प्रस्तावना
हमारे देश के अलग-अलग स्थानों पर जल, वर्षा अथवा हिमपात के रूप में प्राप्त होता है। वर्षा के रूप में प्राप्त जल की समय एवं स्थान के साथ भिन्नता के कारण कभी कहीं सूखा तो कभी कहीं बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। गांव हो या शहर, क़स्बा हो या महानगर भारतीयों के लिए बाढ़ कोई अनजान शब्द नहीं है। पहाड़ी इलाके हों या मरूस्थल या फिर मैदानी क्षेत्र हर जगह के निवासियों के लिए बाढ़ एक कड़वा अनुभव है। वर्ष 2005 में मुम्बई में मूसलाधार बारिश, वर्ष 2008 में कोसी नदी की बाढ़ तथा इस वर्ष जगह-जगह बादल फटने की घटनाएँ कहीं इस बात का संकेत तो नहीं कि मनुष्य द्वारा प्रकृति का अत्यधिक दोहन जलवायु में परिवर्तन ला रहा है। देश के कई इलाके जहाँ मानसून के लिए टकटकी लगाए बैठे रहते हैं, वहीं कई अन्य क्षेत्रों में अत्यधिक वर्षा एवं बादल फटने की घटनाएँ बाढ़ का कारण बन जाती हैं। पहली बारिश के साथ ही कई बड़े शहरों में पानी भर जाता है तथा नदियों का रौद्र रूप गांव के गांव बहा ले जाता है। हमारे देश में प्रत्येक वर्ष विभिन्न क्षेत्रों में बाढ़ भिन्न-भिन्न रूप में आती है। हर साल बाढ़ रोकने की कोशिशें की जाती हैं। उससे निपटने के उपाय किए जाते हैं किंतु फिर भी किसी न किसी रूप में बराबर आने वाला प्रकृति का यह प्रकोप हमें बाढ़ के विभिन्न कारणों के अध्ययन और उपायों के बारे में सोचने को मजबूर कर जाता है।
हमारे देश में वर्ष 1978 में ‘राष्ट्रीय बाढ़ आयोग’ के गठन से लेकर आज तक बाढ़ के कारणों के अध्ययन एवं उसके प्रबंधन के लिए अनगिनत कार्यक्रम संचालित किए गए हैं। जहाँ एक ओर इन कार्यक्रमों से हमें बाढ़ प्रबंधन में कुछ सफलता प्राप्त हुई है, वहीं दूसरी ओर बाढ़ के रूप में प्रकृति का और अधिक प्रलयकारी स्वरूप हमारे आगे चुनौती बना खड़ा है। इस लेख में ग्लोबल वार्मिंग के इस युग में बादल फटना, ग्लेशियर झील तथा बाढ़ के अन्य विभिन्न रूपों की चर्चा कर बाढ़ प्रबंधन विषय पर प्रकाश डालने का प्रयत्न किया गया है।
बाढ़ एवं जलवायु परिवर्तन
जल-चक्र और मौसम के बीच करीबी संबंधों के कारण जलवायु परिवर्तन वर्षा जल की उपलब्धता पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाल सकता है। विभिन्न वैज्ञानिक अध्ययनों में यह निष्कर्ष निकाला गया है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण वाष्पीकरण में वृद्धि होगी, वर्षा में क्षेत्रीय विविधता बढ़ेगी, सूखा एवं बाढ़ विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग समय पर अक्सर हो सकते हैं, पहाड़ी क्षेत्रों में बर्फबारी और तुषार पिघलाव की संभावना हो सकती है।
हमारा देश हर वर्ष बाढ़ की विभीषिका को झेलता आ रहा है। और इस कारण लगातार जान-माल का अत्यधिक नुकसान हो रहा है। विगत कुछ वर्षों से बाढ़ के स्वरूप प्रवृत्ति व आवृत्ति में होने वाले परिवर्तनों को जलवायु परिवर्तनों के साथ जोड़कर देखा जा रहा है। वैसे तो इस देश के लिए बाढ़ कोई नई बात नहीं है परन्तु आज यह माना जाने लगा है कि मौसम में हो रहे बदलाव ने इस प्राकृतिक क्रिया की तीव्रता व स्वरूप को बदल दिया है। यह अनुमान लगाया जा रहा है कि जलवायु परिवर्तन के कारण वर्षा या तो समयानुसार नहीं हो रही है या फिर कम समय में अधिक तीव्रता के साथ हो रही है। जलवायु परिवर्तन एवं वर्षा के इस बदलाव के कारण आने वाली बाढ़ आज इस बात का संकेत देती है कि हमें बाढ़ प्रबंधन के क्षेत्र में ऐसी वैज्ञानिक पद्धतियाँ विकसित करने की आवश्यकता है जो कि ग्लोबल वार्मिंग एवं जलवायु परिवर्तन के विभिन्न पहलुओं को समायोजित कर सके।
बाढ़ के कारण
