जाये तो लोगों को भागने तक का मौका नहीं मिलेगा। रिंग बाँध के बारे में एक बड़ी दिलचस्प टिप्पणी कैप्टेन जी. एफ हाल ने की है जो कि 1937 में बिहार के चीफ इंजीनियर थे। उन्होंने कहा कि रिंग बाँध जब तक बाढ़ से सुरक्षा देते हैं तभी तक सब ठीक है और अगर यह टूटते हैं तो उन्हीं लोगों की जल समाधि का कारण बनेंगे जिनकी रक्षा के लिये इनका निर्माण किया गया था।
इसके अलावा बारिश का जो पानी रिंग बाँध के अन्दर गिरता है उसके कारण रिंग के अन्दर भी चैन से सुरक्षित होकर नहीं रहा जा सकता। निर्मली में जब रिंग बाँध बना था तब वहाँ तीन स्थानों पर 49-49 हार्स पावर के पम्प लगाये गये थे पानी निकालने के लिये। उनमें से एक पम्प हाउस का अब नामोनिशा नहीं है। दूसरे का केवल फर्श बचा है और केवल तीसरा काम करता है। बरसात के मौसम में निर्मली में नावें चलती हैं। 1981 में एक बार वह एन्टी फ्लड स्लुइस जिसकी मदद से निर्मली का पानी निकाला जाता था जाम हो गया था। उस साल नदी का पानी कस्बे में घुस गया था।
असल में डिब्रूगढ़ के तीन ओर से बाँध बना हुआ है। वहाँ भी परिस्थितियाँ लगभग इसी तरह हैं और पानी को पम्प करके निकालना पड़ता है। शहर की रक्षा के लिये प्रायः हर साल सेना बुलानी पड़ती है।
उत्तर प्रदेश में आजमगढ़ और जौनपुर शहरों के चारों ओर भी इस तरह के रिंग बाँध हैं। 1976 में आजमगढ़ में जो टोंस नदी का पानी घुसा था वह एक पखवाड़े से अधिक तक बना रहा था।
आज हमारे बीच निर्मली रिंग बाँध की योजना बनाने वालों तथा बाँध बनाने वालों में कोई भी मौजूद नहीं है। बाकी लोग ‘तो हम क्या करें’’ की मुद्रा में बात करते हैं।
चौथा प्रश्न बाढ़ के पानी को बेहतर उपयोग में किस तरह लाया जाय- इस पर पूछा गया है। हाँ, हमारे यहाँ बरसात के मौसम में पानी निश्चित रूप से ज्यादा है। आपने वाटर शेड मैनेजमेंट या जल छाजन योजना के बारे में सुना होगा। उसका पहला सिद्धांत है कि पानी की जो बूँद जिस जमीन पर गिरती है वह उसी जमीन की मिल्कियत है। पानी की उस बूँद का स्थानीय उपयोग हो जाने के बाद ही उसे आगे जाने दिया जायेगा। जो इस बात को चिल्ला कर कहता है कि बाढ़ वाले पानी को दूसरी जगह पहुँचा दो। कमी वाले इलाके को दे दो। क्यों? उत्तर बिहार में पानी ज्यादा है और छोटानागपुर में मान लीजिये कम है तो इस पानी को छोटानागपुर भेज दिया जाय? या फिर गंगा नदी में पानी ज्यादा है और कावेरी में कम तो इस पानी को कावेरी में डाल दिया जाय जो कि डॉ. के.एल. राव का सपना था। क्यों? यह कौन तय करेगा कि पानी का उपयोग हमने किया या नहीं और यह हमारी जरूरत से फाजिल है या नहीं?
उत्तर प्रदेश की सिंचाई विभाग की रिपोर्टों में बार-बार यह कहा जाता रहा है कि हमारे यहाँ से गुजरने वाला 37 प्रतिशत पानी राज्य से बाहर चला जाता है। मगर उसी समय रिपोर्ट यह भी चेतावनी देती है कि इसका यह मतलब एकदम नहीं है कि इस पानी का हमारे यहाँ उपयोग नहीं है।
वाटरशेड मैनेजमेन्ट के नाम पर हमलोगों के यहाँ एक अच्छी खासी नौटंकी चल रही है। यह पूरी योजना एक पूर्व कल्पना पर आधारित है कि पानी की बूँद को उसके गिरने वाले स्थान पर रोक लिया जाय तो उसका कुछ अंश जमीन के अंदर रिस कर नालियों, नालों से होता हुआ नदी तक पहुँचेगा। ऐसा अधिकांशतः होता भी है पर केवल यही होता है यह कोई भी अधिकार के साथ नहीं कह सकता क्योंकि विभिन्न स्थानों की परिस्थितियाँ अलग-अलग हो सकती हैं। अभी अगर आप इस तरह का सवाल उठायें तो सारे संबंद्ध लोग ‘‘चुप चुप, बोलो मत, बोलो मत’’ की सलाह देंगे। इन सब कामों का समय के स्केल पर क्या परिणाम होगा-किसी ने नहीं देखा है।
एक बार मैं डॉ. गुरुदास अग्रवाल के साथ 1996 की बाढ़ के बाद राजस्थान गया था। वहाँ भरतपुर जिले में साहिबी तथा अलवर में रूपारेल नदी को देखा। साहिबी से 27 नहरें निकाली गई हैं जिनसे भरतपुर में अच्छे खासे इलाके में सिंचाई होती है। मगर वही नदी कम्मा प्रखण्ड में आकर अपना अस्तित्व खो देती है। उसकी हत्या हो जाती है। डॉ. जी.डी. अग्रवाल ने इलाके का नक्शा जमीन पर बिछाया हुआ था। मैं उनके सामने खड़ा था। उन्होंने मुझसे कहा कि बिना झुके हुये बताओं कि यह नदियाँ कहाँ जा रही हैं। उतना ऊपर से मैं केवल लाइनें देख सकता था, लिखा हुआ नहीं पढ़ सकता था। मेरे जो समझ में आया वह उन्हें बताया। फिर उन्होंने बैठकर नक्शा देखने को कहा। खड़े होकर मुझे नदी की जो दिशा लगी थी उसका ठीक उल्टा बैठकर देखने को मिला क्योंकि अब मैं नक्शों में दिशा भी देख सकता था और लिखा हुआ भी पढ़ सकता था। जिन्हें खड़ा होकर मैं नदियों की सहायक धारा समझ रहा था वह नदी से निकाली गई नहरें थीं और जहाँ यह लगता था कि नदी का उद्गम है वहाँ जाकर नदी खत्म हो जाती थी।
इसलिये पानी का उपयोग करना बहुत अच्छी बात है मगर दो बातों का ध्यान रखना चाहिये कि एक तो पानी पर से अपना हक न छोड़ें और दूसरा कि उपयोग के नाम पर किसी भारी और विचित्र समस्या में न फँसे। एक अंग्रेज इंजीनियर थे पीटर सालबर्ग, जिनका कहना था कि इंजीनियरों के बुद्धि कौशल और सरकार के संसाधनों के संयोग से जो आसुरी विधा पैदा होती है उसका निस्तार बहुत मुश्किल से होता है। मैं एक मिसाल देता हूँ। मान लीजिये कि मैं किसी अकूत संसाधन वाले आदमी को यह सलाह दूँ कि यह बिल्डिंग जिसमें हम बैठे हैं उसे एक फव्वारे पर स्थापित किया जा सकता है। अगर उसके समक्ष में बात आ जाय तो मुझे बस इतना ही करना है कि फव्वारे के पानी के दबाव को बिल्डिंग के वजन के बराबर कर देना है। बिल्डिंग पानी पर टिकी रहेगी। मेरा भी नाम होगा और संसाधन जुटाने वाले का भी नाम होगा। मगर भविष्य में कुछ गड़बड़ हुई तो पूरी की पूरी बिल्डिंग लिये दिये नीचे आ जायेगी। तब बहाने खोज लिये जायेंगे। इसलिये वही काम करना चाहिये जो सहज हो, और टिकाऊ हो। जब हमारे संसाधन सीमित हों तब यह और भी जरूरी हो जाता है।
पाँचवा प्रश्न है कि दक्षिण भारत विशेष कर तमिलनाडु में जलाशयों और तालाबों की बहुत कारगर व्यवस्था थी जिससे स्थानीय नियंत्रण और प्रबंधन से लोग पानी का अच्छा उपयोग कर लेते थे। जी हाँ! यह बात एकदम सही है और केवल तमिलनाडु में ही नहीं, राजस्थान तक में पानी के सामूहिक उपयोग की बहुत ही कारगर और निर्भर योग्य व्यवस्था थी।
उतनी दूर न जाकर पहले अपना घर देख लें। झंझारपुर के पास एक परतापुर गाँव है। कभी बहुत सम्पन्न गाँव था, सभा गाछी लगती थी वहाँ। आजकल बेचिरागी है। वह गाँव बलान के किनारे बसा था। इसमें एक बड़ा और तीन छोटे तालाब थे। बड़ा वाला तालाब सब के ऊपर था और एक छोटे नाले के जरिये बलान से जुड़ा था। जब नदी में बाढ़ आती थी तो गाँव वाले नाले का मुँह खोलकर बलान के पानी से तालाब को भर लेते थे। बलान की बाढ़ के पानी की ऊपरी सतह का ही पानी नाले से घुस पाता था। इस तरह बालू आने की संभावना जाती रहती थी और केवल सिल्ट वाला पानी तालाब में आता था। इन तालाबों की मदद से रबी की फसल पैदा की जाती थी। गाँव में चार-चार तालाब होने के कारण कुएँ कभी सूखते नहीं थे। मखान-मछली भी खूब होती थी। नदी के मुक्त रहने के कारण बाढ़ कभी 3-4 फुट के ऊपर नहीं चढ़ पाती थी। वैशाख संक्रान्ति के दिन सारा गाँव मिलकर इन तालाबों की सफाई करता था। वहाँ कोई सीशापानी बाँध या कमला नहर नहीं थी। सारी व्यवस्था गाँव की थी और अपनी थी। खूब धान होता था और जीवन धारा चलती रहती थी। कमला बलान पर तटबन्ध बनने के बद गाँव ही उजड़ गया।
कोसी क्षेत्र की यही स्थिति थी। बाढ़ के समय तकलीफें निश्चित रूप से थीं मगर जीवन पर आफत नहीं थी। पूरब में लच्छा धार से लेकर पश्चिम में लंगुनियां धार तक कोसी 16 धाराओं में बहती थी। और उसके बाढ़ के पानी की गहराई कभी भी अज जैसी नहीं होती थी। अगर किसी इलाके में भयंकर बाढ़ हुई तो उस घटना को छोड़कर बाकी इलाकों में जम कर धान होता था। उसमें भी बीस बीस पच्चीस पच्चीस फुट डुबान तक बर्दाश्त करने वाले धान की किस्में थी। इसे लोग बोते भी थे और काटते भी थे। वह लोग केवल बाढ़ का तमाशा नहीं देखते थे ओर न कभी हार मानते थे। रबी के मौसम में इन धारों पर छोटे-छोटे बाँध बनाकर खेतों तक पानी पहुँचाने में मिथिला वालों का सानी नहीं था।
वहीं दरभंगा में आज से सौ साल पहले एक इंजीनियर हुआ करता था। आर.एस. किंग नाम था उसका। 1896 के अकाल में अंग्रेज हुकूमत ने 74,000 रुपया मधुबनी में राहत कार्यों के लिये रखा था। इन्हीं आहार और पाइन की मदद से किंग ने 45,000 एकड़ जमीन पर रबी की खेती की थी और केवल 10,000 इस मद से लिया था और उससे भी राहत नहीं बांटी थी- बाँध और पाइन तैयार किये थे। वैसे भी इस इलाके में न तो अकाल पड़ा और न ही अनाज के दाम ही कभी आश्चर्यजनक रूप से बढ़े।
छठा प्रश्न है कि क्या हम बाढ़ नियंत्रण के स्थान पर बाढ़ प्रबंधन नहीं कर सकते। इससे बाढ़ समस्या का समाधान हो सकेगा।
यह बाढ़ प्रबंधन बड़ा ही भ्रामक शब्द है। 1954 में जब पहली (और आखिरी भी) बाढ़ नीति की घोषणा गुलजारीलाल नंदा ने की थी तब उन्होंने बाढ़ नियंत्रण शब्द का प्रयोग किया था। 1955 में कोसी पर तटबन्ध बनना शुरू हुआ और इसके निर्माण के दौरान ही 1956 मे जबर्दस्त बाढ़ आई। तब नन्दा जी का एक और बयान आया कि बाढ़ का नियंत्रण पूर्ण रूप से सम्भव नहीं है इसका प्रबन्धन करना पड़ेगा। इस तरह भारदह से मरौना तक का तटबन्ध बाढ़ प्रबंधन के नाम पर बना। मेरे कहने का मतलब सिर्फ इतना है कि बाढ़ से बचाव को आप चाहे नियंत्रण कह लें या प्रबन्धन-बना तो तटबन्ध ही। आजकल वह एक नया शोशा छोड़ रहे हैं कि हमें बाढ़ के साथ जीना सीखना चाहिये। बहुत अच्छी बात है क्योंकि उसके सिवाय चारा भी नहीं है। फिर सरकार यह क्यों कहती है कि बराह क्षेत्र बाँध ही उत्तर बिहार की बाढ़ समस्या का असली और अंतिम समाधान है। आप जो बोलते हैं या कहते हैं उसका मतलब समझते हैं? मेरा नाम मेरे घर वालों ने दिनेश कुमार रखा, अगर वह गंगा राम भी रखते तो भी मैं वही रहता जो आपके सामने खड़ा हूँ। बाढ़ का प्रबन्धन करते हैं हमलोग जोकि बिना किसी तटबन्ध, बराह क्षेत्र बाँध या इंजीनियर की मदद के हजारों वर्षों से जिन्दा हैं। हम तब भी जिन्दा हैं जब बाढ़ को सरकार ने बिल्ली से बाँध में बदल दिया। उनका कोई इंजीनियर आपसे पूछने आया कि आपने 1968, 1978 या 1987 की बाढ़ में या अभी हाल की 1998 वाली बाढ़ में आप बच कैसे गये? वह क्या खा के आप लोगों की बाढ़ के साथ जीना सिखायेंगे? पहले आकर यहाँ सीखें तब आगे बात करें।मेरी गुजारिश है कि नामों के छलावे में न जायें और नीतियों का विश्लेषण करके अपनी राय बनायें। एक अन्ना हजारे ने पूरे देश में सिंचाई का स्वरूप बदल दिया। वह कोई इंजीनियर नहीं है- फौज के एक सिपाही थे। मगर इतना बड़ा काम किया। पता नहीं आप में कोई बाढ़ के इलाके का अन्ना हजारे बैठा हो। फिर भी बाढ़ के सवाल पर एक विचार मंथन की आवश्यकता है और नामों के चक्कर में हमें नहीं फंसना चाहिये।
डॉ. शारदा नन्द चौधरी (दरभंगा) - नदी किनारे तोड़कर बहने लगे तो बाढ़ की परिस्थिति बनती है। जहाँ हम बैठे हैं उनके उत्तर में हिमालय है जो कि अपने नाम के अनुसार बर्फ से ढका हुआ है। उत्तर पश्चिम की ओर बहने वाली हवायें इसे टकरा कर पानी बरसाती हैं। हिमालय के नीचे हमारी गंगा घाटी के मैदान हैं जो कि सीपी की शक्ल में हैं। हम गंगा के उत्तरी किनारे पर हैं। उत्तर से आने वाली नदियाँ गंगा से मिलती हैं और अपना पूरा पानी गंगा में ढाल नहीं पाती। अतः यहाँ बाढ़ आती है।
उत्तर बिहार की गरीबी इसी बाढ़ के कारण है जो कि एक प्राकृतिक विपदा है। पानी को तुरन्त बिना किसी नुकसान पहुँचाये समुद्र तक पहुँचा देना आसान नहीं है और इस पानी के साथ अब तालमेल बैठाना भी सम्भव नहीं रहा। लेकिन पानी नाक तक आ जाय तब हम एडजस्ट कर सकते हैं क्या? ऐसी स्थिति में कुछ उपाय किया जा सकता है। एक तरीका हो सकता है कि गंडक से महानन्दा तक के बीच जितनी भी नदियाँ हैं उन्हें भारत-नेपाल सीमा के साथ मिला दें। बाढ़ सारी नदियों में एक साथ नहीं आती। नदियों को जोड़ देने से इस पानी का समायोजन किया जा सकता है।गाद के जमाव के कारण नदियों का लेवल ऊपर उठ रहा है। नदियों की अगर उधाड़ी कर दें इस समस्या का हल किया जा सकता है। हमारे पास मजदूरों की कमी नहीं है- उन्हें रोजगार मिल सकेगा और इस खोदी गई मिट्टी/बालू से हम ईंटे बना सकते हैं। इसका उपयोग हो जायेगा।
उत्तर बिहार के पानी की निकासी के पुलों की शक्ल में मात्र तीन रास्ते हैं- हाजीपुर के पास गंडक पर, खगड़िया के पास बूढ़ी गंडक पर और कुरसेला के पास कोसी पर। इन रास्तों को बढ़ा देने से ज्यादा पानी निकल सकेगा।हमारे यहाँ फ्लैश फ्लड की समस्या नहीं है मोरवी की तरह जहाँ बाँध टूटने से दस हजार लोग मारे गये थे। हमारी बाढ़ प्राकृतिक है। यहाँ ऐसी दुघटनायें नहीं होती। नदियों को जोड़ देने से निश्चित रूप से फायदा होगा।
डॉ. विद्या नाथ झा (दरभंगा) - मैं बाढ़ रोकने पर बोलने के लिये तो उतना सक्षम नहीं हूँ पर हमारी जो वनस्पति संपदा और जल संपदा है उसका दोहन किस प्रकार किया जाय, उस पर मैं बात करूँगा। वनस्पति संपदा में हमारे पास गहरे पानी में होने वाली धान की किस्में हैं जो कि जल-जमाव वाले क्षेत्रों में ली जा सकती हैं। इनका उत्पादन भी काफी होता है। कई अन्य देशों में भी इन किस्मों पर शोध हो रहा है। कल कहा गया था कि हमारे देश में अलग-अलग परिस्थितियों के लिये धान की 30,000 किस्में हुआ करती थीं जो सिमट कर अब कुछ सौ पर आ गई हैं। अब हम मानते हैं कि अन्न के मामले में हम आत्मनिर्भर हो चुके हैं। फिर भी जनसंख्या का बढ़ना जारी है और और पंजाब/हरियाणा में भी नतीजा अन्न का उत्पादन सम्भव था वह सीमा तक पहुँच चुका है।
हम हरित क्रांति भी कर चुके हैं और उत्तम किस्म के बीजों का भी प्रयोग कर चुके हैं। अब अगर उत्पादन बढ़ाना हो तो क्या करेंगे? वैज्ञानिकों का कहना है कि अन्न की जिन किस्मों को हमलोगों ने छोड़ दिया था, जिनसे विपरित परिस्थतियों में भी कुछ न कुछ उत्पादन होता ही था, उन पर फिर काम किया जाये। बाढ़ वाले क्षेत्रों में धान की किस्मों का फिर से प्रचार किया जाय। उत्तर बिहार में और विशेषकर मिथिलांचल में मखाने की खेती की प्रचुर संभावनाएं हैं, उनको बढ़ाया जाय। जल-जमाव तो हरियाणा में भी है पर वहाँ मखाना नहीं उपजता है। हमारे पानी और मिट्टी में कुछ ऐसी विशेषता है जो मखाना यही होता है। हमारा मखाना किसी भी अन्य जगह होने वाले मखाने से ज्यादा बेहतर होता है।
मखाना और उसके अन्य उत्पादों की बिक्री पर शोध होना बाकी है। मखाने में वजन बहुत कम होता है और यह जगह काफी घेरता है। इसलिये इसको एक जगह से दूसरी जगह भेजना बड़ा महँगा पड़ता है। इसका समाधान हो सकता है अगर इससे दूसरे उत्पादन तैयार किये जायें। पानी में सिंघाड़ा (पानी फल) खूब होता है और उसका भी अच्छा बाजार है। कमल के फूल तथा फलों का अच्छा बाजार है। कमल की अलग-अलग किस्मों का भी अच्छा खासा बाजार है।
जलकुंभी की हमारे इलाके में बड़ी समस्या है। यह हमारे देश की वनस्पति भी नहीं है। कहते हैं कि कोई अंग्रेज महिला इसे यहाँ लाई थी और वहीं से यह सारे देश में फैली। इससे कागज बनाने का प्रयास किया गया जो सफल नहीं हुआ। फिर इसका उपयोग खाद में, कम्पोस्ट में और बायो गैस में खोजा गया मगर इसका सही उपयोग अभी भी खोजा जाना है। इसी तरह आइपोमिया नाम का एक शैवाल होता है जिसमें 60 प्रतिशत प्रोटीन होता है जिसकी टिकिया बना कर बेची जा सकती है। करमी का साग है जिसको तरह तरह की खाद देकर ज्यादा उत्पादन किया जा सकता है। चीन आदि देशों में इस तरह के प्रयोग हुये भी हैं।
अब देखिये कि मछली उत्पादन की क्या स्थिति है। यहाँ पर आधुनिक तौर-तरीकों से तो हमने उत्पादन लगभग नहीं के बराबर किया है पर हमारे पास जो प्राकृतिक संसाधन है उसमें मत्स्य पालन की बहुत संभावनाएं हैं। वैज्ञानिक मानते हैं कि मछली का उत्पादन 30 से 150 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर तक संभव है। जिस तरह की प्राकृतिक क्षमता हमारे पास है उसके हिसाब से हम 1500 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष तक उत्पादन कर सकते हैं। मछली के साथ-साथ घोंघा और कछुआ आदि भी पैदा किये जा सकते हैं।
महेसी में प्राकृतिक सीप का बटन का उद्योग बड़ा मशहूर रहा है। इसका निर्यात भी हुआ करता था। यह उद्योग आधुनिक उत्पादों के आगे टिक नहीं पा रहा है मगर उन्होंने इसके विरुद्ध संघर्ष किया है। फिर पोइला है उसको परिमार्जित किया जा सकता है। इसको प्राकृतिक खाद के रूप में भी व्यवहार किया जा सकता है।
इस तरह हम अपनी जल सम्पदा तथा वनस्पति सम्पदा का अधिकतम उपयोग कर सकते हैं।
दिनेश कुमार मिश्र (जमशेदपुर) - मेरे पास फिर कुछ प्रश्न हैं जिन पर कुछ चर्चा होना जरूरी लगता है।
एक प्रश्न नदियों की उघाढ़ी का है। मैंने कल भी कहा था कि हमारी नदियों में बहुत ज्यादा मात्रा मिट्टी/रेत की आती है। हर साल अकेले महिषी से कोपड़िया के बीच में कोसी नदी में 56 लाख ट्रक मिट्टी बैठती है। यदि इस मिट्टी को मध्य दिसम्बर से लेकर मध्य मई तक खोदकर निकाला जाय जिससे कि नदी के तल को आज के लेवेल पर बनाये रखा जा सके तो इस इलाके से प्रतिदिन 37,000 मिट्टी से लदे ट्रक रवाना करने पड़ेंगे। इतने ट्रकों को अगर एक लाइन में खड़ा कर दिया जाय तो इसकी लम्बाई 265 किलोमीटर होगी जो कि लगभग महिषी से पटना तक की दूरी है। मगर यह मिट्टी पटना में नहीं गिराई जा सकती। इसकी जगह शायद बंगाल की खाड़ी में होगी। बंगाल की खाड़ी तक रोज 37,000 ट्रक ले जाने के लिये एक बहुत ही चौड़ी सड़क की जरूरत पड़ेगी जिस पर यह ट्रक आ जा सके।
नदी को चौड़ा और गहरा करने पर सड़कों पर बने सभी वर्तमान पुलों को भी बढ़ाना पड़ेगा। किसी भी नदी की खुदाई करने का तब तक कोई मतलब नहीं होगा जब तक कि मुख्य धारा गंगा की भी खुदाई न की जाय; और जब तक फरक्का बराज और उसकी कंक्रीट की बनी आधारशिला रहेगी तब तक गंगा की खुदाई का भी कोई मतलब नहीं होगा क्योंकि नदी के तल के लेवेल को यही कंक्रीट का बना आधार निर्धारित करता है।
एक बार को मान लिया जाय कि फरक्का बराज है ही नहीं। फरक्का के नीचे गंगा दो भागों में विभक्त हो जाती है। इसकी एक धारा दक्षिण-पूर्व दिशा में बहते हुये पद्मा के नाम से बांग्लादेश में प्रवेश करती है और दूसरी धारा भागीरथी के नाम से दक्षिण को जाती है जिसको निचले इलाके में हुगली कहते हैं। कलकत्ता इसी के किनारे बसा हुआ है। पद्मा की खुदाई हम राजनैतिक कारणों से नहीं कर सकते। भागीरथी की खुदाई कर सकते हैं। उस हालत में गंगा का सारा पानी हुगली होकर बहने लगेगा। बांग्लादेश ऐसा कभी होने नहीं देगा।
अगर एक बार को भागीरथी/हुगली को खोद भी लिया जाय तो समुद्र से इस नदी के संगम का लेवल तो स्थिर है। खुदी हुई नदी में समुद्र के पास सिल्ट जमा होना शुरू होगी और कुछ दिनों में ही नदी वापस अपने लवेल पर आ जायेगी।
नदियों की खुदाई केवल वहीं सम्भव है जहाँ नदी के प्रवाह में सिल्ट की मात्रा बहुत कम है और नदी का आकार बहुत ही छोटा है। उत्तर बिहार की नदियों के बारे में इस तरह की कल्पना पूरी तरह से अव्यावहारिक है।
दूसरा प्रश्न नदियों को एक दूसरे से जोड़ देने का है। नदियों को नहरों के माध्यम से जोड़ने में घनी आबादी वाले क्षेत्रों में विस्थापन/पुनर्वास की समस्या आड़े आती है। जहाँ तक मेरी जानकारी है भारत में इस तरह का एक प्रयास 1882 में महानदी और ब्राह्मणी नदी को बिरूपा के माध्यम से जोड़ा गया था और इस तरह महानदी के पानी को ब्राह्मनी में प्रवाहित किया गया था। और यह प्रयोग हाथ में लेकर छोड़ देना पड़ा था। उसके बाद कोई कोशिश ही नहीं हुई।
इस तरह का एक प्रस्ताव ब्रह्मपुत्र को गंगा से जोड़ने का है। असम में जागीघोपा से फरक्का तक प्रस्तावित इस 324 किलोमीटर लम्बी और 800 मीटर चौड़ी नहर पर बांग्लादेश को सख्त ऐतराज है जिनमें विस्थापन भी एक कारण है। यह नहर बनाने पर करीब दस लाख लोगों का विस्थापन होगा। यही हालत संकोष को गंगा से जोड़ने वाली प्रस्तावित नहर की है। यहाँ हमारे जो मित्र सीतामढ़ी से आये हैं उन्होंने देखा होगा कि 1978 से लेकर 1989 बागमती नदी को बेलवाधार से लेकर कलंजर घाट तक आंशिक रूप से मोड़ने की कोशिश की गई। हर साल बेलवाधार पर रेगुलेटर बनाने की कोशिश होती थी और यह बरसात में बह जाता था। यह काम हार कर छोड़ देना पड़ा। इसीलिये सीमित साधनों के बीच यह काम आसान नहीं होता। साधन असीमित हों तब शायद बात अलग हो।
तीसरा प्रश्न है कि उत्तर बिहार की जमीन को समतल कर दिया जाय तो बाढ़ की समाधान हो सकता है। यह एक बड़ा विचित्र प्रश्न है और इस तरह का समाधान फिर अव्यावहारिक है। मुझे याद आता है कि 1956 में जब बूढ़ी गंडक पर तटबन्ध बन रहा था तब समस्तीपुर जिले में इसका निर्माण एक किनारे से शुरू हुआ। जब बरसात आई तो सारा पानी दूसरे किनारे से बह निकला और उस तरफ हालात पहले से कहीं ज्यादा खराब हो गई। स्थिति का जायजा लेने के लिये तब समस्तीपुर में एक बाढ़ सम्मेलन हुआ। उस सम्मेलन में एक साहब ने प्रस्ताव किया कि अगर हम मिट्टी खोद कर हिमालय जैसी एक संरचना अपनी पूर्वी समुद्री सीमा पर बना लें तो सारा पानी इसी नये पहाड़ से टकरा कर समुद्र में ही बरस जायेगा। तब हम इस पहाड़ के रेन शैडो क्षेत्र में आ जायेंगे। तब यहाँ न तो पानी बरसेगा और न बाढ़ आयेगी। अब इस प्रस्ताव को आप बाढ़ समस्या का समाधान मानेंगे क्या?
आदमी को जब धूप लगी तो उसने छाते का आविष्कार किया और छाता अभी तक चल रहा है। वह सूरज को ही ढक देने का भी प्रयास कर सकता था और धूप से बचने का यह भी एक तरीका हो सकता है। पर यह व्यावहारिक है क्या?
