सूखे के बाद भीषण बाढ़ की चपेट में आए कई राज्य। बारिश नहीं बल्कि वायु प्रदूषण की वजह से मची है भारी तबाही
अप्रैल महीने में जब असम में बाढ़ आई तो सबने यही सोचा कि बूढ़ीदिहिंग और देसांग नदियों का उफनता जलस्तर जल्दी ही नीचे चला जाएगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। यह बाढ़ अगस्त के अन्त तक खिंच गई। इससे राज्य का करीब 90 प्रतिशत क्षेत्र और 40 लाख लोग प्रभावित हुए।
गुवाहाटी विश्विविद्यालय के पर्यावरण विज्ञान विभाग के पूर्व प्रमुख डी.सी. गोस्वामी ने बतााय, “कुल बरसात और भौगोलिक क्षेत्र दोनों लिहाज से मानसून से पहले होने वाली वर्षा इस साल काफी अधिक हुई है।” हैदराबाद के नेशनल रिमोट सेंसिंग सेंटर के मुताबिक, अप्रैल के चौथे सप्ताह में भारी बारिश इस साल असम में पहली बाढ़ का कारण बनी। बूढ़ीदिहिंग और देसांग नदियाँ 25 अप्रैल को इस साल पहली बार खतरे के निशान को पार कर गई और छह जिलों-डिब्रूगढ़, शिवसागर, जोरहाट, तिनसुकिया, काछार और सोरायदेवो को अपनी चपेट में ले लिया। विशेषज्ञों के अनुसार मानसून के पहले होने वाली भारी वर्षा ने पश्चिमी विक्षोभ की बढ़ती आवृत्ति से सम्बन्धित ठोस प्रमाण उपलब्ध कराए हैं। अधिक बारिश की यह भी एक वजह है। गुवाहाटी के क्षेत्रीय मौसम विज्ञान केन्द्र के अनुसार, राज्य में होने वाली बारिश मार्च-अप्रैल में सामान्य से 21 फीसदी अधिक थी।
विडम्बना यह है कि असम एक तरफ जहाँ भीषण बाढ़ का सामना कर रहा है, वहीं राज्य में एक जून से 16 अगस्त के बीच औसत से 25 प्रतिशत कम बारिश हुई है। कम बारिश के बावजूद आखिर यह बाढ़ क्यों? आँकड़ों के मुताबिक, प्रत्येक बाढ़ अत्यधिक वर्षा के बाद ही आती है। भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) अत्यधिक वर्षा की घटना को दो श्रेणियों में बाँटता है। इसके अनुसार, 24 घण्टे में अगर 124.5-244.5 मिमी वर्षा बहुत हुई तो इसे ‘बहुत भारी’ वर्षा और अगर इससे भी अधिक बारिश हुई तो उसको ‘अत्यन्त भारी’ की श्रेणी में रखा जाएगा। इस साल अकेले जुलाई के महीने में असम में ‘बहुत भारी’ वर्षा की घटनाएँ दर्ज की गईं। केन्द्रीय जल आयोग (सीडब्ल्यूसी) ने 25 जुलाई तक ही तीन जिलों में सामान्य बाढ़ की घोषणा कर दी थी। ये वही जिले थे जहाँ बेकी, संकोश और ब्रह्मपुत्र तीनों नदियाँ खतरे के निशान से ऊपर बह रही थीं।
सूखा झेल रहे राज्यों में बाढ़ का कहर
