पृथ्वी की उत्पत्ति के विषय में वैज्ञानिकों की मान्यता है कि 46,000 लाख वर्ष पहले पृथ्वी बनी तथा अब से लगभग 5700 लाख वर्ष पूर्व पृथ्वी पर जल की उत्पत्ति हुई। संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट के अनुसार यदि विश्व भर के पानी को आधा गैलन मान लिया जाए तो उसमें ताजा पानी आधे चम्मच भर से ज्यादा नहीं होगा, और धरती की ऊपरी सतह पर कुल जितना पानी है, वह तो सिर्फ बूँद भर ही है, बाकी सब भूमिगत है। भारत में तो कुल उपलब्ध पानी का लगभग 70 प्रतिशत पानी प्रदूषित है।
पानी जीवनदायी है। मानव के लिये यह प्रत्येक दृष्टि से उसके जीवन का आधार है। ग्रामीण जल आपूर्ति कार्यक्रम में प्रतिदिन प्रत्येक व्यक्ति को 40 लीटर स्वच्छ पानी और रेगिस्तानी क्षेत्रों में मवेशियों के लिये 30 लीटर अतिरिक्त जल प्रतिदिन उपलब्ध कराने का मानदंड निर्धारित किया गया है। अनुमान है कि भारत में घरेलू उपयोग और मवेशियों के लिये लगभग 25 अरब घन मीटर पानी की आवश्यकता है।
गर्मियाँ आते ही पहाड़ो से लेकर मैदानी इलाकों तक में पानी के लिये त्राहि-त्राहि मच जाती है। समस्या केवल कूँओं, नदियों, तालाबों आदि के सूख जाने की ही नहीं है। सबसे बड़ी समस्या है पीने के साफ पानी की। भारत के एक लाख गाँवों में आज भी पानी की भयंकर कमी है। दो लाख से ऊपर गाँव ऐसे हैं, जिनके निवासियों को दो किलोमीटर दूर से पानी लाना पड़ता है।
हमारे जलस्रोतों की कमी का प्रमुख कारण है हमारी जनसंख्या में तेजी से वृद्धि। सन 1901 में हमारी जनसंख्या का घनत्व 77 व्यक्ति प्रतिवर्ग किलोमीटर था, जो 1991 में बढ़कर 267 व्यक्ति प्रतिवर्ग किलोमीटर तक पहुँच गया है जिससे अन्य प्राकृतिक स्रोतों की उपलब्धता के साथ-साथ पानी पर भी भारी दबाव हो गया है।
विकसित देशों में पेयजल सहज उपलब्ध हो जाता है परन्तु विकासशील एवं निर्धन देश के निवासियों को पेयजल प्राप्त करने के लिये काफी संघर्ष करना पड़ता है। अधिकांश जनसंख्या को पीने के लिये दूषित पानी भी नहीं मिल पाता, जिसका परिणाम यह होता है कि गरीब देशों की 80 प्रतिशत बीमारियाँ अशुद्ध पेयजल और गंदगी के कारण होती हैं। लगभग 1.5 अरब व्यक्ति शुद्ध पेयजल की सुविधा से वंचित हैं। प्रतिदिन लगभग 35 हजार व्यक्ति अतिसार रोगों का शिकार बनते हैं।
पेयजल समस्या ग्रस्त क्षेत्र उसे माना जाता है जहाँ भूमिगत जल का स्तर पारम्परिक हैंड पम्पों द्वारा खीचें जा सकने वाले स्तर (लगभग 15 मीटर) से नीचे है; मोटर से चलने वाले पम्पसेटों के लिये बिजली का ग्रिड उपलब्ध नहीं है; तथा ऐसे गाँव, जहाँ 1.6 किलोमीटर के अंदर पेयजल के सुनिश्चित स्रोत नहीं हैं। इसके अतिरिक्त ऐसे गाँव भी पेयजल समस्याग्रस्त क्षेत्र के अन्तर्गत शामिल किये जाते हैं, जहाँ उपलब्ध जल में लवण, लौह, फ्लोराइड एवं कुछ एक विषैले तत्व अधिक मात्रा में उपस्थित हैं अथवा जहाँ हैजा एवं अन्य जल से उत्पन्न बीमारियाँ महामारी के रूप में फैलती रहती हैं।
