गौरतलब है कि देश के सर्वोच्च अधिकारियों (आइएएस और आईपीएस) का प्रतिशत सबसे ज्यादा न सही, लेकिन बिहार और विशेषकर उत्तर बिहार से अधिक जरूर रहा है और सबसे बड़ा सच यह भी है कि बाढ़ से सबसे ज्यादा उत्तर बिहार ही प्रभावित होता रहा है। एक बार पद और प्रतिष्ठा पा लेने के बाद वे पलट कर अपने गाँव या शहर की ओर देखना भी नहीं चाहते हैं।
प्रत्येक साल बाढ़ और सूखे से देश का एक बड़ा हिस्सा त्राहिमाम कर उठता है। सामान्य तौर पर जुलाई के पहले पखवाड़े से बाढ़ का कहर शुरू होता है, परन्तु इस वर्ष जून में ही कई राज्यों में बाढ़ ने अपनी लीला दिखानी शुरू कर दी। ताज्जुब है कि बाढ़ से जान-माल की क्षति दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। 1950 के दशक में जितनी जान-माल की क्षति हुई थी, आज अनुमान है कि यह 20-25 गुणा ज्यादा हो गई है। हर वर्ष लाखों पशु-पक्षियों व मनुष्यों को जहाँ जान से हाथ धोना पड़ता है, वहीं करोड़ों-करोड़ की सम्पत्ति बाढ़ ले डूबती है। दुनिया में बाढ़ का संकट हर जगह है। अमेरिका में समुद्री तूफान से आई बाढ़ से मामूली हानि होती है, परन्तु एशियाई देशों में विनाश का स्तर ऐसा होता है, जिसकी क्षतिपूर्ति करना बहुत मुश्किल हो जाता है। स्वीडिश रेडक्रॉस का अध्ययन यह बताता है कि बिगड़ते पर्यावरण के कारण क्षतिग्रस्त क्षेत्रों में विपदाएँ बार-बार लगातार आने लगती हैं और बढ़ती गरीबी के कारण ज्यादा-से-ज्यादा लोग इन विपदाओं के शिकार हो जाते हैं। बाढ़ के क्षेत्र जो रेखांकित किये गए थे, वहाँ से बाढ़ का प्रसार उन क्षेत्रों में होने लगा है, जहाँ नदियों में बरसात में भी पानी बहुत कम होता है। दरअसल नदियों से जो नहरें निकाली गईं, उनसे नदी के वेग में कमी आई है और नदियों में गाद बड़ी मात्रा में जमा होने लगी है। दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि मनुष्य कभी बाढ़ को प्रकृति का एक खेल समझता था, परन्तु बढ़ती आबादी और उसके बढ़ते लोभ ने इसके रूप की विकरालता और बढ़ाई है।बाढ़ पहले भी आती थी, परन्तु मनुष्य उससे निपटने की तैयारी पहले ही कर लेता था। मतलब बाढ़ के प्रसार क्षेत्र में बसाव नहीं करता था। निचले इलाकों में वह घर नहीं बनाता था। आज आबादी बढ़ी है, इसलिये बसने की जगहें कम हो गई हैं तो कुछ नासमझी में और कुछ लाचारीवश निचले इलाकों में रहने व बसने चले गए हैं। ‘चौर’ क्षेत्र में भी लोगों ने बसना शुरू कर दिया है। हालांकि ‘चौर’ मनुष्य को प्रकृति से एक वरदान के रूप में मिला है। बाढ़ उतरते ही वहाँ बहुत कम लागत पर अन्न और सब्जियाँ बड़ी मात्रा में उपजाई जाती रही हैं। बिहार और बंगाल में भी बाढ़ का प्रकोप कुछ दशकों से इसलिये बढ़ा है, क्योंकि वहाँ के बाढ़ के मैदानों में खेती की जाने लगी है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि बाढ़ वाले क्षेत्रों का अनियोजित विकास किया गया है। उसमें हमने घुसपैठ की है।