हमारे देश में नदी तंत्र के किसी भाग में बाढ़ आने के विभिन्न कारण हैं, जिनमें अधिकांशत: वहाँ की जलवायु से संबंधित हैं। साधारणत: बाढ़ की स्थिति विभिन्न परिस्थितियों को दर्शाती है, जो कि नीचे दी गई हैं -
- (1) किसी स्थान पर काफी समय अत्यधिक वर्षा का होना।
- (2) बादल फटना।
- (3) अत्यधिक वर्षा के साथ नदी का उफनना।
- (4) ग्लेशियर झीलों के टूटने से होने वाली बाढ़।
- (5) चक्रवात के कारण अत्यधिक वर्षा होना।
- (6) कम क्षमता वाली नदियों का बरसात में उफनना।
- (7) मुख्य नदियों से जुड़ने वाली नदियों में बैक वाटर के कारण जल स्तर बढ़ना।
- (8) जमीन के धंसने तथा खिसकने के कारण नदियों का बाधित होना।
- (9) ज्वार-भाटे के कारण समुद्र के नज़दीक क्षेत्रों में बाढ़ आना।
- (10) बाढ़ नियंत्रण संरचनाओं के टूटने से होने वाली बाढ़।
हमारे देश में बाढ़ की कोई एक वजह नहीं है। असम सहित पूर्वोत्तर राज्यों में बाढ़ का सबसे बड़ा कारण चीन और ऊपरी क्षेत्रों में भारी वर्षा का होना है। हिमालय के अधिक ढाल वाले ऊपरी क्षेत्र से जब वर्षा का जल निचले कम ढाल वाले क्षेत्र में नदियों व नालों के रूप में आता है तो वहाँ भयंकर बाढ़ व तबाही मचा देता है। कुछ इसी तरह की कहानी बिहार की भी है। बिहार में बहने वाली कोसी, गण्डक, बूढ़ी गण्डक जैसी नदियों का उद्गम स्थल नेपाल और तिब्बत की सीमा है। तिब्बत तथा नेपाल में भारी वर्षा के चलते ये नदियाँ बिहार के मैदानी क्षेत्र में अत्यधिक जल व बाढ़ लेकर आती हैं। बिहार में इन नदियों का ढाल कम होने के कारण नदी की तीव्रता कम हो जाती है और गाद वहीं रूकने लगता है तथा यह नदियों की तीव्रता को कम कर देता है और नदियाँ उफनने लगती हैं। गण्डक, बूढ़ी गण्डक तथा कोसी नदियाँ बिहार में गंगा नदी की मुख्य धारा में जुडती हैं। कभी-कभी ऐसा समय भी होता है कि गंगा नदी पहले ही उफान पर होती है। और जब इसमें उफनती हुई गण्डक, बूढ़ी गण्डक और कोसी नदियाँ मिलती हैं तो बिहार में बाढ़ की स्थिति भयावह हो जाती है। मध्य एवं दक्षिणी भारत की मुख्य नदियाँ नर्मदा, तापी, महानदी, गोदावरी, कृष्णा एवं काबेरी हैं। इस क्षेत्र में वैसे तो बाढ़ की बहुत गंभीर समस्या नहीं है किंतु कुछ स्थानों एवं डेल्टा क्षेत्र में बाढ़ एवं जल जमाव की समस्या बनी रहती है।
इसके अलावा बाढ़ का एक बड़ा कारण पारिस्थितिकी बदलाव भी है। ‘इन्टरगवर्न्मैंटल पैनल ऑफ क्लाइमेट चेन्ज’ की रिपोर्ट के अनुसार पूरी दुनिया के तापमान में 0.78 सैंटीग्रेट की वृद्धि के चलते ग्लेशियर पिघल रहे हैं। ग्लेशियरों के पिघलने से ऊपरी हिमालय क्षेत्र में कई झीलों का निर्माण हुआ है। 2005 में मुम्बई में हुई मूसलाधार वर्षा को भी वैज्ञानिक पारिस्थितिकीय बदलाव के रूप में देख रहे हैं।
हमारे देश में बाढ़ की विभीषिका का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र 32.9 करोड़ हेक्टेयर में से केंद्रीय बाढ़ नियंत्रण आयोग के अनुसार बाढ़ के खतरे वाला क्षेत्र 4 करोड़ हेक्टेयर है। वैसे तो भारत में हर वर्ष कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में बाढ़ आती रहती है। किंतु बाढ़ ने सबसे ज्यादा तबाही वर्ष 1955, 1971, 1973, 1977, 1978, 1980, 1984, 1988, 1998, 2001, 2004, 2008 और 2010 में मचाई है। बाढ़ के विभिन्न रूपों के प्रबंधन के लिए लगातार प्रयास किए जाते रहे हैं। परन्तु बादल फटना और ग्लेशियर झील जैसे बाढ़ के खतरे पर अभी बहुत वैज्ञानिक कार्य किया जाना बाकी है। इस लेख में वैसे तो बाढ़ के विभिन्न कारणों तथा प्रबंधन की अलग-अलग स्थान पर चर्चा की गई है परन्तु विस्तार से बाढ़ की इन दो घटनाओं की चर्चा प्रस्तुत है।
बादल फटना: क्या, क्यों, कैसे, कहाँ ?
