बाढ़ : मानवजनित हस्तक्षेप का दुखद परिणाम

Flood in UP
Flood in UP

बाढ़ को भूकम्प की तरह ही देश के लिये प्राकृतिक प्रकोप की संज्ञा दी जाती है। कुछ हद तक इसे सही भी माना जा सकता है। लेकिन यह पूरी तरह सही नहीं है। इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता। देश हर साल की तरह फिर इस बार बाढ़ का सामना कर रहा है। वह चाहे बादल फटने से आई बाढ़ हो या फिर बारिश से आई बाढ़, तबाही तो स्वाभाविक है।

पहाड़ से लेकर मैदान तक चारों ओर आफत की बारिश-ही-बारिश है। सच तो यह है कि इस बार देश के कमोबेश छह राज्य तो बाढ़ की भीषण चपेट में हैं। उ.प्र., बिहार और पश्चिम बंगाल में तो हाई अलर्ट जारी कर दिया है। बाढ़ से छह राज्यों यथा- राजस्थान, गुजरात, बंगाल, ओडिशा, मणिपुर और जम्मू कश्मीर में भारी तबाही हुई है। नदियों के बढ़ते जलस्तर के तांडव ने वहाँ हाहाकार मचा रखा है।

नदियों की तेज धार में सैकड़ों की तादाद में बहते इंसान और जानवरों के शव हालात की भयावहता की ओर इशारा करते हैं। इस बार तो बाढ़ के चलते रेल की पटरी के नीचे की मिट्टी ढह जाने से हुई रेल दुर्घटना और यात्री डिब्बों के नदी में गिर जाने से मरने वालों व हताहतों की संख्या पर सवालिया निशान लग गए हैं। हालात इतने विषम हैं कि बाढ़ की विकरालता के चलते उससे निपटने के सरकार के सारे प्रयास नाकाम साबित हुए हैं। फिर भी सरकार द्वारा राहत के कारोबार का सिलसिला जारी है।

ऐसा लगता है जैसे कि बाढ़ मानव जीवन की नियति बन चुकी है। संस्कार की तरह लोग उसे झेलने को विवश हैं। दरअसल बाढ़ एक ऐसी आपदा है जिसमें हर साल करोड़ों रुपयों का नुकसान ही नहीं होता बल्कि हजारों-लाखों घर तबाह हो जाते हैं, लहलहाती खेती बर्बाद हो जाती है और अनगिनत मवेशियों के साथ हजारों इंसानी जिन्दगियाँ पल भर में अनचाहे मौत के मुँह में चली जाती हैं। एक शोध से यह साबित हो चुका है कि पिछले तीन दशक में देश में चार-सवा चार अरब से भी ज्यादा लोग बाढ़ से प्रभावित हुए हैं।

देश में पिछले कुछ वर्षों से बाढ़ ने अपना विकराल रूप दिखाना शुरू कर दिया है और बाढ़ से होने वाली तबाही लगातार तेजी से बढ़ती जा रही है। अक्सर देखने में आता है कि मानसून के आते ही नदियाँ उफान पर आने लगती हैं और देश के अधिकांश भू-भागों में तबाही का तांडव मचाने लगती हैं।

इसके बावजूद भी देश के कुछ हिस्से ऐसे हैं जहाँ के लोगों को बाढ़ का अनुभव नहीं होता लेकिन जब अचानक उन्हें इस समस्या का सामना करना पड़ता है, तो वहाँ त्राहि-त्राहि मच जाती है, वहाँ के लोग समझ ही नहीं पाते कि वे क्या करें। वहाँ इसका मुकाबला कर पाना मुश्किल हो जाता है बनिस्बत वहाँ जहाँ बाढ़ परम्परा बन चुकी है। वहाँ तो इससे निपटने की कुछ हद तक तो सरकारी तैयारी भी होती है। वह बात दीगर है कि वह तैयारी ऊँट के मुँह में जीरा समान ही होती है। और फिर वहाँ के लोग भी इससे निपटने के लिये काफी हद तक तैयार रहते हैं।

