कभी टेम्स नदी एक विशाल एवं प्रदूषित नाले में तब्दील हो चुकी थी। लेकिन जागरूकता और अनुशासन के जरिए आज यह सब नदियों के लिए प्रेरणा स्रोत बन गई है। हमें भी यह सोचना होगा कि गोमती नदी आखिर कैसे अपना पुराना स्वरूप और प्रतिष्ठा वापस प्राप्त कर सकती है। इसके लिए निश्चय ही तात्कालिक उपाय पर्याप्त एवं प्रभावकारी नहीं हो सकते, क्योंकि रोग के निदान तथा उपचार से अधिक उससे बचाव की अधिक आवश्यकता है। जो संपूर्ण जीवन शैली द्वारा निर्धारित होता है।
गोमती अपने जल से भारत के सबसे बड़े एवं उपजाऊ समतल बेसिन में रहने वाले उ.प्र. के लाखों लोगों का प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूपों से पालन एवं भरण-पोषण हजारों सालों से करती आ रही है। इन भौतिक सम्पदाओं के अतिरिक्त गोमती वेद-पुराण, उपनिषद आदि ग्रन्थों द्वारा प्रतिष्ठित अनादि काल से मोक्षदायिनी उद्घोषित हो चुकी है।जिस देश में गंगा, यमुना, गोदावरी, नर्मदा, सिन्धु तथा कावेरी के पवित्र जल के सन्निधान की प्रत्येक जल में कामना रहती है, उस देश में नदियां असहाय सी अपनी रक्षा के लिए देश की जनता का मुख देख रही हैं। दुर्भाग्यवश आज धरती पर जल की मात्रा का तो निरंतर ह्रास हो ही रहा है, साथ ही शुद्ध जल की मात्रा अत्यंत अपर्याप्त है।
जल के परंपरागत स्रोत विशेषतः मानवकृत धर्म के परिणामस्वरूप उत्खनित तालाब, कुएँ, बावली आदि नष्टप्राय हैं। पर्वतों से छेड़छाड़ के कारण निर्झर-स्रोतों में भी न्यूनता आई है।बढ़ते हुए वैश्विक ताप तथा पिघलते हुए हिमशैलों के कारण वहीं स्रोतों का अस्तित्व भी संकट में है।
ऐसी चिंताजनक स्थिति में स्रोतों के रूप में नदियों का संरक्षण विचारणीय विषय है। वर्तमान परिदृश्य में शहरीकरण एवं बढ़ती हुई आबादी के कारण प्राकृतिक जल-स्रोतों का अत्यधिक एवं अव्यवस्थित ढंग से दोहन हो रहा है, जिससे स्वच्छ जल का संकट गहराता जा रहा है।
गंगा, यमुना, गोमती आदि सहित हमारी सभी प्रमुख नदियां एवं सहायक नदियां प्रदूषण युक्त हैं एवं उद्योगों से निकले जहरीले पानी का गंदा नाला बन गई हैं। इनमें जल की कमी है, जो जल है वह भी प्रदूषित है, पीने व स्नान योग्य नहीं है।
नदियों में पर्यावरणीय बहाव
सृष्टि की रचना से लेकर आज तक पानी दुनिया को जीवन्तता प्रदान करता रहा है। पहले हवा में पानी नमी के रूप में, बादल में वाष्प के रूप में, पहाड़ों पर पानी ग्लेशियर/बर्फ के रूप में और नदियों में पानी बहते हुए सागर में मिलती है। इससे हमारा जलचक्र निरंतर चलता रहता है। यद्यपि पंचभूतों में सभी तत्व महत्वपूर्ण हैं फिर भी जीव का जन्म जल में हुआ है तथा जल ही उसका जीवन है। नदियों को प्रदूषण मुक्त रखने के समुचित अभाव में आज शुद्ध जल की उपलब्धता दिन-प्रतिदिन कम होती जा रही है।
विकास के नाम पर नैतिक मूल्यों की उपेक्षा हद से ज्यादा है, जिसकी वजह से जल जीवन और जैविक परिस्थितियों में संतुलन और सामंजस्य बनाना संभव नहीं है। नदियों में इतना जल होना चाहिए कि नदी लगातार रूप में बहे। नदी का स्वरूप विच्छेदित झील के रूप में न हो। रीवर बेड जलीय प्राणिजात को आवास प्रदान कर सकें। नदी में क्षैतिज, लम्बवत तथा ऊर्ध्वाधर जल सम्पर्क रहे। अतः नदी को वेस्ट लोड प्रवाहित करने का साधन नहीं समझा जाए।
