भूमि के अंदर होने वाले खाद्य पदार्थों के सेवन से तांबे के प्रभाव के कुफल ज्यादा सामने आते हैं। मानसिक व्याधियाँ, अति रक्तदाब, यकृत, गुर्दे व उपापचय की गड़बड़ियाँ तथा असमय बुढ़ापा, शरीर में ताम्र खनिज की अधिकता से हो सकती है। ताम्र की अधिकता हाथ पैर की उंगलियों से प्रारंभ होने वाले उद्वेष्टकारी रोग यथा ऐंठन, आक्षेप, मिर्गी व मितली पैदा करती है।
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूपअति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।
अति रूपेण हरी सीता ....। अति सर्वत्र वर्जयेत। अति करना हमारे व्यवहार में शामिल हो गया है। सम्यक जीवन सम्यक दर्शन किताबी शब्द बनकर हमारे चारों तरफ घूमते रहते हैं और हम अति करते रहते हैं। जनसंख्या विस्फोट के साथ-साथ जरूरतों के बढ़ने के कारण हमने धातुओं का खनन व मृदा का दोहन भी तेज कर दिया है। धरती का एक भी कोना हम मानव रहित नहीं छोड़ना चाहते चाहे वहाँ की धरती में आर्सेनिक की अधिकता हो या सोडियम की।
भूवैज्ञानिक गतिविधियों का मानव जीवन पर महत्त्वपूर्ण असर पड़ता है। बहुत सी व्याधियाँ जिनका प्रभाव तो है पर पहचान व पड़ताल नहीं हो पाती है भूवैज्ञानिक गतिविधियों से जुड़ी हो सकती हैं। साधारण भूवैज्ञानिक कारण यथा मृदा जनन, मृदा अपरदन, ज्वालामुखीय प्रस्फुटन व खनन इत्यादि परोक्ष रूप से जीवन पर प्रभाव डालते हैं जैसे कि खनन पश्चात क्षेत्र से/रिफायन से धातु एवं उनके रासायनिकों का भूमि, जल, वायु में मिल जाना। पंचतत्व में बने इस जीव जगत को कुछ मात्रा में लगभग सभी तत्वों की जरूरत होती है। किसी तत्व विशेष की कमी अथवा अधिकता असरकारक प्रभाव रखती है। कई धातुएँ अति हो जाने पर मनुष्य शरीर के अवयवों पर उल्टा असर दिखाती हैं जैसे कि सीसा व कैडमियम गुर्दे पर, कैडमियम व एल्यूमिनियम अस्थियों पर, सीसा, एल्यूमिनियम व पारा तंत्रिका तंत्र पर, सीसा व पारा प्रजनन तंत्र पर, सीसा व आर्सेनिक हृदय पर आदि।
अत्यधिक धातुओं के शरीर पर जमाव के कारण कैंसर की स्थितियाँ पैदा हो जाती हैं। धातुओं की भस्म (ऑक्साइड) अन्य धात्विक रसायन, धातुओं से इतर कई लवण तथा गैसें भी शरीर के लिये हानिकारक हो सकती हैं। मृदा का संगठन, मृदा प्रदूषण के अलावा उसके नीचे पाई जाने वाली चट्टानों के संगठन पर मुख्यतया निर्भर करता है। सिलिका, क्लोरीन, फ्लोराइड व आर्सेनिक की कमी अथवा अधिकता जीवनीशक्ति पर विपरीत प्रभाव छोड़ने वाली होती हैं। कभी-कभी तत्व विशेष की अधिकता से शरीर की प्रतिरोधक क्षमता पर अतिसक्रियता का असर पड़ने के कारण शरीर उस तत्व को शरीर से उत्सर्जित करने लगता है, अत: वातावरण में तत्व अधिकता में होने पर भी शरीर में उस तत्व की कमी हो जाती है।
खनन विधियों के विभिन्न चरणों में मानव शरीर के लिये नुकसानदायक धातुओं का भूमि की सतह पर सान्द्रीकरण होता है। तांबे व सोने इत्यादि के लिये खनन करते समय बड़ी मात्रा में आर्सेनिक, तांबा व सीसा धरातल की मृदा, फसल, वायु एवं स्तरीय तथा भूमिगत जलस्रोतों को प्रदूषित करता है। रेडियोएक्टिव पदार्थों के खनन से कैंसर के अलावा प्रोटीन व गुणसूत्रों के अल्पावधि व दीर्घावधि तक हानि हो सकती है। इन कारणों से गर्भस्राव, बच्चों में पैदायशी गड़बड़ियां, लिवर व रक्त कणों की असाधारण स्थितियाँ उत्पन्न हो सकती हैं। अत: वातावरणी संकट को कम करने हेतु खानों की योग्यतम व्यवस्था पर ध्यान दिया जाना चाहिए। खनन उद्योग के धात्विक एवं रेडियोएक्टिव धातु लवणों के व्यर्थ हिस्से का सोच समझ कर उचित रीति से निष्कासन एवं निष्पादन होना चाहिए। एक बार प्रयोग की गई धातु को पुन: प्रयोग करने हेतु पुन: चक्रीकरण व्यवस्था की जानी चाहिए।
