बरसात में बजरी निकालो और बाकी समय में नदी को प्रदूषित करो, इस दृष्टिकोण को बदलने की आवश्यकता है। बेचारी नदी कभी खनन से खोखली हो रही है तो कभी प्रदूषण का दंश झेल रही है। इसका असर नदी के जलस्तर और सिंचाई व्यवस्था पर पड़ेगा। इन का असर दिल्ली-देहरादून में बैठे लोगों पर नहीं बल्कि गोमती नदी के आसपास के निवासियों को झेलना होगा।
उत्तराखंड देश के उन राज्यों में है, जहां भूकंप का सबसे ज्यादा खतरा है। विशेषज्ञ इस प्रदेश को जोन-पांच की श्रेणी में रखते हैं, जहां जान-माल की अत्यधिक क्षति की आशंका रहती हैं। उत्तराखंड में वर्षा के मौसम में प्रति वर्ष होने वाले भूस्खलन से भी बड़े पैमाने पर क्षति होती है। पहाड़ी क्षेत्र होने के साथ-साथ यहां हो रहे अवैध खनन भी इसके मुख्य जिम्मेदार हैं। यहां गंगा और उसकी उप-नदियों के अतिरिक्त गोमती नदी से देर रात रेत व पत्थर की तस्करी आम हो गई है। इन नदियों के किनारे बसे गांव व खेती योग्य भूमि पर खतरा मंडराने लगा है। लोगों को आशंका है कि आपदा आई तो उनकी खेती नदी के हवाले हो जाएगी। भूमि कटान और बाढ़ के कारण नदी किनारे बसे गांव तैलीहाट के सामने अपने अस्तित्व को बचाने की चुनौती है।बागेर जिले में गरूर मंडल स्थित यह गांव अवैध खनन के कारण खतरे में है। घरों के करीब से भूमि कटान शुरू हो गया है लेकिन प्रशासन और संबंधित विभाग अजनबी बना हुआ है। स्थानीय मीडिया और भूमाफिया की मिलीभगत के चलते अखबारों व टीवी से खनन संबंधित खबरें गायब रहती हैं। यह क्षेत्र सितम्बर 2010 में प्राकृतिक आपदा की जद में था जब भूस्खलन ने भयंकर तबाही मचाई थी। उस समय गोमती नदी के किनारे बेतहाशा कटान हुआ था। तैलीहाट गांव के समीप राजेसेरा में खेती योग्य भूमि इस भूमि कटान की शिकार हुई थी। तब भी यहां आसपास अवैध रूप से रेत-बजरी का खनन हो रहा था जो आज तक जारी है। शहरीकरण के विस्तार के लिए रेत-बजरी तो चाहिए परंतु प्रशासनिक तौर पर यह तय होना चाहिए कि नदी किनारे बसे गांवों के समीप से बजरी व पत्थर का व्यावसायिक प्रयोग न हो, नदी में भारी वाहनों के रात्रिकालीन आवाजाही पर रोक लगे।
वन अधिनियम और लागू अधिनियमों को ताक पर रख कर अधिकारियों की जेबें गरम कर नदी को खोखला करने की कवायद पर रोक लगनी चाहिए क्योंकि तैलीहाट गांव में सातवीं सदी के स्थापत्य की जीवंत कहानी बयां करने वाले तीन विविख्यात मंदिर हैं, जिनमें सत्यनारायण मंदिर तो नदी के मुहाने पर ही अवस्थित है। यदि खनन कार्य नहीं रोका गया तो मुमकिन है कि नदी की तीव्र लहरों में गांव के साथ मंदिर का अस्तित्व भी संकट में पड़ जाए। स्थानीय नागरिकों को भी ललचाई गिद्ध दृष्टि को त्यागना होगा। बैजनाथ गांव पर्यटन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है, इसे धाम का दर्जा भी प्राप्त है। दूसरी ओर, गांव वालों को भी इस संबंध में जागरूक होने की आवश्यकता है। उन्हें अपने घरों का कचरा नदी में डालने से परहेज करना चाहिए। इन कचरों से नदी प्रदूषित हो रही है वहीं बरसात में इसके कारण जल-जमाव की समस्या भी होती है।
बरसात में बजरी निकालो और बाकी समय में नदी को प्रदूषित करो, इस दृष्टिकोण को बदलने की आवश्यकता है। बेचारी नदी कभी खनन से खोखली हो रही है तो कभी प्रदूषण का दंश झेल रही है। इसका असर नदी के जलस्तर और सिंचाई व्यवस्था पर पड़ेगा। इन का असर दिल्ली-देहरादून में बैठे लोगों पर नहीं बल्कि गोमती नदी के आसपास के निवासियों को झेलना होगा। क्षतिपूर्ति राशि एक तो वितरित नहीं हुई और वह भी इतनी कम है कि मकान का दरवाजा तक नहीं बन सकता तो जब खेत-गांव ध्वस्त हो जाएंगें तो क्या होगा? अपनी भूमि और घरों को बचाने के लिए स्थानीय समुदाय को एकत्र होकर कोई ठोस योजना बनानी होगी।
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