आया मौसम झूम के

title=
title=
हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी मानसून की भविष्यवाणी जोर-शोर से की जाती रही और मानसून था कि इंतजार करवाते हुए साइंसदानों को उनकी लघुता का बोध कराते हुए ऐसा डेरा जमाया कि सालों-साल तक ऐसी अनुकंपा नहीं की थी। इसने एक-साथ दो निशाने साधे और सरकारी कारिंदों को कबीर की वाणी की ओर इशारा करते हुए एहसास दिला दिया कि काल करे सो आज कर और आज करे सो अब, पल में प्रलय होगी, बहुरि करेगा कब। संकेत कामनवेल्थ खेलों की तरफ है।

पिछले कुछ वर्षों से दिल्ली की फिजा में सरकारी तौर पर दो ही मौसम गूंजते रहे हैं। पहला, यमुना की सफाई अभियान को लेकर था। इस अभियान में हर कोई बहती गंगा में हाथ धोकर पुण्य कमाना चाहता था। आले से आला अधिकारी तो क्या मोहल्ले का घीसू लफंगा भी अपने कुछ शागिर्दों के साथ इसमें भाग लेकर यश ले रहा था। अखबार और खबरिया टीवी चैनल लगातार इस समाचार को खींच कर उसे लंबे से और लंबा करते जा रहे थे। इन माध्यमों का इससे अधिक सदुपयोग भला और क्या हो सकता था?

प्रकृति का दूसरा संकेत था, यमुना के सफाई अभियान पर आदमजात द्वारा रखे गए सारी कार्य योजनाओं को एक हल्के झटके से पूरा करना। जिन अखबारों और टीवी चैनलों ने इसे सबसे बड़ी खबर बनाया था, वही अब बाढ़ की बाइट दिखा कर बाढ़ का भय दिखा रहे थे। लेकिन किसी भी अखबार या चैनल ने प्रकृति के इस सकारात्मक कार्य की ओर संकेत तक करने की जहमत तक नहीं उठाई कि जिस बहती गंगा में लोग हाथ धो रहे थे उसे प्रकृति ने चुट्कियों मे पूरा कर दिया। अब तो चिंता यह होनी चाहिए कि इसे साफ कैसे रखा जाए। जनता की गाढ़ी कमाई का पैसा कोई लुटेरा लूट ने ले जाए।

दिल्ली का दूसरा मौसम हिंदी पखवाड़े का है। कोई ऐसा कार्यालय नहीं होगा, जहां लोग प्रोत्साहित न हों। कहते हैं कि हमारी एक परंपरा में यह श्राद्ध का माह होता है, जिसमें अपने पूर्वजों कों पिंडदान देने की परंपरा है। दोनों का संयोग क्या खूब बन पडा है। दिल्ली सरकार के शासन में ही चार भाषाएं हैं। सीमांत प्रांतों को छोड़ कर देश के किसी भी नागरिक या समूह देश के अन्य भागों में रहने या बसने की न केवल छूट है, बल्कि अपनी भाषा बोलने, अगर राज्य की जनसंख्या के अनुपात में नवांगातुक नागरिकों की संख्या अधिक हो तो वहां के शासन में लाने का संवैधानिक अधिकार भी है। यह दूसरी बात है कि इस मुद्दे पर कोई हल्ला करे तो चुप रहना भी हमारा मजबूत लोकतंत्र है। है न हमारा यह अदभुत लोकतंत्र।

इधर बोलियों को भाषा का दर्जा दिलाने की होड़-सी मची हुई है। किसी ने कहा है सरिता निर्झरों से मिलकर अपना रूप निखारते हुए सागर में मिलती है। यही सरिता की सुंदरता भी है। झरनों को निर्बाध बहने का पूरा हक है । इसी तरह बोलियों को भी विकसित होने का भी पूरा अधिकार है। चूंकि वर्तमान में बाईस भाषाओं वाले इस लोकतांत्रिक देश में सभी भाषाएं समान हैं। अब अगर बोलियों को हिंदी से निकाल दें तो जनसंख्या का आधार कम हो जाने से संघ की राजभाषा हिंदी का लोकतांत्रिक आधार खिसक जाएगा और फिर आप किसी और भाषा का मुद्दा बनाएंगे और इस बहुभाषाविद लोकतंत्रात्मक देश में संघ के सरकारी काम-काज की सुई अपने मूल समय से पीछे बहुत पीछे खिसक जाएगी।

Path Alias

/articles/ayaa-maausama-jhauuma-kae

Post By: Hindi
×