सावन भादों में जबर्दस्त बरसात होती है। बादलों के घुमड़-घुमड़ कर आने और पानी की बूँदों के झूम-झूम कर गिरने का मौसम। इंद्रधनुष देखने और रेनकोट पहन बारिश के बीच सड़कों पर निकलने का मजा हम इसी मौसम में ले सकते हैं। जैसे ही आसमान में बादल घुमड़-घुमड़ कर छाते हैं, मन झूमने लगता है। मौसमों का राजा भले ही बसंत को माना जाता है, लेकिन रेनी सीजन न हो तो धरती की रौनक खत्म हो जाए। जिस साल पर्याप्त बारिश नहीं होती, धरती की हरियाली ही कम नहीं होती बल्कि हमारी जेब पर भी असर पड़ने लगता है। सच तो यह है कि बारिश से किसानों और आम लोगों पर ही नहीं बल्कि फाइनांस और प्राइम मिनिस्टर के भी चेहरे खिल जाते हैं। बादलों का खेल अगर अच्छा चले तो हमारी समृद्धि का स्कोर भी अच्छा रहता है।
कैसे-कैसे बादल
1. अधिक ऊँचाई वाले बादल- इन्हें सिरस या पक्षाभ बादल के नाम से जाना जाता है। ये 16 से 20 हजार फीट यानी करीब 5000 से 6000 मीटर की ऊँचाई पर पाए जाते हैं। सिरस का अर्थ होता है गोलाकार। इन्हें प्रायः रोज आसमान में देखा जा सकता है। ये हल्के और फुसफुसे होते हैं और बर्फ के कणों से बने होते हैं। गर्मी के मौसम में भी जो सिरस बादल दिखते हैं वे बर्फ के कणों के बने होते हैं, क्योंकि इतनी ऊँचाई पर काफी ठंड होती है। जनवरी हो या जून ऐसे बादलों के जरिये बारिश नहीं होती और मौसम प्रायः साफ रहता है।
2. मध्यम ऊँचाई वाले बादल- ये साढ़े 6 से 16 हजार फीट यानी करीब 2000 से 5000 मीटर ऊँचाई पर पाये जाते हैं। इनका सामान्य नाम क्यूमुलस यानी कपासी बादल है। ऐसे बादलों के दौरान भी अमूमन मौसम साफ रहता है। क्यूमुलस का अर्थ होता है ढेर। अपने नाम के अनुरूप ये बादल रुई के ढेर की तरह दिखते हैं। कभी-कभार ये बादल गहरे रंग के होते हैं और तब इनसे पानी और ओले की बारिश होती है।
3. निम्न ऊँचाई के बादल- ये साढ़े 6 हजार फीट यानी 2000 मीटर से नीचे पाए जाते हैं। इन्हें स्ट्रेटस यानी स्तरी बादल भी कहा जाता है। अपने नाम के अनुरूप ये बादल काफी नीचे होते हैं और पूरे आकाश को घेर लेते हैं। ये बादल घने, काले और गहरे होते हैं और इनसे काफी वर्षा होती है। ये बादल कई बार कपास की तरह सफेद दिखते हैं। ऐसा तभी होता है जब आकाश पूरी तरह खुला होता है और ऐसे में आकाश का रंग नीला होता है।
सबसे अधिक बारिश
भारत का सौभाग्य है कि दुनिया में सर्वाधिक बारिश वाला क्षेत्र चेरापूंजी उसकी धरती पर बसा है। बारिश की राजधानी के रूप में मशहूर चेरापूंजी समुद्र से लगभग 1300 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है जो मेघालय की राजधानी शिलांग से 60 किलोमीटर की दूरी पर है। चेरापूंजी को सोहरा के नाम से भी जाना जाता है। यहाँ औसत वर्षा 10,000 मिलीमीटर होती है। मेघालय में ही मासिनराम में हाल के दिनों में चेरापूंजी से भी ज्यादा बारिश दर्ज की गई है। ऐसी हालत दो-तीन सालों से है। लेकिन विडम्बना ही है कि सबसे ज्यादा बारिश होने की ख्याति पाने वाले इन इलाकों के लोगों को हर साल कुछ महीनों के लिये पानी की भारी किल्लत का सामना करना पड़ता है। पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण यहाँ भूमिगत जल का स्तर नीचे है। नदी है नहीं। जुलाई से सितम्बर तक यहाँ पानी की किल्लत नहीं होती, लेकिन बाकी महीनों में पानी के लिये लोगों को परेशान रहना पड़ता है।
