समाज ने पीढ़ियों से, शताब्दियों से यहां फिसलगुड्डी की तरह फुर्ती से उतरनेवाली नदियों के साथ जीवन जीने की कला सीखी थी, बाढ़ के साथ बढ़ने की कला सीखी थी. उसने और उसकी फसलों ने बाढ़ में डूबने के बदले तैरने की कला सीखी थी. वह कला आज धीरे-धीरे मिटती जा रही है. अब उत्तर बिहार लोग मानते हैं कि इन नदियों ने उन्हें दुख के अलावा कुछ नहीं दिया है।
लेकिन उत्तर बिहार में बहनेवाली नदियों के नाम देखेंगे तो इनमें से किसी भी नदी के नाम में, विशेषण में दुख का कोई पर्यायवाची देखने को नहीं मिलेगा. लोगों ने नदियों को हमेशा देवियों के रूप में ही देखा है. इन नदियों के नामों में सबसे अधिक विशेषण आभूषणों के नाम पर है. हम सब जानते हैं कि आभूषण गोल आकार के होते हैं यानी यहां पर नदियां उतरते समय इधर-उधर सीधी बहने की बजाय आड़ी-तिरछी गोल आकार में क्षेत्र को बांधती है. गावों को लपेटती हैं और उनका आभूषण की तरह श्रृंगार करती हैं. उत्तर बिहार में यह कहावत आम है कि आप बिना पांव धोए उनके गांव में नहीं पहुंच सकते।
यहां की नदियां आड़ी-तिरछी ही बहती हैं. इनमें से हर एक नदी के स्वभाव को देखकर लोगों ने उसका नामकरण किया है और उसको अपनी स्मृति में सुरक्षित रखा है. इन नदियों का स्वभाव आड़ा-तिरछा जरूर है लेकिन यहां के लोगों का इन नदियों के साथ रिश्ता बहुत सीधा है. कोसी के बारे में कहा जाता है कि पिछले कुछ सौ सालों में उसने 148 किलोमीटर के क्षेत्र में उसने अपनी धारा बदली है. उत्तर बिहार में ऐसी दो इंच जमीन भी नहीं मिलेगी जहां कोसी न बही हो. समाज ने इन नदियों को कभी अभिशाप की तरह नहीं देखा. उसने माना कि यह नदियों की कृपा है कि हिमालय की कीमती मिट्टी इस क्षेत्र के दलदल में पटककर बहुत बड़ी मात्रा में खेती के लिए जमीन निकाली है. कहा जाता है कि पूरा का पूरा दरभंगा खेती योग्य हो सका तो इन्हीं नदियों के द्वारा लाई गयी मिट्टी के कारण. लेकिन इनमें भी समाज ने उन नदियों को छांटा है जो अपेक्षाकृत कम सादवाले इलाके से आती हैं।
उत्तर बिहार में नदियां विहार करती हैं. वह सारी जगह उनकी है. इसलिए वे कहीं भी जाएं उसे जगह बदलना नहीं माना जाता. उत्तर बिहार में समाज का एक सरल दर्पण साहित्य रहा तो दूसरा तरल दर्पण नदियां थीं. इन असंख्य नदियों में वहां का समाज अपना चेहरा देखता था और नदियों के चंचल स्वभाव को बड़े शांत भाव से देह में, अपने मन में और अपने विचारों में उतारता था. इसलिए कभी वहां कवि विद्यापति जैसे सुंदर किस्से बनते तो कभी फूल-परास जैसी घटनाएं रेत में उकेरी जातीं. नदियों की लहरे रेत में लिखी इन घटनाओं को मिटाती नहीं थी- हर लहर इन्हें पक्के शिलालेख में बदलती थी. ये शिलालेख इतिहास में मिलें न मिलें लोगों के मन में, लोकस्मृति में मिलते थे।