चौथा प्रश्न नेपाल में प्रस्तावित बाँधों और उन पर भूकम्प के प्रभाव का है। यह भी कहा गया है कि अब तो तकनीक आज से पचास साल पहले के मुकाबले ज्यादा विकसित है। इसलिये बाँध का निर्माण संभव हो सकता है क्या? यह सच है कि पिछले वर्षों में निर्माण तकनीक बेहतर हुई है पर भूकम्प का मामला सुझ गया है, इस पर संदेह है। 1954 में जब कोसी तटबन्धों के निर्माण को अंतिम रूप दिया जा रहा था तब बिहार विधानसभा में (22 सितंबर) एक प्रश्नकर्ता ने पूछा कि कोसी पर तो बराह क्षेत्र बाँध बनने वाला था, अब तटबन्ध क्यों बनने जा रहा है। जवाब में अनुग्रह नारायण सिंह ने कहा था कि सरकार निचले इलाके में रहने वाले लोगों की सुरक्षा के प्रति चिन्तित हैं क्योंकि हिमालय भूकम्प वाला क्षेत्र है। इसलिये बाँध नहीं बनेगा उनकी जगह तटबन्ध बनाये जा रहे हैं। बाद में भूगर्भ वैज्ञानिकों ने भी इसकी पुष्टि की। यह आशंका अभी भी व्यक्त की जाती है कि इस क्षेत्र में 1934 वाले मुजफ्फरपुर जैसे भूकम्प (8.4 रिक्टर स्केल) की संभावनायें बनी हुई हैं अतः बड़े बाँध बनाना सुरक्षित नहीं होगा।
टिहरी बाँध को लेकर भूकम्प पर काफी बहस हुई थी और भले ही इस बाँध का निर्माण चल रहा हो मगर वैज्ञानिकों के मतभेद अभी भी सुलझे नहीं है। प्रो. शिवाजी राव, जो कि टिहरी बाँध की रिव्यू कमेटी में भी थे, बाँध की डिजाइन से संतुष्ट नहीं थे और उन्होंने बाद में इससे इस्तीफा भी दे दिया था। असंतुष्ट चाहते हैं कि क्षेत्र में आने वाले भूकम्पों का व्यावहारिक समाधान हो और बाँध टूटने की स्थिति में जो आपदा प्रबंधन का खर्च होगा और इस तरह की विपत्ति का मुकाबला करने के लिये जो तैयारी चाहिये उसका खर्च बाँध की लागत में डाल दिया जाय। यदि ऐसा किया जाय तो लाभ के मुकाबले लागत बढ़ जायेगी। मगर इन सब वैज्ञानिक मतभेदों के बावजूद सरकार तो सरकार है। वह तो बाँध बना ही सकती है।
यहाँ प्रश्न यह उठता है कि जैसे आज की हमारी बाढ़ की परिस्थिति है उसका मुकाबला समाज अपने दम पर, अपने खर्चों पर, अपनी सामर्थ्य पर और अपनी युक्ति से करता है। बाहर से मिलने वाली खैरात हमारी जरूरतों के मुकाबले पासंग में भी नहीं बैठती। जब तटबन्ध बन रहे थे तब का समाज क्या यह जानता था कि उसकी तब की योजनाओं की भविष्य में क्या कीमत देनी पड़ेगी? आज हम जिस मुकाम पर हैं वहाँ पर नेताओं और इंजीनियरों की कोई भूमिका बची है सिवाय इसके कि अब वह हमें बराह क्षेत्र बाँध के नाम पर बेवकूफ बनायें। वह पिछले पचास वर्षों से ऐसा कर भी रहे हैं। क्या हमारा समाज उस सीमा को जानता है जहाँ नेता और इंजीनियर उसका साथ छोड़ देंगे और वह अकेले विपत्ति को भोगेगा। क्या समाज की आज वैसी तैयारी है या भविष्य में हो पायेगी। अगर तैयारी होगी तो क्या समाज इसकी कीमत जानता है?
डॉ. अमरेन्द्र प्रसाद (पटना)बाढ़ से मेरा संयोग 1962 में हुआ था। हमलोग तब हवेली खड़गपुर में रहते थे। वहाँ जब बाँध टूटा तो पूरा इलाका जलमग्न हो गया। हमारे घर की मिट्टी की दीवार गिर गई थी मगर हमलोग रसोई में खाना खाने बैठे थे सो बच गये। 1971 में हमलोग दरभंगा आ गये तब से इस इलाके की बाढ़ भी देखी। मगर मुझे तब और अब की बाढ़ में बड़ा अन्तर लगता है। 1987 में मैं महानन्दा क्षेत्र में था। वहाँ का भी जलप्लावन देखा। गरीबों पर बाढ़ के प्रभाव को भी मैं काफी नजदीक से देखा है। मिश्र जी से सम्पर्क 1998 की एक गोष्ठी में हुआ और तब से निरन्तर बना हुआ है।
बाढ़ का आना पहले कभी बड़ा सुन्दर और सुखमय अनुभव होता था। मगर अब यह अभिशाप बन गई है। बाढ़ समस्या का समाधान खोजते समय हमें इस बात को हमेशा याद रखना चाहिये कि हमारी सभ्यता और संस्कृति के विकास में इन नदियों का विशेष योगदान रहा है। यह सारी सभ्यतायें इन नदियों के किनारे ही विकसित हुई। समय के साथ इन नदियों से बहुत ज्यादा छेड़ छाड़ हुई जिसके कारण उनका स्वरूप उग्र हो गया।कल मिथिला साहित्य में मैला आंचल, कोसी प्रांगण की चिट्ठी आदि की चर्चा हुई थी। इस पूरी व्यथा को समझने के लिये धर्मपाल की पुस्तकें, गांधी का हिन्द स्वराज, रस्किन का अन टू दि लास्ट, राघवन अय्यर का संग्रह तथा 24 जुलाई 1946 को गांधी जी का हरिजन के नाम से लिख पत्र भी पढ़ना चाहिये। शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण तथा अर्थनीति आदि की समग्रता में दृष्टि इन पुस्तकों को पढ़ने से विकसित होती है।हमारी आदि पुस्तकों में निहित सामग्री की अभूतपूर्व चोरी हुई है। शिक्षा, औषधि, संगीत आदि की चोरी हुई है। अब तो इन पर विदेशों में पेटेन्ट भी लिया जा रहा है। इन सब चीजों को संजोये रखने के लिये भी अब हमें प्रयास करने पड़ेंगे। मिथिला में हमारे पास चिन्तकों की कमी नहीं है। हमने कभी स्वराज की कल्पना की थी। मिला क्या? सुराज की कल्पना की थी। मिला क्या?हमारे समाजशास्त्री, वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री, राजनीति शास्त्री आदि इसमें सहयोग करें और हमारा दिशा निर्देश करें। यह लोग सारी सूचनायें एकत्र करें। फिर उनके आधार पर समाधान खोंजे। आपलोग मिल कर ज्ञान को बढ़ायें और संरक्षित करें तभी समाधान मिलेगा। आप लोग पूरी तरह सरकार पर निर्भर न करें, स्वयं का साम्थ्र्य बढ़ायें। तभी हम सब का कल्याण होगा।
चौथे सत्र में उपस्थित सदस्यों के विचार विमर्श के बाद निम्न प्रस्ताव पारित हुये।1. बिहार का 29 लाख हेक्टेयर क्षेत्र बाढ़ से सुरक्षित बताया जाता है। सरकार से इस बात की मांग की जाती है वह इस सुरक्षित क्षेत्र के नक्शे को शीघ्रातिशीघ्र सार्वजनिक करे।
2. नेपाल में प्रस्तावित बाँधों के बारे में केवल आश्वासनों से अलग हट कर जो भी वस्तुस्थिति है, सरकार उनके बारे में जानकारी सार्वजनिक करे।
3. उत्तर बिहार का 8 लाख हेक्टेयर का जो जल-जमाव वाला क्षेत्र है उससे जल निकासी की तुरन्त व्यवस्था की जाय।
4. इस रिपोर्ट की प्रति को मानवाधिकार आयोग तथा अन्य उन सभी स्थानों/संस्थाओं को भेजा जाय जहाँ यह जरूरी हो।
5. बिहार की बाढ़ पर एक त्रैमासिक बुलेटिन के प्रकाशन की व्यवस्था सभी लोग मिल कर करें। बाढ़ मुक्ति अभियान इस दिशा में पहले करे।
विजय कुमार, सह-संयोजक, बाढ़ मुक्ति अभियान
उत्तर बिहार की बाढ़ समस्या और उसका समाधान गोष्ठी में हम आप सभी का स्वागत करते हैं। दरभंगा में इस तरह का कार्यक्रम करने की हमलोगों की बहुत दिनों से इच्छा थी और हमें प्रसन्नता है कि यह कार्यक्रम आज हो रहा है।
यह कार्यक्रम हम क्यों कर रहे हैं और आज के दिन का क्या महत्त्व है इसके बारे में हम थोड़ा बतला दें। आज से 53 वर्ष पूर्व 6 अप्रैल 1947 को देश की आजादी से पहले, निर्मली में बाढ़ पीड़ितों का एक सम्मेलन हुआ था जिसमें लगभग 60 हजार लोग शामिल हुए थे। इस सम्मेलन में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, श्री कृष्ण सिन्हा, गुलजारी लाल नंदा, ललित नारायण मिश्र तथा हरिनाथ मिश्र जैसे बड़े-बड़े नेता शामिल हुये थे। उस दिन प्रायः सभी नेताओं ने उत्तर बिहार की बाढ़ समस्या पर अफसोस व्यक्त किया था और उसी दिन तत्कालीन योजना मंत्री सी. एच. भाभा ने कोसी पर बाराह क्षेत्र बाँध के निर्माण की औपचारिक घोषणा की थी। उन्होंने कहा कि इस बाँध के निर्माण से उत्तर बिहार की बाढ़ समस्या का समाधान हो जायेगा। लगभग 12 लाख हेक्टेयर जमीन पर सिंचाई हो सकेगी और 3300 मेगावाट बिजली पैदा होगी। यह काम कभी नहीं हुआ मगर इसका आश्वासन आज भी बरसात में बाढ़ पीड़ित जनता को मिलता रहता है। 1997 में हमने निर्मली में उसी दिन और उसी स्थान पर बाढ़ मुक्ति अभियान का एक सम्मेलन किया था और पिछले पचास वर्षों में बाढ़ नियंत्रण पर किये गये कामों की समीक्षा और मूल्यांकन किया। उस समय यह भी तय किया गया कि प्रत्येक वर्ष हम इसी तारीख पर एक सभा करें। हमने किसी न किसी रूप में इसमें सफलता पाई है कि भले ही सांकेतिक रूप से ही सही, मगर कार्यक्रम 5/6 अप्रैल को करने का प्रयास किया है। पिछले साल हमने यह मीटिंग खगड़िया में की थी और इस वर्ष दरभंगा में कर रहे हैं।
बराह क्षेत्र बाँध तो नहीं बना। पता नहीं कभी बनेगा भी या नहीं। पिछले पचास वर्षों में बड़े बाँधों के जो अनुभव आये हैं उसने बाँधों की सार्थकता पर ही चिन्ह लगा दिया है। इनकी लागत, इनके निर्माण में लगने वाला समय, भूकम्प की समस्या, विस्थापन और पुनर्वास की समस्या इनकी सामरिक सुरक्षा आदि कितने ही ऐसे प्रश्न हैं जिन्होंने बड़े बाँधों को कठघरे में ला खड़ा किया है। उत्तर बिहार में जब भी बाढ़ आती है तब नेता लोग बराह क्षेत्र बाँध की दुहाई देने लगते हैं। वह यह भी कहते हैं कि नेपाल अगर राजी हो जाये तो यह बाँध बना लिया जायेगा मगर 50 साल से अधिक का समय हो गया और इस पर कोई समझौता नहीं हो पाया है। बाँध का काम अगर आज भी शुरू हो जाय तो इसके निर्माण में 15 वर्ष का समय लग जायेगा। इन 15 वर्षों में बाढ़ से बचाव की कोई योजना है क्या हमारे पास।
1955 में बाराह क्षेत्र बाँध के बदले हमें कोसी पर तटबन्धों की सौगात मिली और उसके बाद बिना किसी बहस या तैयारी के प्रान्त की बाकी नदियों पर भी तटबन्ध बन गये। 1952 में हमारी नदियों के किनारे मात्र 160 किलो मीटर लम्बे तटबन्ध थे जोकि आज बढ़कर 3,465 किलोमीटर हो गये हैं और इस बीच लगभग 800 करोड़ रुपया सरकार ने बाढ़ नियंत्रण के नाम पर खर्च किया। मगर बिहार का बाढ़ प्रभावित क्षेत्र जो 1954 में मात्र 25 लाख हेक्टेयर था वह बढ़कर अब 68.8 लाख हेक्टेयर हो गया है। बाढ़ का जो अब विकृत स्वरूप देखने को मिल रहा वह पहले तो कभी नहीं था और यह आप लोगों से छिपा नहीं है।
अब हमारे हिस्से केवल रिलीफ की नौटंकी और बराह क्षेत्र बाँध का आश्वासन बचा है। विकल्प के तौर पर अब अपनी खेती छोड़कर पंजाब/हरियाणा की खेती का भरोसा रह गया है। ऐसी परिस्थिति में हम क्या कर सकते हैं, कुछ कर भी सकते हैं या नहीं, इस पर हम आज और कल में चर्चा करेंगे।
हमारे लिये आज यह बड़ी खुशी का विषय है कि इस मीटिंग में बहुत से स्थानीय बुद्धिजीवियों, अध्यापकों, अधिवक्ताओं तथा छात्र छात्राओं के अलावा पश्चिम में सारण तथा पूर्व में कटिहार तक के मित्र मौजूद हैं। एक साथी दिल्ली तथा एक बंगलोर से भी यहाँ आये हुए हैं। बाढ़ मुक्ति अभियान आप सभी का स्वागत करता है और आशा करता है कि आज और कल हम बाढ़ के विषय पर गहन चिन्तन कर सकेंगे।
प्रो. जीवनेश्वर जी (दरभंगा)
भारत एक कृषि प्रधान देश है। बाढ़ और सूखा कृषि को काफी प्रभावित और निरुत्साहित करते हैं। बाढ़ गंगा घाटी की प्रमुख समस्याओं में से एक है। अभी यहाँ की 50 प्रतिशत आबादी कृषि से अपनी आजीविका चलाती है। कृषि पर अधिकारियों को जितना ध्यान देना चाहिये था वह उन्होंने नहीं दिया।
उत्तर बिहार बाढ़ वाला क्षेत्र है। यह बाढ़ जब तक प्राकृतिक बाढ़ थी तब तक यह क्षेत्र खुशहाल रहा। अब जो बाढ़ है वह तो अप्राकृतिक है और मानव निर्मित है। मेरा क्षेत्र दरभंगा में है। 1975 के पहले तक हमलोग साल में तीन फसल पैदा कर लिया करते थे और अब केवल गेहूँ होता है वह भी तब जबकि बाढ़ का पानी समय से निकल जाये। जब से जठमलपुर-हायाघाट वाला तटबन्ध बना तभी से हमारी हजारों हजार एकड़ खेती की जमीन बाढ़ में डूब गई। धान तो अब देखने तक को नहीं मिलता।
तटबन्ध बनने के पहले पानी आता था और चला जाता था। तटबन्ध बनने के बाद जो तटबन्धों के अन्दर फँस गया वह तो पहले से भी ज्यादा असुरक्षित हो गया और जो तटबन्धों के बाहर है और जिसे सुरक्षित होना चाहिये था वह भी इस डर से असुरक्षित है कि कब तटबन्ध टूटेगा और उसका सफाया हो जायेगा। बाढ़ नियंत्रण के नाम पर सरकार ने हमारे लिये बर्बादी की मजबूत व्यवस्था तैयार कर दी है।
सरकार नहीं चाहती है कि बाढ़ जाये क्योंकि अगर बाढ़ चली जायेगी तो लुटेरों के पेट कैसे भरेगा? हमारी पूरी की पूरी फसल की बर्बादी के बदले में हमें 5 किलो आटा/दाल और दिया-सलाई-मोमबत्ती देकर सरकार अपने दायित्व से मुक्त हो जाती है। जब यह मारक बाँध नहीं बने थे तब बाढ़ एक बार आती थी और जमीन को जैसे एक स्थान करवा करके जाती थी। हमको स्थायी बाढ़ के दुष्चक्र में इंजीनियरों और नेताओं ने फँसा दिया है। बेनीबाद से जठमलपुर तक का सारा पानी हायाघाट से गुजरता है। जिस इलाके में इतना पानी बाहर से आयेग वहाँ तो बाढ़ आयेगा ही। मगर यह पानी घुसाने का काम सरकार ने किया है।
तटबन्धों को समाप्त करना चाहिये और इस तरह का कोई आन्दोलन चलता है तो हम सभी लोग साथ देंगे। तटबन्धों के खिलाफ हमलोगों ने 1987-88 में, 1990 में तथा 1995 में हायाघाट में आन्दोलन किया हुआ है। दुःख है कि सरकार हमारी बात सुनती ही नहीं है। इस प्रश्न को हमलोगों को राजनैतिक पार्टियों के साथ भी उठाना चाहिये कि वह अपने दलगत स्वार्थों को भुलाकर आम जनता के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर काम करें और समस्या का समाधान करने का प्रयास करें।
गंगा देवी (कुशेश्वर स्थान)
हमारे यहाँ जेठ महीने में बाढ़ आ जाती है और पानी घरों में घुस जाता है। हमलोगों की अब बाढ़ की नहीं दुर्दशा सहने की आदत बन गई है। बाल बच्चे, जान-माल, घर-दुआर सबकी रक्षा करते-करते ही छः महीना बीत जाता है। इस बीच में खाना-पीना सब खत्म हो जाता है तो फिर डोका, केकड़ा, मछली और करमी खाना पड़ता है। इसको भी पकाने के लिये ईंधन नहीं है। एक ही तरह का खाना खाने से तथा बाढ़ का प्रदूषित पानी पीने से भी तरह-तरह की बीमारियाँ फैलती हैं।
बाढ़ के समय महिलाओं की परिस्थति के बारे में क्या कहें। बच्चे संभालना, जानवर संभालना, खाना बनाना सब पानी में करना पड़ता है। जरा सी चूक हुई तो जान से हाथ धो बैठे। किसी महिला को अगर प्रसव होना हो तब तो तकलीफ की सीमा ही नहीं है। इसके अलावा भी कभी हकीम-डॉक्टर को दिखाना पड़ गया तब भी परेशानी कम नहीं है।
आज इतने लोग इकट्ठा हो करके भविष्य के लिये योजना बनायेंगे तो उससे हमें बड़ी आशा है।
मो. जमालुद्दीन (दरभंगा)
यह कार्यक्रम यहाँ बन्द कमरे में हो रहा है शहर में। यह किसी गाँव में खुली जगह हुआ होता तो इसका ज्यादा असर पड़ता। बाढ़ क्षेत्र के ग्रामीण लोग अगर अपने विचार यहाँ रखते तो यह सच्चाई के ज्यादा नजदीक होता।समस्या यह है कि हम निदान सुझायेंगे भी तो उस पर अमल कौन करेगा और कैसे करेगा। सत्ताधारी लोग जब कोई निदान सुझाते हैं तो आशा बनती है कि अब कुछ होगा। मगर अफसोस है कि जो सत्ता में है उनका कहा हुआ भी कुछ नहीं हो पाता है। वह भी धरातल पर नहीं उतरता है। बाढ़ के सवाल पर हमने भी हायाघाट के क्षेत्र में आंदोलन चलाये हैं तथा मंत्रियों और अधिकारियों से बातचीत की है। हमारी राहत कार्यों में कोई रुचि नहीं है क्योंकि राहत कार्य कभी भी समस्या का समाधान नहीं हो सकता। सरकार को चाहिये कि तटबन्धों की जो योजनायें आधी-अधूरी पड़ी है उनको वह पूरा करें। बाँधों को ऊँचा और मजबूत करें।
हायाघाट प्रखण्ड साल में 4 महीने पानी में डूबा रहता है। यह पानी वहाँ न रहे-इस दिशा में अगर कोई काम होता है तो हम हमेशा उसमें साथ देने के लिये तैयार हैं।
हमारे पूर्व वक्ताओं ने कहा है कि तटबन्ध नहीं बनने चाहिये पर मेरा मानना है कि तटबन्ध न केवल बनने चाहिये बल्कि उन्हें ऊँचा और मजबूत भी किया जाना चाहिये।
रामेश्वर (झंझापुर)
नदी की बाढ़ को तो चीन वाले भी नहीं रोक पाये जो हमसे 2500 वर्ष पहले से कोशिश कर रहे हैं। इसलिये बाढ़ से तो बचा नहीं जा सकता। अब यह बाढ़ प्राकृतिक हो या आदमी की बनाई हुई- इस पर बहस हो सकती है।
हमारे इंजीनियरों को अपनी तनख्वाह से मतलब है और ठेकेदारों को उनके बिल के भुगतान से। उसके बाद बाढ़ रहे या जाये- उनकी बला से। हमारा गाँव कमला के किनारे है। 25-30 साल पहले जब कमला पर तटबन्ध नहीं था तब बड़े आराम से जीवन चलता था। फिर तटबन्ध बना तब उम्मीद हुई कि अब सारी परेशानी खत्म हो जायेगी पर परेशानियाँ तो बढ़ती ही गई। सरकार को कितनी बार कहा और लिखा, कुछ नहीं हुआ। तब हार कर हमलोगों ने खुद तटबन्ध को काट दिया और काटते जा रहे हैं। तब हमारी जमीन पर मिट्टी पड़ती है और जल जमाव खत्म हो गया। इसे आस पड़ोस के गाँव वाले भी देखते हैं तब उनको भी लगता है कि फलाने गाँव की तो जमीन पानी से निकल आई और खेती भी होने लगी है तब वह भी सीखते हैं।
इस साल भी 57 किलोमीटर और 59 किलोमीटर पर हमलोगों ने कमला का तटबन्ध काटा है। तटबन्ध के बाहर एक साल में ही 10 फुट मिट्टी की भरावट हुई है। फसल भी हो रही है। किसान को और क्या चाहिये? सरकार कमला जैसी छोटी नदी के तटबन्ध को सम्भाल कर रख ही नहीं सकती तब चल के बनायेगी डैम। यह भी अगर सम्भाल में नहीं आया तो। सरकार डैम के नाम पर राजनीति कर रही है और लोग बेवकूफ बन रहे हैं।
डॉ. विद्यानन्द झा (दरभंगा)
बाढ़ की समस्या तो काफी गंभीर है पर यह लगभग तय है कि अब सरकार कुछ कर सकने की स्थिति में नहीं है। यहाँ इस गोष्ठी में बहुत से बुद्धिजीवी, समाजकर्मी, अध्यापक, छात्र, युवक और सहृदय व्यक्ति इकट्ठे हुए हैं तो एक आम राय बनायें कि अब हमलोग क्या कर सकते हैं। आने वाले दो दिनों में हमारा प्रयास रहे कि हम बाढ़ समस्या से सम्बद्ध सभी बिन्दुओं को छूने का प्रयास करें क्योंकि हमारे बीच में अच्छी जानकारी रखने वाले बहुत से विद्वानों के साथ-साथ बहुत से लड़ाकू किस्म के भी लोग उपस्थित है। अतः कुछ कार्यक्रम हम जरूर निकाल सकेंगे।
प्रो. एस. बाजमी (दरभंगा)
हम बाढ़ मुक्ति अभियान का शुक्रिया अदा करते हैं कि उन्होंने इस सम्मेलन का दरभंगा में आयोजन किया। इससे हमको और हमारे वाटर मैनेजमेंट के छात्रों को बाढ़ की समस्या को समझने का मौका मिलेगा। इससे समस्या के समाधान की दिशा में भी कोशिश शुरू हो सकेंगी।
राम स्वार्थ चौधरी
पानी बहुत से जीवों को रहने का स्थान देता है। रत्नों की खान है और बहुत सी लोगों की मृत्यु का भी कारण बनता है। पिछली साल हमारे यहाँ 32 लोग पानी में डूबकर मरे। नवोदय स्कूल के बच्चे परिवार के साथ नाव में बैठकर जा रहे थे। नाव डूब गयी सभी मर गये। नाव खेने वाले मल्लाह नाव लेकर जा रहे हैं। रास्ते में बिजली की हाई वोल्टेज की लाइन है। पानी में करंट आ जाता है। सब को किनारे पहुँचाने वाला मल्लाह बीच धारा में डूब कर मर जाता है। मरने के कितने साधन है हमारे पास। कहीं डूब कर, कहीं स्पर्शाघात से, कहीं नाव पलटने से तो कहीं घर के अन्दर दब कर।
जनतंत्र ने हमें वोट का अधिकार दिया मगर जीने के अधिकार को हमसे छीन लिया। यहाँ जहाँ हम बैठे हैं यही से थोड़ा दूर पश्चिम पानी का क्षेत्र शुरू होता है। हायाघाट, कल्याणपुर, सिंहवारा, जाले, गायघाट, औराई, कटरा जैसे प्रखण्डों के लगभग 1500 गाँव हर साल डूबते हैं। इनमें से 700 से 800 गाँवों में तो मैं भी घूमा हूँ। इन गाँवों की वेदना कैसे कही जाय। माँ-बाप कितनी मेहनत से बच्चों को पालते हैं, श्रम करते हैं, खेतों में कुछ पैदा करने की कोशिश करते हैं। वह बच्चा जिन्दा भी बचेगा या डूब मरेगा यह निश्चित नहीं है। यहाँ हम आर्थिक रूप से संतप्त हैं। तीन फसल की मालगुजारी देते हैं जबकि एक फसल भी ठीक से नहीं हो पाती है। यह पीड़ा प्राकृतिक नहीं है, मानव प्रदत्त पीड़ा है, सरकार प्रदत्त पीड़ा है।
यहाँ एक कमीश्नर हुये थे। मिलिट्री से रिटायर्ड थे और स्वयं भी इंजीनियर थे। 1987 में हमारा आन्दोलन चलता था जठमलपुर के पास बाँध टूटने के बाद। उनसे बातचीत के दौरान मैंने उनसे कहा कि यह बाढ़ प्राकृतिक तो नहीं है यह राजनेताओं और अफसरों की पैदा की हुई बाढ़ है तो वह बहुत बुरा मान गये और मुझसे साबित करने को कहा। मैंने उनसे कहा कि आप तो आई.ए.एस. हैं। आपको समझाना मुश्किल है कभी गाँव का और गरीब का बेटा आई.ए.एस. बने तो उसे समझाया भी जा सकता है। वह तो कभी बनेगा नहीं।
मैंने अपना नक्शा निकाला और उन्हें पूरी तरह समझाया पहाड़ों और नदियों की स्थिति। उन्हें यह भी बताया कि 1956 के पहले पानी की आवा जाही की क्या स्थिति थी और नदियों को बाँध देने के बाद क्या-क्या परिवर्तन आये और अब क्या परिस्थिति बन गई है। उनकी समझ में थोड़ी बहुत बात आई। बी.बी.सी. के एक सम्वाददाता सुनील कुमार सिंह को मेरे साथ लगा दिया। वह आदमी सारे दिन मेरे साथ घूमता रहा और शाम को जब हमारी यात्रा समाप्त हुई तब उसने कहा कि यहाँ के आम आदमी के सोच और इंजीनियरों/अफसरों के सोच में जमीन आसमान का अन्तर है। क्यों नहीं लोग गाँव वालों की राय लेकर योजनायें बनाते हैं। लेकिन सवाल यह है कि कोई अफसर या इंजीनियर हमारी बात क्यों सुनेगा। एक देहाती कहावत है कि ‘जिसके पैर न फटे बिवाई सो क्या जाने पीर पराई।’ समस्या की चोट उन पर तो पड़ती नहीं है- आम आदमी पर पड़ती है। वह क्यों हमारी बात को समझेंगे।
तीन फसल के स्थान पर अब हमारे यहाँ एक फसल होती है। भले ही जैसी भी हो-इस फसल का हमको मोह होता है। हमें अपने बाप दादों के घर-जायदाद का भी मोह होता है। हम अपना घर छोड़ कर भाग भी नहीं सकते- रह भी नहीं सकते। पहले पानी कभी भी 10-15 दिन से ज्यादा नहीं रहता था। अब कम से कम चार महीने रहता है। इतने ज्यादा दिन पानी लगे रहने के कारण हमारे आम, जामुन, शीशम के पेड़ पानी में गल गये। मवेशियों की संख्या बदस्तूर हर साल घटती जा रही है। वनस्पतियाँ न रहें, जीव-जन्तु न रहें तो प्राकृतिक रूप से सन्तुलन निश्चित रूप से गड़बड़ा जायेगा। अब वहाँ क्या पैदा होगा-झुलसे हुये पेड़ पौधे और मृतप्रायः जानवर। अब तो बच्चे भी अपंग और निपंग पैदा हो रहे हैं। न केवल आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था असंतुलित है बल्कि प्राकृतिक व्यवस्था भी असंतुलित हो गई है।