धातु-अपधातु मिश्रित जल, पीने के अयोग्य हो जाता है साथ ही कभी-कभी अम्लता बढ़ जाने के कारण तत्वों को अपने में सूक्ष्म मात्रा में घोलकर जल में उन तत्वों की सांद्रता भी बढ़ा देता है। कोयले, रेत तथा ऐस्बेस्ट्स की बारीक धूल खदान मजदूरों के फेफड़ों को विभिन्न व्याधियों से ग्रसित कर देती है। फेफड़ों में धूल की परत के कारण मजदूरों के फेफड़े ऑक्सीजन को रक्त तक पहुँचाने में असमर्थ हो जाते हैं। अत: खदान मजदूरों को मास्क पहनना आवश्यक कर देना चाहिए।
ज्वालामुखी से निकले एरोसॉल कई वर्षों तक धरती के वातावरण को प्रभावित करते हैं। ज्वालामुखीय स्फुटन अत्यंत अल्प समय में धरती की सतह पर मैग्मा के साथ सल्फरडाइ ऑक्साइड, जिंक, तांबा, कैडमियम तथा अन्य खनिजों का पुनर्वितरण कर देने में सक्षम है। धरती की सतह पर एक समय में लगभग 60 ज्वालामुखी फूटते हैं, इस तरह से धरती की सतह पर आने वाले खनिजों की मात्रा काफी ज्यादा हो जाती है।
कुछ तत्व जैसे कैल्सियम, क्लोरीन, मैग्नीशियम, फास्फोरस, पोटेशियम, सोडियम व सल्फर मनुष्य जीवन के लिये आवश्यक है। कुछ तत्व जैसे क्रोमियम, कोबाल्ट, तांबा, क्लोरीन, आयोडीन, लोहा, मैग्नीज, मोलिब्डीनम, सेलीनियम व जस्ता शरीर के लिये आवश्यक तो हैं पर अधिकता में शरीर पर जहरीला असर पहुँचाते हैं। कुछ भारी धातुएँ शरीर में जमा होकर अनिष्ट करती हैं। जैसे एल्युमिनियम भस्म व्यक्ति को जल्दबाज बना देती है, पक्षाघाती दुर्बलता श्लेष्मकलाओं की रूक्षता तथा पैरों की दुर्बलता को जन्म देती है। एल्यूमिनियम धातु दिमाग की कोशिकाओं में जमा होकर एल्जाइमर्स की बीमारी पैदा करती है।
पारा, हवा, पानी, मिट्टी द्वारा अथवा सीधा ही शरीर पर असर डालता है। इसकी अधिकता से कंपकंपी, देखने सुनने की शक्ति का बदलना, सरदर्द, बेचैनी, शर्मीलापन, झिझकने का स्वभाव, कमजोरी, स्मृतिभ्रंश इत्यादि हो जाते हैं। हाथ पैरों में जलन, सूजन, अत्यधिक पसीना, दाने, जोड़ों का दर्द, चिड़चिड़ा स्वभाव पारे की देन हो सकती है। फेफड़ों से ली गई पारे की वाष्प तुरंत खून में मिल जाती है तथा इससे माँ व उसके अजन्में बच्चे को गंभीर नुकसान पहुँचाते हैं। क्रोमियम शरीर के लिये आवश्यक तत्व है पर अधिकता श्लेष्मा परतों तथा गुर्दे को हानि पहुँचाती है।
जीवाश्म ईधन के जलने से नित्य वातावरण में घुलने वाला सीसा जहर एक गंभीर चुनौती है। मुख्यत: दिमाग की कोशिकाओं की हानि पहुँचाने वाला सीसा अस्थियों में जमा होता है तथा फिर फास्फेट के साथ मिलकर कोमल कोशिकाओं पर धावा बोलकर उन्हें विनिष्ट कर देता है। सीसे की अधिकता पक्षाघात कारक है। यह लाल रक्त निर्माण क्रिया में बाधा डालता है। अत: वर्णहीनता, पाण्डु, गठिया इत्यादि रोग पैदा करता है। बच्चों के लिये यह विशेषत: हानिकारक है क्योंकि दिमाग की कोशिकाओं का विकास रोक देता है। सीसे की अधिकता से बच्चों में पढ़ाई में दिक्कतें आती हैं, जन्म जात विकृतियां, कैंसर, मानसिक समस्यायें व अति रक्तदाब हो सकता है।