वर्षा जल और भूजल से गोमती सदानीरा बनती है। नदी का धर्म है बहना- यदि कोई चीज इस बहाव को रोके या कोई चीज नदी में रुके, तो वह नदी के धर्म विरुद्ध है। मनु ने सूत्र रूप में ‘नदी वेगेन शुद्धयति’ कहकर संकेत किया कि नदी का प्रवाह ही उसकी शुद्धता का हेतु तथा प्रमाण है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विचार करें, तो वेगजन्य आघात अविलेय पदार्थों को बहिष्कृत कर विजातीय विलेयों को भी पृथक करता है। किंतु दूसरी ओर नदी-जल में तथा उसके तीर पर भी अमेध्य वस्तुओं तथ मल-मूत्र, अपशिष्ट, मृत पशु-पक्षी आदि का विसर्जन वर्जित बताया गया है।
गोमती बेसिन समतल बेसिन है और जमीन के ढाल कम हैं। इसलिए प्रदूषक को एक जगह एकत्र कर उसे शुद्ध करना तथा सिंचाई के लिए उपयोग करना या नदी में प्रवाहित कर देना-अनेक तरह की समस्याओं को जन्म देता है। कृषि रसायनों, नगरीय सीवर एवं प्रदूषित औद्योगिक उत्प्रवाह का नदियों में विसर्जन तथा नदी जल का कृषि एवं अकृषि कार्यों में उपयोग हेतु अन्तरण के फलस्वरूप गैर बरसाती दिनों में न्यून बहाव का सकल प्रभाव यह है कि नदी जल ‘आचमन’ तो दूर नहाने योग्य भी नहीं रह गया है।
गोमती नदी की मुख्य समस्याएँ तथा इनके कुछ कारण
1. बढ़ती आबादी और नियोजित विकास के कारण गोमती तट क्षेत्र की वृक्षावली (जंगल) का समाप्त होना।
2. बैराज एवं नहरों द्वारा गोमती के जल का अवैज्ञानिक रूप से दोहन जिसके कारण पेयजल की मात्रा में कमी।
3. अवजल का गोमती में अनियंत्रित प्रवाह जिस कारण पेयजल की गुणवत्ता का नष्ट हो जाना।
4. जल-जीव एवं जैव विविधता का विलुप्त होना।
5. जल, मल एवं उद्योगों के प्रदूषित प्रवाह एवं कई तरह के प्रदूषक के भार का दिन प्रतिदिन बढ़ते जाना।
6. प्रदूषक को सही जगह, सही मात्रा एवं सही तरीके से नदी या पर्यावरण में नहीं छोड़ा जाना।
7. ट्रीटमेन्ट प्लान्ट को नदी के फ्लड प्लेन में बनाया जाना।
8. बिना सही डिज़ाइन का नदी से जल निकालने का जगह, जल निकालने की मात्रा तथा जल निकासी के तरीकों का निर्णय करना।
9. नदी के पेट का संकीर्ण होते जाना एवं शहरों और खेतों द्वारा फ्लड प्लेन पर कब्जा होते जाना।
10. फ्लड प्लेन में मिट्टी का जमाव तथा कटाव का निरंतर बढ़ता जाना।
11. अत्यधिक रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों के प्रयोग से बेसिन की उर्वरा शक्ति का निरंतर घटते जाना।
12. भूजल के अत्यधिक दोहन से नदी का जल-स्तर में निरंतर घटते जाना।
13. नदी की अपनी केयरिंग कैपेसिटी एवं प्राकृतिक शक्तियों का उपयोग नहीं होना।
14. भूमिगत प्रवाह तथा नदी के प्रवाह के संबंध को नहीं समझना।15. नदी में राख, फूल-माला, मूर्तियां एवं अन्य अनुष्ठानों के अवशेषों को प्रवाहित करना।
16. नदी व्यवस्था संबंधी शोध संस्था का अभाव।
17. नदी व्यवस्था संबंधी स्वतंत्र शिक्षा का अभाव।