15 अगस्त 1993 को लालकिले पर राष्ट्र को सम्बोधित करते हुए पेयजल के विषय में प्रधानमंत्री श्री नरसिम्ह राव ने घोषणा की थी,“पीने के पानी के सिलसिले में बहुत बड़ा कार्यक्रम लिया गया है। आप जानते हैं लगभग जो रेवेन्यू विलेजेज कहलाते हैं, उन सब को हम कवर कर चुके हैं, लेकिन एक-एक गाँव में छोटे-छोटे ‘हैमलेट्स’ भी होते हैं। उन हैमलेट्स को कबर करना है, क्योंकि अगर एक गाँव में 3-4 हैमलेट्स हुए, जहाँ कहीं भी पानी की जरूरत पड़ी, 10 घर भी वहाँ हैं तो वहाँ पानी की आवश्यकता पड़ेगी, यह नहीं कहा जा सकता कि लोग कम हैं, इसलिए पानी की जरूरत नहीं। पानी की सबको जरूरत है, इसलिए इन सब को कवर करने का वृहद कार्यक्रम चल रहे हैं, इसी रूरल डिपार्टमेंट के तहत”।
पानी के स्रोत के अभाव की समस्या के समाधान की दिशा में सर्वप्रथम 1954 में समाज कल्याण क्षेत्र में राष्ट्रीय जलापूर्ति और स्वच्छता कार्यक्रम शुरू करके कदम उठाया गया। ग्रामीण जल आपूर्ति परियोजनाएं केवल ऐसे ही गाँवों तक सीमित रहीं, जहाँ आसानी से पहुँचा जा सकता था। ठेठ ग्रामीण इलाकों की ओर ध्यान नहीं दिया गया। केन्द्र सरकार ने 1972-73 में एक त्वरित ग्रामीण जल आपूर्ति कार्यक्रम भी शुरू किया, जिसके अंतर्गत समस्याग्रस्त ग्रामीण क्षेत्रों में पीने का पानी पहुँचाने के लिये राज्यों को शत-प्रतिशत सहायता देने की व्यवस्था की गई थी।
जल को मात्र एक संसाधन नहीं समझना चाहिए। यह दैनिक जीवन को प्रभावित करता है, यह मानव जीवन के विकास में साधक है तो मानव के विनाश का माध्यम भी है तथा यह संस्कृति व परम्परा का भी माध्यम है। देश के सामने जो भयावह जल संकट आ खड़ा हुआ है
1986 में राष्ट्रीय पेयजल मिशन की स्थापना के साथ ही जल आपूर्ति कार्यक्रम को सच्चे अर्थों में गति मिली। इस कार्यक्रम को अब राजीव गाँधी पेयजल मिशन का नाम दिया गया है। वर्ष 1992-93 के दौरान इस मिशन और राज्यों के न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम के अंतर्गत जो लक्ष्य रखे गये वे इस प्रकार हैः जहाँ पानी का कोई स्रोत नहीं है और जहाँ आंशिक रूप से पेयजल की व्यवस्था की गई है, ऐसे 35,493 गाँवों को इस योजना का लाभ पहुँचाना ताकि 1,72,873 लाख लोगों की पेयजल की आवश्यकता पूरी हो सके; जल शुद्धिकरण संयंत्र और जल की गुणवत्ता का परीक्षण करने वाली प्रयोगशालाओं की स्थापना के लिये चलाई जा रही परियोजनाएं पूरी करना।सातवीं योजना में लगभग एक लाख 54 हजार गाँवों में पेयजल व्यवस्था कराई गई। 