बादल फटना पूरी दुनिया या फिर हमारे देश के लिए कोई नई घटना नहीं है। बादल फटने के कारणों को जानने से पहले यह समझना अत्यधिक आवश्यक है कि वर्षा कैसे होती है। वास्तव में वर्षा एक प्रकार का संघनन है। पृथ्वी की सतह पर पानी वाष्पित होकर ऊपर उठता है और ठंडा होकर पानी की बूंदों के रूप में पुनः धरती पर गिरता है। इसे वर्षा कहते हैं। समुद्र, झील, तालाब और नदियों का पानी सूर्य की गरमी से वाष्प बनकर ऊपर उठता है। इस वाष्प से बादल बनते हैं, ये बादल जब ठंडी हवा से टकराते हैं, तो इनमें रहने वाले वाष्प कण पानी की बूंद बन जाते हैं। इस प्रक्रिया को ऐसे समझा जा सकता है कि जब किसी ठंडे जल या पदार्थ से भरे गिलास की बाहरी सतह पर हवा टकराती है तो हवा में उपस्थित वाष्प कण संघनित होकर गिलास की बाहरी सतह पर जल की बूंदों के रूप में एकत्रित हो जाते हैं। प्राय: बूंदों वाले बादल भारी होकर धरती के पास आ जाते हैं और बूंदें धरती के आकर्षण शक्ति से खिंचकर वर्षा के रूप में बरस जाती हैं। किसी क्षेत्र में भारी वर्षा की संभावनाओं वाला बादल जब एकाएक बरस जाता है तो इसे बादल फटना कहते हैं। इसमें थोड़े ही समय में असामान्य बारिश होती है। बादल फटने से होने वाली वर्षा 100 मिमी./घंटा से ज्यादा की रफ्तार से होती है।
बादल फटना वर्षा का एक चरम रूप है। इस घटना में बारिश के साथ-साथ कभी-कभी गरज के साथ ओले भी पड़ते हैं। सामान्यतः बादल फटने के कारण सिर्फ कुछ मिनट तक मूसलाधार बारिश होती है और इस दौरान इतना पानी बरसता है कि क्षेत्र में बाढ़ जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है। बादल फटने की घटना अमूमन पृथ्वी से 15 किमी. ऊंचाई पर घटती है। इसके कारण कुछ ही मिनटों में 2 सेमी. से अधिक वर्षा हो जाती है और जिस कारण बहुत भारी तबाही हो जाती है। मौसम विज्ञान के अनुसार जब बादल भारी मात्रा में आर्द्रता लेकर आसमान में चलते हैं और उस दौरान उनकी राह में कोई बाधा आ जाती है, तब वह अचानक संघनित होकर बरस पड़ते हैं, यानि बादल फट पड़ते हैं। इस स्थिति में एक सीमित क्षेत्र में कई लाख लीटर पानी एक साथ पृथ्वी पर गिरता है जिसके कारण इस क्षेत्र में तेज बहाव वाली बाढ़ आ जाती है। हमारे देश के संदर्भ में देखा जाय तो हर साल मानसून के समय नमी को लिये हुए बादल उत्तर की ओर बढ़ते हैं और जहाँ हिमालय पर्वत एक अवरोधक के रूप में कार्य करता है।
कभी-कभी ऐसा भी देखा गया है कि जब कोई गर्म हवा का झोंका ऐसे बादल से टकराता है तब भी उसके फटने की आशंका बढ़ जाती है। जैसा कि 26 जुलाई 2005 में मुम्बई में बादल फटे थे। विश्व की कुछ बादल फटने की घटनाएँ, जिनके आंकड़े उपलब्ध हैं, निम्न तालिका में दी गई हैं:-
अवधि |
वर्षा |
स्थान |
दिनांक |
1 मिनट |
1.9 इंच (48.26 मिमी) |
लेह, जम्मू और कश्मीर, भारत |
06 अगस्त , 2010 |
1 मिनट |
1.5 इंच (38.10 मिमी) |
बरोत, हिमाचल प्रदेश, भारत |
26, नवम्बर, 1970 |
5 मिनट |