18. नदी व्यवस्था संबंधी प्राकृतिक शिक्षा एवं प्रचार-प्रसार का अभाव।
गोमती के कैचमेन्ट में प्रदूषण निस्तारण की सही तकनीकी व्यवस्था
बढ़ती शहरी जनसंख्या के साथ स्वच्छ पानी और सीवेज प्रबंधन जैसी बुनियादी सुविधाओं पर एकीकृत, अनुकूलनीय और स्थानीय ज़रूरतों के अनुसार नीति-निर्धारण एवं कार्यान्वयन की जबर्दस्त जरूरत है। शहरों के समग्र विकास के लिए ‘जल’ और ‘मल’ का प्रबंधन एक जरूरी मसला है।
गोमती की कलकल बंद होने से उत्तर प्रदेश की नदी संस्कृति मानो जैसे टूट सी गई है। गोमती के कैचमेन्ट में प्रदूषण निस्तारण की सही तकनीकी व्यवस्था नहीं है। अवजल (ट्रीटेड एवं अनट्रीटेड) नदी में प्रवाहित कर दिए जाते हैं। यह नहीं देखा जाता है कि प्रदूषक का प्रभाव नदी में कितनी दूर तक हो रहा है। इस कारण भी पेयजल की गुणवत्ता सही नहीं रह पाती है। अतः ट्रीटेड अपजल को कहाँ और कैसे इस्तेमाल किया जाए- यह जानने की आवश्यकता है। सामान्यतः हमारे किसान एवं गोमती के किनारे बसे औद्योगिक इकाइयाँ ट्रीटेड अपजल को सही रूप में इस्तेमाल कर सकते हैं। नदियों को स्वच्छ बनाए रखने हेतु यह आवश्यक है कि उद्योगों, नगरों/कस्बों के प्रदूषित कचरे व जल के प्रवाह को शोधित करके उसे कृषि/पेड़-पौधों की सिंचाई हेतु उपयोग करें न कि उसे नदी में डालें।
पूरे शहर से प्रदूषक को एकत्र कर एक जगह नियंत्रित कर सीवेज ट्रीटमेन्ट प्लान्ट के द्वारा शुद्ध करने का प्रयास अवैज्ञानिक है। यही कारण है कि गंगा एक्शन प्लान प्रथम चरण में सफल नहीं हुआ। करोड़ों-अरबों रुपया खर्च करने के बावजूद भी प्रतिफल बार-बार शून्य ही निकल रहा है। गंगा एक्शन प्लान में जो 1800 करोड़ रुपये खर्च हुए और फैक्ट्रियों को शोधित जल गंगा में गिराने की इजाजत दी गई, उसकी आड़ में लोगों ने बिना प्लान्ट चलाए गंगा में सीवर और फैक्ट्रियों की गंदगी को बिना शोधन के गिरने दिया। केन्द्र सरकार से वित्तीय सहायता प्राप्त करने के बाद राज्य सरकार द्वारा लगाए गए अनेक सीवेज ट्रीटमेन्ट प्लान्ट राज्य सरकारों की लापरवाही के कारण ठप पड़े हैं। सच तो यह है कि एस.टी.पी. बनने के बाद इस पर किसी की नैतिक ज़िम्मेदारी नहीं होती है और कुछ सालों के बाद सीवर और औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाली गंदगी को बिना शोधन किए ही नदियों में गिरा दिया जाता है।
सीवेज ट्रीटमेन्ट प्लान्ट का नदियों के किनारे लगाया जाना तथा क्षमता से अधिक सीवेज वाटर उठाने पर अथवा ट्रीटमेन्ट प्लान्ट विद्युत के अभाव में अक्रियाशील होने पर अशोधित जल नदी में डालने की परंपरा अक्सर देखने-सुनने को मिलती है। सीवेज और व्यावसायिक उत्प्रवाह को नदी या धारा में प्रवाहित करने की छूट देने के फलस्वरूप तथा मानकों के कड़ाई से पालन न होने के कारण आज नदियाँ प्रदूषित हैं। प्रदूषण निवारण का बेहतर तरीका शोधित या अशोधित सीवर पर भूमि का ही उपयोग है, नदी में विसर्जन नहीं।