हमारे जीने के नैसर्गिक अधिकार को इस बाढ़ ने छीन लिया है जोकि अब प्राकृतिक चीज नहीं है। हिमालय से समुद्र तक के पानी के मार्गों को हम नदी कहते हैं। इन नदियों के किनारे सभ्यतायें विकसित हुई हैं। इन नदियों की हम पूजा करते हैं। जब यातायात का कोई साधन नहीं था तब नदियों का उस रूप में भी उपयोग होता था। नदियों से हमारी बहुत सी जरूरतें पूरी होती थीं। मवेशी पलते थे। खेती होती थी। आज भी बाँध के अन्दर वाले लोग नदी वाले क्षेत्रों में अपनी भैसें चराने के लिये ले आते हैं बैसाख में। 15-20 दिन के अन्दर इन भैंसों का दूध दोगुना हो जाता है। मगर फिर भी एक फसली क्षेत्र हो जाने के कारण अब हमारे पास 8-9 महीने कोई काम नहीं बचता। हर आदमी की कोशिश है कि खेत बेचकर ही सही शहर में एक टुकड़ा जमीन ले लें और बरसात में वहीं चले जायें। इस तरह बाढ़ की मार परोक्ष रूप से शहर पर भी पड़ने लगी है। फिर इतना कर पाने की सामर्थ्य कितने लोगों में है। आज कितने ही लोग ऐसे हैं जिनके बच्चे पढ़ सकते थे, अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकते थे वह घर छोड़कर दिल्ली, पंजाब जाने को मजबूर हो गये। वह अपने परिवार का केवल भरण-पोषण कर सकते हैं। अपने बच्चों को पढ़ा लिखा नहीं सकते।
जल जमाव बढ़ रहा है नदियों को बहने से रोकने के कारण। उनको खोल दीजिये पानी निकल जायेगा। मगर प्रखर चिन्तन करने वाले लोगों की समझ ही दूसरी है। उनकी साजिश है कि इस क्षेत्र के लोगों को रोजी रोटी की जरूरतों से ऊपर उठने ही मत दो क्योंकि अगर वह उठ खड़े हुये तो फिर अपने हक की लड़ाई लड़ेंगे। इसलिये इनको उलझाकर रखो।
दोष हमारा भी है कि हमारे जैसे लोग सब कुछ जानते-समझते हुये भी खामोश बैठे हैं। आगे आने वाली पीढ़ियाँ हमलोगों को भी माफ नहीं करेंगी। स्पष्टवादिता की हमारी एक समृद्ध परम्परा रही है। आज यदि कुछ नेताओं, इंजीनियरों या ठेकेदारों के व्यक्तिगत स्वार्थों के कारण कुछ गलत हो रहा है तो हमें इसके विरोध में खड़ा होना ही पड़ेगा। मछलियाँ पानी में उछलती हैं, कूदती हैं, इठलाती हैं पर बंशी का एक काटा उन्हें पानी के बाहर खींच लेता है। आइये हम सब मिलकर प्रयास करें।
देवनाथ देवन (मधुबनी)
हमारी तकलीफें इतनी बढ़ी-चढ़ी हैं कि किधर से शुरू करें यही समझ में नहीं आता। नदियाँ कोई नई चीज तो नहीं हैं। हमारे आपके जन्म के पहले सदियों से यह अपनी जगह पर हैं। उनमें बाढ़ भी आती थी और फसल भी बर्बाद होती थी। मगर पहले यह एक बार बर्बाद होती थी तो कई बार जबर्दस्त उत्पादन भी होता था। जीवन धारा चलती रहती थी। हमलोगों के होश सम्भालने के पहले ही नदियों को बाँध दिया गया। सब्ज बाग दिखाये गये थे हमें। सम्भव है आजादी के बाद के हमारे देश के कर्णधारों को कुछ कर के यश प्राप्त करने की चिन्ता ज्यादा थी इसलिये उन्होंने सबसे पहले कोसी को बाँधने का काम किया। इंजीनियरों ने पता नहीं इन नेताओं को कोसी या कोई भी नदी बाँधने के परिणाम से आगाह किया या केवल उनकी हाँ में हाँ मिलाई- मेरे लिये कह पाना मुश्किल है मगर कोसी बाँध दी गई और नेताओं की खूब वाहवाही हुई।
हमारी पारम्परिक कथाओं में कोसी और कमला-दोनों नदियों की धाराओं में परिवर्तन की बात आती है। यह नदियाँ सदियों से पूरब और पश्चिम के बीच में घूमती रहती है। मैं इन्हीं दोनों नदियों के दोआब का रहने वाला हूँ और हमारी जमीन दुनियाँ के सबसे उपजाऊ इलाकों में से एक है। इन दोनों नदियों को घेरा गया। स्थानीय लोगों ने नदियों की इस घेराबन्दी का विरोध किया जिसका तत्कालीन सरकार ने संज्ञान ही नहीं लिया और उसके बाद की सरकारों ने भी काई ध्यान नहीं दिया।
कोसी का तटबन्ध चलता है उत्तर-पूरब से शुरू होकर दक्षिण-पश्चिम दिशा में तो दूसरी तरफ कमला बलान का तटबन्ध उत्तर-पश्चिम से शुरू होकर दक्षिण-पूरब की दिशा में आगे बढ़ता है। यह सारा काम हुआ यश और धन कमाने की इच्छा से। आज अगर आप कमला और कोसी तटबन्धों के बीच वाले इलाके में चले जायें और आप के साथ वह इंजीनियर हों जिन्होंने कमला और कोसी के तटबन्धों के निर्माण की योजना बनाई थी और उनका उसी रूप में परिचय कराया जाय तो स्थानीय लोग उनके साथ क्या व्यवहार करेंगे कह पाना मुश्किल है।
कमला का तटबन्ध जयनगर से शुरू होकर दक्षिण-पूर्व दिशा में बढ़ता है। कोसी का तटबन्ध भारदह से शुरू होकर दक्षिण पश्चिम की दिशा में घोंघेपुर की ओर बढ़ता है। निचले इलाकों में इन तटबन्धों के बीच का फासला दो-तीन किलोमीटर तक रह जाता है। अब नेपाल से लेकर कमला और कोसी के बीच के पानी की निकासी के लिये बस इतना ही रास्ता बचता है। इस बीच में कई नदियाँ भी पड़ती है। यह पानी कहाँ जायेगा, इंजीनियर साहब। जब आप कमला और कोसी पर तटबन्ध बना रहे थे तो यह बीच वाला हिस्सा आप को दिखाई नहीं पड़ता था? इस क्षेत्र में क्या समस्यायें पैदा होंगी वह नेताओं को भी नहीं मालूम थीं। तब वह किस बात के इंजीनियर और यह किस बात के नेता।
मैं व्यक्तिगत रूप से ऐसे लोगों को मूर्ख मानता हूँ और अगर उन लोगों को पता था और उन्होंने जानबूझकर यह सब किया तो उन्हें किस नाम से पुकारा जाय? हमलोग उस इलाके के हैं जो कि कमला और कोसी-दोनों के तटबन्धों से सुरक्षित है। हमारी खेती बर्बाद होगी और हमारे मवेशी मरें तो हम क्या करें। कोसी और कमला दोनों नदियों के तटबन्धों के बीच जिन लोगों को फँसाया उनका तो मनुष्य होने का दर्जा ही खत्म हो गया क्योंकि उनको तो आदमी समझा ही नहीं गया मगर जो सुरक्षित थे उनकी क्या गत बनी। हमारी खरीफ की फसल तो अब नहीं ही होती है; रबी की फसल के समय इलाके से पानी निकले तब तो गेहूँ, मूंग या मसूर की फसल हो। यह पानी निकलता ही नहीं है। इस समस्या का निदान सरकार और इंजीनियर क्या सोचते हैं। उन्होंने किस चीज की शिक्षा पाई है और उसका क्या उपयोग है जिस पर हमारा आपका सबका करोड़ों रुपया खर्च हुआ।
पिछले सत्र में कहा गया कि लोग अब तटबन्ध काटने लगे हैं। सही बात है- हमारे यहाँ भी कटता है। सरकार पहले कहती थी कि तटबन्ध में चूहे और गीदड़ छेद कर देते हैं इसलिये तटबन्ध टूट जाता है। फिर कहने लगी कि असामाजिक तत्व तटबन्ध काट देते हैं। हमारे लोग असामाजिक हैं क्या? 1995 में हमारे यहाँ 2-3 जगह तटबन्ध काटा गया था जिसके बाद हमलोगों ने तटबन्धों के खिलाफ प्रखण्ड मुख्यालय पर धरना/प्रदर्शन किया। एस.डी.ओ. साहब आये और कहा कि यह तो बड़ी अजीब बात है, आप तटबन्ध काटेंगे और धरना/प्रदर्शन भी करेंगे। हमलोगों ने पूछा कि आप यह बताइये कि कमला का तटबन्ध किसकी सुरक्षा के लिये बना है? यह कमला नदी के दोनों तटबन्धों के बीच रहने वालों के लिये बना है या बाहर वालों की सुरक्षा के लिये बना है। हमने यह भी पूछा कि आप जाँच कर के बताइये कि तटबन्ध को किसने और क्यों काटा। एस.डी.ओ. साहब तैश में आ गये और बोले कि आप तो पत्रकारों की तरह सवाल करते हैं। कहा कि तटबन्ध को असामाजिक तत्वों ने काटा है।
हमलोगों ने कहा कि असामाजिक तत्वों ने नहीं हमने काटा है और अब आप उन सामाजिक तत्वों को लाकर दिखाइये जिनकी इस तटबन्ध से रक्षा होती है या फिर स्वीकार कीजिये कि आपने कटवाया है।
1954 से अब तक के बीच का घटनाक्रम देखते हुये हमारी जो समझदारी बनती है उसके अनुसार पैसा कमाने का सबसे आसान जरिया मिट्टी का काम है जिनमें किसी की कोई जिम्मेवारी ही नहीं बनती है। तटबन्ध बनाओ, काटो, तोड़ों और फिर बनाओ। यही किस्सा है। कभी-कभी रिलीफ छींट दी। मंत्री, इंजीनियर और ठेकेदार मस्ती करते हैं- लोग मरें या जियें। आप ने बालू की भीत का मुहावरा सुना होगा- हमारे यहाँ आकर देख जाइये सचमुच की बालू की भीत। कमला पर, कोसी पर, गण्डक पर- नाम लीजिये और सब जगह मौजूद है।
जब तक इंजीनियरों की समझ में यह नहीं आयेगा कि जहाँ कमला और कोसी के तटबन्ध शुरू होते हैं वहाँ उनका फासला 100 किलोमीटर के पास है- जहाँ यह समाप्त होते हैं वहाँ उनके बीच की दूरी दो से तीन किलोमीटर है तब यह बीच का पानी कैसे निकलेगा और तब तक हमें कैसे विश्वास होगा कि नेता, इंजीनियर और ठेकेदार जनहित में काम करते हैं। पहले गाँवों में डाका पड़ता था। डकैत आते थे और जो चाहते थे और जिसके यहाँ से चाहते थे ले जाते थे। मगर एक बार डाका डाल देने के बाद 20-25 साल तक फिर नहीं आते थे। यहाँ तो हमारे यहाँ हर साल डाका पड़ता है। अब ठेकेदार समाज सेवक है, इंजीनियर तो पहले भी विद्वान ही थे आगे भी रहेंगे और मंत्री जी का सेवा व्रत किसी से छिपा नहीं है। उन्हें अपने सात पुश्तों की सेवा करनी है और बच्चों को भी नेता बना देना है। वह चाहें या न चाहें, उनमें क्षमता हो या नहीं- कोई फर्क नहीं पड़ता है।
जहाँ कहीं और जब कभी अफसरों और इंजीनियरों ने गलती से ही ग्रामीणों से बात करके कोई योजना बनाई वह कारगर हुई है।
वरना अभी मौसम है उनका बाढ़ नियंत्रण पर काम करने का। बैसाख जेठ में वह काम करेंगे, तटबन्ध मरम्मत करेंगे, सावन भादों में वह फिर धराशायी हो जायेगा। हर साल ढहेगा मगर डिजाइन कभी नहीं बदलेगी। हमारे गाँव के पास पांकी गाँव के पास एक पुल बना पिछली साल, इस साल बह गया। पुल के बगल से पुल की चार गुनी लम्बाई में कटान हुआ। कहाँ गई डिजाइन और कहाँ गई तकनीक? हम गाँव में बांस या लकड़ी का पुल बनाते हैं वह तो तभी टूटता है जब बाँस या लकड़ी गल जाये। एक बार बनाया तो 20-25 साल की फ़ुरसत लेकिन 85 लाख का कंक्रीट पुल एक साल भी नहीं चलता।
पहले पहल जब हमलोगों ने यह प्रश्न उठाना शुरू किया तो इंजीनियर/अफसर डाँट दिया करते थे कि क्या पागलों जैसी बात करते हो। इंजीनियरिंग की कुछ समझ है आपको? अब कहने लगे हैं कि हम तो सरकार के नौकर हैं, सरकार चाहती है कि तटबन्ध बनें या उनको ऊँचा या मजबूत किया जाय तो हमें करना पड़ता है। मंत्रियों से बात कीजिये तो कहते हैं कि हम सरकार तक बात पहुँचा सकते हैं, मगर अकेले सरकार की नीति तो नहीं बदल सकते। वह यह बयान जरूर दे सकते हैं कि सरकार तटबन्ध नहीं बनायेगी। बनायेगी भी कहाँ से- पैसा तो है ही नहीं। इस साल पैसा सरकार को मिल गया है तो इस साल तटबन्ध बनना भी शुरू हो गया है।
तटबन्ध बनाने में नदी का चरित्र, जमीन की बनावट, पानी की मात्रा किसी भी चीज पर ध्यान नहीं है। ध्यान है तो केवल तटबन्ध पर क्योंकि पैसा तो वहाँ है। योजना के नक्शे देख लीजिये, पी.डब्लू.डी.आर.ई.ओ. डिस्ट्रिक्ट बोर्ड तथा जल संसाधन विभाग- सबके अलग-अलग नक्शे हैं। बस पानी की निकासी का नक्शा किसी के पास नहीं है। इन सारी समस्याओं पर हम यहाँ विचार करें और आगे की रणनीति तैयार करें।
रमेश झा (मधुबनी) -
मैं अपनी बात दो भागों में रखना चाहूँगा। एक तो बचपन से अब तक का बाढ़ देखने का मेरा अपना अनुभव है। दूसरा यह कि अब किया क्या जा सकता है, उस पर चर्चा करना बड़ा आवश्यक हो जाता है।
मधेपुर के दक्षिण में बहुत सारे गाँव हैं, रहुआ संग्राम, भीठ भगवानपुर, भेजा या रसियारी आदि। इन गाँवों में गर्मी की छुट्टी नहीं होती स्कूलों में। यह सब जुलाई से लेकर सितम्बर तक बन्द रहते हैं। इस इलाके में हर साल बाढ़ आती है और जहाँ-जहाँ जल जमाव होता है वहाँ-वहाँ मलेरिया की आशंका बनी रहती है। कालाजार और हैजा भी इस क्षेत्र में फैलता रहता है। आज से 20-25 साल पहले तक अगर इस इलाके में बाढ़ के समय कोई बीमार पड़ता था तो वह नजदीक के मधेपुर के अस्पताल तक भी नहीं पहुँच पाता था और गाँव में ही मर जाता था।
मिश्र जी ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि जिन इलाकों में बाढ़ आती थी वहाँ की जनसंख्या ज्यादा होती है तो मेरा उनसे आग्रह है कि जरा कोसी क्षेत्र घूमें। मेरे गाँव रहुआ संग्राम में आज से 15 साल पहले हमलोगों के भोज में 18 मन चावल लगता था वह घटकर 5-6 मन रह गया है। इसलिये बाढ़ के कारण हमारे यहाँ आबादी घटी है। इसके अलावा हमारे गाँव में जब भी कोई लोकसभा या विधानसभा का चुनाव का समय आता है तो अधिकांश मतपत्र वापस चले जाते हैं क्योंकि गाँव में बहुत कम लोग बचे हैं। जिनका बाहर कोई आश्रय नहीं है वही लोग अब गाँव में है। इसके अलावा केवल सरकार पर ही सारा दोषारोपण ठीक नहीं है। कुछ हद तक हमलोग खुद भी जिम्मेवार हैं। अब लकड़ी का पुल बनेगा तो लोग उसमें से पटरा खोल कर ले जायेंगे चौकी बनाने के लिये तब वहाँ सरकार क्या कर लेगी? यह सच जरूर है कि हमारे जनप्रतिनिधियों ने इस क्षेत्र के लिये कभी कुछ नहीं किया।
कोसी और कमला के बीच के क्षेत्र को हमारे यहाँ स्थानीय भाषा में थप या थपहर कहते हैं जोकि बहुत ही पिछड़ा हुआ इलाका है। इस क्षेत्र के बारे में विभूति भूषण बन्द्योपाध्याय तथा उधर फणिश्वरनाथ ‘रेणु’ ने बहुत कुछ लिखा है जो कि पठनीय है। जिस जल की हमारे पूर्वज पूजा करते आये हैं वह जल अब हमारे लिये समस्या बन गया है। जो जल हम पीते हैं वह जल है, जिससे पैर धोते हैं वह पानी है, जो बहता है वह सलिल है जो पूज्य है वह आप हैं। ऋगवेद ने अग्नि तत्व, वायु तत्व और जल तत्व में सबसे महान जल तत्व को ही माना है। हमारे पूर्वजों ने जल से ही अपनी रक्षा करने को कहा-यह सम्मान अग्नि या वायु को नहीं दिया गया। हम कभी श्मसान से शवदाह के बाद लौटते हैं तब भी पानी से ही प्रार्थना करते हैं कि हे जल! हममें जो दूषित तत्व हैं उससे हमें मुक्त करो।
पानी को देखते हुए लगता है कि यह क्षेत्र बहुत समृद्ध होना चाहिये। मगर यहाँ की गरीबी और फटेहाली ने यहाँ से लोगों को उजाड़ दिया। आप किसी भी बड़े शहर में जायेंगे तो मिथिला के लोग मिलेंगे-मगर उसी फटेहाली में जीते हुये।
शतपथ ब्राह्मण में मिथिला शब्द का शायद पहली बार प्रयोग हुआ है और वहाँ भी मिथिला में प्लावन का वर्णन हुआ है अतः बाढ़ इस क्षेत्र के लिये कोई नई चीज नहीं है। मगर उस समय उसे बुरा नहीं माना जाता था। धर्मग्रंथों में किसी भी क्षेत्र को दो भागों में बाँटा गया था। एक था नदी मातृक क्षेत्र जहाँ कि किसान अपनी खेती के लिये नदी और उसके पानी का उपयोग करते थे और दूसरा देव मातृक जोकि वर्षा पर आधारित था। तीर भुक्ति या तिरहुत को नदी मातृक क्षेत्र माना जाता था। बाढ़ अगर विभीषिका रहती तो कहीं न कहीं उसका उस रूप में वर्णन अवश्य मिलता।
दरभंगा में हर साल बाढ़ आती है। मैं वैज्ञानिक या इंजीनियर तो नहीं हूँ मगर जितना अध्ययन मेरा है उसके हिसाब से मैं पूरी तरह सरकार को दोषी नहीं मानता। इसके लिये पर्यावरण में गिरावट भी दोषी है। अलग-अलग स्थानों पर बाढ़ के अलग-अलग कारण हो सकते हैं। अभी उड़ीसा में बाढ़ चक्रवात के कारण आई थी। यहाँ की बाढ़ का दूसरा ही स्वरूप है। 1987 की बाढ़ के बाद इस क्षेत्र में बड़ी तेजी से चर्म रोग का विस्तार हुआ है- यह हिमालय में पर्यावरणीय छेड़छाड़ का भी नतीजा हो सकता है।
देव चन्द्र ‘अनल’ (पश्चिमी चम्पारण)
मैं गण्डक और बूढ़ी गण्डक के क्षेत्र से आया हूँ। आज से 50-55 वर्ष पूर्व हम अपने बचपन में इन नदियों की बाढ़ देखने जाया करते थे। बाढ़ कभी घुटने के ऊपर नहीं चढ़ती थी। पानी दो तीन दिन से ज्यादा कभी रुकता नहीं था। बस आया और गया। खेत में नयी मिट्टी पड़ जाती थी। चौरों में भी मिट्टी पड़ती थी और जमीन की उर्वरा शक्ति खूब बढ़ जाती थी। धान खूब होता था। गहरे पानी के खेतों में बोये जाने वाले धान की अलग किस्म थी। आज बाढ़ का स्वरूप भयावह हो गया है। पिछले चार-पाँच वर्षों में कई गाँव कट गये हैं। बहुत पुराने गाँव विलीन हो गये। धनी परिवार तो शहर चले गये पर कम जमीन वालों की हालत खराब हो रही है। उन्हें जैसे भी हो अपनी व्यवस्था करनी पड़ रही है। पलायन बढ़ रहा है। शोषण की पकड़ समाज पर मजबूत हो रही है।
चम्पारण के बारे में कभी मशहूर था कि ‘‘ऐसन देस मजउआ-जहाँ भात नू पूछे कौआ’’। कोई नौकरी नहीं खोजता था चम्पारण में पर आज वही लोग बाहर काम खोजने जाते हैं। जल जमाव के कारण धान घट रहा है और गन्ना धीरे-धीरे बढ़ रहा है। मगर चीनी की मिलें बन्द हैं अतः अब क्रशर की मदद से गुड़ बनता है जिसे नेपाल में जाकर लोग बेच देते हैं। गन्ने के खेत अपराधकर्मियों के आश्रयस्थल बन गये हैं। लूटपाट और अपहरण अब उद्योग बन रहा है। कुछ संस्थायें इन कुरीतियों के खिलाफ अब खड़ी हो रही हैं।
बाढ़ का जो स्वरूप चम्पारण में बदला है उसमें कुछ बाढ़ तो अब हिमालय में बर्फ पिघलने के साथ ही शुरू हो जाती है। फिर उसके बाद के समय में हल्की-फुल्की बाढ़ों को सरेही बाढ़ कहते हैं जिसका पानी निचले खेतों में फैलता है। फिर बड़ी बाढ़ तो है ही। हमारा मानना है कि बाढ़ रोकने में तटबन्ध तो विफल रहे हैं- यह तो हमलोगों ने देख लिया। अब जो नेपाल में बड़े बाँधों की बात चल रही है उससे भी कुछ भला होगा या नहीं, कह पाना कठिन है। हमें बाढ़ को सहने की आदत बनानी होगी। बड़े बाँध गाँव के शोषण की योजना हैं। इससे शहरों को ही फायदा होगा गाँव को नहीं। इस प्रश्न को नेताओं के साथ उठाना चाहिये। हमें जल-निकासी पर जोर देना चाहिये और गंगा के माध्यम से समुद्र तक पानी को जल्दी पहुँचाने की व्यवस्था करें। विद्युत उत्पादन के तमाम विकल्पों को हमको खोजना पड़ेगा। गाँवों में ऊँचे प्लेटफार्म बन सके तो भी काफी लोगों और मवेशियों का बचाव हो सकेगा।
उमेश राय (दरभंगा)
हमलोगों के लिये यह अप्रैल/मई का महीना बड़ा व्यस्त होता है क्योंकि इसी महीने में हम कुछ काट सकने की स्थिति में होते हैं, हमारे हाथ में हंसुआ होता है। जून में थोड़ी फुरसत मिलेगी तब इस साल बाढ़ के पहले एक सम्मेलन करेंगे अपने गाँव में। हमलोग जब बच्चे थे तो हमारे बाबा केवल पुआल बेचकर हाथी खरीदने की हैसियत रखते थे, हमलोग पैदल नहीं चलते थे। इतनी उपज होती थी हमारे यहाँ। हरिहर क्षेत्र का मेला जाते समय ट्रेन और घोड़े का मुकाबला होता था और घोड़ा जीतता था। खेत कभी भी खाली नहीं रहता था। अतिथि के आने पर कष्ट नहीं होता था और जानवरों को भी अनाज खिला देने में संकोच नहीं होता था। आज हम भूसा खरीदते हैं। तीन साल पहले मैंने 8,500 रुपये में बैल खरीदा था तो आस पड़ोस के लोग कहते हैं कि अब यहाँ से तो यह बैल कसाई के यहाँ ही जायेगा।
हमारी बाढ़ तो एकदम बनावटी है। सुरमार से हायाघाट तक तीन छोटी नदियाँ बहती हैं। 1957 की बात है। महेश बाबू मंत्री थे। उन्होंने बाढ़ से बचाव के लिये नदियों को बाँधने की बात उठाई और आपको आश्चर्य होगा भोगेन्द्र झा ने उसका विरोध किया था। आज भले ही भोगेन्द्र जी बड़े बाँध की बात करते हों पर उस समय वही विरोध में खड़े थे पर महेश बाबू का प्रभाव अधिक था। लोग उनके पीछे खड़े हो गये और तटबन्ध बन गया। आज एक ही छप्पर पर-छत पर नहीं-तीन पीढ़ी के लोग एक साथ बरसात में रहते हैं- वहीं खाना भी होता है और उसी छप्पर पर पखाना भी जाना पड़ता है सबको। हमारी स्थिति तो यह है कि या तो आत्महत्या कर लें या फिर इन सारे तटबन्धों को तोड़ डालें। यह तटबन्ध हमारी तबाही का सबसे बड़ा कारण है।
हमारे घर कोई मेहमान अब आता है तो उसके लिये खाने पीने का सामान लाने के लिये हम पहले किसी आदमी को दुकान भेजते हैं तब कहीं उसको नाश्ता करवा पाते हैं। बीस बीघे खेत के मालिक के बच्चे दिल्ली में ईंट ढो रहे हैं। हायाघाट से मुक्तापुर के बीच आठ बड़े-बड़े रेल पुल बने हुये हैं। कहीं कोई समस्या ही नहीं है, बाँध काट दो पानी सब निकल जायेगा। बाढ़ से हमलोगों को कोई परेशानी ही नहीं थी। आप क्यों आ गये बाढ़ का नियंत्रण करने के लिये। कहते हैं कि समस्तीपुर बह जायेगा। अब इस पागलपन का कोई इलाज है। पिछले साल मैट्रिक की परीक्षा में जहाँ 21 लड़के फेल हुये तो परीक्षा का कानून बदल गया और 35 आदमी बाढ़ में डूब कर मर गये तो कुछ हुआ ही नहीं।
हमलोग बाँध हटाने की बात करते हैं तो इंजीनियर लोग कहते हैं कि क्यों आप बाँध के पीछे पड़े हैं? अरे! रिलीफ की व्यवस्था कर दी जायेगी और आपलोगों को कोई परेशानी नहीं होगी। हमारी जो समझ आज तक बन पाई है उसके अनुसार 90 फीसदी बाँध इंजीनियरों द्वारा लूटपाट को ध्यान में रखकर बनाये गये हैं और बाकी 10 फीसदी उनकी अज्ञानता की वजह से। बिस्फी के पश्चिम लालपुर टोला के पास बागमती का मुँह बन्द हो गया है तो सारा पानी घूम कर दरभंगा में घुस जाता है। बरसात के बाद नदी के निचले हिस्से में पानी नहीं रहता है। थोड़ा सा काम है। सब से कह के देख लिया, कोई कुछ नहीं करता है। यहाँ शान्ति नहीं है, घोघराहा धार और पंचफुटा धार है उसकी धार खोल दीजिये, पानी निकल जायेगा। सरकार तो चाहे जो कुछ भी हो भाषा केवल आन्दोलन की ही समझती है।
आपलोग हमारे साथ खड़े होइये बाकी काम हमलोग कर लेंगे। हमारे प्रतिनिधि जो चुनकर गये वह वापस हाल नहीं पूछने आये। हमलोग संघर्ष करेंगे, आप भी मदद कीजिये।
विजय कुमार