बहुत छोटी-छोटी नदियों के वर्णन में ऐसा मिलता है कि इनमें ऐसे भंवर उठते हैं कि हाथियों को भी डुबो दें. इनमें चट्टानों और पत्थर के बड़े-बड़े टुकड़े आते हैं और जब में वे आपस में टकराते हैं तो इतनी आवाज होती है कि दिशाएं बहरी हो जाएं. लेकिन इन्हीं नदियों के पानी को रोककर समाज बड़े-बड़े तालाबों में डालता था और बाढ़ के वेग को कम करता था. एक पुराना पद मिलता है - चार कोसी झाड़ी. इसके बारे में अब नये लोगों को ज्यादा कुछ पता नहीं है. चार कोसी झाड़ी का कुछ हिस्सा शायद चंपारण में बचा है. ऐसा कहते हैं कि पूरे हिमालय की तराई में चार कोस की चौड़ाई का एक घना जंगल बचाकर रखा था. इसकी लंबाई पूरे बिहार में ग्यारह-बारह सौ किलोमीटर चलती थी. यह पूर्वी उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्र तक जाता था. चौड़ाई चार कोस होती थी. आज के खर्चीले, अव्यावहारिक चटबंधों के बदले यह विशाल वन बांध बाढ़ में आनेवाली नदियों को छानने का काम करता था. बाढ़ तो तब भी आती थी लेकिन उसकी मारक क्षमता को समाज अपने उपाय से कम कर देता था।
ढाई हजार साल पहले भगवान बुद्ध और एक ग्वाले के संवाद में बाढ़ का कुछ वर्णन मिलता है. ग्वाला बुद्ध से कह रहा है कि उसने छप्पर को मजबूती से बांध लिया है, गाय को मजबूती से खूंटी से बांध दिया है, फसल काट ली है. अब बाढ़ का कोई डर नहीं बचा है. आराम से चाहे जितना पानी बरसे. नदी देवी दर्शन देकर चली जाएगी. उस बाढ़ के बीच युगपुरूष ने उस ग्वाले की झोपड़ी में निर्भर होकर रात बितायी. ऐसी बातें हमें बताती है कि बिहार के लोग इस बाढ़ से खेलना जानते थे. उत्तर बिहारी के लोगों ने बड़े तालाबों, संरक्षित जंगलों के जरिए एक पूरा फ्लड रेन वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम बना रखा था. उसी के सहारे उन्होंने यह खेल खेला था. बाढ़ तो तब भी आती थी लेकिन वे बाढ़ की मार को कम से कम करना जानते थे. यह उत्तर बिहार में ही हो सकता है कि तालाब का एक विशेषण नदिया ताल है. यानी यह ताल वर्षा के पानी से नहीं नदी के पानी से भरता था।
लेकिन धीरे-धीरे कोसी झाड़ी (संरक्षित वन) चले गये, हृद और चौर खत्म हो गये, इनको बचानेवाले सामाजिक नियम और कायदे भी चले गये. नये तरह के कानून और नये तरह का प्रशासन आ गया है जो नदियों को सहेजने की बजाय जोर-जबर्दस्ती की नीति से उन्हें रोकता टोकता है. तटबंधों का इतिहास है कि इनके कारण बाढ़ में कमी नहीं आयी बल्कि नुकसान बढ़ा है. जो बाढ़ से बचानेवाली सालभर की योजना होती थी अब वह केवल शरणार्थी शिविरों के भरोसे पूरी की जाती है. बाढ़ अगले साल भी आयेगी. इसकी तिथियां तय हैं. लेकिन हम जैसे-जैसे विकसित होते जा रहे हैं इन तिथियों को जानबूझकर भुलाये जा रहे हैं. तीन साल पहले उत्तर बिहार में ऐसी ही बाढ़ आयी थी. उस साल भी सरकारी राहत कार्य को पूरा करने और पीड़ितों को खाना बांटने के लिए जो हेलिकाप्टर किराये पर लिये गये उनका खर्च आया 24 करोड़ रूपया और शायद 2 करोड़ की राहत सामग्री उन हेलिकाप्टरों से गिरायी गयी. ज्यादा अच्छा होता कि इस इलाके में हम बीस हजार नावें तैयार रखते और मछुवारों, नाविकों, मल्लाहों को सम्मान के साथ काम पर लगाते. तब शायद दो करोड़ के खर्चे में ही एक एक पाई की मदद उन लोगों तक पहुंच जाती जिसकी उन्हें दरकार थी. पिछली बार ऐसा कुछ नहीं हुआ. इस बार भी ऐसा कुछ नहीं होगा।
हम बार-बार यह भूल जाते हैं कि उत्तर बिहार का यह इलाका नदियों की गोदी में पला-बढ़ा समाज है इसे बाढ़ भयानक नहीं दिखती।
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