सीवर पाइप के अवरुद्ध होने से मेनहोल के ओवरफ्लो होने से कई तरह की समस्याएँ पूरे शहर में होती रहती हैं। इसलिए स्मार्ट सेप्टीक टैंक का होना हर एक घर के लिए अति आवश्यक है। सेप्टीक टैंक से सूक्ष्म बैक्टीरियों द्वारा अपने आप ऐनएरोबिक डाइजेशन द्वारा प्रदूषकों का निदान हो जाता है। जिसके फलस्वरूप सीवर में मल के प्रवाह को रोका जा सकता है। इसे पूरे गोमती बेसिन के लिए लागू करना आवश्यक है।
अपशिष्ट जल की रीसाइक्लिंग और रीयूज
आज शहरों में पानी और सीवेज प्रबंधन कल शहरी भारत के जीवन की गुणवत्ता का निर्धारण करेगा। भारत के ज्यादातर शहरों में बढ़ रही आबादी पानी की माँग के साथ-साथ, सीवेज की समस्या को हल करने में असमर्थ है। घरेलू प्रयोजनों के लिए खपत में आने वाले पानी का 80 प्रतिशत हिस्सा अपशिष्ट जल के रूप में बाहर आता है। अपशिष्ट जल की रीसाइक्लिंग और रीयूज के द्वारा हम यहाँ एक ओर जल की उपलब्धता को बढ़ा सकते हैं वहीं दूसरी ओर पर्यावरण को भी नुकसान से बचा सकते हैं। विकेन्द्रीकृत अपशिष्ट जल उपचार से जरूरत के हिसाब से जल के पुनः प्रयोग के लिए बनाया जा सकता है। विकेन्द्रीकृत अपशिष्ट एवं सीवेज रीसाइक्लिंग को अनुसंधान, नीति एवं प्रशिक्षण के माध्यम से मॉडल परियोजनाओं के माध्यम से मॉडल परियोजनाओं के कार्यान्वयन के लिए निवेश करने की जरूरत है।
सीवर और फ़ैक्टरियों के अशोधित एवं शोधित जल को भी गोमती में गिरने से रोकने की जरूरत है। अपने उद्योगों से निकले पानी/कचरे को एफ्लूएन्ट ट्रीटमेन्ट प्लान्ट (ई.टी.पी.) लगाकर उसे रिसाइक्लिंग द्वारा स्वयं इस्तेमाल या किसी तालाब में भण्डारण या किसानों द्वारा खेती के लिए सिंचाई में इस्तेमाल किया जा सकता है। जिन स्थानों पर सिंचाई हेतु व्यवस्था न हो सके वहाँ महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना तथा राजीव गांधी पेयजल मिशन के अंतर्गत इसे बावड़ियाँ या तालाबों में या सड़कों के दोनों ओर गड्ढों में स्टोर किया जाए। इससे मछली पालन भी हो सकेगा और भूजल को भी भण्डारित किया जा सकेगा। गैर मानसून सीजन में ऐसे अवसर आते हैं जब जल की बहुत कमी हो जाती है। अगर हमारा भूजल पर्याप्त रहे तो हम इसका समुचित उपयोग हर मौसम में कर सकते हैं।
जन जागरण से नदी में प्रतिमा एवं पूजन सामग्री विसर्जन पर रोक
गोमती नदी उत्तर प्रदेश के कई गाँवों-शहरों की जीवनरेखा है। इसको साफ एवं स्वच्छ रखना प्रत्येक नागरिक का नैतिक कर्तव्य है। प्लास्टिक की थैलियाँ, भगवान की पूजित मूर्तियाँ, फूल पत्ती एवं तस्वीरों से छुटकारा पाने का साधन गोमती नदी नहीं है। धार्मिक अनुष्ठानों के अवशेष से गोमती नदी पटती जा रही है।
रोज कई कुंतल वहन की राख, फूल-माला, टूटी मूर्तियाँ, देवी-देवताओं के फटे-पुराने कैलेन्डर व अन्य चीजें पॉलीथीन में भरकर प्रवाहित की जा रही हैं। क्या आप पॉलीथीन एवं कचरे से भर रहे हैं गोमती का पेट? आप में से बहुतेरे ऐसे हैं जो अपने साथ धार्मिक अनुष्ठानों के अवशेष पॉलीथीन में भरकर लाते हैं और गोमती में फेंक देते हैं। जरा सोचिए, इस तरह कितने कुन्तल कचरा आप नदी के स्वच्छ जल में डालकर उसे प्रदूषित कर रहे हैं।
