पूरब के राज्यों में अंग्रेजों के समय से रेल के जाल बिछने और पानी के रास्तों को कहीं छोटे से पुल और पुलिया से रास्ता देने की कोशिश बाढ़ की एक बड़ी वजह है। बरसात के दिनों में रेल में सफर करते हुए इस बात का मर्म कोई भी समझ सकता है। रेल की पटरी के किनारे खाली जमीन पर दूर तलक पानी पसरा हुआ आप देख सकते हैं। अब हाइवे को बनाने के खेल में गुजरात की बाढ़ को इसी संदर्भ में समझा जाना जरूरी है। अभी वहां अहमदाबाद से बड़ौदा हाईवे तैयार किया गया है।
मानसून की पहली फुहार ने ही मुंबई की चकाचौंध दुनिया को पानी-पानी कर दिया। पूरे महाराष्ट्र में 19 लोगों की जान चली गई। सभी मौतें शहरों में ही हुई हैं। 13 घंटे की बारिश में कुल 118 मिलीमीटर पानी गिरा। जनजीवन पूरी तरह से अस्त-व्यस्त हो गया। जलमग्न सड़कों पर बेहाल होती जिंदगी पर पिछले साल के कहर का साया मंडराते हुए देखा जा सकता था।पिछले साल बारिश से आई बाढ़ और उसके फलस्वरूप महामारी ने सैकड़ों लोगों की जान ले ली थी। आलम तो यह है कि बृहन् मुंबई नगरपालिका, मुंबई ने पिछले परेशानियों से लड़ने के कोई रास्ते तैयार करने में कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाई, सिवाय इसके कि मीठी नदी की बेसिन पर बन चुके झोपड़ियों को उखाड़ने के।
बाढ़ के कारण के रूप में मीठी नदी सहित कई नदियों के बेसिन के संकुचन को चिन्हित किया गया था। बारिश के बाद की तबाही ने कई बातें उजागर कीं। उसमें जो एक सबसे महत्वपूर्ण बात सामने आई वो यह थी कि मीठी नदी के बहुत बड़े भाग का अधिग्रहण करके उसमें हवाई अड्डा को जगह दी गई है। दरअसल हमारे जो विकास के नियामक हैं, वे कभी भी बहुत व्यावहारिक नहीं रहे हैं। अन्यथा 2001 की जनगणना के अनुसार अकेले महाराष्ट्र में 7 ऐसे शहर हैं जो दस लाख से बहुत ज्यादा आबादी वाले हैं।
बृहन् मुंबई की आबादी 2001 के अनुसार 11,914,398 है। यह आबादी भारत के किसी भी शहर से ज्यादा है। वस्तुतः विकास के केन्द्रीकरण से आबादी का संकुचन भी उन्हीं शहरों के इर्द-गिर्द होता चला गया। आबादी का बहुत ज्यादा भार महानगरों या उपनगरों या नए नगरों पर गुणात्मक रूप से बढ़ने लगा।
खेती में मुनाफा घटता चला गया। मंडी में फसलों की उचित कीमत किसानों को मिल सके, इसकी कोई व्यवस्था कभी नहीं की गई। परिणामतः गांवों में रहने वाली आबादी शहरों की ओर रुख करने लगी। भारत की कुल आबादी का 1961 में 17.97 फीसदी शहरी था जो 2001 में बढ़कर 27.78 फीसदी हो गया है। इस बढ़ते दबाव के लिए जो इंतजामात सरकारी हुक्मरानों को करनी थी, वह उसमें ईमानदारी बरत नहीं पाए। इस बढ़ती आबादी के बसाव और ज्यादा मुनाफे के चक्कर में नदी, तालाबों पर जबरन अधिकार जमाकर उन पर कंक्रीट के जंगल उगा दिए गए।
1950 के आसपास अकेले दिल्ली में कुल 350 तालाब थे। हैरत है कि आज मुश्किल से 5 भी नहीं रह गए हैं। नतीजा यह हुआ कि एकतरफ पानी की दिक्कतें बढ़ती चली गईं तो दूसरी तरफ बरसात के बाद पानी के उतरने की कोई जगह नहीं बच गई। यही कारण है कि थोड़ी-सी बारिश भी राज्य सरकार और प्रशासन के लिए सिरदर्द साबित होता रहा है। कमोबेश यह बात पिछले साल के सारी ऐसी जगहों पर आए बाढ़, जहां बाढ़ कभी नहीं आती थी वहां के लिए लागू होती है। पहले घीरे-धीरे लेकिन अब तो तेजी से होते विकास की वास्तविकता को समझा जाना जरूरी हो गया है।
नदियों पर जगह-जगह बने बांध ने भी बाढ़ की विकरालता को बढ़ाया है। फरक्का बैराज बनने से पहले वर्दवान जिला, बंगाल में गंगा की चौड़ाई एक किनारे से दूसरे किनारे तक खुली आंखों से देखा जाना संभव नहीं होता था। परंतु इसकी चौड़ाई अब वहां ढेड़ किलोमीटर भी नहीं रह गई है। जगह की कमी और लाचारीवश लोग इसके गोद में बसने लगे। इसके तट पर बसे शहरों मालदा, साहेबगंज, भागलपुर, पटना, इलाहाबाद और कानपुर सभी जगहों पर बारिश गिरने के बाद बहुत लंबे समय तक पानी सड़कों और घरों में ठहरा रह जाता है।
इससे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से काफी नुकसान पहुंचता है। पूरब के राज्यों में अंग्रेजों के समय से रेल के जाल बिछने और पानी के रास्तों को कहीं छोटे से पुल और पुलिया से रास्ता देने की कोशिश बाढ़ की एक बड़ी वजह है। बरसात के दिनों में रेल में सफर करते हुए इस बात का मर्म कोई भी समझ सकता है। रेल की पटरी के किनारे खाली जमीन पर दूर तलक पानी पसरा हुआ आप देख सकते हैं। अब हाइवे को बनाने के खेल में गुजरात की बाढ़ को इसी संदर्भ में समझा जाना जरूरी है। अभी वहां अहमदाबाद से बड़ौदा हाईवे तैयार किया गया है।
इन दोनों शहरों के बीच की दूरी अब बहुत कम हो गई है। परंतु इस हाईवे को बनाने में खाली जगहों पर कई मीटर मिट्टी डालकर बहुत सारी लेन वाली सड़कें हमने तैयार कर दीं। बरसात के पानी को निकालने की जगह को तो हमने कम कर दिया। निश्चित तौर पर गुजरात में आने वाले समय में बाढ़ की घटनाएं और बढ़ेंगी। इसका कारण यह है कि वहां नदियों से खूब सारी नहरें निकाली जा रही हैं। सिद्धांततः नहरें पानी लाने का काम करती हैं और नदियां पानी निकालने का। नदियों से नहर निकालने के कारण नदी की गति कम हो जाती है।
इससे नदियों में अवसादीकरण की प्रक्रिया तेज हो जाती है। अवसादीकरण से नदियों का तल उथला होता जा रहा है। पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र के अनुसार विकास के आधुनिक तरीके अपनाने में हम प्रकृति की दिनचर्या और उसके तौर-तरीकों को नजरअंदाज कर देते हैं और जब उसका कहर हमारे अपने कारणों से हमपर बरपता है तब सारा दोष हम प्रकृति पर मढ़ने में देर नहीं लगाते हैं।
Path Alias
/articles/baadha-kaa-saharaikarana
Post By: Shivendra