पश्चिम बंगाल व उड़ीसा के भूमिगत जल में मिला आर्सेनिक विभिन्न त्वचा संबंधी रोगों का कारक है। आर्सेनिक तथा उसके लवण प्रत्येक अंग तथा ऊतक पर गहन क्रिया करते हैं। बेचैनी के साथ रात्रिकालीन रोग तथा हल्का सा परिश्रम करने पर भारी थकान भय, उद्वेग, चिंता, रक्ताल्पता तथा हरित पाण्डुरोग उत्पन्न करते हैं। इस धातु में विषाणुओं को मारने की अद्भुत क्षमता है अत: कम मात्रा में यह शरीर रक्षा करती है पर अधिक मात्रा में होने पर रोगी में यकृत व प्लीहा के विकारों के साथ एकाकी रहने की इच्छा को प्रेरित करती है।कैडमियम मुख्यत: उपधातुओं के साथ पाया जाता है तथा तंबाकू की कोमल पत्तियों द्वारा अवशोषित कर लिया जाता है मनुष्य द्वारा प्रयोग किये जाने पर कैंसर कारक है।
इसका सल्फेट हैजा व पीतज्वर के साथ ऐसी दुर्बलता लाता है जो रोगी को मरणोन्मुख बना देता है। पेट के कैंसर व चेहरे के पक्षाघात का कारक हो सकता है। टिन की क्रिया दुर्बलता, अधीरता, हतोत्साह के साथ स्नायु संस्थान एवं श्वासयंत्रों पर प्रमुखतया केंद्रित रहती है। कोबाल्ट मेरूदण्ड तथा शरीर के निचले हिस्सों की स्नायविक दुर्बलता पैदा करता है। निकिल की अधिकता स्नायविक, वनमोद्रेकी, सिरदर्द, मंददृष्टि व दुर्बल पाचनशक्ति का कारक है। एण्टीवायरल का कार्य करने वाला बिस्मथ अधिकता में पोषण नली का क्षोभण तथा प्रतिश्यायी प्रवाह पैदा करता है। जिंक की अधिकता मस्तिष्कीय निष्क्रियता तथा भ्रांति उत्पन्न करती है।
अभी समाचार पत्र में एक समाचार देखा था कि एक मशहूर महिला सुंदर बने रहने के लिये अपने भोजन में कोयले का चूरा प्रयोग में लाती है। कोयले की उपस्थिति से भूमिगत जलस्तर का जल अपने आप साफ होता रहता है किंतु शरीर में ग्रेफाइट की अधिकता हो जाने से चर्म रोग तथा भोजन नाल संबंधी विकार उत्पन्न हो जाते हैं। रेत के बारीक कण हवा में तैरते हैं तो मनुष्य शरीर में जाकर अपूर्ण स्वांगीकरण के फलस्वरूप सदोष पोषण को जन्म देते हैं। अत: शनै: शनै: स्नायविक दुर्बलता, यक्ष्मा अस्थिक्षय इत्यादि रोग पैदा हो सकते हैं। नमक के अत्यधिक उपयोग से हम सब परिचित हैं ही। यह शोफ के साथ अरक्तता, श्वेत कोशिका बहुलता, आमवाती गठिया, थायरॉइड की अतिक्रिया, गलगण्ड, वृक्कशोथ, मधुमेह व उच्च रक्त चाप पैदा करता है। पोटाश के विभिन्न लवण वृक्क व ह्दय को दुर्बल करते हैं तथा शरीर का तापमान घटाते हैं। कोमल नाड़ी, ठंड, सर्वांगीण दुर्बलता, दमा तथा तेज काटते हुए दर्द पैदा करते हैं।
चूने की अधिकता से कुपोषण, सर्वांगीर्ण पसीना, ग्रंथियों का फूल जाना, कण्ठमाला तथा फुफुसीय यक्ष्मा, हड्डियों का टेढ़ा होना, पिट्यूटरी व थायरायड ग्रंथियों की दुष्क्रिया उत्पन्न होती है। चूना पत्थर वाले क्षेत्र में भूमिगत जल में नाइट्रेट घुले होने पर छोटे बच्चों में ऑक्सीजन वहन करने की शक्ति को कम कर देते हैं। ग्रेनाइट व पैग्मेटाइट वाले क्षेत्रों में फ्लोराइड से फ्लोराइड आयन निकल कर मुख्यत: दाँतों व हड्डियों के रोग पैदा करते हैं।