परंपरावादियों के इस कृत्य से गोमती कराह रही है। कृपया संस्कृति, सभ्यता और समाज को सदियों से पोषित करने वाली नदियों के साथ ऐसा व्यवहार न करें। धरती पर जीवन है, क्योंकि यहाँ जल है। स्वच्छ जल से ही हमारा शरीर स्वस्थ रहता है और दूषित जलपान करने से वह रोगग्रस्त हो जाता है।
मौलिक सोच के द्वारा टिकाऊ विकास का मॉडल
विकास की अंधी दौड़ और उसमें हमारी संलिप्तता ने प्रगति की नई-नई परिभाषाएँ गढ़नी शुरू कर दीं। वैश्वीकरण की अंधी दौड़ में हमने स्वयं को विकसित कहलाने के प्रयास तो किए, परन्तु दूसरों की कीमत पर। गाँव की संस्कृति छोड़कर हम शहरी तो कहलाए, परन्तु शहर में रहने के तौर-तरीके नहीं सीखे। रातों-रात हम अमीर तो बने परन्तु गरीबी की वेदनाओं को अनुभव करना हमने बंद कर दिया। बढ़ता शहरीकरण और नदियों-भूजलों का अंधाधुंध दोहन इस बात की पुष्टि करता है कि हमारी व्यवस्था आधुनिक होते हुए भी पर्यावरण एवं भविष्य की सुरक्षा की दृष्टि से असंगत है। हम यही नहीं जानते कि आने वाले समय में हम सबको कैसे और कहाँ से पानी देंगे, रहने के लिए सबको कैसे मकान देंगे, कैसे सीवेज का उपचार करेंगे, वाहनों की विस्तार-बेड़ा को कैसे पार्किंग देंगे, कचरे के बढ़ते पहाड़ों को कहाँ दफनायेंगे? क्या ये सब पैसों से हो जाएगा ? निजी भागीदारी से सरकारी एजेंसियों में सुधार तो हुआ है लेकिन प्राइवेट कंपनियों की प्रोफिट मोटिव सामने आई है। बुनियादी सेवाओं के आउटसोर्स होने पर गरीब लोग विकास के दायरे से भी बाहर आए हैं। आज भी शहरों में रहने वाले 30 से 40 प्रतिशत लोग गरीब हैं और मलिन बस्तियों में रहते हैं। भले ही पूरी दुनिया विकास की सुविधा में लगी है, हमें अपना विकल्प खुद खोजना होगा। पिछले पाँच दशकों में विकास के आयातित मॉडल के तहत नगरों के विकास पर ही अधिक ध्यान देने से लोगों का गाँव से शहर की ओर पलायन तेजी से हुआ है।
पलायन की इस तीव्रता ने गाँवों की अर्थव्यवस्था को ही चौपट नहीं किया, बल्कि इससे ग्रामीण संस्कृति भी प्रभावित हुई है। इसलिए यहाँ यह कहना अति प्रासंगिक होगा कि विकसित देशों का अंधानुकरण करने से अपने देश में भी उपभोग की आक्रामक प्रवृत्ति बढ़ी है। इस शहरी संस्कृति के आक्रामक उपभोग ने तो गाँव की जल संस्कृति को भी अपनी चपेट में ले लिया है।
हमें विकसित देशों की नकल नहीं करनी है बल्कि वर्तमान और भविष्य की चुनौतियों को ध्यान में रखकर नए एवं मौलिक सोच के द्वारा टिकाऊ विकास का एक मॉडल निकालना है जो न्यूयार्क, शंघाई या लंदन से हटकर लखनऊ, पटना, गुवाहाटी या अहमदाबाद जैसे शहरों की वास्तविकता पर आधारित है। प्रदूषण और अन्याय के बिना ही सच्चे मायने में विकास है जो सबके हित में है। चाहे वे मलिन बस्तियों में रहने वाले गरीब लोग हों या कुलीन परिक्षेत्रों में रहने वाले लोग। सवाल यह है कि क्या हम एक अलग सपना दिखा सकते हैं और उन्हें साकार करने की हिम्मत हममें है ? क्या हम वर्तमान व्यवस्थाओं पर व्यापक चिन्तन कर शहरी विकास का एक अल्टरनेट मॉडल नहीं निकाल सकते हैं ?