कैसे बादलों से होती है बारिश
बादल वायुमंडल के सबसे महत्त्वपूर्ण चीजों में से एक है। सामान्य तौर पर भूगोल की भाषा में बादल का अर्थ है वह विशाल राशि जो बादलों में मौजूद जलकणों या हिमकणों से बनती है। ये जलकण और हिमकण इतने हल्के होते हैं हवा में आसानी से लड़ने लगते हैं। जब बादल में मौजूद जलवाष्प की कणें संघनित होकर जल की बूंदों के रूप में नीचे गिरती है तो यह क्रिया बारिश कहलाती है। संघनन की प्रक्रिया तभी होती है जब गरम हवा ऊपर उठती है और ठंडी हो जाती है। बादल ध्रुवों से लेकर विषुवतीय प्रदेशों तक बनते हैं। सबसे अधिक बादल मानसूनी और विषुवतीय प्रदेशों के ऊपर बनते हैं।
बारिश की मात्रा का मापन
किस स्थान पर कितनी बारिश हुई, इसका पता लगाने के लिये एक यंत्र का प्रयोग किया जाता है जिसे वर्षामापी या रेन गेज कहते हैं। इसे एक निश्चित स्थान पर निश्चित समय में रखकर पानी के बरसने की मात्रा को माप लिया जाता है। वर्षा अधिकतर इंच या सेंटीमीटर में मापी जाती है। वर्षामापी एक खोखला बेलन होता है, जिसके अन्दर एक बोतल होती है। इस बोतल के ऊपर एक कीप रखा होता है। बारिश का पानी कीप द्वारा बोतल में भर जाता है। कितने देर में बोतल भरा यह माप लिया जाता है। इस माप के आधार पर तय होता है कि वर्षा कितनी तेज हुई और कितना पानी गिरा। इस यंत्र को खुले स्थान में रखा जाता है। ऐसा इसलिये कि पानी गिरने में किसी तरह की रुकावट न हो। बाहर के कई स्थानों पर इसे रखा जा सकता है। कुल वर्षा की मात्रा का मापन औसत आधार पर किया जाता है। इसके जरिए एक दिन में कितनी बारिश हुई यह भी पता चल जाता है और साल भर में कितनी, यह भी।
अल नीनो और ला नीना
भारत में बारिश की कमी पर अल नीनो का असर काफी ज्यादा पड़ता है। अलनीनो का होना ऐसी विशेष स्थिति है जब समुद्र सतह के औसत से अधिक तापमान के कारण पश्चिमी प्रशान्त महासागर और हिन्द महासागर में अधिक दबाव बन जाए। इससे देश में सूखे की स्थिति पैदा होने की आशंका रहती है। पिछले 100 साल में करीब 20 साल सूखे की हालत में रहे हैं जिनमें से 13 में अल नीनो की स्थिति रही है। यानी अल नीनो हो तो 65 प्रतिशत यह आशंका है कि कम बारिश होगी। इसके उलट ला नीना में इन दोनों समुद्री क्षेत्रों में कम दबाव की स्थिति रहती है, जो अधिक बारिश की सम्भावनाएँ पैदा करती हैं। बीते 100 सालों में 13 अधिक बारिश वाले वर्ष रहे हैं जिनमें 6 में ला नीना की स्थिति रही। यानी ला नीना के साथ बारिश की सम्भावना 46 प्रतिशत है।
जब फट पड़ते हैं बादल
बादलों का फटना बारिश का चरम रूप है। इस दौरान कभी-कभी गर्जना भी होती है ओले भी पड़ते हैं। बादल फटने के समय अमूमन कुछ ही मिनटों की बारिश होती है, लेकिन यह इतनी मूसलाधार होती है कि घर तक बह जाते हैं। कुछ ही मिनटों में दो सेंटीमीटर तक बारिश हो जाती है और भारी तबाही मच जाती है। हिमालय का क्षेत्र बादलों के फटने के मामले में सबसे बदनाम है। सबसे ज्यादा फटने की घटना हिमाचल प्रदेश में होती है। 2010 में लेह में इसने भीषण तबाही मचाई थी, जिसमें 113 लोग मरे थे। बादलों का फटने के पीछे उसका एक बड़ी मात्रा का एकाएक संघनित होना है। ऐसा क्यों होता है इस बारे में स्थिति साफ नहीं है।
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