सल्फर शरीर में विकारों को भीतर से बाहर धकेलता है तथा अनेक रोगों को हर कर त्वचा विकारों को नष्ट करने की क्षमता रखता है। अधिकता से त्वचा विकारों के साथ-साथ अत्यधिक दुर्बलता इसका चारित्रिक लक्षण है। इन रोगियों में दवायें अपना असर दिखाने में असक्षम हो जाती हैं। फास्फोरस तथा फास्फोरिक एसिड श्लैष्मिक झिल्लियों में सर्वप्रथम असरकारक है। कोई भी एसिड शरीर में अत्यधिक दुर्बलता प्रदायक होता है। फास्फोरस अस्थि तंत्र का एक महत्त्वपूर्ण अवयव है। शरीर में फास्फोरस की अधिकता, फास्फोरस को शरीर से निकालने के कारण अस्थियों में गंभीर रोगों को जन्म देती है। पोषण अर्थात चयापचय क्रिया का विनाशकारी चित्र उपस्थित करती है। यकृत की पीत शुष्कता अर्धजीर्ण यकृत शोथ का कारण बनती है। नाइट्रिक एसिड श्लैष्मिक ग्रंथियों पर छालों के साथ यकृत विकार पैदा करती है। आयोडीन की अधिकता तीव्र चयापचय को जन्म देती है फलस्वरूप अत्यधिक भोजन करने पर भी मनुष्य सूखता चला जाता है। श्वेत रक्त कणिकायें अत्यधिक सक्रिय हो जाने के कारण उनकी भक्ष्य क्रिया किसी बिंदु पर हावी हो जाती है। अत: असंख्य क्षयकारी व कण्ठमाला ग्रस्त तापप्रधान उद्भेदों का जन्म होता है।
तांबा भूमिगत जल को ज्यादा अम्लीय बना देता है। भूमि के अंदर होने वाले खाद्य पदार्थों के सेवन से तांबे के प्रभाव के कुफल ज्यादा सामने आते हैं। मानसिक व्याधियाँ, अति रक्तदाब, यकृत, गुर्दे व उपापचय की गड़बड़ियाँ तथा असमय बुढ़ापा, शरीर में ताम्र खनिज की अधिकता से हो सकती है। ताम्र की अधिकता हाथ पैर की उंगलियों से प्रारंभ होने वाले उद्वेष्टकारी रोग यथा ऐंठन, आक्षेप, मिर्गी व मितली पैदा करती है। लौह तत्व की अधिकता शरीर को दुर्बल व अरक्तक बना देती है। चांदी की अधिकता से विलम्बकारी विधि से शरीर धीरे-धीरे सूखता चला जाता है तथा क्षयकारी रोग तथा स्वर यंत्र के उद्भेद उत्पन्न होते हैं। रतिजरोग निवारक एवं कण्ठमाला रोग निवारक स्वर्ण की अधिकता पारद एवं उपदंश जनित रोगावस्थाओं से साम्यता रखती है तथा आत्महत्या की प्रबल इच्छा पैदा करती है। रेडियम कटि प्रदेश व त्रिकास्थि की वेदना आमवात, गठिया, सामान्य चर्म रोगों से लेकर कैंसर तक की अवस्था पैदा करता है। तत्वों की कमी भी मानव शरीर के लिये अनिष्टकारी होती है अत: कई चिकित्सा पद्धतियों में तत्वों व उनके लवणों का सेवन करवा कर मानव चिकित्सा की जाती है।
अत: सार यह है कि हमारे पास क्षेत्र विशेष या समुदाय विशेष के व्यक्तियों व पशुओं के रोगों का मानचित्र उपलब्ध होना चाहिए ताकि भूवैज्ञानिक कारणों के साथ उनका परस्पर संबंध यदि कोई हो तो ज्ञात किया जा सके तथा रोगियों का सही उपचार किया जा सके। खनन उद्योग के उपशिष्ट पदार्थों का प्रबंधन उचित रीति से होना चाहिए ताकि वह जल वायु मृदा को दूषित न कर सके। सरपेंटीन, क्लोरीन, जीयोलाइट, कोयला, रेत इत्यादि क्षेत्रीय पानी को साफ करने के काम में लाये जा सकते हैं। भारी धातुओं की पीने के जल से सफाई हेतु सरल विधियाँ विकसित की जानी चाहिए ताकि जंतु व वनस्पति जगत इन तत्वों व उनके यौगिकों की अधिकता से व्याधियों को प्राप्त न कर सकें तथा धरा पर विद्यमान जीव जगत सर्वांगीण लाभ की स्थिति में ही रहें।
संदर्भ
मेडिकल जियोलाजी एन इमरजिंग फील्ड इन इनवायरमेंट साइंस राव एट आल 2001, जीएसआई, स्पेशियल पब्लिकेशन 65 (II) पेज 213-222 मेटीरिया मेडिका बाइ डा. विलियम बोरिक, बी. जैन पब्लिर्शस प्रा. लि., नई दिल्ली 962 पेज
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कौमुदी जोशी
भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण, देहरादून।
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