वैसे तो आपदाओं वह चाहे बाढ़ हो, भूकम्प हो या फिर कोई अन्य, का मानव सभ्यता से आदिकाल से रिश्ता रहा है। इसमें भी दो राय नहीं कि सभ्यताओं का विकास नदियों के किनारे ही हुआ और जब-जब बाढ़ ने विकराल रूप धारण किया, नदियों के किनारे बसी बस्तियाँ बाढ़ के प्रकोप का शिकार हुईं और नेस्तनाबूद हो गईं। यही नहीं नदियों के प्रवाह क्षेत्र में हरे-भरे खेत भी उसकी चपेट में आकर तबाह हो गए। नतीजन मानव जीवन हर साल कमोबेश बाढ़ की विभीषिका को सहने को बाध्य हो गया।

बाढ़ की समस्या वैसे तो सभी क्षेत्रों में है लेकिन मुख्य समस्या गंगा के उत्तरी किनारे वाले क्षेत्र में है। गंगा बेसिन के इलाके में गंगा के अलावा यमुना, घाघरा, गंडक, कोसी, सोन और महानन्दा आदि प्रमुख नदियाँ हैं जो मुख्यतः उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश, हिमाचल, हरियाणा, दिल्ली, मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार सहित मध्य एवं दक्षिणी बंगाल में फैली हैं। इनके किनारे घनी आबादी वाले शहर बसे हैं।

असम में बाढ़इस सारे इलाके की आबादी अब 40 करोड़ से भी ऊपर पहुँच गई है और यहाँ की आबादी का घनत्व 500 व्यक्ति प्रति किमी का आँकड़ा पार कर चुका है। उसके परिणामस्वरूप नदियों के प्रवाह क्षेत्र पर दबाव बेतहाशा बढ़ रहा है। उसके ‘बाढ़ पथ’ पर रिहायशी कालोनियों का जाल बिछता जा रहा है, नदी किनारे एक्सप्रेस वे व दिल्ली में यमुना किनारे खेल गाँव का निर्माण इसका सबूत है कि सरकारें इस दिशा में कितनी संवेदनहीन हैं।

इसमें दो राय नहीं कि वह चाहे हिमालय से निकलने वाली अलकनन्दा हो, अस्सीगंगा या भागीरथी हो या गंगा नदी हो, सिन्ध हो या ब्रह्मपुत्र या फिर कोई अन्य या उसकी सहायक नदी, उनके उद्गम क्षेत्रों की पहाड़ी ढलानों की मिट्टी को बाँधकर रखने वाले जंगल विकास के नाम पर जिस तेजी से काटे गए, वहाँ बहुमंजिली इमारतों रूपी कंक्रीट के जंगल, कारखाने और सड़कों के जाल बिछा दिये गए, विकास का यह रथ आज भी निर्बाध गति से जारी है।

नतीजन इन ढलानों पर बरसने वाला पानी बारहमासी झरनों के माध्यम से जहाँ बारह महीनों इन नदियों में बहता था, अब वह ढलानों की मिट्टी और अन्य मलबे आदि को लेकर मिनटों में ही बह जाता है और अपने साथ वहाँ बसाई बस्तियों को खेतों के साथ बहा ले जाता है। दरअसल इससे नदी घाटियों की ढलानें नंगी हो जाती हैं। उसके दुष्परिणामस्वरूप भूस्खलन, भूक्षरण, बाढ़ आती है और बाँधों में साद् का जमाव दिन-ब-दिन बढ़ता जाता है।

जंगलों के कटान के बाद बची झाड़ियाँ और घास-फूस चारे और जलावन के लिये काट ली जाती हैं। इसके बाद ढलानों को काट-काट कर बस्तियों, सड़कों का निर्माण व खेती के लिये ज़मीन को समतल किया जाता है। इससे झरने सूखे, नदियों का प्रवाह घटा और बाढ़ का खतरा बढ़ता चला गया। दरअसल हर साल दिन-ब-दिन बढ़ता बाढ़ का प्रकोप इसी असन्तुलन का नतीजा है।