2.43 इंच (198.2 मिमी) |
पोर्ट बेल्स, पनामा |
29, नवम्बर, 1911 |
15 मिनट |
8.1 इंच (205.74 मिमी) |
प्लम्ब, प्वाइंट, जमैका |
12 मई, 1916 |
20 मिनट |
9.25 इंच (234.95 मिमी) |
कर्टी-दे-आर्गस, रोमानिया |
7 जुलाई, 1947 |
40 मिनट |
9.25 इंच (234.95 मिमी) |
गिनी, वर्जीनिया, संयुक्त राज्य अमेरिका |
24 अगस्त, 1906 |
भारत में बादल फटने की घटनायें
भारत में बंगाल की खाड़ी और अरब सागर से उठे मानसून के बादल जब उत्तर की ओर बढ़ते हैं तब उनका हिमालय के क्षेत्र में फटने का खतरा सबसे अधिक रहता है। जब वह बादल हिमालय से टकराकर फटते हैं तो क्षेत्र में 75 मिमी. प्रति घंटे या उससे अधिक दर से वर्षा होती है। भारत में बादल फटने की सबसे अधिक घटनायें हिमाचल प्रदेश में होती है। भारत में बादल फटने की प्रमुख घटनायें निम्न तालिका में दी गई हैं -
क्रमांक |
स्थान |
तिथि |
1 |
मंडी एवं सुकेती घाटी, हिमाचल प्रदेश 3 घंटे में 250 मिमी. वर्षा |
अगस्त 31, 1960 |
2 |
अलकनन्दा के ऊपरी क्षेत्र में बादल फटने से अल्कनन्दा नदी का जल स्तर 15 मीटर ऊपर हो गया |
जुलाई, 1970 |
3 |
चिनगाँव , शिमला, हिमाचल प्रदेश |
अगस्त, 15, 1997 |
4 |
मालपा गाँव, कालीधारी, कुमाऊँ |
अगस्त, 17, 1998 |
5 |
शीलागढ़ , कुल्लू , हिमाचल प्रदेश |
जुलाई, 16, 2003 |
6 |
अलकनन्दा नदी क्षेत्र, चमोली, उत्तराखंड |
जुलाई, 6, 2004 |
7 |
मावी गाँव, धानवी, हिमाचल्र प्रदेश |
अगस्त, 16, 2007 |
8 |
मुस्थाटी, पिथौरागढ़ , उत्तराखंड |
अगस्त, 7, 2009 |
9 |
लेह, जम्मू कश्मीर |
अगस्त, 6, 2010 |
10 |
कपकोट , बागेश्वर , उत्तराखंड |
अगस्त, 18, 2010 |
इस वैज्ञानिक युग में अभी तक बादल को फटने से रोकने के कोई ठोस उपाय नहीं हैं। किंतु पानी की सही निकासी, भवनों की मजबूत बनावट, घने वन क्षेत्र की मौजूदगी एवं प्रकृति से सामंजस्य बनाकर चलने से बादल फटने की घटना से होने वाले नुकसान को कुछ कम किया जा सकता है।
ग्लेशियर झील: खतरे की घंटी
हमारे देश में ग्लेशियर पानी के बड़े स्रोतों के रूप में स्थित है। इन्हीं ग्लेशियरों के पिघलने से कई जगह ग्लेशियर झीलें बनी हुई हैं। इनमें से बहुत सी झीलें नदियों के मुहाने पर स्थित हैं। वैज्ञानिक रिपोर्ट में कहा गया है कि पहाड़ों पर ग्लेशियर के पिघलने से ही ग्लेशियर झीलें बन रही हैं। हिमालय के अत्यधिक ऊँचाई वाले क्षेत्रों के हिमखंड पिघलने के बाद बर्फ और चट्टानों के इन अस्थायी बांधों के पीछे बड़ी झीलों का निर्माण हो जाता है। प्रायः जब इन झीलों का आकार बढ़ता जाता है तो उन पर पड़ने वाले जल का दबाव भी बढ़ता जाता है और एक ऐसी स्थिति पैदा होती है जब यह प्राकृतिक ग्लेशियर झीलें पानी के बढ़ते दबाव को सहन नहीं कर पाती और फट जाती हैं। यदि नदी पर कोई बांध अथवा जल-विद्युत परियोजना है, तो ग्लेशियर झील टूटने से अचानक आयी बाढ़ उनके लिये खतरनाक साबित हो सकती है।