हमलोगों ने जब दरभंगा में कार्यक्रम तय किया था तब उसके पीछे उमेश जी के क्षेत्र की परेशानियाँ हमारे दिमाग में थीं। आज से दो साल पहले हमारे एक परिचित यहाँ बिहार की बाढ़ पर फिल्म बनाने के लिये आये थे। उनको हमलोगों ने जठमलपुर की ओर ले जाने का प्रयास किया। रास्ते में डिहलाही के पास सड़क पर से होकर पानी गुजर रहा था। रास्ता बन्द था और आगे जा नहीं सकते थे। फिर भी हमलोग जहाँ से पानी सड़क पर होकर गुजर रहा था वहाँ तक गये। वहाँ का दृश्य और भी हृदय विदारक था। एक आदमी की चिता सजाई जा रही थी सड़क पर। जो फिल्मकार थे अरविन्द जी, वह यह दृश्य देखकर फूट-फूट कर रोने लगे कि उसे श्मशान भी नसीब नहीं। जैसे-तैसे उनको शान्त किया गया। उन्होंने कुछ शॉट लिये और हमलोगों ने लोगों से बातचीत की। लोगों का कहना था कि घोघराहा, शान्ति और पंचफुटा धार का मुँह खोल दीजिये हमारी समस्या का समाधान हो जायेगा। हमको रिलीफ नहीं चाहिये, धार का मुँह खोलकर हमको जगह बता दीजिये, अगली साल वहाँ रिलीफ हम बाँटेंगे। यह वही समय था जब दो बड़े नेता क्रमशः दरभंगा और सीतामढ़ी में बराह क्षेत्र नुनथर और शीसापानी बाँधों के समर्थन में धरने पर बैठे थे। नेताओं और आम जनता की दूरी अब इस कदर बढ़ गई है।
आप के संघर्ष में हम साथ देने का वायदा करते हैं।
जितेन्द्र कुमार (सारण)
हमलोग पुराने सारण जिले में हैं जोकि तीन तरफ से -पूर्व में गण्डक, पश्चिम में घाघरा तथा दक्षिण में गंगा और उन पर बने तटबन्धों के बीच घिरे हुये हैं। नदियों से घिरे इस क्षेत्र में बहुत से चौर हैं जिनका आकार समय के साथ बढ़ता जा रहा है। इन्हीं में से एक हरदिया चौर है जिसकी लम्बाई अब 24 किलोमीटर तथा चौड़ाई 6 किलोमीटर हो गई है। पानी की निकासी के रास्ते बन्द हैं। हमलोगों के इलाके में वर्षा का पानी अगर इकट्ठा हो जाता है तो जाता नहीं है जिसके कारण आम और शीशम के पेड़ अब मरने लगे हैं।
गण्डक नहरों से हमलोगों को बहुत आशायें थीं कि हमारे क्षेत्र में खुशहाली आयेगी। इन नहरों में पानी नहीं आता। अगर कभी आया तो आस-पास की जमीन को दलदल बना देता है। पानी के दबाव में अगर नहर कहीं टूट गई तब और भी ज्यादा मुसीबत पैदा हो जाती है। सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है कि इन नहरों के कारण पानी की सहज निकासी में बाधा पड़ी है और इससे भी जल जमाव बढ़ता है।
यदु कुमार चौधरी (दरभंगा)
1987 की जो प्रलयंकारी बाढ़ बिहार में आई थी मैं तब से बाढ़ को बड़े नजदीक से देख रहा हूँ। हायाघाट के पश्चिम तथा पटौरी तक इस साल 12 लोग बाढ़ में मरे हैं और मैं उसी क्षेत्र का रहने वाला हूँ। बाढ़ के कुप्रबंधन का परिणाम है कि हमारी सड़कें, स्कूल, अस्पताल, स्वास्थ्य केन्द्र , सार्वजनिक भवन आदि सब समाप्त हो गये हैं। कहाँ इनमें सुधार और वृद्धि होती यहाँ तो जो है वह भी जा रहा है। ग्रामीणों के घर तो गिरते ही हैं और जो नदी के किनारे वाले लोग हैं वह नदी के बीच पहुँचते जा रहे हैं। जिन गाँवों से देश की समृद्धि का अन्दाजा लगता था वह गाँव अब वीरान हो गया है, उजड़ गया। मजदूर पलायन कर गये हैं। शहरों में भी उनकी स्थिति अच्छी नहीं है।
हायाघाट की जो स्थिति है वह तो इंजीनियरों और नेताओं के दिमागी दिवालियापन की जीती जागती मिसाल है। बागमती के दाहिने किनारे पर सुरमार हाट से हायाघाट तक 25 किलोमीटर लम्बा तटबन्ध बनाया गया है। उत्तर में कमला-बलान आदि नदियाँ आती हैं, उन पर भी तटबन्ध बना हुआ है पर हायाघाट में सब को खुला छोड़ा हुआ है। हमारी नदियाँ अन्य जगहों की तरह अकेली धारा में नहीं बहतीं। यह तो समूह है नदियों का। अब सिरहा (नेपाल) से जो भी पानी चलता है वह सब का सब बहता हुआ हायाघाट आ जाता है। यदि रास्ते के सारे पुलों की चौड़ाई नापें तो 2000 फुट की आस पास आयेगी। इतने पानी को हायाघाट से 200 चौड़े पुल से गुजरने को बाध्य किया जाता है। यह कैसे सम्भव हो सकेगा। हायाघाट का ही जलग्रहण क्षेत्र 6,200 वर्ग किलोमीटर है। इस साल केवल हायाघाट में 35 लोग नौका दुर्घटना में मरे। पानी घरों में घुसा रहता है। 4-5 महीने तक निकलते ही नहीं बनता। नाव की व्यवस्था नहीं है। आदमी जानवर बीमार पड़े तो फिर मृत्यु की ही प्रतीक्षा रहती है।
प्रशासन की नींद तोड़ने का हमलोग हर सम्भव प्रयास करते हैं। इस साल भी 36 घंटे के लिये कमिश्नर के यहाँ अनशन पर बैठे कि आप बाढ़ का स्थाई समाधान कीजिये या फिर 1987 में हमलोगों को जेल में ठूँसकर सरकार ने हम से जो समझौता किया था उसे लागू कीजिये। मगर प्रशासन सुनने को तैयार नहीं है।
हमें अपनी समस्या का स्थायी समाधान चाहिये। अगर यह बाँध बनाने से हो सके तो वह किया जाय। मगर जब तक यह स्थायी समाधान नहीं हो पाता है तब तक अस्थाई समाधान हो ताकि हम अपनी कृषि को जिन्दा रख सकें और हमारी सारी नागरिक सुविधायें बहाल रहें। हायाघाट के पश्चिम में ऐसे गाँव हैं जहाँ से लहेरियासराय आने के लिये 20-25 किलोमीटर पैदल चलने के अलावा कोई चारा नहीं है। आइये हमलोग मिलकर संघर्ष को आगे बढ़ायें।
कृष्ण कुमार कश्यप (बरहेता-दरभंगा)
मैं कार्यकर्ता और भुक्त भोगी हूँ। राजनीति से बढ़कर असरदार जादू आज तक कोई और नहीं हुआ है। हमारे जीने के हक का प्रश्न है, मानवाधिकार का प्रश्न। आपकी नदियों के किनारे बालू की भीत बना दी जाय- यह कौन तय करता है। इन दिवारों पर पेड़ लगा कर उन्हें काट दिया जाय, यह कौन तय करता है। अब तो चुनाव कहीं पाँच साल बाद होता है लेकिन अब तो यह हर साल होता है। हम जिसे चुनकर भेजते हैं उसका तो हर दिन होली और हर रात दिवाली होती है। यहाँ से जाने के बाद वह हमें भूल जाता है। जो आपकी बात नहीं करता है उसे रोक दीजिये।
बाढ़ के समय हमारे यहाँ शौच पानी में करते हैं। यह बाहर वाले नहीं जानते। भुक्त भोगियों की एक सेना तैयार कीजिये जोकि रिलीफ की गड़बड़ी से लेकर बचाव आदि के ऊपर काम करे। सरकार में अगर इंजीनियर, डाॅक्टर या वकील आदि हैं तो जनता के बीच भी तो इस तरह के लोग हैं। हमारे यहाँ तो सरकार से अधिक विभिन्नता के लोग हैं। हम अपनी योजना बनायें और सरकार को मजबूर करें कि वह उस पर काम करे।
उमेश राय जी जून में सम्मेलन करने को कह रहे हैं तो इस सम्मेलन को उसकी तैयारी के रूप में लिया जाय और इस बार बाढ़ से पहले एक कार्यक्रम किया जाय और हम सबलोग सहयेाग करेंगे।
कामेश्वर झा (मधुबनी)
मौलिक प्रश्न है कि जिस दिन से कोसी का तटबंध निर्माण हुआ उसका प्रभाव हमारे ऊपर क्या पड़ा। बाल्यावस्था में गाँव से स्कूली शिक्षा पास करने के उपरांत क्लास छह में सन 1952 में मैने अपना नामांकन कराया। उस समय मधेपुर कॉलेज की व्यवस्था थी। यह एक बड़ी समस्या शुरू से ही थी कि जो लोग कोसी क्षेत्र से आते हैं मधेपुर से कैसे आ जा सकते थे। नजदीक के स्कूलों में तो लोग पैदल भी आ जा सकते थे। उस समय मैंने सुना कि कोसी पर तटबन्ध का निर्माण होने वाला है। उस समय इस क्षेत्र के लोग जब गंगा स्नान के लिये पैदल जाते थे तो रास्ते में हमारे ही गाँव से गुजरना पड़ता था। इसी क्षेत्र में अमरनाथ जैसे ही एक शिव जो कि अजन्मा थे, का मंदिर था जिसे लोग कोसी के काका कहकर पुकारते थे। कोसी के काका की पूजा अर्चना और सेवा भाव से सभी लोग सुरक्षित थे।
इस बीच स्कूल से आते-जाते वक्त हमने चाचा से सुना कि तटबंध का निर्माण होने वाला है और राजेन्द्र बाबू इसका उद्घाटन करेंगे। तब लोगों ने जानना चाहा कि तटबन्ध क्या है। तब किसी का कहना था कि कोसी की जितनी धारा है उसे समेट कर इस स्थान पर समा दिया जाएगा। जगतजननी सीता का जन्म, जनक द्वारा हल जोतने के बाद इस स्थान पर क्यों हुआ? इस पवित्र जमीन पर ऐसा निर्माण क्यों हो रहा है। यहाँ पर धान चावल की खेती हमारे वंशज करते आए हैं। पर यहाँ तटबंध का निर्माण अनुकूल नहीं है। यह तो काल को नियंत्रण करने वाली जैसी बात हुई। हमलोगों का कहना था कि चाहे वो राजेन्द्र बाबू हों या गुलजारी लाल नंदा- ऐसी योजना क्यों बनाई गई। हमलोग इसे नहीं बनने देंगे। राजनीति और तकनीकी अवधारणाओं की सलाह पर अधवारा समूह की नदियाँ, गंडक, बाया आदि का तट बाँध कर जल जमाव जैसी समस्या को निमंत्रण दिया। पहले तो हर साल हमारे क्षेत्र में सर्वे हुआ करता था। बराह क्षेत्र से अंतिम क्षेत्र तक जहाँ पानी गंगा में समाहित होता है; का स्तर कितना है।
हिमालय भुरभुरी मिट्टी का ढेर सा है। सर्वेयर की आपसी गठजोड़ से 1960-62 तक सर्वे कार्य चला और हमारे यहाँ तटबन्ध बन गया। अब देखते हैं कि करीब 80 प्रतिशत खर्च व्यवस्था पर और 20 प्रतिशत योजना पर हुआ- यह क्यों? आज उसके प्रतिफल में 12-14 फीट बालू जमाव हुआ। अधवारा समूह की नदियाँ कोसी, बलान, दरभंगा से खगड़िया तक गाद के जमा होने से इस ओर समुद्र का रूप ले चुकी है। इसका एक कारण मानसी-सहरसा रेलवे लाइन भी है। एक तरफ हिमालय की चोटी और दूसरी ओर गंगा के बीच की सीमा के मध्य मिथलांचल पड़ता है। अब हम और ज्यादा भुलावे में नहीं आयेंगे और बाँध का विरोध करेंगे।
दिनेश कुमार मिश्र
बाढ़ के सवाल पर इस तरह की कोई मीटिंग, बाढ़ मुक्ति अभियान दरभंगा शहर में पहली बार कर रहा है। इस मीटिंग में बहुत से नये लोग शामिल हो रहे हैं जो कि एक शुभ संकेत है। कॉलेज, विश्वविद्यालय के अध्यापकों तथा छात्र छात्राओं को यहाँ देख कर विशेष रूप से खुशी होती है।
उत्तर बिहार की बाढ़ की समस्या पर जब हम विचार करने बैठते हैं तो घाघरा से लेकर महानन्दा तक प्रभाव के तौर पर लगभग एक जैसी स्थिति है। आप यदि आँख बंद करके वक्ताओं की बात सुनें तो सब की समस्या एक लगती है केवल नामों में अंतर आता है।
मैं एक घटना सुनाता हूँ। सीवान जिले के रघुनाथपुर प्रखण्ड में एक अमवारी चौर है। काफी समृद्ध और खुशहाल इलाका था यह कभी। सत्तर के दशक में यहाँ गण्डक नहरों का निर्माण हुआ। स्थानीय नहर और उसकी एक शाखा नहर ने तीन तरफ से इस चौर और उसके किनारे के गाँवों को घेर लिया। नतीजा यह हुआ कि इस इलाके के पानी की निकासी का रास्ता लगभग बन्द हो गया। उस पर यदि कभी दोनों में से कोई नहर टूट जाय तब तो कोढ़ में खाज निकल आयेगी। इसी नहर पर रघुनाथपुर से अन्दर जाने वाले रास्ते पर एक आदमी से मुलाकात होती है। वह कुछ भैंसों को चरा रहा था। बातचीत के दौरान उसने बताया कि 1971 में धान की कटाई के बाद नौकरी खोजने बोकारो चला गया था और तीन-चार साल बाद लौट कर वापस अपने गाँव आ गया क्योंकि बोकारो में उसे नौकरी मिली नहीं। जब मैंने पूछा कि उसकी शिक्षा कहाँ तक हुई है तो वह गंभीर हो गया और बोला कि जिस शिक्षा को हासिल करके नौकरी न मिले वह चाहे चौथी कक्षा तक हो या पी.एच.डी. तक की हो-क्या फर्क पड़ता है। बात चीत आगे बढ़ी तो मैंने पूछा कि उसके पास कितना खेत है? उत्तर फिर वही कि जिस खेत से किसी का पेट न भरे वह चाहे दो बिस्वा हो या बीस एकड़ हो-सब बराबर है। उसका सारा खेत गण्डक नहर की भेंट चढ़ गया। उसने बताया कि बोकारो जाने के पहले जो उसने धान की फसल काटी थी वह उसकी आखिरी फसल थीं उसके बाद कभी धान काटने की रोजी नहीं हुई। वह भैंसे भी जो वह आदमी चरा रहा था वह किसी दूसरे की थी, उसकी नहीं।
यह आदमी केवल घाघरा के किनारे या रघुनाथपुर प्रखण्ड में ही नहीं रहता। आज उत्तर बिहार में किसी भी जगह और किसी भी नदी के किनारे ऐसे आदमी को आप पायेंगे जो कि अपने बाप दादों की बात करने और अपने उन्मुक्त बचपन के बारे में बात करेगा और फिर अपनी मजबूरी और बदहाली के किस्से आपको सुनायेगा। ऐसे आदमी या समाज के संसाधनों के साथ जरूर कहीं न कहीं और किसी न किसी ने अनाचार किया है। यह सारा काम नदियों को नियंत्रित करने के नाम पर हुआ ताकि बाढ़ खत्म की जा सके और खेतों को सींचा जा सके। मगर न तो बाढ़ खत्म हुई और न खेत सींचे गये।
श्री रमेश झा ने पानी को पूज्य बताया। जीवन का आधार पानी है। नदियाँ मातृ स्वरूपा हैं। गंगा का सम्बोधन ही ‘‘मैया’’ है और जब किसी को नदी का नाम याद नहीं आता तो वह उसे गंगा कह कर काम चला लेता है। वहीं दूसरी तरफ दामोदर बंगाल का शोक है, कोसी बिहार का शोक है। मातायें किसी का शोक कैसे हो जाती है। यह शोक शब्द अंग्रेजों का दिया हुआ है। वह तो भारत में आये ही थे पैसा बनाने के लिये। जब वह दामोदर के किनारे खड़े होते थे लगान वसूल करने के लिये तो नदी का व्यवहार ही उनके समझ में नहीं आता था और न ही वह दामोदर की बाढ़ का अर्थ लगा पाते थे। उन्हें इतना लगता था कि जिस तरह की परेशानी दामोदर से होती थी उसको देखते हुये उस इलाके में लगान वसूली उचित नहीं होगी और क्योंकि वह लोग लगान वसूल नहीं कर पाते थे इसलिये दामोदर को बंगाल का शोक कहते थे। यही बात कोसी के साथ भी रही होगी।
तब यह मातृ शक्ति एक शोक शक्ति में कैसे बदल जाती है- इसे समझना होगा। अंग्रेजों ने वर्षा का मौसम नहीं देखा था, उनके यहाँ पानी लगभग पूरे साल बरसता है।
बाढ़ का जो रूप हमारे यहाँ होता है वह उससे भी वाकिफ नहीं थे। उसके ऊपर से उनकी हर चीज पर विजय पा लेने की जिद उन्हें नदियों को छेंकने और नियंत्रित करने के मुकाम पर ले आई। अपने शासन काल के शुरू के वर्षों में यह काम उन्होंने प्राथमिकता के स्तर पर किया और मुँह की खाते गये। उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में जब उन्होंने दामोदर पर हाथ लगाया और बुरी तरह नाकाम रहे तब उन्होंने नदियों को नियंत्रित न करने की कसम खाई जिसे उन्होंने तब तक निभाया जब तक वह भारत में रहे। दामोदर के तटबन्धों को उन्होंने बिना कोई प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाये 1850 के दशक में तोड़ कर समाप्त कर दिया। उनकी एक मजबूरी और थी कि नदियों के किनारे तटबन्ध बना देने के बाद भी अगर वह बाढ़ से सुरक्षा नहीं दे पायें तो उन पर राहत कार्य चलाने के लिये दबाव पड़ता था। यह खर्च उन पर भारी पड़ता था अतः उन्होंने तटबन्धों से किनारा कर लिया और राहत कार्यों से भी अपने को बचा लिया।
अंग्रेजों के चले जाने के बाद बाढ़ से निपटने का जिम्मा भूरे इंजीनियरों पर आ गया। उधर नई सरकार पर भी दबाव था कि वह कुछ करती हुयी दिखाई पड़े जिससे जनता को लगे कि हमारी अपनी सरकार कुछ कर रही है। 1953 में सहरसा में बाढ़ आई तो यह मसला भी हल हो गया। लोगों को बाढ़ से सुरक्षा देनी थी और तुरन्त देनी थी जिसके लिये नदियों के दोनों किनारों पर तटबन्ध बनाने के अलावा कोई चारा नहीं था क्योंकि तुरन्त तो यही काम किया जा सकता था। यह कुछ इसी तरह है कि अगर कोई किरायेदार मकान खाली न करता हो और मकान खाली करवाने की सारी कोशिशें कर लेने के बाद गुण्डों से सम्पर्क किया जाय। नदियों के किनारे तटबन्ध कुछ इसी तरह के गुण्डे हैं। किरायेदार तो नहीं रहा पर उसकी जगह गुण्डा बैठ गया।
प्राकृतिक बाढ़ की जगह अब अप्राकृतिक और मानव निर्मित बाढ़ ने ले ली। अब बाढ़ के साथ जल जमाव, नदियों के तल का ऊपर उठना, स्लुइस गेट का काम न करना तथा तटबन्धों का टूटना और कभी-कभी परेशान होकर ग्रामवासियों द्वारा खुद काटा जाना आदि सब भोगना पड़ता है। अब अगर इस गुण्डे से फुर्सत पानी है तो उससे बड़ा गुंडा खोजकर लाना होगा। हमारी सरकार ने यह गुण्डा खोज भी रखा है वह है कोसी पर प्रस्तावित बराह क्षेत्र बाँध और उस जैसे अन्य 29 बाँध जो कि नेपाल में बनेंगे। यह बाँध शायद सब कुछ कर सकते हैं- बिजली पैदा कर सकते हैं, सिंचाई दे सकते हैं मगर बाढ़ नहीं रोक सकते। यह सारा विवरण ‘‘बाढ़ तो फिर भी आयेगी’’ नाम की पुस्तिका में दिया गया है इसलिये उसके विस्तार में हम नहीं जायेंगे।
बराह क्षेत्र बाँध सरकारी तौर पर पहली बार 1947 में प्रस्तावित किया गया था। यह आज भी प्रस्तावित ही है। इस बीच 53 साल गुजर गये। कब बनेगा यह बाँध। कुछ दिन पहले मेरी केन्द्रीय जल संसाधन मंत्री से मुलाकात हुई थी और यही बात मैंने उनसे पूछी- कब बनेगा यह बाँध और उनका वही पुराना जवाब था कि वार्ता जारी है। हमने उनसे कहा कि किसी भी समस्या के तकनीकी समाधान खोजने के लिये इंजीनियरों को बहुत सी शर्तों, परिस्थितियों और बन्धनों को स्वीकार करना पड़ता है। क्या इंजीनियरों से यह नहीं कहा जा सकता कि जिस बाँध को बनाने का वह प्रस्ताव कर रहे हैं या जिस जगह उन्हें समस्या का समाधान दिखाई देता है वह जगह भारत में है ही नहीं- यह एक और शर्त है और अब खोजो बाढ़ समस्या का समाधान। तब देखिये इंजीनियर लोग क्या जवाब देते हैं। तब शायद वह भी स्थानीय रूप से बाढ़ से निपटने की बात करेंगे, आपदा-प्रबंधन की बात करेंगे, तटबन्धों को हटा देने की बात करेंगे और जल-निकासी की बात करेंगे। बराह क्षेत्र बाँध के बारे में बात करते रहना इंजीनियरों तथा राजनीतिज्ञों के अनुकूल बैठता है जिससे वह अपनी अकर्मण्यता पर परदा डाल सकते हैं।
बराह क्षेत्र बाँध एक ऐसा छींका है जिसके टूट कर गिरने के इंतजार में हमारे सारे राजनीतिज्ञ, पूरा अमला तंत्र, पूरा तकनीकी समुदाय टकटकी लगाये बैठा है। यह लोग यह भी अपेक्षा रखते हैं कि बाढ़ प्रभावित जनता भी उन्हीं की तरह ध्यान लगाये। अन्तर केवल इतना है कि राजनीतिज्ञों, प्रशासकों या इंजीनियरों पर बाढ़ का असर नहीं पड़ता और अगर पड़ता भी है तो उन्हें लाभ ही होता है, नुकसान नहीं। नुकसान तो लोग भुगतते हैं और फिर भी कोई यह नहीं पूछता कि अभी और कितने साल वार्ता चलेगी और जब तक यह वार्ता चलेगी या बाँध बनेगा तब तक के लिये कोई योजना सरकार के पास है क्या?
हमने मंत्री जी को सुझाव दिया कि आप उत्तर बिहार में कोई 5-10 गाँव चुन लीजिये और उनके पानी की निकासी की व्यवस्था करवा दीजिये। पानी निकल जायेगा तो उस पर रबी की खेती शुरू हो जायेगी और अगली फसल से उस पर सम्भव है, खरीफ की खेती भी होने लगेगी। इतना करने के लिये न तो आपको नेपाल से आज्ञा लेनी पड़ेगी और न ही बांग्लादेश को सूचित करना पड़ेगा। यह काम आप अपनी जमीन पर अपने संसाधन से बिना किसी दूसरे तीसरे को शामिल किये बड़े आराम से कर सकते हैं। अगर यह प्रयोग सफल होता है तो इसको विस्तृत किया जाय। इस हालत में कम से कम बाढ़ नियंत्रण के लिये बराह क्षेत्र बाँध नहीं बनाना पड़ेगा।
बिहार सरकार के जल संसाधन विभाग की रिपोर्टों में हर साल यह बात कही जा रही है कि बिहार के 9 लाख हेक्टेयर जमीन पर जल जमाव है जिसमें से 8 लाख हेक्टेयर जमीन तो केवल उत्तर बिहार में पानी में फँसी है। इतनी सूचना दे देने के बाद विभाग उन योजनाओं के बारे में जानकारी देता है जो कि 1985 के बाद से योजना आयोग, केन्द्रीय जल आयोग और वित्त मंत्रालय में ठोकरें खा रही हैं। यह योजनायें अरबों रूपये की हैं और जमीन पर धेले पर का भी काम नहीं है। विभाग के इंजीनियर पुरानी योजनाओं का नया एस्टीमेट बना देने से ही अपनी उपयोगिता बनाये रखते हैं।
सरकार अपने ही आंकड़ों का कभी विश्लेषण नहीं करती। 8 लाख हेक्टेयर जमीन का जल जमाव में फँसे होने का मतलब है कि उत्तर-बिहार की लगभग 15 प्रतिशत खेती लायक जमीन पर उपज नहीं होती। यदि इतना ही प्रतिशत प्रभावित जनता का हो तो केवल जल-जमाव के कारण कम से कम 60 लाख लोगों की रोजी-रोटी पर आफत है। जुलाई के महीने में जब जल संसाधन विभाग/राहत पुनर्वास विभाग बाढ़ से प्रभावित जनसंख्या का आंकड़ा देते हैं तो यह गिनती 10 लाख के आस-पास से शुरू होती है। सच यह है कि 60 लाख लोग तो पानी की एक बूँद बरसे बिना ही पानी में हैं फिर यह 10 लाख लोग कौन हैं। यह गिनती तो 60 लाख के ऊपर शुरू होनी चाहिये।
अब इस समस्या का समाधान श्रमजीवी एक्सप्रेस, श्रमशक्ति या जन सेवा एक्सप्रेस के चलाने से तो नहीं हो सकता और न ही उनमें अनारक्षित डिब्बों की संख्या बढ़ाने से हो सकता है ताकि ज्यादा से ज्यादा बेरोजगार मजदूर दिल्ली/पंजाब जा सकें। अभी कुछ दिन पहले दरभंगा से एक मिलेनियम एक्सप्रेस शुरू हुई है जिसमें दो ब्रेकवान डिब्बे हैं और बाकी 16 बिना रिजर्वेशन वाले डिब्बे हैं। यह नई रेल सेवा किसके फायदे के लिये शुरू की गई है- पंजाब के किसानों के लिये या बिहार के मजदूरों के लिये? नई रेलगाड़ियों का चलना बहुत अच्छी बात है लेकिन देश के बाहरी हिस्सों में क्या संदेश जाता है। दिल्ली में बिहारी मजदूरों को लोग किस नजर से देखते हैं यह किसी से छिपा नहीं है। यह बातें किसी नेता, किसी अफसर या किसी इंजीनियर के जमीर को क्यों नहीं झकझोरती है।
आज सुबह जो कुछ बातें हुईं उसमें नेताओं, प्रशासकों या इंजीनियरों के प्रति अविश्वास की एक धारा बहती थी। आज से पचास साल पहले यह स्थिति नहीं थी। लोगों का अपने नेताओं, प्रशासकों तथा इंजीनियरों पर विश्वास था जो कि अब सन्देह में बदल चुका है। सुबह विजय जी बता रहे थे कि उत्तर बिहार का 76 प्रतिशत क्षेत्र बाढ़ से प्रभावित बताया जाता है और सरकारी आंकड़ों के अनुसार 87 प्रतिशत जनता कृषि को अपने जीवन का आधार बताती है। यह स्थिति अपने आप में चौंकाने वाली है। जहाँ कि 76 प्रतिशत जमीन पर बाढ़ आये और 87 प्रतिशत लोग कृषि पर आधारित हों वहाँ लोग रोजगार के लिये पलायन नहीं करेंगे तो क्या तीर्थ यात्रा करने जायेंगे। बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों के साथ एक और दिक्कत है। एक रिपोर्ट के अनुसार देश का 11 प्रतिशत क्षेत्र लगातार की बाढ़ से तथा 28 प्रतिशत निरन्तर पड़ने वाले सूखे से परेशान रहता है। इस तरह से सूखे के नक्कार खाने में बाढ़ की तूती तो वैसे भी कोई नहीं सुनता क्योंकि बाढ़ प्रभावित क्षेत्र सूखे वाले इलाके से लगभग तीन गुना कम है। उसके बाद बाढ़ की समस्या लगती है जबकि इसका प्रभाव बारहमासी है। यह बात मानने को कोई तैयार ही नहीं होता। इस पृष्ठभूमि में बिहार की बाढ़ पर बात करने पर लोग उसे सीधा भ्रष्टाचार से जोड़ देते हैं और कहते हैं कि जो रोज मरता है उसके लिये क्या अफसोस करना?