असम के अलावा 19 राज्यों में करीब एक करोड़ लोग अगस्त के तीसरे सप्ताह तक बाढ़ से प्रभावित हो चुके थे। इनमें से अधिकतर मानसून की पहली बारिश से ही इस बाढ़ की चपेट में आ चुके थे। उल्लेखनीय है कि इनमें से कुछ राज्य बाढ़ से पहले सूखे की मार झेल रहे थे। उदाहरण के लिये मध्य प्रदेश में बाढ़ अप्रैल-मई के सूखे के बाद आई। यहाँ आठ जून तक मानसून शायद ही पूरे राज्य में पहुँचा था और आईएमडी के अनुसार तो कुछ हिस्से तेज गर्मी और लू की चपेट में थे। 12 जुलाई को बुरहानपुर और बैतूल जिलों में करीब 24 घण्टे में सामान्य से क्रमशः 1,135 और 1,235 फीसदी ज्यादा बारिश हुई। 18 जुलाई आते-आते राज्य के 23 जिलों में बाढ़ आ चुकी थी। इससे 35 से अधिक लोगों की मौत हो गई और नौ लोग लापता हो गए। फिर 20-21 अगस्त को 12 जिलों में भीषण बारिश हुई। बीस अगस्त को खुरई मौसम स्टेशन ने सागर में 187.2 मिलीमीटर बारिश दर्ज की। पन्ना और रीवा जिले में केन और तमसा नदियाँ भारी बारिश के कारण खतरे के निशान से ऊपर बहने लगीं।
मानसून की शुरुआत से 22 अगस्त तक बारिश से जुड़ी दुर्घटनाओं के कारण राज्य में मरने वालों की संख्या 87 तक पहुँच गई। इसी तरह बिहार में एक जून से 22 अगस्त के बीच कुल वर्षा सामान्य से 15 फीसदी कम रही। लेकिन 21 अगस्त तक बिहार के पटना सहित 23 जिलों में कुल 38 लाख लोग बाढ़ का सामना कर रहे थे। गंगा नदी बक्सर, मुंगेर, खगड़िया, सीवान और कटिहार सहित कई जिलों में खतरे के निशान से ऊपर बह रही थी। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इसके पीछे पश्चिम बंगाल में फरक्का बाँध के निर्माण के बाद नदी में गाद के जमाव को जलस्तर में वृद्धि का कारण बताया।हालाँकि, बिहार स्थित गैर-लाभकारी संस्था ‘बाढ़ मुक्ति अभियान’ के निदेशक डी.के. मिश्रा का कहना है, “वर्ष 2007 के बाद से राज्य में कुल मौसमी वर्षा असामान्य रूप से कम रही है। इस साल नेपाल में हुई भारी वर्षा के कारण बाढ़ ने राज्य में विकराल रूप धारण कर लिया था।” उत्तर प्रदेश में भी मिर्जापुर, बलिया और वाराणसी सहित कई जिलों में गंगा खतरे के निशान से ऊपर बह रही थी। वहीं इलाहाबाद के कुछ हिस्से 21 अगस्त को बाढ़ से जलमग्न रहे।
जयपुर स्थित मालवीय नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में सिविल इंजीनियरिंग विभाग के प्रोफेसर वाई.