1992-93 के लिये स्रोतविहीन समस्याग्रस्त गाँवों की संख्या 2968 थी तथा आंशिक व्यवस्था वाले गाँवों की संख्या 31,500 थी, जहाँ पेयजल की व्यवस्था की जानी थी। फरवरी 1993 तक 1469 स्रोतविहीन गाँवों तथा 23,500 आंशिक व्यवस्था वाले गाँवों में पेयजल व्यवस्था की जा चुकी है। वर्ष 1993-94 के लिये 42,000 गाँवों में पेयजल आपूर्ति का अस्थायी लक्ष्य रखा गया है। वर्ष 1993-94 के लिये 7 अरब 40 करोड़ रुपये की व्यवस्था की गई है तथा राज्य क्षेत्र में न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम के लिये 8 अरब 19 करोड़ 85 लाख रुपये का प्रावधान किया गया है।
आठवीं पंचवर्षीय योजना के लिये केन्द्रीय प्रायोजित योजनाओं के अंतर्गत 5100 करोड़ रुपये और राज्य क्षेत्र के न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम के अंतर्गत 4954.52 करोड़ रुपये का परिव्यय उपलब्ध कराया गया है। आठवीं पंचवर्षीय योजना की समाप्ति से पूर्व, देश के प्रत्येक जिले में एक जलगुणवत्ता परीक्षण प्रयोगशाला स्थापित करने का प्रस्ताव है। आठवीं योजना के दौरान मुख्य ध्यान इस बात पर होगा कि ऐसे ग्रामीण क्षेत्रों में पेयजल व्यवस्था करायी जाए, जहाँ ये सुविधाएँ या तो हैं ही नहीं या फिर कम है। इसका यह भी उद्देश्य होगा कि समाज के, विशेषकर महिलाओं के सक्रिय सहयोग से जलापूर्ति योजनाओं में परिचालन व रख-रखाव का बेहतर प्रबंध हो, इस क्षेत्र में मानव संसाधनों का उचित विकास हो तथा विज्ञान व तकनीकी एवं अनुसंधान व विकास की बेहतर सुविधाएँ उपलब्ध हों। एक अप्रैल 1993 तक पता लगाए गए बिना जलस्रोत वाले गाँवों में से 750 गाँवों को छोड़कर सभी गाँवों को 31 मार्च 1993 तक स्वच्छ पेयजल की सुविधा मुहैया करा दी गई है।
ग्रामीण जलापूर्ति कार्यक्रम को लागू करने के मार्ग में आने वाली विभिन्न समस्याओं को हल करने में एक समन्वित कार्यप्रणाली सुनिश्चित करने के उद्देश्य से राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी मिशन के अंतर्गत 55 लघु मिशन और अनेकों उप-मिशन काम कर रहे हैं। इनका उद्देश्य स्थानीय समुदाय और गैर-सरकारी संगठनों के सहयोग से क्षेत्रों को लम्बी अवधि के आधार पर निरन्तर रूप से पानी की आपूर्ति उपलब्ध कराना है।
अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को पेयजल सुविधाएँ उपलब्ध कराने पर विशेष बल दिया जा रहा है। त्वरित ग्रामीण जलापूर्ति कार्यक्रम के दिशा-निर्देशों के अनुसार कम-से-कम वार्षिक कोष का 10 प्रतिशत हिस्सा अनुसूचित जाति/जनजातियों वाले क्षेत्रों को पीने के साफ पानी की आपूर्ति पर खर्च किया जाना चाहिए।
जिसके पास पानी पहुँच जाता है, वह उसके प्रयोग में किफायत नहीं बरतता है। पानी को आज मुफ्त की चीज नहीं माना जा सकता। नहाने, कपड़े धोने, बर्तन धोने का पानी तो स्पष्ट रूप से बह जाता है तथा अनुमान है कि 30-35 प्रतिशत जल भाप बनकर उड़ जाता है। इसके रोकने के प्रयत्न किए जाने जाहिए।