इसके बाद थोड़ी चर्चा इंजीनियरिंग की शिक्षा पर करें। मैंने आज से 30-35 वर्ष पूर्व यह शिक्षा प्राप्त की थी। हमलोग जो ड्राइंग सीखते थे उसकी शीट एकदम साफ सुथरी हुआ करती थी। अध्यापक यह बताते थे कि जो लाइन तुम इस कागज पर खींचोगे, उसी लाइन पर साइट पर बुलडोजर चलेगा। हमलोगों को अपने ऊपर बड़ा गर्व होता था कि हम इतने ताकतवर हैं। हमको जो नहीं पढ़ाया गया था वह यह कि लाइन खींचने के पहले एक बार जाकर देख लेना कि वहाँ लोग तो नहीं रहते। वहाँ अगर जीवन है तो लाइन खींचने के पहले उसका ध्यान रखना। मुझे दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि यह बात वहाँ आज भी नहीं बताई जाती।
विभिन्न योजना क्षेत्रों में चले आन्दोलनों ने इंजीनियरों को इस मानवीय समस्या से आगाह किया है। तब इंजीनियर अपने द्वारा तैयार की गई योजनाओं की जिम्मेवारी सरकार पर डाल देते हैं कि सरकार ऐसा चाहती है, इसलिये हमने यह काम किया है। अब यह सरकार बड़ी अजीब चीज है। मंत्री जी से बात कीजिये तो वह कहेंगे कि वह सरकार से बात करेंगे। इस तरह के शब्दों का उपयोग मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री जैसे लोग भी करते हैं। वह कौन है जिससे हम अपनी तकलीफ कहें और वह खुद उस पर कार्यवाही करे। इंजीनियरों की तो खैर जनता से कभी साहब सलामत रही ही नहीं मगर यह रिश्ते निर्णय की क्षमता रखने वाले राजनीतिज्ञों से भी नहीं बन पाते हैं। तब किसके सामने फरियाद की जाय? हमारी समस्या क्या है- इसका कोई मतलब नहीं है। नेताओं और इंजीनियरों को जब लगता है कि अमुक क्षेत्र के लोगों की यह समस्या होनी चाहिये तब वह उस समस्या का समाधान तैयार करते हैं। बहुत सम्भव है यह हमारी समस्या हो ही नहीं। अब आप चिट्ठी लिखते रहिये और स्मरण पत्र भेजते रहिये। बहुत संगठन की क्षमता है तो जुलूस/धरना प्रदर्शन कर लीजिये। नतीजा फिर भी कुछ नहीं निकलेगा क्योंकि तब तक उनका गलत निर्णय उनके लिये प्रतिष्ठा का प्रश्न बन चुका होता है।
यहाँ हमारे बीच कमला के झंझारपुर के नीचे के क्षेत्र से लोग आये हैं। 1993 के बाद से लगातार कमला का तटबन्ध कुछ टूट रहा है कुछ काटा जा रहा है। दोनों ही परिस्थितियों में कन्ट्री साइड में मिट्टी पड़ती है और जमीन जल जमाव से निकल कर खेती लायक बन जाती है। दोनों ही परिस्थितियों में तटबन्ध की उपयोगिता पर प्रश्न चिन्ह लगता है। इस घटना से सबक लेने के स्थान पर सरकार तटबन्ध काटने वालों को असामाजिक तत्व कह कर दामन झाड़ लेती है। जिन लोगों की लापरवाही से तटबन्ध टूटता है उन्हें सरकार क्या कहती है यह तो वही जाने क्योंकि यह तो उसके घर की बात है जो कि वह बाहर नहीं आने देती; अब सरकार जिसे असामाजिक तत्व कहती है वह लोग कोई आसान काम क्यों नहीं करते। वह जेब काट सकते हैं, राहजनी कर सकते हैं या उठाईगिरी कर सकते हैं वह क्यों जान हथेली पर रखकर बाढ़ के समय नदी का तटबन्ध काटते हैं। यह बात केवल कमला की ही नहीं है महानन्दा का तटबन्ध भी तीन जगह कटा हुआ पड़ा है। 1993 में बागमती के टूटे तटबन्धों की मरम्मत स्थानीय जनता ने नहीं करने दी। यह सब के सब असामाजिक तत्व हैं। आखिर किस तरह लोग अपनी बात ऊपर तक पहुँचायें।
सरकार उधर समाधान के तौर पर नेपाल में प्रस्तावित बाँधों की चर्चा करते नहीं थकती है। नेपाल में बनने वाले बाँधों के लिये पैसा न तो नेपाल के पास है और भारत के। अर्थ व्यवस्था को बाजार में ला खड़ा करने के पहले परिस्थिति यह थी कि अगर भारत-नेपाल इन बाँधों के निर्माण के लिये तैयार हो जाते तो विश्व बैंक, अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष या इसी तरह की कोई संस्था ऋण देती जिससे दोनों देश इन बाँधों का निर्माण करते। विश्व बैंक का बड़े बाँधों के प्रति अब मोह भंग हो चुका है और इन वित्तीय संस्थाओं का स्थान अब बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ ले रही हैं। यह कम्पनियाँ बिजली पैदा करने के लिये बाँध बनायेगी, नेपाल को उसकी रायल्टी/टैक्स देंगी। भारत को बिजली बेचेंगी। इसमें से एक एनरॉन है जिसको लेकर पिछले वर्षों में महाराष्ट्र में धबोल में अच्छा खासा आन्दोलन हुआ था। यह कम्पनी अब धड़ल्ले से 4.95 रुपये प्रति यूनिट की दर से बिजली बेच रही है। कोजेन्ट्रिक्स ने अपने निवेश पर नुकसान न होने की गारन्टी सरकार से मांगी थी और यह गारन्टी मिल जाने के बाद भी उसने विद्युत उत्पादन से हाथ खींच लिया। ऐसी ही कम्पनियाँ अब नेपाल में बाँध बनायेंगी। अगर इन कम्पनियों को फायदा होता नहीं दिखेगा तो यह बाँध बनेंगे भी नहीं। बाढ़ों का नियंत्रण इन कम्पनियों के एजेण्डा में नहीं है। इसको सुनिश्चित करने के लिये अभी से लड़ाई लड़नी हेगी वरना यह कम्पनियाँ खैरातखाना तो चलती नहीं हैं। यह बाँध आज बनना शुरू हों तो 15 साल समय लगेगा इनके निर्माण में। उस वक्त बिजली की जो कीमत होगी उसका अनुमान करके यह कम्पनियाँ भी डरती हैं कि उनको कहीं घाटा न हो। यह कम्पनियाँ अगर नहीं चाहेंगी तो अब बाँध बनाना आसान नहीं होगा।
जहाँ तक राजनीतिज्ञों का चरित्र है वह बड़ा अजीब है। वह बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के खिलाफ रैली भी करेंगे और बरसात के मौसम में नेपाल में प्रस्तावित बाँधों की वकालत भी करेंगे। उस समय उनका बहुराष्ट्रीय कम्पनी विरोध पता नहीं कहाँ जाकर दुबक जाता है।
एक बार फिर इंजीनियरों की बात करें। ब्रिटिश हुकूमत के दौरान उन्होंने प्राण-प्रण से तटबन्धों का विरोध किया क्योंकि सरकार का तटबन्धों पर से विश्वास उठ गया था। उस वक्त इंजीनियरों की दलील थी कि नदी पर तटबन्ध बना देने पर नदी का पानी बाहर नहीं फैलने पायेगा मगर बाहर का जो पानी अपने आप नदी में आ जाता था वह नहीं आने पायेगा और तटबन्धों के बाहर जल जमाव बढ़ेगा। बाढ़ रुक जाने के कारण जमीन को जो हर साल नई मिट्टी मिलती थी वह नहीं मिलेगी इससे उसकी उर्वरा शक्ति घटेगी। नदी के तटबन्धों के बीच सीमित हो जाने के कारण उसमें मिट्टी/रेत का जमाव बढ़ेगा और नदी का तल ऊपर उठने लगेगा। पानी के निकासी के लिये बनाये गये स्लुइस गेट इसी बढ़ते हुये नदी के तल के कारण जाम हो सकते हैं और उन्हें बरसात के मौसम में इसलिये खुला नहीं रखा जा सकता है कि नदी का पानी कन्ट्री साइड में फैलने लगेगा। इसलिये स्लुइस गेट रहें या न रहें बाढ़ की परिस्थिति पर कोई अन्तर नहीं पड़ेगा। किसी नदी पर तटबन्ध बन जाने से उसकी सहायक नदी का मुहाना बन्द हो जाता है। जब स्लुइस गेट काम नहीं कर पायेंगे तो इस सहायक नदी पर भी तटबन्ध बनाना पड़ेगा। अब वर्षा का पानी ही दोनों नदियों के तटबन्ध के बीच में फँस जायेगा और तभी निकल पायेगा जब दोनों में से कोई तटबन्ध टूट जाए अथवा पम्प की मदद से पानी को भी किसी एक नदी में डाला जाये। फिर आज तक दोनों में से दुनियाँ के किसी कोने में ऐसा तटबन्ध नहीं बना जो कि टूटा न हो और उस हालत में तबाही पहले से कहीं ज्यादा होती है। इतने कारण गिना कर अंग्रेजों के जमाने में इंजीनियरों ने तटबन्धों का विरोध किया था।
आजाद भारत में जब तटबन्ध बनने की बात उठी तब उन्हीं इंजीनियरों ने दलील दी कि अगर पानी की एक ही मात्रा को कम क्षेत्र से बहाया जाय तो उसका वेग बढ़ जाता है। आपने किसी माली को गमलों में पाईप से पानी देते देखा हो तो इस बात को आसानी से समझ सकते हैं। वह जब पानी का मुह थोड़ा बंद करता है तो पानी का वेग बढ़ जाता है और उसकी धारा दूर तक जाती है। वेग बढ़ने से पानी की कटाव क्षमता बढ़ती है। इंजीनियरों का एक वर्ग मानता है कि तटबन्ध बना देने से पानी का प्रवाह क्षेत्र सीमित हो जाता है और इसलिये तटबन्ध बनाने से उनके बीच बहते हुये पानी क वेग बढ़ जायेगा। पानी का वेग बढ़ने से उसकी कटाव क्षमता बढ़ेगी और वह नदी को चौड़ा तथा गहरा कर देगा। बदली परिस्थिति में नदी से होकर ज्यादा पानी पास करेगा और बाढ़ अपने आप घट जायेगी। इसलिये तटबन्ध बनने चाहिये।
यह बात उसी तरह है जैसे कि कोई गंगा के किनारे जाकर गंगा राम बन जाये और जमुना के किनारे जमुना दास। विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में मोल-तोल नहीं चलता है। वहाँ जो चीजें होती हैं वह बस होती हैं। केवल राजनीतिज्ञों के इशारे पर अगर कोई तकनीक के मामले में एकदम शीर्षासन करने लगे तब उसे क्या कहेंगे। चक्कर यह है कि इंजीनियर लोग राजनीतिज्ञों के मातहत होते हैं जनता के नहीं। कोई भी आदमी उसी की सुनता है जिसका वह मातहत होता है। राजनीतिज्ञ पाँच वर्ष में केवल एक दिन जनता के अधीन होता है जिस वह उसे वोट देती है। उसके पहले और उसके बाद वह मालिक ही रहता है। इन्हीं राजनीतिज्ञों और इंजीनियरों के पास बाढ़ नियंत्रण की कुंजी समाज ने सौंप रखी है। इनको किस तरह अपनी बात कही जाय यह एक यक्ष प्रश्न है।
जहाँ तक पश्चिमी कोसी नहर का प्रश्न है इस नहर का मूल एस्टीमेट (1962) में 13.49 करोड़ रुपये का था। इस योजना का शिलान्यास लाल बहादुर शास्त्री ने किया था जिनके बाद ग्यारह अन्य लोग प्रधानमंत्री हो चुके हैं मगर योजना कब पूरी होगी कोई नहीं जानता। सरकारी तौर पर 1979 से यह कहा जाता रहा है कि अगले दो वर्षों में इसे पूरा कर लिया जायेगा। यह स्थिति आज भी कायम है। 1998 तक इस योजना पर 278 करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं और इसका एस्टीमेट 694 करोड़ रुपये जा पहुँचा है। पिछले वर्ष इस योजना से 27,000 हजार हेक्टेयर क्षेत्र पर सिंचाई हुई जबकि मूल अनुमान 2,62 लाख हेक्टेयर क्षेत्र पर सिंचाई करने का था। इस नहर से लगभग हर वर्ष मधेपुर, लखनौर और घोघरडीहा प्रखण्ड की रबी की फसल विभाग के कर्मचारियों की लापरवाही से बर्बाद होती है जिसकी कोई सुनवाई नहीं होती। इस नहर के बारे में हमलोग कभी अलग से मीटिंग करेंगे। कमला साइफन का शिलान्यास 1992 में हुआ था और तब कहा गया था कि यह काम 1995 तक पूरा कर लिया जायेगा। जब तक यह साइफन पूरा नहीं होगा कमला के पश्चिमी कोसी नहर का कोई मतलब ही नहीं होगा। यह काम कब पूरा होगा कोई नहीं जानता।
इधर खबर है कि भुतही बलान पर तटबन्ध बनने वाला है। इसके पहले सरकार कहती रही है कि तटबन्ध बनाना गलत है और वह यह काम नहीं करेगी। यह परिस्थिति तब थी जब सरकार के पास पैसा नहीं था। इस साल पैसा हो गया तब विचारधारा को तिलांजलि देकर तटबन्ध बनना शुरू हो गया। यही द्वन्द्व है। बात फिर वहीं अटकती है कि सरकार की पानी से सम्बन्धित नीति क्या है यह किसी को पता नहीं है और ऐसे संवेदनहीन तंत्र को अपनी बात किस तरह समझाई जाये वह भी तरीका हमें मालूम नहीं है। संगठित होने के अलावा शायद कोई रास्ता नहीं है।
प्रश्न: देश में कई आन्दोलन चल रहे हैं जैसे नर्मदा बचाओ आन्दोलन है, बहुगुणा जी का टिहरी वाला आन्दोलन, इन सब की चर्चा राष्ट्रीय स्तर पर है। आपकी बात चर्चा में ही नहीं आती। इसका क्या कारण है।
दिनेश कुमार मिश्र - आप राष्ट्रीय स्तर की बात कर रहे हैं। हमको तो लगता है कि हम प्रान्तीय स्तर पर भी चर्चा में नहीं हैं। इस पूरे घटनाक्रम में हमलोगों का अपना विश्लेषण भी है। इसे हम आपके सामने रखना चाहेंगे।
पहली बात शायद हमारी योजनाओं के वित्तीय स्रोत की है। नर्मदा परियोजना जितना दूर न जायें, अपने दक्षिण बिहार की सुवर्णरेखा परियोजना की बात कर लें। वहाँ 26 गाँवों के लगभग 12,000 परिवारों का विस्थापन हुआ है मगर योजना के लिये पैसा विश्व बैंक से आया था। आप अगर सुवर्णरेखा में पुनर्वास के विरुद्ध आवाज उठाते हैं तो आप एक तरह से विश्व बैंक के खिलाफ खड़े होते हैं। इतनी बड़ी संस्था के विरोध में खड़े होने पर आपका कद उसी के अनुरूप बढ़ता है। नर्मदा में सरदार सरोवर में केवल 1,29,000 लोगों के पुनर्वास की समस्या है- वहाँ भी विश्व बैंक है। उसका लाभ वहाँ होता है। बिहार के तटबन्धों पर विश्व बैंक जैसी किसी संस्था से पैसा मिल जाय तब देखिये यहाँ क्या नहीं होता है। यहाँ अगर आप आवाज उठाते हैं तो वह बिहार सरकार के खिलाफ उठती है और उसकी क्या औकात है, हम आप सभी जानते हैं। सुवर्णरेखा परियोजना में पुनर्वास की आवाज उठाने सहरसा, चम्पारण आदि जगहों से कार्यकर्ता गये हैं। उनको अपने घर की समस्या नहीं दिखाई पड़ती है।
उत्तर बिहार में नदियों के तटबन्धों के बीच लगभग 20 लाख लोग आज की तारीख में फँसे होंगे। 338 गाँवों के 8 लाख के करीब लोग अकेले कोसी तटबन्धों के अन्दर होंगे जो हर साल बाढ़ भोगते हैं। इतने ही लोग तटबन्धों के बाहर जल जमाव में फँसे होंगे। सारी नदियों का हिसाब करें तो तीस से चालीस लाख लोग फँसे होंगे पानी में। यहाँ की दुर्दशा के बारे में अगर हम बाहर सभाओं गोष्ठियों में कभी बात करते हैं तो सुनने वाले कहते हैं कि आप नौटंकी कर रहे हैं। ऐसा कैसे हो सकता है कि 40 लाख लोग इस तरह से तकलीफ उठा रहे हों और कोई आवाज न उठती हो। लेकिन यह सच है कि आवाज नहीं उठती है क्योंकि जो आवाज उठा सकते थे उन्होंने दिल्ली/पंजाब/गुजरात का रास्ता पकड़ लिया क्योंकि वह ज्यादा आसान था। लोग यह भी पूछते हैं कि अगर 40 लाख लोग पूरी तरह फँसे पड़े हैं तो वहाँ की सरकार क्या करती है। यह भी सच है कि हमारी सरकार कुछ नहीं करती। उच्च शिक्षा के लिये हमारे सारे लोग खेत बेचकर अपने बच्चों को महाराष्ट्र, उड़ीसा, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल या दिल्ली में पढ़ा रहे हैं। कहाँ कोई आवाज उठती है। यहाँ भी वही बात है- जो आवाज उठा सकता था उसने आसान रास्ता अख्तियार कर लिया।
इसके अलावा जो भी कोई यहाँ आता है वह यहाँ की हरियाली और पानी को देखकर गदगद हो जाता है। कहता है कि यहाँ किस बात की कमी है। मगर वह जलकुंभी और धान में अन्तर समझे तब तो। हमने कितनी बार जलकुम्भी हटा कर पानी दिखाने की कोशिश की कि यह पूरे साल यहाँ रहता है और ऐसी जमीन पर खेती सम्भव नहीं है। मगर लोग पानी देखकर खुश होते हैं कि बाकी हिस्सों में इतना पानी बहा है। आप लोग खुशनसीब हैं आपके यहाँ इतना पानी है।
बाहर से आने वालों की बची खुची संवेदना पर बिहार में व्याप्त भ्रष्टाचार का झाड़ू लग जाता है और बात वहीं खत्म हो जाती है। स्थानीय लोगों द्वारा कमला या महानन्दा का तटबन्ध काटा जाना कोई छोटी घटना है क्या? मगर इसके बारे में कहीं चर्चा नहीं होती। यह घटना अगर महाराष्ट्र या पंजाब में होती तब भी क्या इसे इतना हल्के फुल्के ढ़ंग से लिया जाता? मगर विश्व बैंक पोषित योजना की घटना राष्ट्रीय स्तर की खबर बनती है। हमारी परेशानी परेशानी है और उनकी परेशानी आफत। हमारी आपकी बात अगर नहीं सुनी जाती है तो शायद इसलिये कि इस क्षेत्र के लिये सभी में उपेक्षा का भाव है और लोग यह मा बैठे हैं कि यह सब यदि इस इलाके में नहीं होगा तो और कहाँ जायेगा।
मैंने खुद कितनों को ले जाकर घोंघेपुर (यह स्थान पश्चिमी कोसी तटबन्ध के दक्षिणी किनारे पर है) में खड़ा किया कि यह जगह देखो और यहाँ की समस्या का समाधान बताओ। सभीलोग थोड़ी देर तक सोचते हैं और फिर वहाँ की बाढ़ को एक लाइलाज मर्ज बताकर चुप हो जाते हैं। वहाँ से जाने के बाद यह लोग मुझे एक धन्यवाद का पत्र भी लिखकर नहीं भेजते कि आपने हमको एक जिन्दा जहन्नुम दिखाया और वह इसलिये भी सम्पर्क नहीं रखते कि अगर सम्पर्क रखें तो हम शायद फिर कभी उनसे घोंघेपुर चलने के लिये कहें। यहाँ कृष्ण कुमार कश्यप जी बैठे हैं। कभी नदियामी में रह कर काम करते थे। इनके यहाँ टाटा एनर्जी रिसर्च इन्स्टीच्यूट से लोग आये थे ईंधन की उपलब्धता और विकल्प पर कुछ काम करने के लिये। उन्होंने उनको घुमाया फिराया, आवभगत की उनके पास भी धन्यवाद का पत्र नहीं आया। सहरसा के राजेन्द्र झा के यहाँ कितने लोग आते हैं मगर सम्पर्क नहीं रखते। ऐसी हालत में हम क्या करें।
विजय कुमार - प्रान्तों की विपदाओं पर जो आम आदमी की दृष्टि है वह बड़ी विचित्र है। 1996 में आन्ध्र प्रदेश में तूफान आया। वहाँ 1600 लोग मारे गये और 6 लाख घर गिरे। वह एक राष्ट्रीय विपत्ति घोषित हुई। हमारे यहाँ बिहार में 1987 में वहीं 1600 लोग मरे और 17 लाख घर ध्वस्त हुये- तब कोई हाल पूछने भी नहीं आया। कहीं न कहीं लोगों के दिमाग में यह बैठा हुआ है कि बिहारी लोग मरने के लिये हैं।
राम स्वार्थ चौधरी - बाढ़ के सम्बन्ध में एक बात बार-बार कही जाती है कि देश की उन नदियों को जिनमें पानी ज्यादा है ऐसी नदियों से जोड़ दिया जाय जहाँ पानी कम है तो क्या इसका समाधान हो जायेगा।
दिनेश कुमार मिश्र- इस तरह के दो प्रस्ताव आज से लगभग 25-30 सा पहले किये गये थे। एक तो दस्तूर का गारलैंड कैनाल का प्रस्ताव था जिसके तहत देश के अन्दर समुद्र तल से 350 मीटर की ऊँचाई पर माला की शक्ल में एक नहर बनाने का प्रस्ताव था जिसमें पानी की अधिकता वाले क्षेत्रों से पानी लाकर कमी वाले क्षेत्रों में पहुँचाने का प्रावधान था। यह प्रस्ताव एक पायलट ऑफिसर ने तैयार किया था जिसकी व्यावहारिकता पर इंजीनियरों को संदेह था। यह प्रस्ताव चर्चा में इसलिये आया क्योंकि तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने इसमें रुचि दिखाई थी।
दूसरा प्रस्ताव डॉ. के.एल. राव का राष्ट्रीय ग्रिड का प्रस्ताव है जिसमें गंगा नदी पर एक बराज बनाकर लगाग 1 लाख घनसेक पानी को विन्ध्य पर्वतमाला पार कर के दक्षिण की नदियों से जोड़ने का प्रस्ताव है। डॉ. राव स्वयं एक इंजीनियर थे और जब यह प्रस्ताव तैयार किया गया था तब वह केन्द्र में सिंचाई मंत्री थे। कार्यक्रम यह भी अव्यावहारिक है मगर राव साहब के खुद मंत्री के साथ-साथ इंजीनियर होने के नाते किसी भी इंजीनियर या नेता ने इस पर उंगली नहीं उठाई। सत्तर के दशक में इस योजना की लागत 24,000 करोड़ रुपये थी जो कि एक गरीब देश खर्च नहीं कर सकता। यह योजना इस कारण ठण्ढे बस्ते में चली गई मगर इसका भूत आज भी भटकता है और गंगा घाटी में बाढ़ आने पर या दक्षिण में सूखा पड़ने पर इंजीनियरों और नेताओं पर सवारी करता है।
वैसे भी बाढ़ के समय गंगा की जो हालत रहती है उसमें 1 लाख घनसेक पानी बढ़ जाय या घटा दिया जाय- कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता। राव साहब बहुत ही महत्वाकांक्षी इंजीनियर थे और कोसी के वर्तमान तटबन्धों की स्वीकृति में उनका बहुत बड़ा हाथ था। उसके बाद ही उत्तर बिहार की बाकी नदियों पर तटबन्ध बने। आज अगर तटबन्धों से लोग बदहाल हैं तो उसका कुछ न कुछ दायित्व उनपर भी जाता है। उनकी राष्ट्रीय ग्रिड वाली योजना भी कुछ ऐसी ही योजना थी जिसके लिये न तो हमारे पास पैसा है और न ही वह क्षमता और इच्छा शक्ति है जिससे नदियों और नहरों के इन नेटवर्क को संचालित किया जा सके। बिहार की अपनी नहरों की स्थिति देखकर यह बात हम ज्यादा विश्वास के साथ कह सकते हैं।
राव साहब की एक आत्मकथा है ‘‘दि क्यूसेक कैण्डीटेड’’। उसमें उन्होंने एक जगह लिखा है कि एक बार वह मंत्री की हैसियत से 1964 में भाखड़ा परियोजना देखने गये। वहाँ परियोजना के विस्थापितों ने उन्हें अपने पुनर्वासित गाँव चलने की दावत दी और वह वहाँ गये। पुनर्वास पहुँचने के बाद उन्हें गाँव की हालत को देखकर सदमा पहुँचा। क्योंकि गाँवों की जो फैल कर बसने वाला छवि उनके दिमाग में थी वैसा यहाँ कुछ भी नहीं था। यहाँ तो एक-एक कमरे के शेड वाले मकान थे और बुनियादी सुविधायें नदारद थीं। राव साहब ने गाँव वालों से पूछा कि वह मंत्री की हैसियत से गाँव के लिये कुछ कर सकते हैं क्या? तब गाँव वालों ने कहा कि अगर वह गाँव में बिजली की व्यवस्था करवा देते तो बड़ी कृपा होती। जी हाँ! यह वही भाखड़ा बाँध है जिसके बिजली और पानी की तारीफ करते हम अघाते नहीं हैं और उसके विस्थापितों को बिजली नहीं मिली थी। राव साहब ने कहा कि यह आसान सा काम है और वह जरूर करवा देंगे। उन्होंने वापस आकर भाखड़ा व्यास बोर्ड के अध्यक्ष से उस गाँव में बिजली लगा देने को कहा और अध्यक्ष ने उनको दो टूक जवाब दिया कि उनके बजट में इस तरह का काम करने का कोई प्रावधान है ही नहीं। और मंत्री के आदेश के बावजूद गाँव में बिजली नहीं लगी। राव साहब ने बड़े दुःख के साथ इस घटना का वर्णन किया है। हमें खुशी होती अगर उस समय भी राव साहब को यह ख्याल आता कि वह कोसी क्षेत्र के 338 गाँवों के 2 लाख लोगों (1995 की जगगणना) को, जिन्हें तटबन्धों के बीच कोसी की बेहरबानी पर छोड़ दिया गया, वह हमेशा के लिये अंधेरे में झोंक आये हैं।
प्रश्न: उत्तर बिहार की नदियों की बनावट पर 1934 के भूकम्प का बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा है। इस भूकम्प के बाद कोसी की धारा पश्चिम की ओर तेजी से खिसक गई है और अधवारा तथा कमला आदि नदियों का पूर्वी ओर विस्थापन होना शुरू हुआ। आजादी के बाद नदियों के इसी अस्थिर क्षेत्र में तटबन्धों का निर्माण शुरू किया गया जिसका परिणाम पहले से ज्यादा बाढ़ और जल-जमाव की शक्ल में सामने आया। अब हमारे पास क्या विकल्प बचता है। क्या यह अच्छा नहीं होगा कि तटबन्धों को हटाकर जल निकासी की व्यवस्था सुनिश्चित की जाय। कम से कम दरभंगा तथा हायाघाट के क्षेत्रों में इसकी शुरूआत की जाय। यदि पानी निकल जाये तो कृषि का विकास हो सकेगा, शिक्षा का विकास हो सकेगा, बेरोजगारी मिटेगी और सर्वांगीण विकासकी नींव पड़ सकेंगी।
विजय कुमार - यह एक व्यापक प्रश्न है इस पर कल आराम से बातचीत करेंगे। अभी अध्यक्षीय भाषण के बाद का सत्र समाप्त करें।
डॉ. योगेन्द्र प्रसाद - मैंने अभी पिछले अक्टूबर माह में वाटर रिसोर्स डवलपमेंट सेन्टर का कार्यभार संभाला है और मेरा चिन्तन भी कुछ इस प्रकार का है कि आज बाढ़ की जो परिस्थितियाँ पैदा हो गई हैं उसके लिये हम सब किसी न किसी रूप में जिम्मेवार हैं। इस पाप का प्रायश्चित होना चाहिये। मैं पिछले 37 वर्ष से इंजीनियरिंग पढ़ा रहा हूँ और अगले वर्ष दिसम्बर में सेवा निवृत्त होऊँगा। यद्यपि मैंने इंजीनियरों को पढ़ाये जाने वाले पाठ्यक्रम को तैयार करने में कभी सीधी भागीदारी नहीं की है परन्तु शिक्षा सम्बन्धी जो भी विचार यहाँ आये हैं उनसे मेरी सहमति है। हमारी तकनीकी शिक्षा हमें बम्बई, दिल्ली, बंगलोर, न्यूयार्क या वाशिंगटन की ओर देखने की प्रेरणा तो देती है मगर कभी अपने क्षेत्र या अपने समाज या गाँव की ओर देखने को प्रेरित नहीं करती। यही कारण है कि हम आजादी के इतने वर्षों बाद भी समस्या की तह तक नहीं पहुँच सके हैं और अगर समय रहते कुछ नहीं किया गया तो समस्या भविष्य में और भी ज्यादा गंभीर होगी।
पहले कभी हमने गोरे इंजीनियरों पर विश्वास किया फिर आजादी के बाद भूरे इंजीनियरों पर विश्वास किया मगर हर बार बाढ़ पीड़ित जनता को अविश्वास ही मिला। यहाँ यह अविश्वास ही विभिन्न शब्दों में व्यक्त हुआ है। मैं बिहार सरकार की एक अन्य संस्था शिक्षा शोध तथा प्रशिक्षण परिषद का भी निदेशक था। चार-पाँच वर्षों तक मैं वहाँ था और प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में भी काम किा। वहाँ का मेरा अनुभव है। प्रश्न है अब यहाँ के बाद क्या? बाढ़ की समस्या है, कृषि की समस्या है, बेरोजगारी की समस्या है। मैंने पढ़ा है कि धान की 30,000 किस्में हमारे पास थीं, आज कुछ सौ बची हैं। ऐसा कैसे हो गया? यह हमारे सभी के लिये चिन्ता का विषय है।
आज यहाँ इतने लोग बैठकर पानी की, बाढ़ की, कृषि की और रोजी रोटी की बात कर रहे हैं तो वहीं राजनीतिक पार्टियाँ और उनके द्वारा निर्मित सरकारें उन मुद्दों के प्रति चिन्तित हैं जो देश की अधिक से अधिक एक प्रतिशत आबादी के हक में जाता है। वह बात करते हैं सूचना की, संचार की, मनोरंजन की। भारत अब सुपर पॉवर बनने वाला है। भारत अब साइबर युग में प्रवेश कर रहा है। लेकिन हमारे यहाँ के गाँवों में क्या होगा- मलेरिया रहेगा, पीने का शुद्ध पानी नहीं मिलेगा, डायरिया फैलेगा, यहाँ के लोगों को चार-चार महीने तक घर से बाहर निकलने का मौका नहीं मिलेगा, लोगों का पलायन होगा। अब हम दिल्ली को बिहार बनायेंगे। वैसे भी दिल्ली में सरकार चुनने में अब यहाँ के लोगों ने एक महत्त्वपूर्ण क्षमता अर्जित कर ली है। लेकिन इतना सब होने के बाद भी हम अपनी बात नेताओं तक नहीं पहुँचा पाते हैं।
यह तभी संभव है जब हम अपनी ताकत बढ़ायें। कोई दूसरा आपकी मदद नहीं करेगा। हम अपना संगठन बढ़ायें और सरकार को बाध्य करें कि वह हमारी बात सुनें। हमारी योजनायें हम बनायें और उनका क्रियान्वयन करवायें। यह स्थानीय और सामूहिक भागीदारी से संभव होगा और तभी टिकाऊ भी हो पायेगा।
सम्मेलन का दूसरा दिन 6 अप्रैल, 2000
अंसार अहमद (छात्र वाटर मैनेजमेंट) (दरभंगा) - हमारी बाढ़ एक प्राकृतिक समस्या है। बाढ़ से लाभ और नुकसान दोनों हैं। जमीन की उर्वरा शक्ति बाढ़ के पानी मिलने से बढ़ती है। उधर बाढ़ से गाँव के गाँव ध्वस्त होते हैं, फसलें मारी जाती है, यातायात पर असर पड़ता है और बीमारियाँ फैलती हैं, प्रदूषण बढ़ता है। इन सब समस्याओं से बचने के लिये नदी पर बाँध बनना चाहिये। प्रदूषित पानी की परीक्षा करके उसी के अनुरूप पानी का शुद्धिकरण करना चाहिये। इससे बीमारियों पर नियंत्रण किया जा सकता है। आज बाढ़ की भयावहता पहले के मुकाबले ज्यादा बढ़ी है। हमारे तालाबों, चौरों की संग्रह क्षमता घटी है, अतः पानी अब खेतों और घरों की तरफ जाने लगा है। इसके लिये जल निकासी की व्यवस्था करनी चाहिये।