पी. माथुर ने बताया कि राजस्थान में इस बार जुलाई तक सब कुछ सामान्य था। लेकिन अगस्त में इतनी तेज बारिश हुई, जितनी पहले कभी नहीं हुई थी। ग्यारह अगस्त को राज्य के अधिकतर हिस्सों में सामान्य से 100 फीसदी अधिक बारिश हुई। पाली और सीकर जिलों में सामान्य से करीब 1,059 और 1100 फीसदी तक अधिक बारिश हुई। स्थानीय समाचारपत्रों के अनुसार, जोधपुर में उस दिन पिछले 90 वर्षों के इतिहास में सबसे अधिक बारिश हुई। टोंक जिले में बाढ़ को रोकने के लिये बिलासपुर बाँध के फाटक खोलने पड़े। ऐसा करने से अतिरिक्त पानी बनास नदी में निकल जाता है। अगस्त 20-21 को प्रदेश के 16 मौसम विज्ञान केन्द्रों ने एक बार फिर भारी बारिश की घटनाओं को दर्ज किया। जलवायु परिवर्तन पर राजस्थान सरकार के वर्ष 2010 में बने कार्ययोजना मसौदे के अनुसार, राज्य में चरम वर्षा की घटनाओं की आवृत्ति और तीव्रता में साल 2017 से 2100 के दौरान 20 मिमी वृद्धि होने की सम्भावना है।
अध्ययनों से पता चलता है कि मानसून से सम्बन्धित बारिश कम होने के बावजूद देश में विशेष रूप से जुलाई-अगस्त में चरम वर्षा की घटनाएँ बढ़ रही हैं। नेचर क्लाइमेट चेंज नामक जर्नल में वर्ष 2014 में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, दक्षिण एशियाई मानसून के दौरान अत्यन्त वर्षा और बहुत शुष्क दौर की आवृत्ति 1980 के बाद बढ़ी है।
विश्वव्यापी है यह कहर
हालाँकि, मानसून के दौरान बिजली गिरने से होने वाली मौतें आम बात हैं, लेकिन इस बार 31 जुलाई से तीन अगस्त के बीच इस तरह की घटनाएँ बहुत अधिक देखी गईं। इन चार दिनों में उड़ीसा में बिजली गिरने से कम-से-कम 56 लोगों की मौत हो गई। इस साल मानसून की शुरुआत में ही बिजली गिरने से आठ राज्यों में कम-से-कम 400 लोगों की मौत हुई है। चीन में भी इस साल तेज बारिश और बाढ़ से करीब 400 लोगों की मौत हो गई और जुलाई के महीने में तकरीबन एक लाख लोग विस्थापित हो गए। अगस्त की शुरुआत में भारी बरसात ने अमेरिका के कुछ हिस्सों में भी कहर बरपाया।
तूफान, बादल फटना और बाढ़ जैसी घटनाएँ दुनियाभर में तबाही मचा रही हैं। तमाम उपग्रह तकनीक और उपायों के बावजूद वैज्ञानिकों के लिये इन घटनाओं की भविष्यवाणी करना मुश्किल होता जा रहा है। वैज्ञानिकों के बीच इस बात पर आम सहमति बनती दिख रही है कि भविष्यवाणी में अनिश्चितता की वजह बादल हैं।
पुणे स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मेट्रोलॉजी में भौतिकी एवं उष्णदेशीय मेघ कार्यक्रम की मुख्य परियोजना वैज्ञानिक थारा प्रभाकरन के मुताबिक, “यह सब जानते हैं कि बादल ही मौसम के वाहक हैं। वे जल चक्र को सक्रिय करते हैं जिसकी वजह से बारिश होती है।” ये बादल वैश्विक जलवायु प्रणालियों और उनके स्थानीय प्रभाव के बीच मध्यस्थ के तौर पर भी काम करते हैं। फिर भी वैज्ञानिकों में बादलों को लेकर काफी कम समझ है।
बाढ़ के लिये वायु प्रदूषण जिम्मेदार!
