बाढ़ में तैरती जिंदगी

ईट को सिमेंट द्वारा चुनाई कर बनाया गया एक विपथक बंध
ईट को सिमेंट द्वारा चुनाई कर बनाया गया एक विपथक बंध

 

 

नदिया बसाती हैं, विस्थापित नहीं करती नदी। अपने साथ केवल पानी, गाद और मिट्टी ही नहीं लाती वह विस्थापन और पलायन भी लाती है. बहुत कम लोग इस बारे में सोचते हैं कि बिहार के विस्थापन में वहां की नदियों का सबसे अधिक योगदान है. तो क्या ऋषिकेश और काशी में मोक्ष प्रदान करती गंगा बिहार में आकर इतनी क्रूर हो जाती है कि लोगों को उनके घरों से विस्थापित कर देती है. नदियां तो बसाती हैं. उजाड़ने का धंधा उन्होंने कब से शुरू कर दिया? अगर यह सवाल आप पूछते हैं तो आपको थोड़ा इतिहास, भूगोल समझना होगा. उससे भी ज्यादा बिहार की राजनीति और अर्थशास्त्र समझना होगा. फिर आपकी समझ में आ जाएगा कि बसानेवाली नदी उजाड़ने का धंधा कैसे शुरू कर देती है.

 


1 से 8 मार्च तक हम 15 लोग कोसी के किनारे-किनारे उसे समझने गये थे. खगड़िया, सुपौल, कमलापुर, महादेव मठ होते हुए सीतामढ़ी और वैशाली की यह यात्रा थी. कहने को तो इसे अध्ययन और फैक्ट फाईंडिंग कमेटी जैसी भारी-भरकम उपमा दे सकते हैं लेकिन असल में हम सब बाढ़ के उस अर्थशास्त्र को समझने की कोशिश कर रहे थे जो यहां की रीढ़ बन चुका है. यह अर्थशास्त्र यहां की राजनीति भी तय करता है और समाजनीति भी. बाढ़ से उबरने के नाम पर आजादी के बाद अब तक 1600 करोड़ रूपया खर्च किया जा चुका है. यह पैसा पानी में बह गया हो ऐसा नहीं है. इस पैसे ने यहां बाढ़ को बढ़ाया है. इन योजनाओं की ही प्रभुता है कि 1950 के दशक में जहां 25 लाख हेक्टेयर जमीन पानी में डूबी रहती थी वहीं अब 68.8 लाख हेक्टेयर जमीन पर स्थाई रूप से पानी का डेरा है. कोई भी पूछेगा कि यह कैसी योजना हुई कि दवा करते गये और मर्ज बढ़ता गया. ब्रह्मदेव चौधरी बाढ़ से भले ही तबाह हों फिर भी वे कोसी को नहीं कोसते. कहते हैं यहां कोई तटबंध मत बनाईये.

 


तटबंध का यही वह रोग है जिसे इलाज समझ लिया गया है और हर साल सरकार इसे पवित्र कर्मकाण्ड मानकर पूरा करती है. बाढ़ से निपटने की सारी योजनाएं तटबंध बनाने के नाम पर आकर सिमट जाती हैं. जो कि बाढ़ को ही बढ़ाता है. अकेले कोसी में हर साल 5 लाख 50 हजार टन से ज्यादा गाद आती है. समय के साथ पानी तो बह जाता है लेकिन गाद पीछे छूट जाती है. यह गाद उन तटबंधों के कारण वहां स्थाई डेरा डाल देती है जिसे समाधान मानकर पेश किया गया था. अब साल दो साल में वह तटबंध ही बेकार हो जाता है इसलिए हमको फिर एक नया तटबंध बनाने की जरूरत पड़ती है. और इस तरह यह एक चक्र बन जाता है.

 


अकेले उत्तर बिहार में 8.36 लाख हेक्टेयर जमीन सालभर पानी में डूबी है. यह कुल इलाके का 16 प्रतिशत बैठता है. लगभग 80 लाख लोग बाढ़ के सीधे प्रभाव में हैं. जाहिर सी बात है प्रभावित लोग या तो गरीब हैं या प्रभाव के कारण गरीब हो जाते हैं. अगर कोई योजना बने तो सबसे पहले तटबंधों पर पुनर्विचार हो.

 


लेखक - गोपाल कृष्णपानी और पर्यावरण पर काम करनेवाले गोपालकृष्ण शिपब्रेकिंग उद्योग, एसबेस्ट्स और कचरा प्रबंधन में घातक तकनीकि से उत्पन्न खतरों पर लगातार सक्रिय लेखन और आंदोलन कर रहे हैं. बैन एसबेस्टस नेटवर्क के संयोजक. आप उन्हें krishnagreen@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं.

 

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