राजेश कुमार झा (जमशेदपुर) - आज छपरा से आये मित्रों ने जल जमाव के बारे में कुछ बताया। उन क्षेत्रों में कृषि पर जो असर पड़ रहा है तो वह अपनी जगह है ही, वहाँ भविष्य में पीने के शुद्ध पानी की भी दिक्कत हो सकती है क्योंकि जल जमाव से भूमिगत जल की सतह ऊपर उठती है। पेड़ पौधे की जड़ों के माध्यम से सोखे गये पानी का वाष्पीकरण लगातार चलता रहता है। इस प्रकार भूमिगत जल में घुले हुये लवण भी जड़ों के द्वारा पृथ्वी की सतह तक आ जाते हैं। पानी तो भाप बनकर उड़ जाता है मगर लवण जमीन की सतह पर ही बना रहता है। जल जमाव वाले क्षेत्रों में यूक्लिप्टस के पेड़ जल-जमाव को कम करने में मदद कर सकते हैं। इस पेड़ की लकड़ी का बड़ा उपयोग हो सकता है। हरियाणा में जल जमाव का निदान इस तरह की वनस्पतियों द्वारा किया गया है यह प्रयोग हम यहाँ भी कर सकते हैं।
सतेन्द्र प्रसाद (सारण) - हमलोग 36 चौरों के क्षेत्र से आये हैं। हमारे यहाँ जल जमाव उग्र रूप अख्तियार करता जा रहा है। जल-जमाव पहले भी रहा करता था मगर रबी की फसल तक पानी निकल जाया करता था। घाघरा, गंगा के तटबन्ध तथा गंडक की नहरों के निर्माण के बाद स्थिति बहुत ज्यादा खराब हो गई है। जल जमाव हटाने का काम इतना बड़ा है कि कोई भी संस्था या संस्थाओं का समूह भी इस काम को नहीं कर सकता। इसलिये हम सरकार से अपेक्षा रखते हैं कि वह इस काम को प्राथमिकता के स्तर पर करे। जिन लोगों के खेतों पर जल-जमाव हो रहा है वहाँ खेत तो उनका है पर मछली मारने का अधिकार इनका नहीं है। इस कारण से बिना वजह सामाजिक तनाव बढ़ता है इस क्षेत्र से प्रान्त को कई मुख्यमंत्री दिये मगर हमारे लिये किसी ने काम नहीं किया और संघर्ष के अलावा अब कोई रास्ता ही नहीं दिखता। हमने वहाँ जल-जमाव विरोधी संघर्ष मोर्चा बनाया हुआ है और आप सभी का सहयोग चाहते हैं।
अरुण कुमार सिंह (नवगछिया-भागलपुर) - नवगछिया बाढ़ के प्रश्न पर विषाद का कारण बना हुआ है। हमलोग कोसी और गंगा के बीच में फँसे हैं। आज से 20 साल पहले तक हमारे यहाँ बाढ़ दो तीन वर्ष के अन्तराल पर आती थी लेकिन अब यह हर साल की घटना है। यहाँ तो हम सभी लोग तटबन्धों का विरोध कर रहे हैं मगर हम तटबन्धों का समर्थन करते हैं क्योंकि जब से यह तटबन्ध टूटने लगे हैं हमारा बहुत नुकसान हो रहा है। हमलोगों के यहाँ केले की खेती होती है। 1987 के बाद से तटबन्ध टूटने के कारण फसल में पानी लग जाता है। अतः तटबन्धों को ऊँचा और मजबूत कर के बाँधना चाहिये जिससे वह टूटे नहीं। तटबन्ध टूटने से जल जमाव भी बढ़ता है और तरह-तरह की बीमारियाँ फैलती हैं। हमारी परिस्थितियाँ एकदम भिन्न हैं आप लोग कभी वहाँ कार्यक्रम करें तो समस्या को समझने का अवसर मिलेगा।
किशोर (कटिहार) - मैं महानन्दा के किनारे का रहने वाला हूँ और कटिहार जिले से आया हूँ। 1970 से हमारी नदी के किनारे तटबन्ध बने और 1974 से यह टूटना शुरू हो गये। 1987 में 13 अगस्त को हमलोगों ने मनिहारी के पास गंगा का तटबन्ध काटा, तब जाकर कहीं पानी निकला। मजा यह था कि महानन्दा का तटबन्ध हमारे माननीय पूर्व सांसद युवराज जी की पहल और कोशिश से बना था। जिसके लिये उन्होंने एक लम्बी लड़ाई लड़ी थी उन्हीं युवराज जी ने खुद खड़ा होकर यह तटबन्ध कटवाया।
1998 की बाढ़ में लोग महीनों तक बाढ़ में फँसे रहे। 1999 में वही हुआ। अब हमारे यहाँ केवल गरमा धान होता है जिसकी खेती करना हरेक के बस की बात नहीं है। यह बहुत ही महँगी है। पलायन शिखर पर है। मगर यह अच्छा ही है क्योंकि हमारे यहाँ जिसके पास 50 बीघा भी खेत हों उसके लिये खेती करने पर नफा नुकसान बराबर होता है। जो मजदूर हैं और बाहर जाकर कमा रहा है, उसके पास कुछ तो बचता है।
हमलोग उत्तर बिहार के एक कोने में पड़े हुये हैं और पानी के बहाव की दृष्टि से एक दम अन्त में हैं। आप के यहाँ भला-बुरा जो कुछ भी होगा उसका परिणाम अन्त में हमीं को भुगतना पड़ेगा। हम फरक्का बाँध का भी परिणाम भुगत रहे हैं क्योंकि इस बाँध से अब पहले जितना पानी नहीं निकलता है। बाँध के पास गंगा में जबर्दस्त सिल्टेशन हो रहा है जिसका नतीजा है कि गंगा छिछली हो गई है और महानन्दा का पानी उसमें नहीं जा पाता है। इस तरह हमारी बाढ़ स्थायी होती है। अब हम तटबन्ध का विरोध छोड़कर फरक्का बाँध का विरोध करने को बाध्य हैं।
तटबन्धों के खिलाफ हमारी लड़ाई पुरानी है। यह तटबन्ध टूट तो तभी से रहे हैं जब से यह बने मगर 1991 से एक निर्णायक परिवर्तन आया जब तटबन्ध टूटा भी और काटा भी गया मगर सरकार ने इसे फिर बँधवा दिया। 1996 में हमारे यहाँ 3 स्थानों पर महानन्दा का तटबन्ध काटा गया और यह हमारी उपलब्धि रही है कि हमलोगों ने इसे बाँधने नहीं दिया। हम भविष्य में भी महानन्दा का तटबन्ध बंधने नहीं देंगे।
तटबन्धों ने लोगों को आपस में लड़ाया है। बाढ़ के समय जो तटबन्ध के कन्ट्री साइड में है उसको तो बाढ़ से तथाकथित रूप से सुरक्षा मिलती है मगर तटबन्ध के टूटने का खतरा भी उसी पर रहता है। तटबन्ध के रिवर साइड में भी लोग रहते हैं। तटबन्ध यदि सुरक्षित रहता है तो इन लोगों का जीवन असुरक्षित हो जाता है। तब यह लोग तटबन्ध काटते हैं और बाहर वाले मरते हैं। 1996 में हमलोगों ने आपसी मतभेदों और झगड़ों को भुलाकर तटबन्ध तीन जगह काटा। अब बाढ़ का पानी जब भी बढ़ता है तो धीरे-धीरे निकल जाता है। यह तीनों स्थान महानन्दा के दाहिने तटबन्ध पर है। अभी विचार हो रहा है कि पानी को समान रूप से फैलाने के लिये महानन्दा का बाँया तटबन्ध भी खोल दिया जाय। देखना है लोग क्या फैसला करते हैं। हमलोग प्रतीक्षा कर रहे हैं कि बाँया तटबन्ध अपने आप बाढ़ में टूट जाय तो हमलोगों को मेहनत नहीं करनी पड़ेगी। उस हालत में तटबन्ध को केवल मरम्मत न होने देने का काम बाकी रह जायेगा।
कमल कुमार झा (दरभंगा) - कुछ लोग जो ईश्वर में विश्वास करते हैं उन्हें हम आस्तिक कहते हैं। जो ईश्वर में विश्वास नहीं रखते हैं उन्हें नास्तिक कहते हैं। हमारे किये हर काम का परिणाम कोई सत्ता शायद जरूर करती है। ईश्वर से हट कर प्रकृति को ही यदि सत्ता माने तो भी प्रकृति की मर्जी के खिलाफ किये गये काम का दण्ड निश्चित रूप से हमें मिलता है। आकल, प्रलयकारी बाढ़ और जानलेवा प्रदूषण प्रकृति के साथ इसी छेड़छाड़ का परिणाम है। मैंने 1987 की बाढ़ देखी है और आप सभी के अनुभव से मेरी सहमति है। भौगोलिक बनावट के कारण उत्तर बिहार वैसे भी बाढ़ का क्षेत्र रहा है। मगर पिछले 40 वर्षों में बाढ़ का क्षेत्र बढ़ा है। नदियों की पेटी में पत्थर, बालू और मिट्टी जमा होती जा रही है जिससे नदी का पानी फैलता है और बाढ़ आती है। जितना ध्यान और खर्च तटबन्धों पर किया जा रहा है उससे यदि नदियों की सफाई की गई होती तो शायद बेहतर परिणाम सामने आते। छः छः महीना बाढ़ का पानी नहीं निकल पाता है। ऐसा करने से रोजगार भी बढ़ता।
हमारा जल संसाधन विभाग सक्रिय तभी होता है जब बाढ़ आ जाती है। बाढ़ आने के पहले कोई सक्रियता नहीं होती। वनों का सफाया वैसे ही जारी है। अभी ठाकुर जी केन्द्र में मंत्री हैं हमलोग उनसे वार्ता करें तो शायद कुछ हो सकेगा।
चन्द्रमोहन मिश्र (दरभंगा) - मेरा क्षेत्र अधवारा समूह का क्षेत्र है। मेरा गाँव हायाघाट में है। हम छः महीना बाढ़ से घिरे रहते हैं और फसल खत्म है। बाढ़ आने के साथ ही घर में पानी घुस आता है। लोग तटबन्धों से परेशान हैं और उन्हें हटाना चाहते हैं जबकि सरकार उन्हें बनाये रखना चाहती है। बाढ़ के प्रश्न को हमें समग्रता में देखना होगा। तटबन्धों से अपेक्षित परिणाम नहीं निकला और नदियों की पेटी ऊपर उठ रही है। बाढ़ के समय अफरा तफरी मचाने से बेहतर है कि बाढ़ आने के पहले ही बाढ़ से मुकाबला करने की समुचित व्यवस्था कर ली जाये। यही अच्छा होगा। फिर सरकार पर स्थायी समाधान के लिये दबाव डाला जाये।
कमलेश झा (अली नगर कॉलोनी दरभंगा) - हमने पिछला समय भी देखा है और कमला मैया के प्रताप से आज के समय को भी देख रहे हैं। परम्परागत रूप से लोग बाढ़ को सूखे से अच्छा मानते थे। हमारे चौर में भले ही मोटा धान होता था मगर खूब होता था। वह सब समाप्त हो गया। अब अगर तटबन्ध टूट कर गाँव में पानी घुसता है वे बिना कुछ हमको दिये हुये महीनों रहता है। पहले लोग टूटे बाँध को बाँध देते थे। सामूहिक चेतना थी अब वह भी समाप्त है। यह सब किसने छीन लिया-वही नेता, वही इंजीनियर और वही ठेकेदार। अपनी समस्या का दूसरे से समाधान करवाइयेगा तो यही सब होगा।
तटबन्धों की मिथिला में कोई उपयोगिता नहीं है। जहाँ है वहाँ जाकर बाँधिये। हमारी समस्या का समाधान अब एम.एल.ए. या सांसद से नहीं होगा। अब खुद कुछ करना होगा।
मिथिलेश्वर झा (मधुबनी) - जनवरी महीने में जमशेदपुर में एक बहुत बड़ा सम्मेलन हुआ था मिथिला वासियों का। वहाँ बाढ़ की समस्या पर बहुत बातचीत हुई थी। इसलिये यह सोचना कि चेतना के स्तर पर कुछ नहीं हो पा रहा है शायद भ्रामक होगा। इस समस्या के प्रति लोगों की जागरूकता बढ़ रही है। रही स्थानीय स्तर पर समस्या से निपटने की बात तो अब अधिकारीगण भी बदली परिस्थितियों को समझने का प्रयास कर रहे हैं और निधि का भी अभाव नहीं है। छोटे स्तर के नदी, नाले, चौर-चांचर को अभी पंचायत स्तर पर दुरुस्त किया जा सकता है, वहाँ फण्ड भी आ रहा है मगर सचेत रहना पड़ेगा। जो पैसा उपलब्ध है उसका कुछ प्रतिशत सिंचाई और जल निकासी के लिये उपलब्ध है। इसलिये उस स्तर का निदान किया जा सकता है।
तटबन्धों की उपयोगिता पर तो काफी चर्चा हुई है। सीतामढ़ी में सोनबरसा और परिहारा प्रखण्ड में बहुत सी छोटी बड़ी नदियाँ हैं। वहाँ मैंने देखा है कि जहाँ नदी पर तटबन्ध नहीं है वहाँ की उपज जबर्दस्त होती है। बाढ़ क्षति का मूल्यांकन करने के लिये एक बार वहाँ केन्द्रीय टीम आने वाली थी और वहीं धान की अच्छी फसल लगी थी। कलक्टर चिन्तित कि क्या दिखायें। मेरा कहना केवल इतना है कि जहाँ जरूरत न हो वहाँ तटबन्ध न बनें, जहाँ यह उपयोगी न लगे वहाँ उसे हटा दिया जाये और जहाँ जरूरत हो वहीं रखें। स्थानीय स्तर पर क्या करना है इसकी जानकारी यदि रहे तो यह आसान होगा।
विनोद कुमार (झंझारपुर) - सन 1987 इस समस्या पर काम कर रहे हैं। उस समय इसका विश्लेषण करना सीख रहे थे। मिश्र जी से सम्पर्क हुआ। हम सभी लोगों ने अपनी समझदारी और विश्लेषण को नेताओं और इंजीनियरों के सामने रखने का प्रयास किया मगर उस समय हमलोगों की बात कोई सुनता नहीं था। उलटे लोग पागल कहते थे। एक बार सभी गाँववालों ने मिलकर 1995 में इसराइन चौर के पास कमला का बायाँ तटबन्ध काट डाला। झगड़ा झमेला हुआ, थाना पुलिस भी हुआ मगर मामला धीरे-धीरे शान्त हो गया। बाढ़ के बाद हमलोगों ने देखा कि निर्मला गाँव के सामने 5 किलो मीटर पूरब तक और 8 किलोमीटर उत्तर दक्षिण तटबन्ध के बाहर नई मिट्टी पड़ गई है और जहाँ जल जमाव रहा करता था वहाँ जमीन ऊपर आ गई है। उसी साल 1995 में निर्मला गाँव में एक लाख तीस हजार रुपये की मूंग किसानों ने बेची अपनी जरूरत के लिये रख करके।
उसके बाद से सरकार कमला के बाँध को हर साल बनवाती है और हमलोग उसे काटते हैं। वास्तव में जो कुछ समस्या है कमला पर बने तटबन्ध से है। बाढ़ पहले भी आती थी। बाढ़ का स्तर कभी 2 फुट से ज्यादा नहीं होता था। दो-तीन दिन बाढ़ रही और उसके बाद समाप्त हो जाती थी। तटबन्धों ने उसकी अवधि और गहराई दोनों बढ़ा दी है। हमलोग उसे काटकर बराबर कर देते हैं।
समस्या का समाधान नदी के तटबन्ध को ऊँचा या मजबूत करने में नहीं है। ऐसा किया जायेगा तो समस्या पहले से ज्यादा बढ़ेगी। नदी को चौड़ा और गहरा करना भी अव्यावहारिक है। इससे भी नेताओं, इंजीनियरों और ठेकेदारों का ही पेट भरेगा। हमारे यहाँ तो लोग कहते हैं कि तटबन्ध धनुष की तरह है। धनुष जितना मजबूत होगा उससे उतनी ही तेजी से तीर निकलेगा और घातक होगा। तटबन्धों को हटा दीजिये, हम अपनी रक्षा कर लेंगे।
रामलखन झा (मधुबनी) - आज के प्रदूषित सामाजिक परिवेश में यदि आप लोग जनहित के किसी प्रश्न पर सम्मेलन कर रहे हैं तो आपका यह प्रयास अभिनन्दन के योग्य है। आज विज्ञान का विकास मारक विकास है। वह सृजन का विकास नहीं कर पा रहा है। नदी से छेड़ छाड़ करके विज्ञान ने प्रकृति को कुपित कर रखा है, मगर प्रकृति के प्रकोप का उत्तर देने की वैज्ञानिकों में न तो क्षमता होती है और न ही इच्छा शक्ति। बाढ़ का वैज्ञानिक निदान करने के लिये इंजीनियरों ने नदियों के किनारे तटबन्ध बनाये। प्राकृतिक बाढ़ पहले से भयंकर रूप में मानवीकृत बाढ़ के रूप में सामने आ गई। तकनीक का सम्यक उपयोग समस्या को घटा सकता है मगर तकनीकी तिकड़म से तो यह काम नहीं हो सकता। 1987 की बाढ़ के बाद हमने कुदाल सेना के तहत एक पुस्तिका निकाली थी ‘‘बाढ़ रोको या बाँध तोड़ो’’। एक सम्मेलन भी किया था जिसका उद्घाटन पूर्व इंजीनियर-इन-चीफ भावानन्द झा ने किया था। तब इंजीनियरों ने स्वीकार किया था कि तटबन्ध ही बड़ी बाढ़ का कारण है। अब यह बहस का मुद्दा रहेगा ही नहीं। हमारे यहाँ पश्चिमी कोसी नहर बन रही है। मेरा दावा है कि इस नहर से आज ही नहीं, कभी भी इस नहर से सिंचाई नहीं हो सकती। यह नहर बरसात के बहते हुये पानी से हर साल टूटती है। जब इस नहर में फुल सप्लाई पर सिंचाई का पानी दिया जायेगा तब क्या होगा। हमलोगों को तो यह भी डर लगता है कि कभी कोसी का पश्चिमी तटबन्ध टूटे तो पश्चिमी कोसी नहर ही नई धार न बन जाये।
आप एक प्रस्ताव करके सरकार को लिखें कि पश्चिमी कोसी नहर का प्लान एस्टीमेट और उद्देश्य क्या था और आज स्थिति क्या है। इससे किस उद्देश्य की पूर्ति हुई है और भविष्य में कितनी हो पायेगी।
बाढ़ की समस्या के साथ-साथ इस नहर का भी औचित्य सिद्ध करने का सवाल उठना चाहिये। अगर ऐसा होता है तो हमलोग प्राण-प्रण से इस काम में आगे आयेंगे।
सूर्य नारायण ठाकुर (मधुबनी) - किसी रोग की कोई दवा खरीदने जाइये तो उस पर एक एक्सपायरी डेट लिखी रहती है। मुझे याद है जब बाढ़ की दवा के रूप में तटबन्ध बनाये गये थे तब उस समय भी 25 वर्ष की एक्सपायरी डेट थी। अब इस एक्सपायरी डेट बीते भी 20 वर्ष हो गया। तब यह दवा जान नहीं मारेगी तो क्या आराम पहुँचायेगी? छोटी दवा रहती है तो उसे हमलोग मिट्टी में गाड़ देते हैं, अब तटबन्ध गाड़ने के लिये कहाँ से रावण या कुंभकरण लायें। 16 फीट ऊँचा तटबन्ध बना था हमारे यहाँ जिनके बीच 8 फुट मिट्टी भर गई। बचा 8 फुट तो उसमें भी चूहों और गीदड़ों ने बिल बनाया हुआ है। हजार-हजार बीघे का चौर है और उसमें लोग झख मारते हैं। हमलोग मालगुजारी नहीं दे पाते हैं तो सरकार कहती हैं कि सर्टिफिकेशन होगा। सर्टिफिकेट का तो डर हमको नहीं है पर बॉडी वारन्ट से जरूर थोड़ी परेशानी है। सरकार ने हमारी जमीन को जलकर बना दिया। ले लो अपनी जमीन वापस।
यहाँ भी नदी को खोदने का या तटबन्ध को ऊँचा करने का प्रस्ताव आ रहा है। यह काम तो सरकार कर ही रही है तब हम में और उसमें फर्क क्या रह गया। हमारे यहाँ एक तालाब बनाने का प्रस्ताव हुआ कि उसके निर्माण से सारी समस्या का हल हो जायेगा। बन गया कागज पर और सब का हिस्सा बंट गया। फिर हुआ कि इस तालाब में बहुत से बच्चे डूब कर मर रहे हैं इसलिये पाट दिया जाय। वह भी कर दिया गया- मार्च महीने में फाइलें बंद कर दी गई। इस तरह के प्रस्ताव कम से कम यहाँ मत कीजिये वरना सरकार के लोग बड़े खुश होंगे।
तटबन्ध बना कर तो देख लिया। अभी पहाड़ में बाँध बनाना बाकी है। उसके साथ कुछ गड़बड़ होगा तो क्या होगा। आदमी बदलता है तो कुछ गडबड़ होता है मगर दिशा बदलती है तो बड़ा उलट फेर होता है। इसलिये दिशा परिवर्तन न करें। एक्सपायरी डेट वाली दवा समाप्त कैसे हो वह सोचिये।
संस्थायें जो रिलीफ का काम करती हैं उनको भी नये सिरे से सोचना चाहिये। मूल समस्या पर चोट कीजिये लक्षणों पर नहीं। अपनी बात अब हमें राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर भी उठानी चाहिये। राष्ट्रीय स्तर पर तो दिल्ली में हमारे चुने हुये लोग हैं। बात उसके आगे भी जानी चाहिये। हमारी उम्र कुछ ज्यादा हो रही है। कभी बलि देनी हो तो हमारी दे दीजिये। काम के समय आप लोग आगे रहिये। इतना जरूर है कि जितना आप लोग खड़े रहेंगे उससे एक घंटा ज्यादा हम रहेंगे।
महावीर प्रसाद महतो (पंचही-मधुबनी) - हमलोग बहुत दिनों से इस तरह चर्चा कर रहे हैं। निर्मला के तटबन्ध काटने से जो चेतना बढ़ी है और जो लाभ हुआ है वह अब देखने लायक है। मैं आजादी के पहले से सामाजिक काम में लगा हुआ हूँ और सब समय आपके साथ रहता हूँ। इस मीटिंग से मेरी अपेक्षा थी कि इस बार मिश्र जी कुछ कार्यक्रम देंगे पर वह नहीं हो पा रहा है।
डॉ. गंगाधर झा (दरभंगा) - बाढ़ की समस्या हमारे मिथिला क्षेत्र की स्थायी समस्या है। मिथिला से बाढ़ को अलग कर के नहीं देखा जा सकता। हम इसके राजनैतिक समाधान के समर्थक हैं। हमारी समस्या दूसरा न तो समझ सकता है और न उसका समाधान ही कर सकता है। जनवरी में जमशेदपुर में अन्तरराष्ट्रीय मैथिली परिषद का सम्मेलन हुआ था और वहाँ भी मिथिला को एक अलग राज्य बनाने की मांग की गई थी और हम उस मांग को यहाँ फिर दुहराते हैं। इसके लिये हमलोग क्षेत्रीय स्तर पर संगठित हों, एक राजनैतिक पार्टी बनायें। एक दैनिक समाचार पत्र या साप्ताहिक पत्रिका निकाली जाय और उनके माध्यम से बाढ़ की समस्या को उजागर किया जाय तथा समाधान की दिशा में पहल हो।
इ. आनन्द वर्धन (पटना) - कल से जो विचार आ रहे हैं उसके अनुसार बाढ़ नियंत्रण के प्रयासों के बाद बाढ़ की समस्या बढ़ी है। यह बात न केवल समाज के स्तर पर सही है बल्कि उपलब्ध सरकारी आंकड़े भी इस बात की पुष्टि करते हैं। एक तो यह बात है कि किसी भी नदी का तटबन्ध पूरा नहीं किया गया है। उसके बाद वह कई जगह से टूटा है जिसे बाँधा नहीं गया है। हाया घाट जैसे क्षेत्रों में जो परिस्थितियाँ बन गई हैं वहाँ शायद अब ऊँचे प्लेटफार्म बनाकर समस्या को सहने लायक बनाया जा सकता है। रेल पुल को चौड़ा करना और घोघराहा तथा पंचफुट्टा के मुहाने खोल देने से भी बाढ़ की समस्या पर सकरात्मक प्रभाव पड़ेगा। स्थानीय स्तर पर गाँवों की सुरक्षा के लिये रिंग बाँध भी बनाया जा सकता है। यह नदी के साथ छेड़-छाड़ करने से ज्यादा बेहतर है। बाढ़ के पहले अपनी सुरक्षा के सारे इंतजाम कर लेने चाहिये।
विजय कुमार
मैं आपको गंगा घाटी के इस नक्शे को गौर से देखने का आग्रह करता हूँ। यहाँ हमने घाघरा से लेकर महानन्दा तक की सारी नदियों को दिखाया है। जहाँ बिहार समाप्त होकर पश्चिम बंगाल शुरू होता है, लगभग उसी सीमा पर यहाँ गंगा नदी पर फरक्का बराज बना हुआ है। फरक्का के बाद गंगा दो हिस्सों में बट जाती है। पूरब वाली धारा पद्मा के नाम से बांग्लादेश चली जाती है और दक्षिण की ओर बहने वाली धारा का नाम भागीरथी है जो कि जलंगी से संगम के बाद हुगली कहलाने लगती है। कलकता और गंगा सागर के बीच में यह नदी कई भागों में बंट कर समुद्र में मिल जाती है।
बिहार में पड़ने वाली उत्तर बिहार की नदियों के बारे में यहाँ काफी बातें आ गई हैं इसलिये इसके विस्तार में न जाते हुये हम गंगा पर ही अपना ध्यान केन्द्रित करेंगे। यह नदी जब समुद्र में मिलती है तो वहाँ तो ज्वार-भाटा आता रहता है। ज्वार के असर से समुद्र का बालू नदी पर दबाव बनाता है- उसके मुहाने में घुसने का प्रयास करता है। समुद्र के इस दबाव का मुकाबला गंगा के पानी के साथ दामोदर और रूप नारायण नदियों का पानी भी करता था। इस तरह समुद्र के प्रभाव को यह नदियाँ क्षीण करती थीं। यह सब सामान्य प्रक्रियायें हैं।
अब हम दामोदर घाटी निगम की स्थापना करते हैं और उसके अधीन मैथन, पांचेत, तिलैया, कोनार आदि बाँधों का निर्माण करते हैं, दुर्गापुर, बराज बनाते हैं, उधर मयूराक्षी बाँध बनता है। पानी तो रुक गया और उसकी आवाजाही की रुकावट के फलस्वरूप बाढ़ वाला क्षेत्र बढ़ना शुरू हो गया। इसके अलावा नदी के पानी के मुक्त प्रवाह को हमने नियंत्रित कर दिया। पहले यह नदी का पानी पूरे वेग से जाकर नदी को खंगालते हुये समुद्र तक जाता था। नियंत्रित हो जाने से यह बेअसर होने लगा। अब कलकत्ता बन्दरगाह पर शामत होने लगी। फरक्का बराज का प्रस्ताव यूँ तो बहुत पहले से था मगर अब इसका निर्माण जरूरी हो गया ताकि गंगा के कुछ पानी को रोक कर एक सम्पर्क नहर द्वारा हुगली में डाला जाय जिससे समुद्र तक नदी की तलहटी की सफाई होती रहे और कलकत्ता बन्दरगाह सही सलामत बना रहे।
इसके साथ गंगा में कलकता और बनारस के बीच कोई रेल पुल नहीं था। बिधान चन्द्र राय गंगा पर एक पुल चाहते थे मगर राष्ट्रपति के प्रभाव से वह पुल बंगाल में न बन कर मोकामा में बन गया। तब बिधान बाबू ने फरक्का बराज की बात उठाई और उनका शायद यह मानना था कि फरक्का बराज अगर बनता है तो गंगा पर एक पुल बिना किसी प्रयास के बन जायेगा। इस तरह यह बराज बन गया।
नदी का एक धर्म होता है कि वह किसी भी इलाके में होने वाली बारिश के पानी को इकट्ठा कर के अपने से बड़े नदी में या फिर समुद्र में डाल दे। गंगा घाटी के इस क्षेत्र में, जिसकी हम बात कर रहे हैं 1500 से 2000 मि.मी. तक पानी बरसता है और इस पानी के एक अंश को यह नदियाँ समुद्र तक ले जाती है। यह उनका काम है- धर्म है। हिमालय पहाड़ एक कच्ची भुरभुरी मिट्टी का ढेर है। वहाँ से नदी के पानी के साथ-साथ यह मिट्टी भी आती है और इसको खेतों पर फैलाना भी नदी का काम है। इससे हमारी पैदावार बढ़ती है। हम जितने ज्यादा बाँध या बराज बनायेंगे उससे पानी रुकता है और नदी के काम में बाधा पड़ती है। फरक्का बराज का पानी अब पीछे की ओर ठेलता है।
फरक्का बराज से होकर बहाये जाने वाले पानी को लेकर भी भारी मतभेद है। कपिल भट्टाचार्य समेत कई इंजीनियरों का यह मानना था कि बराज पानी को ठीक तरह से बहा नहीं पायेगा और उसके रास्ते की रुकावट बनेगा। वही हुआ। बराज के फाटकों के सामने मिट्टी/रेत का जबर्दस्त जमाव शुरू हुआ और गंगा छिछली होने लगी और उसका पानी पीछे की ओर ठेलने लगा। इसका पहला असर महानन्दा पर पड़ा। उसका पानी अब पहले से ज्यादा देर ठहरने लगा। इससे कटाव भी बढ़ा है। पटना में गंगा की हालत अब क्या हो गई है- हम सब जानते हैं। नदियों के किनारे तटबन्ध बनाकर भी हमने पानी के रास्ते में रुकावटें पैदा की हैं।
बरौनी से पूर्णियाँ तक 203 किलोमीटर की दूरी है। कितने पुल हैं इस बीच में-केवल बूढ़ी गण्डक पर खगड़िया में और कुरसेला के पास कोसी में मात्र दो पुल हैं। इब इतने ज्यादा जल ग्रहण क्षेत्र का पानी आप इन दो पुलों में से कैसे गुजार पाएँगे? फिर इसके अलावा नदी में आने वाली सिल्ट का साल-दर-साल होने वाला जमाव ऊपर से है।
मैं पिछले वर्ष नेपाल गया था-लगभग चीन की सीमा तक। वहाँ जाने के पहले मुझे यही मालूम था कि नेपाल में जो लोग खेती करके जमीन को खुला छोड़ देते हैं या जंगल काट देते हैं उसकी वजह से मिट्टी वह बह कर हमारी नदियों में आती है। मैंने अपने नेपाली सहयोगियों को यह बात बताई तो उनका कहना था कि इस तरह की मिट्टी का नदी में आना केवल 10 प्रतिशत कारण है-असली कारण तो पहाड़ों में भू-स्खलन है। हल्का सा भूकम्प हुआ और पहाड़ ढेर हो गया- अगली बारिश में यह मिट्टी बह कर नदी में आ जायेगी। सड़कों के निर्माण के कारण भी बहुत सी मिट्टी नदियों में आ जमा होती है। नेपाल में हमने जगह-जगह बोर्ड लगे देखे हैं कि आगे देखकर जाइये, पहाड़ गिरने का अंदेशा है। इसी तरह भोट कोसी की तलहटी में मिट्टी जमा होती रहती है। एक बार जोर से पानी बरसेगा तो सारी की सारी मिट्टी हमारे यहाँ चली आयेगी। इसलिये जब तक हम इसको समग्रता में नहीं देखेंगे तब तक क्या समाधान बता सकेंगे।
यही मिट्टी फरक्का में भी है। मालदा जिले में गंगा पर छठी रिटायर्ड लाइन बन चुकी है। कहाँ तक सम्भालेंगे। वहाँ पगला नदी के माध्यम से गंगा नया रास्ता बनाने को प्रस्तुत है।
जहाँ बराह क्षेत्र बनने की बात है यहाँ भी मुझे जाने का मौका मिला। वहाँ नदी के किनारों की जमीन बहुत उपजाऊ है। वहाँ गाँव वालों से बात हुई मगर वहाँ गाँव वाले इसबात के लिये बहुत जागरूक हैं कि वह दूसरों के फायदे के लिये अपनी जमीन से नहीं उजड़ेंगे। डैम के सवाल पर नेपाल में एमाले जैसी पार्टी के दो भाग हो गये। इसलिये केवल कह देने मात्र से नेपाल में डैम नहीं बनने वाले हैं; हमारे यहाँ तो खैर धुर दक्षिण पंथी से लेकर धुर वामपंथी -सभी राजनैतिक पार्टियाँ डैम के प्रश्न पर एक हैं। इन सबको अपनी बाढ़ समस्या का समाधान दूसरी जगह दिखाई पड़ता है। क्यों नहीं अपनी जमीन पर समाधान खोजते हैं आप?