वैज्ञानिक अध्ययनों से पहाड़ी क्षेत्र पर बनने वाली इन ग्लेशियर झीलों की स्थिति, क्षेत्रफल तथा मुख्य नदियों से दूरी आदि का पता सुदूर संवेदी आंकड़ों और भूगोलीय सूचना तंत्र की सहायता से किया जा सकता है।
ऐसी ग्लेशियर झीलें जिनके निकट भविष्य में टूटने की अत्यधिक संभावना होती है उनके वैज्ञानिक अध्ययन से यह ज्ञात करने का प्रयास किया जाता है कि यदि यह झीलें एकाएक टूटती हैं, तो नदी में कब और कितना बाढ़ का पानी आयेगा। साथ ही यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि इस बाढ़ के पानी की तीव्रता और अधिकतम प्रवाह कितना होगा। इन अध्ययनों का सबसे अधिक लाभ यह है कि भविष्य में पहाड़ी क्षेत्रों में बनने वाले बांधो और जलविद्युत परियोजनाओं के डिज़ाइन में ग्लेशियर झीलों के टूटने से होने वाले खतरों का समायोजन कर बाढ़ से होने वाले नुकसान को कम किया जा सकता है।
राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान ने इस दिशा में पहल कर नव विकसित कई परियोजनाओं के ऊपरी क्षेत्रों का सुदूर संवेदी आंकड़ों द्वारा विश्लेषण कर ग्लेशियर झीलों का चित्रण किया है। साथ ही इन क्षेत्रों की संभावित टूटने वाली झीलों का अध्ययन कर झील टूटने की स्थिति में परियोजना स्थल पर आने वाले बाढ़ के पानी का प्रवाह तथा झील से परियोजना स्थल तक बाढ़ के आने वाले समय का जलविज्ञानीय गणितीय मॉडलों द्वारा पूर्वानुमान लगाने का प्रयास किया गया है। इन अध्ययनों से प्राप्त परिणामों को नदी परियोजनाओं के डिज़ायन में ‘फ्लड’ समायोजित कर पहाड़ी क्षेत्रों में बनने वाली विभिन्न परियोजनाओं की सुरक्षा बढ़ाई जा सकती है। इस प्रकार के अध्ययनों से भविष्य में बनने वाले बांध जल एवं जल-विद्युत परियोजनाओं को ग्लेशियर झील टूटने से होने वाले खतरों से बचाया जा सकता है और साथ ही जान-माल के नुकसान को कम किया जा सकता है।
बाढ़ प्रबंधन: विधि एवं विधान
प्राय: बाढ़ अचानक आती है तथा पशु, आदमी और घरों को बहाकर ले जाती है। बाढ़ के समय प्रभावित क्षेत्र बाहरी दुनिया से अलग-थलग हो जाता है और राहत कार्य इसी स्थिति में संभव है जब पानी का ज्वार उतर जाता है। बाढ़ प्रबंधन मुख्यत: दो प्रकार से किया जाता है।
- (।) नदियों पर बांध, तटबंधों इत्यादि का निर्माण कर
- (2) बाढ़ का पूर्वानुमान कर
नदी पर बांध, तटबंधों इत्यादि के निर्माण के अतिरिक्त बाढ़ पूर्वानुमान वर्तमान समय में बाढ़ प्रबंधन की एक प्रचलित तकनीक है। सुदूर संवेदी आंकड़ों, भूगोलीय सूचना तंत्र एवं गणितीय माडलों का उपयोग कर बाढ़ प्रबंधन की विभिन्न विधियाँ निम्न प्रकार हैं:-
- (1) बाढ़ पूर्वानुमान
- (2) बाँध टूटने से आने वाली बाढ़ का पूर्वानुमान
- (3) बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों का चित्रण
- (4) बाढ़ प्रभावित क्षेत्र की जोनिंग
- (5) ग्लेशियर झीलों के टूटने से आने वाली बाढ़ का पूर्वानुमान
- (6) बाढ़ बीमा
- (7) बाढ़ पूर्वानुमान के लिये निर्णय समर्थक तंत्र (DSS)