आने वाले 40-50 वर्षों में हमारी नदियों एवं जल-स्रोतों का क्या हाल होगा- इसके बारे में कोई सुराग नहीं है। हमें मॉल, अपार्टमेन्ट और कुलीन परिक्षेत्रों की चकाचौंध से हटकर एक नये भारत की कल्पना करनी होगी जहाँ बुनियादी सुविधाओं के साथ-साथ पर्यावरण सुरक्षा और शहरी नवीनीकरण के लिए समग्र चिन्तन की आवश्यकता होगी।हमें क्या करना चाहिए?
प्रकृति सदा अपनी उपेक्षा, अनादर और अपमान करने वाले व्यक्तियों का विनाश कर देती है। हमारी आपसे प्रार्थना है कि आप भी गोमती नदी के संरक्षण, सुरक्षा और प्रबंधन का जिम्मा लें। पवित्र गोमती की सुरक्षा के लिए भागीरथ बनने का आह्वान है- सबको छोटे-बड़े अगणित प्रयास मिलकर करने होंगे। गोमती को राज्य धरोहर घोषित किया जाए और राज्य की जीवन रेखा का सम्मान हो।
1. गोमती नदी के किनारे बसे बगीचे, चारागाह, वन एवं अन्य ऐसे क्षेत्रों के जमीन को वनस्पतियों से आच्छादित रखने की आवश्यकता है- जिससे वर्षा के उपरान्त सतही प्रवाह (रन-आफ) किया जा सके। जिस-जिस मार्ग से वर्षा जल धाराएँ बहती हैं उनमें छोटे-छोटे जल संरक्षण व्यवस्थाओं का निर्माण किया जाए।
2. भूमि के कटाव की रोकथाम और हरित क्षेत्रों में वृद्धि के लिए नदियों और जलाशयों के किनारे और जल ग्रहण क्षेत्रों के स्थानीय समुदायों के सहयोग से वृक्षारोपण हेतु विशिष्ट अभियान चलाना। इससे नदियों में कम गाद जाएगी। जिससे नदियाँ उथली नहीं होंगी तथ बाढ़ का पानी तटबन्धों से नहीं फैलेगा तथा भूजल रीचार्ज में वृद्धि होगी।
3. नदी में जाने वाले सभी नालों में गेट का प्रावधान होना चाहिए ताकि ठोस पदार्थ नाले में ही रोके जा सकें और नाले की सफाई नियमित रूप से की जा सके।
4. वर्ष के कुल 8760 घंटों में से मात्र 100 घंटे ही बारिश होती है। आज की हमारी सारी परेशानी इन 100 घंटों के पानी का विधिवत संग्रहण, कुशल प्रयोग और सुप्रबंधन न करने को ही लेकर है। वर्षा जल का संचयन किया जाए, इसके लिए बरसाती नालों तथा नदियों में मिलने वाले नालों में स्थान-स्थान पर ठोकर, चेकडैम बनाए जाएं, जिससे धरा के पेट में पानी भरे। प्रत्येक गाँव के बरसाती नालों पर अधिकतम संख्या में चेकडैम बनाकर वर्षाजल को धरती के अंदर पहुँचाने से नदियाँ पुनः सदानीरा हो सकेंगी।
5. खेती में रासायनिक खादों एवं कीटनाशकों का न्यूनतम प्रयोग हो। अत्यधिक रासायनिक खादों व कीटनाशकों के प्रयोग को कम करने के लिए जैविक खेती को प्रोत्साहित करने की नीति अपनाई जाए। तटीय खेतों में उर्वरक/कीटनाशकों के विकल्पों का उपयोग।
6. जल, जमीन, जंगल और जानवरों की रक्षा करें।
