बाढ़ और सूखा पुराने जमाने से ही हमारे जीवन को परेशानी में डालते रहे हैं। बाढ़ और सूखा केवल प्राकृतिक आपदाएं भर नहीं हैं, बल्कि ये एक तरह से प्रकृति की चेतावनियाँ भी हैं। सवाल यह है कि क्या हम पढ़-लिख लेने के बावजूद प्रकृति की इन चेतावनियों को समझ पाते हैं।
पिछले कई दिनों से बारिश होने के कारण महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश, गुजरात और असम समेत देश के अनेक राज्य बाढ़ से जूझ रहे हैं। बाढ़ के कारण कई राज्यों में जनजीवन बुरी तरह से प्रभावित हुआ है। भारी बारिश के कारण कई नदियों का जलस्तर लगातार बढ़ रहा है। इस कारण देश के अनेक गाँवों का संपर्क पूरी तरह से कट गया है। मौसम विभाग ने भारी बारिश के चलते देश के विभिन्न भागों में हाई अलर्ट जारी किया है। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि एक तरफ देश के कई इलाकों में बाढ़ के चलते हालात लगातार खराब हो रहे हैं तो दूसरी उचित कार्य योजना के अभाव में जनता को तमाम परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है।
हमारे देश में अनेक स्थान ऐसे हैं कि जहाँ पहले लोगों को सूखे का सामना करना पड़ता है और फिर बाढ़ से जूझना पड़ता है। देश के अनेक भागों में पानी की निकासी के प्रबंधन की कमी भी इस बाढ़ के लिये जिम्मेदार है। इस दौर में हमें यह समझने की जरूरत है कि किसी गंभीर योजना के अभाव में किसी भी प्रकार का विकास अपने साथ केवल विनाश लेकर आता है। विडंबना यह है कि देख के कई स्थानों पर नियम-कानूनों को ताक पर रखकर तालाबों की भूमि पर कंक्रीट के जंगल खड़े कर दिये गए हैं।
बाढ़ और सूखा पुराने जमाने से ही हमारे जीवन को परेशानी में डालते रहे हैं। बाढ़ और सूखा केवल प्राकृतिक आपदाएं भर नहीं हैं, बल्कि ये एक तरह से प्रकृति की चेतावनियाँ भी हैं। सवाल यह है कि क्या हम पढ़-लिख लेने के बावजूद प्रकृति की इन चेतावनियों को समझ पाते हैं। यह विडंबना ही है कि पहले से अधिक पढ़े-लिखे समाज में प्रकृति के साथ सामंजस्य बैठाकर जीवन जीने की समझदारी अभी भी विकसित नहीं हो पाई है। बाढ़ और सूखे जैसी प्राकृतिक आपदाएं पहले भी आती थीं, लेकिन उनका अपना एक अलग शास्त्र और तंत्र था।
इस दौर में मौसम विभाग की भविष्यवाणियों के बावजूद भी हम बाढ़ का पूर्वानुमान नहीं लगा पाते हैं। दरअसल प्रकृति के साथ जिस तरह का सौतेला व्यवहार हम कर रहे हैं उसी तरह का सौतेला व्यवहार प्रकृति भी हमारे साथ कर रही है। पिछले कुछ समय से भारत को जिस तरह से सूखे और बाढ़ का सामना करना पड़ा है वह आईपीसीसी की जलवायु परिवर्तन पर आधारित उस रिपोर्ट का ध्यान दिलाती है जिसमें जलवायु परिवर्तन के कारण देश को बाढ़ और सूखे जैसी आपदाएं झेलने की चेतावनी दी गई थी।
आज ग्लोबल वार्मिंग जैसा शब्द इतना प्रचलित हो गया है कि इस मुद्दे पर हम एक बनी-बनाई लीक पर ही चलना चाहते हैं। यही कारण है कि कभी हम आईपीसीसी की रिपोर्ट को संदेह की नजर से देखने लगते हैं तो कभी ग्लोबल वार्मिंग को अनावश्यक हौव्वा मानने लगते हैं। यह विडंबना ही है कि इस मुद्दे पर हम बार-बार सच से मुँह मोड़ना चाहते हैं। दरअसल प्रकृति से छेड़छाड़ का नतीजा जलवायु परिवर्तन के किस रूप में हमारे सामने होगा, यह नहीं कहा जा सकता है। जलवायु परिवर्तन का एक ही जगह पर अलग-अलग असर हो सकता है। यही कारण है कि हम बार-बार बाढ़ और सूखे का ऐसा पूर्वानुमान नहीं लगा पाते हैं जिससे कि लोगों के जान-माल की समय रहते पर्याप्त सुरक्षा हो सके।