हम अपनी समस्या अपने तरीके से अपनी जमीन पर सुलझायें तो बेहतर होगा।
डॉ. योगेन्द्र प्रसाद (पटना) - बाढ़ भोगने वाले अपनी समस्याओं को अच्छी तरह समझते हैं और उनका सबसे अच्छा समाधान भी उन्हीं के पास है। इस समस्या के समाधान में मूलतः तीन चरित्र शामिल हैं- सरकार, जनता और स्वयंसेवी तथा संघर्षशील संगठन। इन तीनों के सहयोग से ही समाधान निकलेगा। आप जब कार्यक्रम तय करते हैं तब इन तीनों समूहों की भूमिका पर अवश्य विचार करें। जनता को विशेष रूप से इसमें शामिल किया जाना चाहिये। समस्या को समग्रता में देखे बिना समाधान कर पाना मुश्किल होगा। ऐसा अभी विजय जी ने भी कहा है। आपलोग लोक शिक्षण और उत्प्रेरक का काम कर रहे हैं जिससे जनता को सामाजिक राजनैतिक और तकनीकी बारीकियों को समझने का भी मौका मिलेगा।
सरकार की भूमिका एक नीति निर्धारक की और संयोजनकर्ता की होनी चाहिये। जैसा कि अभी वर्धन जी ने कहा कि रिंग बाँध बनाकर गाँवों की सुरक्षा की जा सकती है- हो सकता है आपके पास रिंग बाँधों का कोई अनुभव हो जिसके आधार पर आप इसे स्वीकार या अस्वीकार करें। इन सारी बातों को राजनीतिज्ञों को भी समझाना आपका काम होना चाहिये क्योंकि सारे निर्णय वही करते हैं।
मेरी अपनी भी एक योजना है। इंजीनियरों, भूगर्भ शास्त्रियों, राजनीतिज्ञों, समाजकर्मियों और आम जनता के प्रतिनिधियों की एक कार्यशाला करने का प्रस्ताव है। यदि सारे लोग एकत्र हो सकेंगे तो स्थानीय स्तर पर योजनाएँ बनाने में कुछ पहल हो सकेगी।
दिनेश कुमार मिश्र (जमशेदपुर) - कल से आज तक कई मित्रों ने सवाल किये हैं। मैं यथा संभव और अपनी जानकारी के आधार पर इन प्रश्नों के उत्तर देने का प्रयास करूँगा।
पहला प्रश्न है कि कमला का पूर्वी तटबन्ध हर साल टूटता है मगर ऐसी दुर्घटना पश्चिमी तटबन्ध पर कम होती है। इसका क्या कारण हो सकता है। मुझे लगता है कि नक्शे में अगर कमला की विभिन्न बदलती धाराओं को देखें तो समय के साथ वह पश्चिम से पूरब की ओर बढ़ती आ रही है। कमला की बछराजा धार, जीवछ धार, सकरी धार, पैट घाट कमला और अंततः कमला बलान - इन सबका क्रमिक विस्थापन पश्चिम से पूर्व की ओर हो रहा है। कमला की धारा जब 1954 में बलान के साथ मिल गई तो संयुक्त धारा का नाम कमला बलान पड़ा और इस धारा को तटबन्धों के बीच बाँध दिया गया। कमला के पूरब की ओर खिसकने की प्रवृत्ति अभी भी बनी हुई है और शायद इसीलिये पूर्वी तटबन्ध पर दबाव बना रहता है और वह अधिक टूटता है। जमीन पर 1934 के भूकम्प के बाद आये परिवर्तनों ने भी इस क्रिया को प्रभावित किया है। यह बातें मैं केवल अनुमान से कह सकता हूँ क्योंकि आधिकारिक सूचना हमारे पास नहीं है। आधिकारिक सूचना तो हमारे जल संसाधन विभाग के पास है जहाँ हमारी पहुँच नहीं है। वह हमें कुछ भी नहीं बताते हैं और अगर हम कभी उनसे पूछने जायें तो ऐसे-ऐसे सवाल पूछते हैं कि वहाँ कोई भी गैरतमन्द आदमी ज्यादा समय तक टिक नहीं सकता।
दूसरा प्रश्न है कि कमला नदी पर नेपाल में शीसा पानी में जो बाँध बनाने का प्रस्ताव है उससे हम बिजली पैदा कर सकते हैं। इस बाँध पर सिल्टिंग का क्या असर पड़ेगा।
इस सवाल पर हम फिर कहेंगे कि उत्तर बिहार की नदियों में हर साल कितनी सिल्ट आती है इस पर अध्ययन तो जरूर हुये हैं मगर फिर सारी सूचनायें गोपनीय हैं। हमें केवल कोसी नदी में आने वाली मिट्टी/रेत के बारे में कुछ अनुमान है। 1962 से 1974 के बीच कोसी तटबन्धों के बीच नदी के तल का नाप लिया गया था और इसके आधार पर नदी का तल किस रफ्तार से ऊपर उठ रहा है उसका अनुमान किया गया था। इस अध्ययन में पाया गया कि बीरपुर बराज से 3 किलोमीटर नीचे तक तो नदी का तल पहले से गहरा हो रहा है। यह समझ में आने वाली बात है क्योंकि बराज का फाटक खोलने पर तेज गति से निकलने वाला पानी इतनी दूरी में नदी की पेटी को खंगाल देता है। उसके बाद नदी में बालू/मिट्टी बैठना शुरू हो जाती है। महिषी से कोपड़िया के बीच में नदी तल का वार्षिक औसत उठान 12.03 सेन्टीमीटर (लगभग 5 इन्च) होता है। अगर हम तटबन्धों के बीच की दूरी को औसतन 10 किलोमीटर मान लें तो तटबन्धों के बीच महिषी और कोपड़िया के बीच हर साल 56 लाख ट्रक के बराबर मिट्टी और रेत जमा हो रही है। कोसी की पूरी लम्बाई पर पड़ने वाली मिट्टी की बात करेंगे तो यह कम से कम एक से डेढ़ करोड़ ट्रक के बीच होगी। यह हालत तब है जब कि कोसी का पानी तटबन्धों से जरूर घिरा हुआ है मगर गंगा में जाकर मिलने के लिये स्वतंत्र है। इसलिये बहुत सी सिल्ट/बालू उधर से भी प्रवाहित हो जाती है।
यह कुछ ऐसा ही है कि जैसे दो आदमी दोनों तरफ से मेरा हाथ पकड़ लें और कहें कि चलिये तो मुझे कुछ दिक्कत तो जरूर होगी मगर मैं आगे जा सकता हूँ। अब अगर मेरे सामने ही कोई मोटा-तगड़ा आदमी आकर खड़ा हो जाये और चलने को कहे तब तो मुझे वहीं खड़ा रहना पड़ेगा। उतने बड़े आदमी को हटा कर या उसकी अनदेखी करके आगे जाना सम्भव नहीं होगा। तटबन्धों और बड़े बाँधों की भूमिका कुछ इसी तरह की होती है। बड़ा बाँध सिल्ट को तटबन्धों के मुकाबले ज्यादा मात्रा में रोकेगा। बाँधों का जीवन काल इसी से नापा जाता है। जब सिल्ट/बालू से जलाशय पूरी तरह से भर जाये तब मानते हैं कि बाँध का जीवन काल समाप्त हो गया। नेपाल में बागमती पर एक कुलेखानी बाँध पिछले दशक में बना था। अनुमान था कि इसका जीवन काल सौ वर्ष का होगा। 1993 की बाढ़ में नदी में इतनी सिल्ट आई कि जलाशय पट गया और अब यह तीस साल से ज्यादा नहीं चल सकता। इस बीच अगर एक बार 1993 जैसी बाढ़ दोबारा आ जाय तो बाँध का प्रभाव समाप्त हो जायेगा। इसलिये सिल्ट का और बाँध पर सिल्ट का खतरा तो बना ही रहेगा। सिल्ट का खतरा रहेगा इसलिये कि आज जब हम कहते हैं कि बाढ़ आई। नई मिट्टी पड़ी और जबरदस्त फसल हुई तब बाँध बनने के बाद जिसे हम नई मिट्टी कहते हैं वह तो बाँध के जलाशय में ही रह जायेगी। उस समय जमीन की उर्वरा शक्ति घटेगी। यह एक ऐतिहासिक सत्य है। जहाँ-जहाँ बाँध बने हैं वहाँ-वहाँ जमीन की उर्वरा शक्ति घटी है।इसका एक दूसरा तकनीकी पक्ष भी है। आप किसी इंजीनियर के पास जाइये और कहिये कि भाई। तटबन्ध तो काम नहीं कर रहे हैं, कुछ कीजिये। तब वह जवाब देगा कि तटबन्ध तो वैसे भी काम नहीं करते, असली समाधान तो बड़े बाँध हैं। और वह बाँध बना देगा। समाज ने उसको ही काम सौंपा है। उसका काम बहस करना या तकलीफ आराम सुनना नहीं है। उनसे कहिये कि बाँध सिल्ट से भर जायेगा तब वह कहेंगे कि वह तो भरेगा ही। और जिस दिन भरेगा उस दिन देखा जायेगा। यही बात तटबन्ध के साथ भी हुई थी। जिस दिन नहीं काम करेंगे उस दिन देखा जायेगा। जनता के दुर्भाग्य से वह दिन आ ही गया है। मगर जवाब देने के लिये उनकी बिरादर का एक भी नेता, इंजीनियर या ठेकेदार हमारे बीच में आज नहीं है।
आज नेताजी से पूछा जाय कि ऐसी कैसे हुआ तो वह एक तीर से दो शिकार करते हैं। वह कहते हैं कि तटबन्ध बनाना पाप है और यह पाप हमने नहीं किया। सच यह है कि सरकार के पास पैसा ही नहीं है कि वह इस पाप कर्म में लिप्त हो। वह यह भी कहते हैं कि जब तटबन्ध बने तब दूसरी पार्टी की सरकार थी और इसलिये वह पार्टी जिम्मेवार है, हम नहीं हैं। इंजीनियरों से पूछिये तो कहेंगे कि यह तो सभी को मालूम है कि तटबन्ध बाढ़ समस्या का स्थायी समाधान नहीं है। कोसी टेक्निकल कमेटी ने तो 1974 में ही लिख कर दे दिया था कि बराह क्षेत्र बाँध नहीं बनेगा तो बाढ़ की जिम्मेवारी हमारा नहीं है। जिन पर हमने आपने भरोसा किया उनका यह हाल है।
अभी थोड़ी सी राहत है कि नेपाल में प्रस्तावित बाँध, अगर वह बनते हैं तो, बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ बनायेंगी। यह कम्पनियाँ व्यापार करती हैं और कोई भी घाटे का सौदा नहीं करेंगी। हमारी सरकार को अगर यह बाँध बनाने की क्षमता होती तो कभी के बन गये होते क्योंकि वैसे भी अगर किसी परियोजना के अपेक्षित परिणाम न निकलें या फायदे की जगह उल्टा नुकसान होने लगे तब भी सरकारी हलकों में किसी की जिम्मेवारी नहीं बनती। जब आप सवाल पूछने की स्थिति में आयेंगे तब तक पूरी टीम बदल चुकी होगी। आज यह लोग कहते हैं न कि तटबन्ध बनाने वाले ने सब कुछ सोचा मगर सिल्ट के बारे में नहीं सोचा। नेपाल के बाँध बनने के बाद भी आज से पचास साल बाद यही होने वाला है। वह कहेंगे कि बाँध बनाने वालों ने सब कुछ किया मगर वनीकरण के बारे में नहीं सोचा जिससे सिल्ट पर नियंत्रण होता। तब वह तीस साल तक जंगल लगायेंगे और कमायेंगे खायेंगे।
बाढ़ फिर भी नहीं रुकेगी क्योंकि अंग्रेजों ने 1723 से 1947 साल तक कोसी के विस्थापन के नक्शे बना कर रख छोड़े हुये हैं। 1723 में कोसी की तराई से लेकर पहाड़ तक जंगल ही जंगल थे। अंग्रेजों की एक भी कुल्हाड़ी तब तक इन जंगलों पर नहीं पड़ी थी मगर नदी फिर भी धारा बदलती थी। यह सवाल उठाइये तो नेताजी तो मुँह ताकेंगे और हो सकता है कि इंजीनियर साहब कहें कि हिमालय कच्ची मिट्टी के पहाड़ हैं और वहाँ भूकम्प बहुत आता है जिसके कारण पेड़ पौधे भी मिट्टी की रक्षा नहीं कर पाते, इसलिये नदियों में सिल्ट बहुत आती है और उनकी धारा बदल जाती है। तब प्रश्न है कि आपके बराह क्षेत्र बाँध बना देने से हिमालय में भूकम्प आना रूक जायेगा क्या? और यह रोज आने वाले भूकम्प बाँधों को छोड़ देंगे क्या? इन सारी चीजों का जवाब न तो उनके पास है और न ही वह इन सब फिजूल की चीजों के बारे में सोचना ही चाहते हैं। उन्हें तो अर्जुन की तरह चिड़िया की केवल एक आँख-बराह क्षेत्र बाँध ही दिखाई पड़ता है। उनके पास न तो बहानों की कमी है और न ही कभी काम की कमी रहेगी।
तीसरा प्रश्न कामेश्वर जी का है कि रिंग बाँधों की उपयोगिता के बारे में तो मैं कहना ही चाहूँगा कि बाढ़ से बचाव के इस तरीके में नदी को तो खुला छोड़ देते हैं मगर गाँवों या शहरों को रिंग की शक्ल में बाँध बना कर घेर देते हैं ताकि नदी का पानी रिंग में न घुस सके। बिहार में हमारे यहाँ निर्मली और महादेव मठ दो ऐसे कस्बे हैं जो कि रिंग बाँधों के बीच बसे हैं। यह निर्माण कोसी तटबन्धों के साथ-साथ पचास के दशक में किया गया था। रिंग बाँधों की मदद से सुरक्षित किये गये गाँव बरसात में प्रायः नदी की धारा में आ जाते हैं। नदी के द्वारा भूमि निर्माण की प्रक्रिया निरंतर चलते रहने के कारण अब सिल्ट का जमाव रिंग के बाहर शुरू होता है। विस्तृत इलाकों पर नदी के उन्मुक्त बहने के कारण रिंग बाँधों के बहार सिल्ट का जमाव तटबन्धों के बीच के सिल्ट जमाव से निश्चित रूप से कम होता है पर रुकता नहीं है। समय के साथ जब रिंग के बाहर सिल्ट का जमाव काफी ऊँचा हो जाता है तब रिंग बाँध को ऊँचा और मजबूत करने की मांग उठती है। रिंग बाँध को ऊँचा करेंगे तो गाँव उसी अनुपात में नीचे चला जायेगा और उस पर नदी के पानी का खतरा पहले से ज्यादा बढ़ जाता है। अगर कभी दुर्योग से रिंग बाँध टूट जाये तो लोगों को भागने तक का मौका नहीं मिलेगा। रिंग बाँध के बारे में एक बड़ी दिलचस्प टिप्पणी कैप्टेन जी. एफ हाल ने की है जो कि 1937 में बिहार के चीफ इंजीनियर थे। उन्होंने कहा कि रिंग बाँध जब तक बाढ़ से सुरक्षा देते हैं तभी तक सब ठीक है और अगर यह टूटते हैं तो उन्हीं लोगों की जल समाधि का कारण बनेंगे जिनकी रक्षा के लिये इनका निर्माण किया गया था।
इसके अलावा बारिश का जो पानी रिंग बाँध के अन्दर गिरता है उसके कारण रिंग के अन्दर भी चैन से सुरक्षित होकर नहीं रहा जा सकता। निर्मली में जब रिंग बाँध बना था तब वहाँ तीन स्थानों पर 49-49 हार्स पावर के पम्प लगाये गये थे पानी निकालने के लिये। उनमें से एक पम्प हाउस का अब नामोनिशा नहीं है। दूसरे का केवल फर्श बचा है और केवल तीसरा काम करता है। बरसात के मौसम में निर्मली में नावें चलती हैं। 1981 में एक बार वह एन्टी फ्लड स्लुइस जिसकी मदद से निर्मली का पानी निकाला जाता था जाम हो गया था। उस साल नदी का पानी कस्बे में घुस गया था।
असल में डिब्रूगढ़ के तीन ओर से बाँध बना हुआ है। वहाँ भी परिस्थितियाँ लगभग इसी तरह हैं और पानी को पम्प करके निकालना पड़ता है। शहर की रक्षा के लिये प्रायः हर साल सेना बुलानी पड़ती है।
उत्तर प्रदेश में आजमगढ़ और जौनपुर शहरों के चारों ओर भी इस तरह के रिंग बाँध हैं। 1976 में आजमगढ़ में जो टोंस नदी का पानी घुसा था वह एक पखवाड़े से अधिक तक बना रहा था।
आज हमारे बीच निर्मली रिंग बाँध की योजना बनाने वालों तथा बाँध बनाने वालों में कोई भी मौजूद नहीं है। बाकी लोग ‘तो हम क्या करें’’ की मुद्रा में बात करते हैं।
चौथा प्रश्न बाढ़ के पानी को बेहतर उपयोग में किस तरह लाया जाय- इस पर पूछा गया है। हाँ, हमारे यहाँ बरसात के मौसम में पानी निश्चित रूप से ज्यादा है। आपने वाटर शेड मैनेजमेंट या जल छाजन योजना के बारे में सुना होगा। उसका पहला सिद्धांत है कि पानी की जो बूँद जिस जमीन पर गिरती है वह उसी जमीन की मिल्कियत है। पानी की उस बूँद का स्थानीय उपयोग हो जाने के बाद ही उसे आगे जाने दिया जायेगा। जो इस बात को चिल्ला कर कहता है कि बाढ़ वाले पानी को दूसरी जगह पहुँचा दो। कमी वाले इलाके को दे दो। क्यों? उत्तर बिहार में पानी ज्यादा है और छोटानागपुर में मान लीजिये कम है तो इस पानी को छोटानागपुर भेज दिया जाय? या फिर गंगा नदी में पानी ज्यादा है और कावेरी में कम तो इस पानी को कावेरी में डाल दिया जाय जो कि डॉ. के.एल. राव का सपना था। क्यों? यह कौन तय करेगा कि पानी का उपयोग हमने किया या नहीं और यह हमारी जरूरत से फाजिल है या नहीं?