यदि सरकारी आँकड़ों पर नजर दौड़ाएँ तो पाते हैं कि सन् 1951 में देश में एक करोड़ हेक्टेयर बाढ़ग्रस्त क्षेत्र था, जो बढ़कर आज तकरीब सात करोड़ हेक्टेयर से भी अधिक हो गया है। बीते साल इस बात के सबूत हैं कि इस दौरान भले बारिश कम दर्ज की गई, लेकिन बाढ़ से तबाह हुए इलाके का रकबा कई गुना बढ़ा है। हकीक़त तो यह भी है कि कुछेक दशक पहले जो इलाके बाढ़ से अछूते रहते थे, आज वहाँ बाढ़ का तांडव देेखने को मिल रहा है। राजस्थान का मरु इलाका इसका जीवन्त प्रमाण है।

यदि इसके कारणों पर नजर डालें तो पता चलता है कि आजादी के बाद देश में विकास के नाम पर जिस तेजी से जंगलों का कटान किया गया, उसके कारण नदी घाटी क्षेत्र की ढलानों की बरसात को झेलने की क्षमता अब खत्म हो चुकी है। सच यह भी है कि नदियों के जलागम क्षेत्र की ज़मीन जंगलों के कटान के चलते जब नंगी हो जाती है, उस हालत में मिट्टी साद के रूप में नदी की धारा में जमने लगती है।

मैदानी इलाकों में यह साद नदियों की गहराई को पाटकर उथला बना देती है। नदी की धाराओं में मिट्टी के जमने और उनमें गहराई के अभाव में पानी कम रहने से वे सपाट हो जाती हैं। अब नदियों के किनारे न तो हरियाली बची है, न पेड़-पौधे। इनके अभाव में पेड़ों की जड़ें मिट्टी कहाँ से बाँधेंगी। नतीजन बरसात के पानी का प्रवाह नदी की धारा में समा नहीं पाता और फिर वह आस-पास के इलाकों में फैलकर बाढ़ का रूप अख्तियार कर लेता है।

गंगा, यमुना और अन्य नदियों का अधिकांश पानी मैदानी क्षेत्रों में खेती आदि के लिये सिंचाई की खातिर नहरों के जरिए निकाला जाता रहा है। इसके कारण नदियों में पानी न के बराबर रहता है जिसकी वजह से नदियाँ साद को समुद्र तक बहा ले जाने में नाकाम रहती हैं। दूसरा यह कि हमारे यहाँ सबसे बड़ी समस्या यह रही है कि वह चाहे बड़ा शहर हो या छोटा, उसके निर्माण के समय बनी योजना में नदी-नालों के पानी की निकासी के बारे में सोचा ही नहीं गया, उसकी व्यवस्था किये जाने की बात तो दीगर है।

उत्तर प्रदेश में बाढ़और तो और इन शहरों के बीचों-बीच बहने वाली नदी हो या फिर वहाँ बने ताल-तलैयों के जल की निकासी के सवाल को अनसुलझा छोड़कर उस पर अन्धाधुन्ध निर्माण किये जाते रहे। यह पूरे देश की कहानी है। नतीजन जरा सी बारिश होने पर पूरे-के-पूरे शहर में बाढ़ जैसे हालात हो जाते हैं। देश की राजधानी दिल्ली इसका जीता जागता सबूत है। बरसात के मौसम में देश के अधिकांश शहरों की हालत ऐसी ही होती है। इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता।

अभी तक हमारे यहाँ नदी प्रबन्धन के नाम पर बाँधों, बैराजों, पुश्तों का निर्माण और सिंचाई के लिये नहरें निकालने का काम तीव्र गति से हुआ है। इस काम में हमारा देश चीन, पाकिस्तान आदि अन्य देशों के मुकाबले शीर्ष पर है। हमारे यहाँ नदी किनारे बने बन्धान-तटबन्ध नदी की धारा को रोके रखने के मामले में नाकाम साबित हुए हैं।