नदियों में पानी की बढ़त के साथ-साथ उसका तट या पाट चौड़ा होता जाता है, परन्तु कुछ दशकों से हमने उन पर अप्राकृतिक रूप से तटबन्ध या बाँध बनाए हैं। इसके पीछे तर्क दिया गया कि इससे बाढ़ पर नियंत्रण पाया जा सकेगा, परन्तु परिणाम इसकी शुरुआत से उलटा ही रहा है। पानी के आयतन के अनुपात के हिसाब से दाब भी बढ़ता जा रहा है और वर्षा में इतना अधिक बढ़ जाता है कि अपनी सारी सीमाओं को भूलकर तोड़-फोड़ मचाता हुआ अपना रास्ता खोज लेता है।
गुजरात, मध्य प्रदेश, हरियाणा, पंजाब आदि सभी जगहों पर बाढ़ आने के कारणों में बाँध का टूटना भी एक बड़ा महत्त्वपूर्ण कारण है। नर्मदा सागर बाँध परियोजना से हो चुकी और हो रही तबाही इसका नवीनतम उदाहरण है। कुछ साल पूर्व दामोदर घाटी के बाँधों से भारी मात्रा में पानी छोड़ने के कारण दक्षिण बंगाल में भारी बाढ़ आई थी, जिसमें लगभग दस जिलों के तीस लाख लोग तबाह हुए थे। दामोदर घाटी कॉर्पोरेशन के तत्कालीन अध्यक्ष ले. जनरल एम.एम. पई ने स्वीकार किया कि दामोदर घाटी कॉर्पोरेशन से अब बाढ़ नियंत्रण की कोई खास उम्मीद नहीं रखी जानी चाहिए। पनचेत जलाशय से पानी छोड़ने का नतीजा बाढ़ के रूप में प्रकट हुआ था। इससे बचा जा सकता था। बिहार सरकार ने एक छोटा नेतूघाट बाँध बनाया, उसका पानी नहर से जोड़ा गया था। पानी पनचेत नहर की ओर बढ़ा और हावड़ा, हुगली और मिदनापुर जिलों में भर गया। आश्चर्य है कि एम.एम. पई ने इस समस्या के हल के लिये बाँधों की संख्या बढ़ाने का सुझाव दिया था।
बाढ़ आई थी, आई है, चली आएगी और फिर आएगी, क्योंकि हमने सारे रास्ते बन्द कर दिये हैं। पहले ताल-तलैया बरसात के दिनों में अतिरिक्त जलराशि से पूरित होते थे, इसलिये उन्हें नदिया और ताल कहा जाता था। बाढ़ वाले क्षेत्र निर्धारित करने वाला बनाया गया विधेयक 1974 से आज तक अमल में नहीं लाया जा सका है। केन्द्र सरकार द्वारा भेजा गया मसविदा किसी राज्य सरकार ने अपनी जनता को बाढ़ से बचाने के लिये लागू नहीं किया है। हाल में घटी घटनाओं के मद्देनजर अगर देखा जाये तो बाढ़ कुछ लोगों के लिये उद्योग साबित हुई है।
गौरतलब है कि देश के सर्वोच्च अधिकारियों (आइएएस और आईपीएस) का प्रतिशत सबसे ज्यादा न सही, लेकिन बिहार और विशेषकर उत्तर बिहार से अधिक जरूर रहा है और सबसे बड़ा सच यह भी है कि बाढ़ से सबसे ज्यादा उत्तर बिहार ही प्रभावित होता रहा है। एक बार पद और प्रतिष्ठा पा लेने के बाद वे पलट कर अपने गाँव या शहर की ओर देखना भी नहीं चाहते हैं। असल में हमारे देश की शिक्षा प्रणाली लोगों को आत्मकेन्द्रित बनाने का काम करती है, अन्यथा देश की समस्या कम होने की बजाय, बढ़ती क्यों चली जा रही है? इस पर गम्भीरता से विचार किये बगैर समस्या का हल नहीं ढूँढा जा सकता है।
जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें) | |
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पुस्तक परिचय - जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण | |
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