गौरतलब है कि 1950 में हमारे यहाँ लगभग ढाई करोड़ हेक्टेयर भूमि ऐसी थी जहाँ पर बाढ़ आती थी, लेकिन अब लगभग सात करोड़ हेक्टेयर भूमि ऐसी है जिस पर बाढ़ आती है। बाढ़ के पानी की निकासी का कोई समुचित तरीका भी नहीं है। हमारे देश में केवल चार महीनों के भीतर ही लगभग अस्सी फीसद पानी बरसता है। उसका वितरण इतना असमान है कि कुछ इलाके बाढ़ और बाकी इलाके सूखा झेलने को अभिशप्त हैं। इस तरह की भौगोलिक असमानताएं हमें बहुत कुछ सोचने को मजबूर करती हैं। पानी का सवाल हमारे देश की जैविक आवश्यकता से भी जुड़ा है। 2050 तक हमारे देश की आबादी लगभग एक सौ अस्सी करोड़ होगी।
ऐसी स्थिति में पानी के समान वितरण की व्यवस्था किये बगैर हम विकास के किसी भी आयाम के बारे में नहीं सोच सकते हैं। हमें यह सोचना होगा कि बाढ़ के पानी का सदुपयोग कैसे किया जाए। गौरतलब है कि पूरे देश में बाढ़ से होने वाले नुकसान का लगभग साठ फीसद नुकसान उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, बिहार और आंध्र प्रदेश में आई बाढ़ के माध्यम से होता है। बाढ़ पर राष्ट्रीय आयोग की रिपोर्ट के अनुसार हमारे देश में बाढ़ के कारण हर साल लगभग एक हजार करोड़ रुपये का नुकसान होता है।
यह नुकसान लगातार बढ़ता ही जा रहा है। पूरे विश्व में बाढ़ से होने वाली मौतों में पाँचवाँ हिस्सा भारत का है। बाढ़ केवल हमारे देश में ही कहर नहीं ढा रही है, बल्कि चीन, बांग्लादेश, पाकिस्तान और नेपाल जैसे देश भी इसी तरह की समस्या से जूझ रहे हैं। बाढ़ और सूखे की समस्या से जूझने के लिये कुछ समय पहले नदियों को आपस में जोड़ने की योजना अस्तित्व में आई थी, लेकिन वह आगे नहीं बढ़ सकी।
पर्यावरणीय कारणों से कुछ पर्यावरणविदों ने भी इस परियोजना पर अपनी आपत्ति जताई थी। हालाँकि चीन में नदियों को जोड़ने की परियोजना पर कार्य चल रहा है, लेकिन चीन की इस योजना से भारत और बांग्लादेश जैसे देश प्रभावित हो सकते हैं। इसलिये भारत और बांग्लादेश को नदियों को जोड़ने वाली चीन की इस परियोजना पर ऐतराज है। बहरहाल नदियों को जोड़ने की परियोजना पर अभी व्यापक बहस की गुंजाईश है।
हालाँकि हमारे देश में सूखे और बाढ़ से पीड़ित लोगों के लिये अनेक घोषणाएँ की जाती हैं, लेकिन मात्र घोषणाओं के सहारे ही पीड़ितों का दर्द कम नहीं होता है। आपदाओं के समय सरकार आपदा कोष बनाती है। स्वयंसेवी संस्थाएं भी अपने-अपने तरीके से पीड़ितों की मदद करती हैं। इसके बावजूद आपदा के समय भी कुछ राजनेता और अफसर भ्रष्टाचार में लिप्त पाए गए हैं। ऐसे लोग अक्सर मौके की तलाश में रहते हैं और मौका मिलते ही अपनी जेब भरने की कोशिश में लग जाते हैं। कुछ लोगों द्वारा अपने जेब भरने की यह कोशिश ही सारी व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह लगा देती है। मानवीयता का तकाजा यह है कि सरकार केवल घोषणाओं तक ही सीमित न रहे, बल्कि यह भी सुनिश्चित करे कि इन घोषणाओं का लाभ वास्तव में पीड़ितों तक पहुँचे।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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