कोसी और केन के तटबन्ध-छोटे-छोटे बंध इसका ज्वलन्त उदाहरण हैं। इसलिये जरूरी है कि मौसम के बदलाव को मद्देनज़र रखकर नदियों की प्रकृति का सूक्ष्म रूप से विश्लेषण-अध्ययन कर नदी प्रबन्धन की तात्कालिक व्यवस्था की जाये। साथ ही चीन, जापान, अमरीका और यूरोप की तरह बाढ़ से पहले और बाद में बाढ़ के दौरान राहत और बचाव की व्यवस्था करने में समर्थ हो सकें जिससे मानवीय हानि, सम्पत्ति का और जैविकीय विनाश को कम कर सकें तो यह बड़ी उपलब्धि होगी। लेकिन यह सब सरकार की इच्छाशक्ति पर ही निर्भर है।

सरकार को यह भी ध्यान रखना होगा कि बाढ़ महज प्राकृतिक प्रकोप नहीं है, वह मानवजनित कारणों से उपजी एक भीषण त्रासदी है। इसके लिये प्रशासनिक तंत्र को चुस्त-दुरुस्त बनाना बेहद जरूरी है, तभी इस विभीषिका पर किसी हद तक अंकुश की बात सोची जा सकती है।

यह सच है कि देश के सभी राज्यों में बाढ़ नियंत्रण विभाग हैं, वे बचाव और राहत कार्य तो करते ही हैं, वहाँ की सरकारें नदी के साथ-साथ बाँधों के जल प्रबन्धन, वर्षाजल के बहाव और संरक्षण, भण्डारण, पूर्वानुमान और जनधन व पशुधन को समय रहते स्थानान्तरित करने की व्यवस्था करने का तंत्र विकसित कर लें तो बाढ़ से होेने वाली हानि को काफी हद तक कम किया जा सकता है।

गौरतलब है कि चार वर्ष पूर्व बिहार में कोसी नदी की प्रलयंकारी बाढ़ जिसमें तकरीब डेढ़-पौने दो करोड़ लोग बेघर हुए, उनके खेत-खलिहान तबाह हुए और हजारों काल के गाल में समा गए, के बाद योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने कहा था कि बाढ़ की विभीषिका से बचने की दिशा में नदी प्रबन्धन के काम को प्राथमिकता दिये जाने की जरूरत है क्योंकि इसके सिवाय हमारे पास कोई चारा नहीं है। लेकिन उसके बाद तीन साल तक न तो संप्रग सरकार ने ही इस दिशा में कुछ किया और न उसके बाद आई राजग सरकार द्वारा आज तक इस दिशा में कुछ किया गया है।

सबसे जरूरी बात तो यह है कि आपदा प्रबन्धन का सोच बदला जाये। इसके बिना बदलाव की उम्मीद बेमानी है। आज देश एक बार फिर बाढ़ की विभीषिका का सामना कर रहा है। हालात गवाह हैं कि बाढ़ अब देशवासियों की नियति बन चुकी है। बाढ़ के तांडव का हर साल सामना करने को जनता विवश है। सरकारें बाढ़ आने पर हर साल राहत का ढिंढोरा पीटकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर फिर चैन की नींद सो जाती हैं।

राजग सरकार दावे तो बहुत कर रही है लेकिन हकीकत में नदी प्रबन्धन और आपदा प्रबन्धन अभी दूर की कौड़ी है। ऐसे हालात में बाढ़ के दानव के हर साल शिकार होकर लाखों लोग अनचाहे मौत के मुँह में जाते रहेंगे, बेघरबार होकर दर-दर भटकते रहेंगे और हर साल राहत राशि से अपनी तिजोरियाँ भर नेता-नौकरशाह-अधिकारी और ठेकेदार मालामाल होते रहेंगे। इसमें दो राय नहीं।
 

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Post By: RuralWater
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