जैसे-जैसे मौसम से सम्बन्धित चरम घटनाओं की आवृत्ति बढ़ रही है, वैज्ञानिक भी बादलों के पीछे का रहस्य सुलझाने को बेचैन हो रहे हैं। अब ज्यादातर वैज्ञानिकों ने बादल के एक विशेष पहलू की पहचान कर ली है, जो बादल के निर्माण और विकास में अहम भूमिका निभाता है और जाहिर तौर पर मौसम को प्रभावित करता है। यह है एरोसोल।
एरोसोल ऐसे कार्बनिक और अकार्बनिक कण हैं जो वातावरण में लगातार उत्सर्जित किये जा रहे हैं। ये प्राकृतिक भी हो सकते हैं जैसे धूल, ज्वालामुखी से निकली राख और पौधों से उत्सर्जित वाष्प। या फिर कृत्रिम जैसे खेती से निकली धूल, वाहनों से निकला धुआँ, खानों से उत्सर्जन और ताप विद्युत संयंत्रों से निकली कालिख भी एरोसोल उत्सर्जन के लिये जिम्मेदार है। यही सूक्ष्म प्रदूषक (कण) उस जगह का निर्माण करते हैं, जहाँ वाष्प संघटित होकर वर्षा की बूँदों को तैयार करती है। प्रभाकरन कहती हैं, “माना जाता है कि बादलों का मौसम पर पड़ने वाला प्रभाव इसी सूक्ष्म स्तर से शुरू होता है।” उदाहरण के लिये वातावरण में एरोसोल के प्रकार और उनकी बहुतायत बादलों के व्यवहार को नियन्त्रित करती है। आसमान में निचले बादल सौर विकिरण को रोकते हैं जिससे पृथ्वी ठंडी रहती है। जबकि अपेक्षाकृत ऊँचे बादल धरती से वापस विकिरण को रोक लेते हैं जिससे धरती का तापमान बढ़ जाता है। ये दोनों प्रक्रियाएँ न हो तो पृथ्वी सात डिग्री गर्म रहेगी।
यरूशलेम में हिब्रू विश्वविद्यालय के इंस्टीट्यूट ऑफ अर्थ साइंस के प्रोफेसर डेनियल रोजेन्फेल्ड ने बताया कि एरोसोल की संख्या जितनी अधिक होगी, बादल में बूँदों की संख्या उतनी ही ज्यादा रहेगी। हालाँकि, बादल में अधिक बूँदों से जरूरी नहीं कि वर्षा भी अधिक ही हो। कई बार पानी की बूँदें बहुत छोटी-छोटी बनती है जिनसे बारिश नहीं हो पाती। बड़ी बूँदें ही बरसात कराती हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो प्रदूषित हवा बरसात नहीं होने देती।
वाटर रिसोर्स रिसर्च जर्नल में वर्ष 2008 में प्रकाशित एक अध्ययन रोजेन्फेल्ड के अवलोकन की पुष्टि करता है। धूल और वर्षा आपस में किस प्रकार सम्बन्धित है, इसे समझने के लिये अमेरिका के वर्जीनिया विश्वविद्यालय और नासा के गोडार्ड इंस्टीट्यूट फॉर स्पेस स्टडीज के शोधकर्ताओं ने एरोसोल सूचकांक, बहने वाली हवा की दिशा और मध्य व उत्तरी अफ्रीका के साहेलियन विस्तार का 1996 से 2005 तक विश्लेषण किया। उनके विश्लेषण से पता चलता है कि छोटे-छोटे धूल कणों ने तमाम छोटी बूँदों के लिये जगह बनाई, जिससे बरसात के लिये जरूरी बड़ी बूँदें नहीं बन पाईं। रोजेन्फेल्ड का कहना है कि हल्के बादलों के लिये यह सामान्यतः सही है, लेकिन प्रदूषित बादल बड़ी तबाही लाने में सक्षम हैं।
बिजली चमकने और बादल फटने में भी है इसकी भूमिका
रोजेन्फेल्ड का कहना है कि संवहन के कारण कभी-कभी प्रदूषित बादल काफी ऊँचाई तक चले जाते हैं। ऊँचाई पर जाकर बादल की बूँदों का व्यवहार बदल जाता है। वहाँ वे आपस में मिलकर पर्याप्त बड़ा आकार पाने में सक्षम हो जाती हैं और फिर ये बूँदें वर्षा के रूप में गिरती हैं।