उत्तर प्रदेश की सिंचाई विभाग की रिपोर्टों में बार-बार यह कहा जाता रहा है कि हमारे यहाँ से गुजरने वाला 37 प्रतिशत पानी राज्य से बाहर चला जाता है। मगर उसी समय रिपोर्ट यह भी चेतावनी देती है कि इसका यह मतलब एकदम नहीं है कि इस पानी का हमारे यहाँ उपयोग नहीं है।
वाटरशेड मैनेजमेन्ट के नाम पर हमलोगों के यहाँ एक अच्छी खासी नौटंकी चल रही है। यह पूरी योजना एक पूर्व कल्पना पर आधारित है कि पानी की बूँद को उसके गिरने वाले स्थान पर रोक लिया जाय तो उसका कुछ अंश जमीन के अंदर रिस कर नालियों, नालों से होता हुआ नदी तक पहुँचेगा। ऐसा अधिकांशतः होता भी है पर केवल यही होता है यह कोई भी अधिकार के साथ नहीं कह सकता क्योंकि विभिन्न स्थानों की परिस्थितियाँ अलग-अलग हो सकती हैं। अभी अगर आप इस तरह का सवाल उठायें तो सारे संबंद्ध लोग ‘‘चुप चुप, बोलो मत, बोलो मत’’ की सलाह देंगे। इन सब कामों का समय के स्केल पर क्या परिणाम होगा-किसी ने नहीं देखा है।
एक बार मैं डॉ. गुरुदास अग्रवाल के साथ 1996 की बाढ़ के बाद राजस्थान गया था। वहाँ भरतपुर जिले में साहिबी तथा अलवर में रूपारेल नदी को देखा। साहिबी से 27 नहरें निकाली गई हैं जिनसे भरतपुर में अच्छे खासे इलाके में सिंचाई होती है। मगर वही नदी कम्मा प्रखण्ड में आकर अपना अस्तित्व खो देती है। उसकी हत्या हो जाती है। डॉ. जी.डी. अग्रवाल ने इलाके का नक्शा जमीन पर बिछाया हुआ था। मैं उनके सामने खड़ा था। उन्होंने मुझसे कहा कि बिना झुके हुये बताओं कि यह नदियाँ कहाँ जा रही हैं। उतना ऊपर से मैं केवल लाइनें देख सकता था, लिखा हुआ नहीं पढ़ सकता था। मेरे जो समझ में आया वह उन्हें बताया। फिर उन्होंने बैठकर नक्शा देखने को कहा। खड़े होकर मुझे नदी की जो दिशा लगी थी उसका ठीक उल्टा बैठकर देखने को मिला क्योंकि अब मैं नक्शों में दिशा भी देख सकता था और लिखा हुआ भी पढ़ सकता था। जिन्हें खड़ा होकर मैं नदियों की सहायक धारा समझ रहा था वह नदी से निकाली गई नहरें थीं और जहाँ यह लगता था कि नदी का उद्गम है वहाँ जाकर नदी खत्म हो जाती थी।
इसलिये पानी का उपयोग करना बहुत अच्छी बात है मगर दो बातों का ध्यान रखना चाहिये कि एक तो पानी पर से अपना हक न छोड़ें और दूसरा कि उपयोग के नाम पर किसी भारी और विचित्र समस्या में न फँसे। एक अंग्रेज इंजीनियर थे पीटर सालबर्ग, जिनका कहना था कि इंजीनियरों के बुद्धि कौशल और सरकार के संसाधनों के संयोग से जो आसुरी विधा पैदा होती है उसका निस्तार बहुत मुश्किल से होता है। मैं एक मिसाल देता हूँ। मान लीजिये कि मैं किसी अकूत संसाधन वाले आदमी को यह सलाह दूँ कि यह बिल्डिंग जिसमें हम बैठे हैं उसे एक फव्वारे पर स्थापित किया जा सकता है। अगर उसके समक्ष में बात आ जाय तो मुझे बस इतना ही करना है कि फव्वारे के पानी के दबाव को बिल्डिंग के वजन के बराबर कर देना है। बिल्डिंग पानी पर टिकी रहेगी। मेरा भी नाम होगा और संसाधन जुटाने वाले का भी नाम होगा। मगर भविष्य में कुछ गड़बड़ हुई तो पूरी की पूरी बिल्डिंग लिये दिये नीचे आ जायेगी। तब बहाने खोज लिये जायेंगे। इसलिये वही काम करना चाहिये जो सहज हो, और टिकाऊ हो। जब हमारे संसाधन सीमित हों तब यह और भी जरूरी हो जाता है।
पाँचवा प्रश्न है कि दक्षिण भारत विशेष कर तमिलनाडु में जलाशयों और तालाबों की बहुत कारगर व्यवस्था थी जिससे स्थानीय नियंत्रण और प्रबंधन से लोग पानी का अच्छा उपयोग कर लेते थे। जी हाँ! यह बात एकदम सही है और केवल तमिलनाडु में ही नहीं, राजस्थान तक में पानी के सामूहिक उपयोग की बहुत ही कारगर और निर्भर योग्य व्यवस्था थी।
उतनी दूर न जाकर पहले अपना घर देख लें। झंझारपुर के पास एक परतापुर गाँव है। कभी बहुत सम्पन्न गाँव था, सभा गाछी लगती थी वहाँ। आजकल बेचिरागी है। वह गाँव बलान के किनारे बसा था। इसमें एक बड़ा और तीन छोटे तालाब थे। बड़ा वाला तालाब सब के ऊपर था और एक छोटे नाले के जरिये बलान से जुड़ा था। जब नदी में बाढ़ आती थी तो गाँव वाले नाले का मुँह खोलकर बलान के पानी से तालाब को भर लेते थे। बलान की बाढ़ के पानी की ऊपरी सतह का ही पानी नाले से घुस पाता था। इस तरह बालू आने की संभावना जाती रहती थी और केवल सिल्ट वाला पानी तालाब में आता था। इन तालाबों की मदद से रबी की फसल पैदा की जाती थी। गाँव में चार-चार तालाब होने के कारण कुएँ कभी सूखते नहीं थे। मखान-मछली भी खूब होती थी। नदी के मुक्त रहने के कारण बाढ़ कभी 3-4 फुट के ऊपर नहीं चढ़ पाती थी। वैशाख संक्रान्ति के दिन सारा गाँव मिलकर इन तालाबों की सफाई करता था। वहाँ कोई सीशापानी बाँध या कमला नहर नहीं थी। सारी व्यवस्था गाँव की थी और अपनी थी। खूब धान होता था और जीवन धारा चलती रहती थी। कमला बलान पर तटबन्ध बनने के बद गाँव ही उजड़ गया।
कोसी क्षेत्र की यही स्थिति थी। बाढ़ के समय तकलीफें निश्चित रूप से थीं मगर जीवन पर आफत नहीं थी। पूरब में लच्छा धार से लेकर पश्चिम में लंगुनियां धार तक कोसी 16 धाराओं में बहती थी। और उसके बाढ़ के पानी की गहराई कभी भी अज जैसी नहीं होती थी। अगर किसी इलाके में भयंकर बाढ़ हुई तो उस घटना को छोड़कर बाकी इलाकों में जम कर धान होता था। उसमें भी बीस बीस पच्चीस पच्चीस फुट डुबान तक बर्दाश्त करने वाले धान की किस्में थी। इसे लोग बोते भी थे और काटते भी थे। वह लोग केवल बाढ़ का तमाशा नहीं देखते थे ओर न कभी हार मानते थे। रबी के मौसम में इन धारों पर छोटे-छोटे बाँध बनाकर खेतों तक पानी पहुँचाने में मिथिला वालों का सानी नहीं था।
वहीं दरभंगा में आज से सौ साल पहले एक इंजीनियर हुआ करता था। आर.एस. किंग नाम था उसका। 1896 के अकाल में अंग्रेज हुकूमत ने 74,000 रुपया मधुबनी में राहत कार्यों के लिये रखा था। इन्हीं आहार और पाइन की मदद से किंग ने 45,000 एकड़ जमीन पर रबी की खेती की थी और केवल 10,000 इस मद से लिया था और उससे भी राहत नहीं बांटी थी- बाँध और पाइन तैयार किये थे। वैसे भी इस इलाके में न तो अकाल पड़ा और न ही अनाज के दाम ही कभी आश्चर्यजनक रूप से बढ़े।
छठा प्रश्न है कि क्या हम बाढ़ नियंत्रण के स्थान पर बाढ़ प्रबंधन नहीं कर सकते। इससे बाढ़ समस्या का समाधान हो सकेगा।
यह बाढ़ प्रबंधन बड़ा ही भ्रामक शब्द है। 1954 में जब पहली (और आखिरी भी) बाढ़ नीति की घोषणा गुलजारीलाल नंदा ने की थी तब उन्होंने बाढ़ नियंत्रण शब्द का प्रयोग किया था। 1955 में कोसी पर तटबन्ध बनना शुरू हुआ और इसके निर्माण के दौरान ही 1956 मे जबर्दस्त बाढ़ आई। तब नन्दा जी का एक और बयान आया कि बाढ़ का नियंत्रण पूर्ण रूप से सम्भव नहीं है इसका प्रबन्धन करना पड़ेगा। इस तरह भारदह से मरौना तक का तटबन्ध बाढ़ प्रबंधन के नाम पर बना। मेरे कहने का मतलब सिर्फ इतना है कि बाढ़ से बचाव को आप चाहे नियंत्रण कह लें या प्रबन्धन-बना तो तटबन्ध ही। आजकल वह एक नया शोशा छोड़ रहे हैं कि हमें बाढ़ के साथ जीना सीखना चाहिये। बहुत अच्छी बात है क्योंकि उसके सिवाय चारा भी नहीं है। फिर सरकार यह क्यों कहती है कि बराह क्षेत्र बाँध ही उत्तर बिहार की बाढ़ समस्या का असली और अंतिम समाधान है। आप जो बोलते हैं या कहते हैं उसका मतलब समझते हैं? मेरा नाम मेरे घर वालों ने दिनेश कुमार रखा, अगर वह गंगा राम भी रखते तो भी मैं वही रहता जो आपके सामने खड़ा हूँ। बाढ़ का प्रबन्धन करते हैं हमलोग जोकि बिना किसी तटबन्ध, बराह क्षेत्र बाँध या इंजीनियर की मदद के हजारों वर्षों से जिन्दा हैं। हम तब भी जिन्दा हैं जब बाढ़ को सरकार ने बिल्ली से बाँध में बदल दिया। उनका कोई इंजीनियर आपसे पूछने आया कि आपने 1968, 1978 या 1987 की बाढ़ में या अभी हाल की 1998 वाली बाढ़ में आप बच कैसे गये? वह क्या खा के आप लोगों की बाढ़ के साथ जीना सिखायेंगे? पहले आकर यहाँ सीखें तब आगे बात करें।मेरी गुजारिश है कि नामों के छलावे में न जायें और नीतियों का विश्लेषण करके अपनी राय बनायें। एक अन्ना हजारे ने पूरे देश में सिंचाई का स्वरूप बदल दिया। वह कोई इंजीनियर नहीं है- फौज के एक सिपाही थे। मगर इतना बड़ा काम किया। पता नहीं आप में कोई बाढ़ के इलाके का अन्ना हजारे बैठा हो। फिर भी बाढ़ के सवाल पर एक विचार मंथन की आवश्यकता है और नामों के चक्कर में हमें नहीं फंसना चाहिये।
डॉ. शारदा नन्द चौधरी (दरभंगा) - नदी किनारे तोड़कर बहने लगे तो बाढ़ की परिस्थिति बनती है। जहाँ हम बैठे हैं उनके उत्तर में हिमालय है जो कि अपने नाम के अनुसार बर्फ से ढका हुआ है। उत्तर पश्चिम की ओर बहने वाली हवायें इसे टकरा कर पानी बरसाती हैं। हिमालय के नीचे हमारी गंगा घाटी के मैदान हैं जो कि सीपी की शक्ल में हैं। हम गंगा के उत्तरी किनारे पर हैं। उत्तर से आने वाली नदियाँ गंगा से मिलती हैं और अपना पूरा पानी गंगा में ढाल नहीं पाती। अतः यहाँ बाढ़ आती है।
उत्तर बिहार की गरीबी इसी बाढ़ के कारण है जो कि एक प्राकृतिक विपदा है। पानी को तुरन्त बिना किसी नुकसान पहुँचाये समुद्र तक पहुँचा देना आसान नहीं है और इस पानी के साथ अब तालमेल बैठाना भी सम्भव नहीं रहा। लेकिन पानी नाक तक आ जाय तब हम एडजस्ट कर सकते हैं क्या? ऐसी स्थिति में कुछ उपाय किया जा सकता है। एक तरीका हो सकता है कि गंडक से महानन्दा तक के बीच जितनी भी नदियाँ हैं उन्हें भारत-नेपाल सीमा के साथ मिला दें। बाढ़ सारी नदियों में एक साथ नहीं आती। नदियों को जोड़ देने से इस पानी का समायोजन किया जा सकता है।गाद के जमाव के कारण नदियों का लेवल ऊपर उठ रहा है। नदियों की अगर उधाड़ी कर दें इस समस्या का हल किया जा सकता है। हमारे पास मजदूरों की कमी नहीं है- उन्हें रोजगार मिल सकेगा और इस खोदी गई मिट्टी/बालू से हम ईंटे बना सकते हैं। इसका उपयोग हो जायेगा।
उत्तर बिहार के पानी की निकासी के पुलों की शक्ल में मात्र तीन रास्ते हैं- हाजीपुर के पास गंडक पर, खगड़िया के पास बूढ़ी गंडक पर और कुरसेला के पास कोसी पर। इन रास्तों को बढ़ा देने से ज्यादा पानी निकल सकेगा।हमारे यहाँ फ्लैश फ्लड की समस्या नहीं है मोरवी की तरह जहाँ बाँध टूटने से दस हजार लोग मारे गये थे। हमारी बाढ़ प्राकृतिक है। यहाँ ऐसी दुघटनायें नहीं होती। नदियों को जोड़ देने से निश्चित रूप से फायदा होगा।
डॉ. विद्या नाथ झा (दरभंगा) - मैं बाढ़ रोकने पर बोलने के लिये तो उतना सक्षम नहीं हूँ पर हमारी जो वनस्पति संपदा और जल संपदा है उसका दोहन किस प्रकार किया जाय, उस पर मैं बात करूँगा। वनस्पति संपदा में हमारे पास गहरे पानी में होने वाली धान की किस्में हैं जो कि जल-जमाव वाले क्षेत्रों में ली जा सकती हैं। इनका उत्पादन भी काफी होता है। कई अन्य देशों में भी इन किस्मों पर शोध हो रहा है। कल कहा गया था कि हमारे देश में अलग-अलग परिस्थितियों के लिये धान की 30,000 किस्में हुआ करती थीं जो सिमट कर अब कुछ सौ पर आ गई हैं। अब हम मानते हैं कि अन्न के मामले में हम आत्मनिर्भर हो चुके हैं। फिर भी जनसंख्या का बढ़ना जारी है और और पंजाब/हरियाणा में भी नतीजा अन्न का उत्पादन सम्भव था वह सीमा तक पहुँच चुका है।
हम हरित क्रांति भी कर चुके हैं और उत्तम किस्म के बीजों का भी प्रयोग कर चुके हैं। अब अगर उत्पादन बढ़ाना हो तो क्या करेंगे? वैज्ञानिकों का कहना है कि अन्न की जिन किस्मों को हमलोगों ने छोड़ दिया था, जिनसे विपरित परिस्थतियों में भी कुछ न कुछ उत्पादन होता ही था, उन पर फिर काम किया जाये। बाढ़ वाले क्षेत्रों में धान की किस्मों का फिर से प्रचार किया जाय। उत्तर बिहार में और विशेषकर मिथिलांचल में मखाने की खेती की प्रचुर संभावनाएं हैं, उनको बढ़ाया जाय। जल-जमाव तो हरियाणा में भी है पर वहाँ मखाना नहीं उपजता है। हमारे पानी और मिट्टी में कुछ ऐसी विशेषता है जो मखाना यही होता है। हमारा मखाना किसी भी अन्य जगह होने वाले मखाने से ज्यादा बेहतर होता है।
मखाना और उसके अन्य उत्पादों की बिक्री पर शोध होना बाकी है। मखाने में वजन बहुत कम होता है और यह जगह काफी घेरता है। इसलिये इसको एक जगह से दूसरी जगह भेजना बड़ा महँगा पड़ता है। इसका समाधान हो सकता है अगर इससे दूसरे उत्पादन तैयार किये जायें। पानी में सिंघाड़ा (पानी फल) खूब होता है और उसका भी अच्छा बाजार है। कमल के फूल तथा फलों का अच्छा बाजार है। कमल की अलग-अलग किस्मों का भी अच्छा खासा बाजार है।
जलकुंभी की हमारे इलाके में बड़ी समस्या है। यह हमारे देश की वनस्पति भी नहीं है। कहते हैं कि कोई अंग्रेज महिला इसे यहाँ लाई थी और वहीं से यह सारे देश में फैली। इससे कागज बनाने का प्रयास किया गया जो सफल नहीं हुआ। फिर इसका उपयोग खाद में, कम्पोस्ट में और बायो गैस में खोजा गया मगर इसका सही उपयोग अभी भी खोजा जाना है। इसी तरह आइपोमिया नाम का एक शैवाल होता है जिसमें 60 प्रतिशत प्रोटीन होता है जिसकी टिकिया बना कर बेची जा सकती है। करमी का साग है जिसको तरह तरह की खाद देकर ज्यादा उत्पादन किया जा सकता है। चीन आदि देशों में इस तरह के प्रयोग हुये भी हैं।
अब देखिये कि मछली उत्पादन की क्या स्थिति है। यहाँ पर आधुनिक तौर-तरीकों से तो हमने उत्पादन लगभग नहीं के बराबर किया है पर हमारे पास जो प्राकृतिक संसाधन है उसमें मत्स्य पालन की बहुत संभावनाएं हैं। वैज्ञानिक मानते हैं कि मछली का उत्पादन 30 से 150 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर तक संभव है। जिस तरह की प्राकृतिक क्षमता हमारे पास है उसके हिसाब से हम 1500 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष तक उत्पादन कर सकते हैं। मछली के साथ-साथ घोंघा और कछुआ आदि भी पैदा किये जा सकते हैं।
महेसी में प्राकृतिक सीप का बटन का उद्योग बड़ा मशहूर रहा है। इसका निर्यात भी हुआ करता था। यह उद्योग आधुनिक उत्पादों के आगे टिक नहीं पा रहा है मगर उन्होंने इसके विरुद्ध संघर्ष किया है। फिर पोइला है उसको परिमार्जित किया जा सकता है। इसको प्राकृतिक खाद के रूप में भी व्यवहार किया जा सकता है।
इस तरह हम अपनी जल सम्पदा तथा वनस्पति सम्पदा का अधिकतम उपयोग कर सकते हैं।
दिनेश कुमार मिश्र (जमशेदपुर) - मेरे पास फिर कुछ प्रश्न हैं जिन पर कुछ चर्चा होना जरूरी लगता है।
एक प्रश्न नदियों की उघाढ़ी का है। मैंने कल भी कहा था कि हमारी नदियों में बहुत ज्यादा मात्रा मिट्टी/रेत की आती है। हर साल अकेले महिषी से कोपड़िया के बीच में कोसी नदी में 56 लाख ट्रक मिट्टी बैठती है। यदि इस मिट्टी को मध्य दिसम्बर से लेकर मध्य मई तक खोदकर निकाला जाय जिससे कि नदी के तल को आज के लेवेल पर बनाये रखा जा सके तो इस इलाके से प्रतिदिन 37,000 मिट्टी से लदे ट्रक रवाना करने पड़ेंगे। इतने ट्रकों को अगर एक लाइन में खड़ा कर दिया जाय तो इसकी लम्बाई 265 किलोमीटर होगी जो कि लगभग महिषी से पटना तक की दूरी है। मगर यह मिट्टी पटना में नहीं गिराई जा सकती। इसकी जगह शायद बंगाल की खाड़ी में होगी। बंगाल की खाड़ी तक रोज 37,000 ट्रक ले जाने के लिये एक बहुत ही चौड़ी सड़क की जरूरत पड़ेगी जिस पर यह ट्रक आ जा सके।
नदी को चौड़ा और गहरा करने पर सड़कों पर बने सभी वर्तमान पुलों को भी बढ़ाना पड़ेगा। किसी भी नदी की खुदाई करने का तब तक कोई मतलब नहीं होगा जब तक कि मुख्य धारा गंगा की भी खुदाई न की जाय; और जब तक फरक्का बराज और उसकी कंक्रीट की बनी आधारशिला रहेगी तब तक गंगा की खुदाई का भी कोई मतलब नहीं होगा क्योंकि नदी के तल के लेवेल को यही कंक्रीट का बना आधार निर्धारित करता है।
एक बार को मान लिया जाय कि फरक्का बराज है ही नहीं। फरक्का के नीचे गंगा दो भागों में विभक्त हो जाती है। इसकी एक धारा दक्षिण-पूर्व दिशा में बहते हुये पद्मा के नाम से बांग्लादेश में प्रवेश करती है और दूसरी धारा भागीरथी के नाम से दक्षिण को जाती है जिसको निचले इलाके में हुगली कहते हैं। कलकत्ता इसी के किनारे बसा हुआ है। पद्मा की खुदाई हम राजनैतिक कारणों से नहीं कर सकते। भागीरथी की खुदाई कर सकते हैं। उस हालत में गंगा का सारा पानी हुगली होकर बहने लगेगा। बांग्लादेश ऐसा कभी होने नहीं देगा।
अगर एक बार को भागीरथी/हुगली को खोद भी लिया जाय तो समुद्र से इस नदी के संगम का लेवल तो स्थिर है। खुदी हुई नदी में समुद्र के पास सिल्ट जमा होना शुरू होगी और कुछ दिनों में ही नदी वापस अपने लवेल पर आ जायेगी।
नदियों की खुदाई केवल वहीं सम्भव है जहाँ नदी के प्रवाह में सिल्ट की मात्रा बहुत कम है और नदी का आकार बहुत ही छोटा है। उत्तर बिहार की नदियों के बारे में इस तरह की कल्पना पूरी तरह से अव्यावहारिक है।
दूसरा प्रश्न नदियों को एक दूसरे से जोड़ देने का है। नदियों को नहरों के माध्यम से जोड़ने में घनी आबादी वाले क्षेत्रों में विस्थापन/पुनर्वास की समस्या आड़े आती है। जहाँ तक मेरी जानकारी है भारत में इस तरह का एक प्रयास 1882 में महानदी और ब्राह्मणी नदी को बिरूपा के माध्यम से जोड़ा गया था और इस तरह महानदी के पानी को ब्राह्मनी में प्रवाहित किया गया था। और यह प्रयोग हाथ में लेकर छोड़ देना पड़ा था। उसके बाद कोई कोशिश ही नहीं हुई।
इस तरह का एक प्रस्ताव ब्रह्मपुत्र को गंगा से जोड़ने का है। असम में जागीघोपा से फरक्का तक प्रस्तावित इस 324 किलोमीटर लम्बी और 800 मीटर चौड़ी नहर पर बांग्लादेश को सख्त ऐतराज है जिनमें विस्थापन भी एक कारण है। यह नहर बनाने पर करीब दस लाख लोगों का विस्थापन होगा। यही हालत संकोष को गंगा से जोड़ने वाली प्रस्तावित नहर की है। यहाँ हमारे जो मित्र सीतामढ़ी से आये हैं उन्होंने देखा होगा कि 1978 से लेकर 1989 बागमती नदी को बेलवाधार से लेकर कलंजर घाट तक आंशिक रूप से मोड़ने की कोशिश की गई। हर साल बेलवाधार पर रेगुलेटर बनाने की कोशिश होती थी और यह बरसात में बह जाता था। यह काम हार कर छोड़ देना पड़ा। इसीलिये सीमित साधनों के बीच यह काम आसान नहीं होता। साधन असीमित हों तब शायद बात अलग हो।
तीसरा प्रश्न है कि उत्तर बिहार की जमीन को समतल कर दिया जाय तो बाढ़ की समाधान हो सकता है। यह एक बड़ा विचित्र प्रश्न है और इस तरह का समाधान फिर अव्यावहारिक है। मुझे याद आता है कि 1956 में जब बूढ़ी गंडक पर तटबन्ध बन रहा था तब समस्तीपुर जिले में इसका निर्माण एक किनारे से शुरू हुआ। जब बरसात आई तो सारा पानी दूसरे किनारे से बह निकला और उस तरफ हालात पहले से कहीं ज्यादा खराब हो गई। स्थिति का जायजा लेने के लिये तब समस्तीपुर में एक बाढ़ सम्मेलन हुआ। उस सम्मेलन में एक साहब ने प्रस्ताव किया कि अगर हम मिट्टी खोद कर हिमालय जैसी एक संरचना अपनी पूर्वी समुद्री सीमा पर बना लें तो सारा पानी इसी नये पहाड़ से टकरा कर समुद्र में ही बरस जायेगा। तब हम इस पहाड़ के रेन शैडो क्षेत्र में आ जायेंगे। तब यहाँ न तो पानी बरसेगा और न बाढ़ आयेगी। अब इस प्रस्ताव को आप बाढ़ समस्या का समाधान मानेंगे क्या?
आदमी को जब धूप लगी तो उसने छाते का आविष्कार किया और छाता अभी तक चल रहा है। वह सूरज को ही ढक देने का भी प्रयास कर सकता था और धूप से बचने का यह भी एक तरीका हो सकता है। पर यह व्यावहारिक है क्या?
चौथा प्रश्न नेपाल में प्रस्तावित बाँधों और उन पर भूकम्प के प्रभाव का है। यह भी कहा गया है कि अब तो तकनीक आज से पचास साल पहले के मुकाबले ज्यादा विकसित है। इसलिये बाँध का निर्माण संभव हो सकता है क्या? यह सच है कि पिछले वर्षों में निर्माण तकनीक बेहतर हुई है पर भूकम्प का मामला सुझ गया है, इस पर संदेह है। 1954 में जब कोसी तटबन्धों के निर्माण को अंतिम रूप दिया जा रहा था तब बिहार विधानसभा में (22 सितंबर) एक प्रश्नकर्ता ने पूछा कि कोसी पर तो बराह क्षेत्र बाँध बनने वाला था, अब तटबन्ध क्यों बनने जा रहा है। जवाब में अनुग्रह नारायण सिंह ने कहा था कि सरकार निचले इलाके में रहने वाले लोगों की सुरक्षा के प्रति चिन्तित हैं क्योंकि हिमालय भूकम्प वाला क्षेत्र है। इसलिये बाँध नहीं बनेगा उनकी जगह तटबन्ध बनाये जा रहे हैं। बाद में भूगर्भ वैज्ञानिकों ने भी इसकी पुष्टि की। यह आशंका अभी भी व्यक्त की जाती है कि इस क्षेत्र में 1934 वाले मुजफ्फरपुर जैसे भूकम्प (8.4 रिक्टर स्केल) की संभावनायें बनी हुई हैं अतः बड़े बाँध बनाना सुरक्षित नहीं होगा।
टिहरी बाँध को लेकर भूकम्प पर काफी बहस हुई थी और भले ही इस बाँध का निर्माण चल रहा हो मगर वैज्ञानिकों के मतभेद अभी भी सुलझे नहीं है। प्रो. शिवाजी राव, जो कि टिहरी बाँध की रिव्यू कमेटी में भी थे, बाँध की डिजाइन से संतुष्ट नहीं थे और उन्होंने बाद में इससे इस्तीफा भी दे दिया था। असंतुष्ट चाहते हैं कि क्षेत्र में आने वाले भूकम्पों का व्यावहारिक समाधान हो और बाँध टूटने की स्थिति में जो आपदा प्रबंधन का खर्च होगा और इस तरह की विपत्ति का मुकाबला करने के लिये जो तैयारी चाहिये उसका खर्च बाँध की लागत में डाल दिया जाय। यदि ऐसा किया जाय तो लाभ के मुकाबले लागत बढ़ जायेगी। मगर इन सब वैज्ञानिक मतभेदों के बावजूद सरकार तो सरकार है। वह तो बाँध बना ही सकती है।
यहाँ प्रश्न यह उठता है कि जैसे आज की हमारी बाढ़ की परिस्थिति है उसका मुकाबला समाज अपने दम पर, अपने खर्चों पर, अपनी सामर्थ्य पर और अपनी युक्ति से करता है। बाहर से मिलने वाली खैरात हमारी जरूरतों के मुकाबले पासंग में भी नहीं बैठती। जब तटबन्ध बन रहे थे तब का समाज क्या यह जानता था कि उसकी तब की योजनाओं की भविष्य में क्या कीमत देनी पड़ेगी? आज हम जिस मुकाम पर हैं वहाँ पर नेताओं और इंजीनियरों की कोई भूमिका बची है सिवाय इसके कि अब वह हमें बराह क्षेत्र बाँध के नाम पर बेवकूफ बनायें। वह पिछले पचास वर्षों से ऐसा कर भी रहे हैं। क्या हमारा समाज उस सीमा को जानता है जहाँ नेता और इंजीनियर उसका साथ छोड़ देंगे और वह अकेले विपत्ति को भोगेगा। क्या समाज की आज वैसी तैयारी है या भविष्य में हो पायेगी। अगर तैयारी होगी तो क्या समाज इसकी कीमत जानता है?
डॉ. अमरेन्द्र प्रसाद (पटना)बाढ़ से मेरा संयोग 1962 में हुआ था। हमलोग तब हवेली खड़गपुर में रहते थे। वहाँ जब बाँध टूटा तो पूरा इलाका जलमग्न हो गया। हमारे घर की मिट्टी की दीवार गिर गई थी मगर हमलोग रसोई में खाना खाने बैठे थे सो बच गये। 1971 में हमलोग दरभंगा आ गये तब से इस इलाके की बाढ़ भी देखी। मगर मुझे तब और अब की बाढ़ में बड़ा अन्तर लगता है। 1987 में मैं महानन्दा क्षेत्र में था। वहाँ का भी जलप्लावन देखा। गरीबों पर बाढ़ के प्रभाव को भी मैं काफी नजदीक से देखा है। मिश्र जी से सम्पर्क 1998 की एक गोष्ठी में हुआ और तब से निरन्तर बना हुआ है।
बाढ़ का आना पहले कभी बड़ा सुन्दर और सुखमय अनुभव होता था। मगर अब यह अभिशाप बन गई है। बाढ़ समस्या का समाधान खोजते समय हमें इस बात को हमेशा याद रखना चाहिये कि हमारी सभ्यता और संस्कृति के विकास में इन नदियों का विशेष योगदान रहा है। यह सारी सभ्यतायें इन नदियों के किनारे ही विकसित हुई। समय के साथ इन नदियों से बहुत ज्यादा छेड़ छाड़ हुई जिसके कारण उनका स्वरूप उग्र हो गया।कल मिथिला साहित्य में मैला आंचल, कोसी प्रांगण की चिट्ठी आदि की चर्चा हुई थी। इस पूरी व्यथा को समझने के लिये धर्मपाल की पुस्तकें, गांधी का हिन्द स्वराज, रस्किन का अन टू दि लास्ट, राघवन अय्यर का संग्रह तथा 24 जुलाई 1946 को गांधी जी का हरिजन के नाम से लिख पत्र भी पढ़ना चाहिये। शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण तथा अर्थनीति आदि की समग्रता में दृष्टि इन पुस्तकों को पढ़ने से विकसित होती है।हमारी आदि पुस्तकों में निहित सामग्री की अभूतपूर्व चोरी हुई है। शिक्षा, औषधि, संगीत आदि की चोरी हुई है। अब तो इन पर विदेशों में पेटेन्ट भी लिया जा रहा है। इन सब चीजों को संजोये रखने के लिये भी अब हमें प्रयास करने पड़ेंगे। मिथिला में हमारे पास चिन्तकों की कमी नहीं है। हमने कभी स्वराज की कल्पना की थी। मिला क्या? सुराज की कल्पना की थी। मिला क्या?हमारे समाजशास्त्री, वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री, राजनीति शास्त्री आदि इसमें सहयोग करें और हमारा दिशा निर्देश करें। यह लोग सारी सूचनायें एकत्र करें। फिर उनके आधार पर समाधान खोंजे। आपलोग मिल कर ज्ञान को बढ़ायें और संरक्षित करें तभी समाधान मिलेगा। आप लोग पूरी तरह सरकार पर निर्भर न करें, स्वयं का साम्थ्र्य बढ़ायें। तभी हम सब का कल्याण होगा।
अंतिम सत्र-प्रस्ताव सूत्र
चौथे सत्र में उपस्थित सदस्यों के विचार विमर्श के बाद निम्न प्रस्ताव पारित हुये।1. बिहार का 29 लाख हेक्टेयर क्षेत्र बाढ़ से सुरक्षित बताया जाता है। सरकार से इस बात की मांग की जाती है वह इस सुरक्षित क्षेत्र के नक्शे को शीघ्रातिशीघ्र सार्वजनिक करे।
2. नेपाल में प्रस्तावित बाँधों के बारे में केवल आश्वासनों से अलग हट कर जो भी वस्तुस्थिति है, सरकार उनके बारे में जानकारी सार्वजनिक करे।
3. उत्तर बिहार का 8 लाख हेक्टेयर का जो जल-जमाव वाला क्षेत्र है उससे जल निकासी की तुरन्त व्यवस्था की जाय।
4. इस रिपोर्ट की प्रति को मानवाधिकार आयोग तथा अन्य उन सभी स्थानों/संस्थाओं को भेजा जाय जहाँ यह जरूरी हो।
5. बिहार की बाढ़ पर एक त्रैमासिक बुलेटिन के प्रकाशन की व्यवस्था सभी लोग मिल कर करें। बाढ़ मुक्ति अभियान इस दिशा में पहले करे।
विजय कुमार, सह-संयोजक, बाढ़ मुक्ति अभियान
बाढ़ मुक्ति अभियान दरभंगा गोष्ठी की कार्यवाही की रपट 5-6 अप्रैल 2000 (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) | |
1 | |
2 |
Path Alias
/articles/baadha-maukatai-abhaiyaana-darabhangaa-gaosathai-kai-kaarayavaahai-kai-rapata-5-6
Post By: Hindi