बाढ़ रोकने के लिए सरकारी स्तर पर कई योजनाएं चलाई जा रही हैं जो निम्न प्रकार हैं :-
- (1) बाढ़ प्रभावित इलाक़ों में बड़े एवं छोटे बाँध बनाना
- (2) नदियों के कटान वाले इलाकों में कटान रोकने के लिए योजनाएं बनाना
- (3) पानी की निकासी वाले नालों की सफाई और उनसे गाद निकालने की योजनाएं बनाना
- (4) निचले इलाके के गाँवों को ऊपर उठाना
केंद्रीय जल आयोग ने मुख्य नदियों पर लगभग 157 बाढ़ पूर्वानुमान केंद्र स्थापित किए हैं। योजना आयोग के अनुसार बाढ़ की आशंका वाले क्षेत्रों में से 1.64 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र को ही अभी तक संरक्षित किया जा सका है। बाढ़ संभावित क्षेत्रों को संरक्षित करने में बहुत से सरकारी, गैर-सरकारी संस्थाओं और व्यक्तियों का सहयोग रहा है। कहते हैं कि चिपको आन्दोलन के पीछे बाढ़ की एक अहम भूमिका है। जिस अल्कनन्दा वाली भूमि में यह आन्दोलन उपजा है उसका एक बड़ा कारण वर्ष 1970 की अभूतपूर्व बाढ़ थी। बेलाकूची का सारा गाँव यात्रियों से भरी बसों सहित अलकनन्दा की बाढ़ में समा गया। इस बाढ़ से 400 वर्ग किमी. तक का इलाक़ा ध्वस्त हो गया। बाढ़ के पानी के साथ बही गाद इतनी ज्यादा थी कि उसने 350 किमी. लंबी ऊपरी गंगा नहर के 10 किमी. तक के क्षेत्र में अवरोध पैदा कर दिया। इस त्रासदी के बाद लोगों को पता चला कि मनुष्य के जीवन में वनों की कितनी बड़ी भूमिका है।
आवश्यकता एक संयुक्त प्रयास की
भारत में वर्षा मुख्यतः मानसून के कारण होती है। किसी स्थान पर वर्षा मानसून के मिजाज पर निर्भर करती है। वर्षो होती है तो कहीं बहुत अधिक, कहीं मूसलाधार तो कहीं रिमझिम अर्थात सब जगह समान रूप से नहीं होती है। जिस कारण कहीं बाढ़ तो कहीं अकाल की स्थिति पैदा हो जाती है। लेकिन यदि बाढ़ की स्थिति के पहले से ही कुछ संकेत मिल जाये तो कम से कम मनुष्यों एवं पशुओं को सुरक्षित स्थान तक ले जाया जा सकता है। भारत में जलविज्ञानीय आंकड़ा संग्रहण एवं बाढ़ पूर्वानुमान की विधि को और विकसित कर जान-माल का नुकसान काफी कम किया जा सकता है। आज समय आ गया है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण होने वाले जलवायु परिवर्तन द्वारा लगातार फैलते जा रहे विभिन्न बाढ़ के खतरों का गहराई पूर्ण अध्ययन कर ऐसी तकनीक एवं गणितीय मॉडल तैयार किया जाए, जो बाढ़ से होने वाले नुकसान को कम करने में उपयोगी हो। साथ ही दीर्घकालिक समाधानों में वनों की कटाई रोकने, पारिस्थितिकीय संतुलन बनाने के उपाय होने चाहिए। वैसे बाढ़ को स्थायी तौर पर रोका नहीं जा सकता किंतु विभिन्न उपायों का सामंजस्य बैठा कर बाढ़ की विभीषिका को कम किया जा सकता है। सरकारी तथा गैर-सरकारी संस्थाओं के अलावा गांव तथा जिला स्तर पर लोगों की भागीदारी, समाचार-पत्र, रेडियो एवं टेलीविजन का उपयोग बाढ़ की विभीषिका से लड़ने में सहयोग कर सकते हैं।
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