नई दिल्ली स्थित भारतीय मौसम विज्ञान केन्द्र में क्षेत्रीय मौसम विभाग के प्रमुख एम. मोहपात्रा के मुताबिक, इन बादलों को ‘क्यूमूलोनिम्बस’ के तौर पर जाना जाता है, जो बवंडर, ओलावृष्टि, तूफान और बादल फटने जैसी मौसम की चरम घटनाओं के लिये जिम्मेदार है।
एरोसोल का मौसम के उतार-चढ़ाव पर अच्छा-खासा प्रभाव पड़ सकता है। बादल में पानी की मात्रा को एक बार में बरस पड़ने के लिये मात्र एक ट्रिगर या सक्रिया बिन्दु ही चाहिए। यही वजह है कि ऊँचे बादल जब हिमालय घाटी की तरफ बढ़ते हैं तो अक्सर बादल फटने की घटना हो जाती हैं।
आईआईटी दिल्ली के वायुमण्डलीय विज्ञान केन्द्र में सहायक प्रोफेसर साग्निक डे कहते हैं, “यह सच है कि आज के समय में बादलों के गुण को लेकर आँकड़ों की भारी कमी है।” बेहतर और विस्तृत उपग्रह चित्रण की वजह से जैसे-जैसे सही और अधिक आँकड़े उपलब्ध हो रहे हैं, वैज्ञानिकों का रुझान भी बादलों के बदलते स्वरूप और इसके परिणामस्वरूप मौसम की असामान्य घटनाओं को समझने की तरफ बढ़ रहा है।
प्रदूषण बढ़ने के साथ कम हो गए हैं मानसूनी बादल वातावरण में छोटे कणों की मात्रा में बहुत निम्न बढ़ोत्तरी भी धरती पर पहुँचने वाले सूर्य के प्रकाश को अवशोषित कर भूमि की सतह पर पहुँचने वाली सौर किरणों की तीव्रता को कम कर सकते हैं। इससे पृथ्वी पर तापमान में कमी आती है और इससे मानसून भी प्रभावित होता है। इन प्रदूषित कणों से बनने वाले बादल से बारिश होने की सम्भावना कम होती है, क्योंकि ये बूँदें काफी छोटी रहती हैं। लम्बे समय तक वातावरण में मौजूद रहने वाली ये छोटी बूँदें मौसम को ठंडा करती हैं, साथ ही परिसंचरण को कमजोर करती हैं। प्रदूषण किस हद तक भारत में बादल, वर्षा और कृषि को प्रभावित करता है, अभी भी एक जिज्ञासा और अध्ययन का विषय है। विश्व के कई नामी संस्थान इस सवाल का जवाब खोजने में लगे हैं। इनमें शोध के उन्नत तौर-तरीकों और अत्यन्त अधिक क्षमता वाले कम्प्यूटर अनुप्रयोगों के माध्यम से करोड़ों की तादाद में होने वाली सूक्ष्म प्रक्रियाओं का अध्ययन किया जा रहा है। इन बादल के मॉडल के अध्ययन से प्राप्त नतीजों से पता चलता है कि कैसे प्रदूषण के स्तर में परिवर्तन बादलों की प्रवृत्ति में बदलाव लाता है। भारत में मौसम पर्यवेक्षकों ने कई बार बताया है कि प्रदूषण के बढ़ने के साथ-साथ मानसून सम्बन्धी बादलों में कमी आई है। इस तरह के नतीजे दशकों के निरन्तर निरीक्षण और दुनियाभर में बड़ी गहनता से हुए आँकड़ों के विश्लेषण और सांख्यिकीय अध्ययन का नतीजा है। भारतीय मानसून द्वारा प्रभावित पृथ्वी का तापमान (गर्मी) और वायुमण्डल में नमी की मात्रा, तरंगों को व्यापक स्तर पर प्रभावित करने के लिये काफी है। इससे पूरी दुनिया का मौसम प्रभावित होता है। अन्य उष्णकटिबन्धीय परिसंचरण भी विश्व के मौसम पर ऐसे महत्त्वपूर्ण असर डालते हैं। मौसम से सम्बन्धित वैश्विक नेटवर्क स्टेशनों के साथ बादल अवलोकन उपग्रह से पता चलता है कि अकेले भारतीय मानसून का छह महाद्वीपों के बादलों में परिवर्तन से सम्बन्ध है। रयान इस्टमैन, यूनिवर्सिटी ऑफ वाशिंगटन के वायुमण्डलीय विज्ञान विभाग में कार्यरत हैं। |
/articles/baadha-kae-laiyae-kaauna-jaimamaedaara