7. तालाबों, कुओं एवं पोखरों को पाटने का कार्य बंद करें एवं ऐसा करने वाले लोगों का साथ न दें।
8. पुराने तालाबों को पाटने से रोका जाए एवं ठीक किया जाए। नए तालाब बनाए जाएं, जिनमें वर्षा जल का भरपूर संग्रह किया जा सके। जो तालाब बचे हैं, उन्हें गहरा किया जाए तथा तालाबों की खुदाई में निकली मिट्टी का प्रयोग खेती में किया जाए। गाँवों में प्रत्येक गाँव में कम से कम दो तालाब बनें और उनके चारों ओर बरगद, पाकड़ आदि के बड़ छायादार, शोभाकार वृक्ष लगाए जाएं।
9. प्रत्येक ग्राम पंचायत स्तर पर गोमती प्रज्ञामंडल/जल-मित्र समूह/संगठन खड़ा किया जाए, जो अपनी-अपनी पंचायत के अंतर्गत जल संरक्षण/संवर्धन के होने वाले प्रत्येक विभाग के कार्यों की सामाजिक मॉनीटरिंग करें तथा उसका लेखा-जोख रखकर उसे जिला पंचायत स्तर तक सूचित करें। प्रत्येक गाँव के श्रद्धावान आगे आएं और गोमती प्रज्ञा मण्डल बनाएं। कम से कम पाँच लोग मण्डल में हों। गोमती के प्रति सच्ची श्रद्धा उभरे। तटों पर साप्ताहिक स्वच्छता करें व घाटों की नित्य सफाई की व्यवस्था में रचनात्मक सहयोग करें।
10. संकल्प लें कि अब कभी भी अपना कूड़ा-करकट सड़कों पर या नदियों, तालाबों एवं पोखरों में नहीं डालेंगे तथा जो डालेंगे उनका विरोध करेंगे।
कभी टेम्स नदी एक विशाल एवं प्रदूषित नाले में तब्दील हो चुकी थी। लेकिन जागरूकता और अनुशासन के जरिए आज यह सब नदियों के लिए प्रेरणा स्रोत बन गई है। हमें भी यह सोचना होगा कि गोमती नदी आखिर कैसे अपना पुराना स्वरूप और प्रतिष्ठा वापस प्राप्त कर सकती है। इसके लिए निश्चय ही तात्कालिक उपाय पर्याप्त एवं प्रभावकारी नहीं हो सकते, क्योंकि रोग के निदान तथा उपचार से अधिक उससे बचाव की अधिक आवश्यकता है। जो संपूर्ण जीवन शैली द्वारा निर्धारित होता है। प्रदूषित नदी का उपचार करने के बजाए प्रदूषण फैलाने वाले तत्वों का स्रोत पर ही नियंत्रण करना ही बेहतर होगा। जल संरक्षण की जनचेतना के साथ ही मानवीय जीवन में जल से जुड़ा अनुशासन भी आना आवश्यक है, जिसमें दूसरों के जीवन की चिन्ता हो एवं एक भविष्यबोध भी शामिल हो। यदि नीति और नीयत दोनों ठीक हों तो लक्ष्य प्राप्ति में कठिनाई नहीं होती। आइए और तन-मन-धन से सहयोग करें- प्रदेश की इस जन कल्याणी मइया को बचाने में। गोमती नदी को आप जैसे गंभीर लोगों की जरूरत है। हमारा लक्ष्य है पवित्र, निर्मल- जलयुक्त सदानीरा-अविरल प्रवाहमान गोमती नदी एवं उसके स्वच्छ तटघाट।
असिस्टेंट प्रोफेसर
पर्यावरण विज्ञान विद्यापीठ
बाबा साहब भीमराव अंबेडकर केन्द्रीय विश्वविद्यालय
लखनऊ-226025
मो. 9838996013
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