जलस्रोतों के संरक्षण का प्रभावी तरीका जल विभाजकों (वाटरशेड) का विकास है। इससे पानी को बचाकर रखने की सुविधा तो प्राप्त होती ही है, साथ ही भूमिगत जलस्रोतों की भरपाई करने, भूमि संरक्षण और नदियों में मिट्टी के अनावश्यक बहाव को रोकने और जलाशयों अथवा अन्ततः समुद्र में मिट्टी के जमाव को कम करने में मदद मिलती है।
पेयजल की आपूर्ति एवं स्वच्छता के तकनीकी ज्ञान को अधिकारियों के माध्यम से जन-जन तक पहुँचाना आवश्यक है। नगरों और गाँवों में जल आपूर्ति के साथ-साथ मल प्रवाह की भी पर्याप्त व्यवस्था होनी चाहिए। कोई भी नया उद्योग लगाते समय साथ ही साथ उपचार संयंत्र लगाए जाएं जिससे पानी में अवशिष्टों की ऐसी निश्चित मात्रा ही जा सके जो हानिकारक न हो।
शहरों और औद्योगिक केन्द्रों से निकलने वाला गंदा पानी अक्सर स्थानीय नदियों और नालों में प्रवाहित कर दिया जाता है, जिससे इनका पानी प्रदूषित हो जाता है और फिर उपयोग के काबिल नहीं रहता, लेकिन ऐसे पानी को यदि दुबारा साफ कर लिया जाए तो शौचालयों, बागवानी और औद्योगिक संस्थानों में प्रशीतन आदि कार्यों के लिये इसका इस्तेमाल किया जा सकता है।
वनों की अंधाधुध कटाई, जलचक्र के टूटने, भूमिगत जल के समाप्त होने के कारणों से पेयजल का अभाव बढ़ता ही जा रहा है अतः अधिक मात्रा में वनरोपण किया जाना चाहिए, जिससे ऋतुचक्र समयानुकूल चलता रहे।
वास्तव में पानी की बचत के लिये एक तरफ जन चेतना की जरूरत है तो दूसरी तरफ उपयुक्त टेक्नोलॉजी की। ऐसी टेक्नोलॉजी जिससे उद्योगों और खेती की उत्पादन प्रक्रिया में पानी कम लगे तथा ऐसी टेक्नोलॉजी जिससे पानी कम प्रदूषित हो या पाइपो, नहरों या शौचालयों में कम बेकार जाए। भारत में नदियों को आपस में जोड़कर करीब 224 घन किलोमीटर पानी और पाया जा सकता है।
आज से पाँच हजार साल पहले पानी की कमी नहीं थी। फिर भी पानी के महत्व को माना गया था, तभी तो अथर्ववेद में लिखा है कि “नदी, कुएँ या तालाब या पानी यदि कुशलता और सावधानीपूर्वक प्रयोग में लाया जाए तो इससे अकाल और पानी की कमी का भय कम होगा।”
जल को मात्र एक संसाधन नहीं समझना चाहिए। यह दैनिक जीवन को प्रभावित करता है, यह मानव जीवन के विकास में साधक है तो मानव के विनाश का माध्यम भी है तथा यह संस्कृति व परम्परा का भी माध्यम है। देश के सामने जो भयावह जल संकट आ खड़ा हुआ है, उससे निपटने के लिये जरूरत है बहु-स्तरीय प्रयासों की। इसके लिये हमें जल क्रांति की ओर कदम बढ़ाने होंगे।
शर्मा कमर्शियल कॉलेज 1/5305, गली न. 11 बलबीर नगर विस्तार शाहदरा दिल्ली-110032
Path Alias
/articles/avasayakataa-haai-jala-karaantai-kai-need-water-revolution
Post By: Hindi