औद्योगिक कॉरिडोर: विध्वंस का नया हथियार

पश्चिमी घाट की 600 मीटर की ऊंचाई को लांघकर गोदावरी, कृष्णा जैसी नदियों का पानी कॉरीडोर परियोजना के लिए सुझाया है। पर इन दोनों नदियों के पानी को लेकर महाराष्ट्र व आंध्रप्रदेश में संघर्ष की जो स्थिति हमेशा से रही है उसकी जानकारी शायद इन अंतर्राष्ट्रीय सलाहकारों को नहीं है। जिन राज्यों में भयावह जलसंकट है और किसान जलसंकट से जूझते आत्महत्या को मजबूर हैं वहां का पानी शहरीकरण व औद्योगीकरण की चकाचौंध के लिए बढ़ाया जाए ऐसी योजनाएं आखिर देश को किस दिशा में ले जाएंगी?

प्रस्तावित दिल्ली-मुंबई औद्योगिक कॉरिडोर का निर्माण जमीन और जल की जंग का पर्याय बन सकता है। उपजाऊ कृषि भूमि का जबरिया अधिग्रहण और कारपोरेट घरानों के हितार्थ बनने वाले इस विहंगम कॉरिडोर के लिए पानी की उपलब्धता ने सरकार की रीति नीति पर सवालिया निशान लगा दिए हैं। निजी पूंजी निवेशकों की जरुरतों के लिए इस कॉरिडोर (डीएमआईसी) को आकार देने में लगी सरकार को शायद यह नहीं मालूम कि सिमट रही नदियों और सूख रहे भूमिगत जलस्रोतों से इस कॉरिडोर में होने वाले औद्योगिकीकरण व शहरीकरण के लिए पानी कहां से आएगा? कॉरिडोर निर्माण भारत सरकार के सहयोग और जापानी पूंजी निवेश से होगा। अमेरिका के मककिन्से ग्लोबल इंस्टीट्यूट ने इस मेगा परियोजना का अध्ययन कर बताया कि भारत के तेज रफ्तार शहरीकरण के लिए ऐसे कुल 19 कॉरिडोरों की जरुरत है। यह इंस्टीट्यूट ग्लोबल मैनेजमेंट फर्म से संबद्ध है और इसने दो हजार शहरों का अध्ययन कर बताया है कि भारत की वर्तमान शहरी आबादी 34 करोड़ से बढ़कर सन् 2030 यानि अगले 18 वर्षों में 59 करोड़ हो जाएगी।

इस स्थिति में शहरी भारत के लिए पानी की आपूर्ति, सीवेज ट्रीटमेंट, ठोस अपशिष्ट प्रबंधन, झुग्गी बस्तियां, सार्वजनिक तथा निजी यातायात तथा हवा के लिए खुले स्थान व हरियाली के साथ बाग-बगीचे सबसे बड़ी चुनौती होगी। पूर्व से विद्यमान बिजली की उपलब्धता की समस्या भी सरकार के सामने रहेगी। आज देश के शहरों में रहने वाले लोगों के जीवन की गुणवत्ता की स्थिति नारकीय है ऐसे हालात में डीएमआईसी के निर्माण से जो हालात बनेंगे उसका हमें अभी अंदाजा नहीं है। इसी कॉरिडोर के लिए एक अन्य अधोसंरचना सलाहकार विल्सन इण्डिया ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि कॉरिडोर के आसपास ढेर सारे नए शहर, 24 औद्योगिक केंद्र, तीन बंदरगाह, छह विमानतल और 1500 कि.मी. लंबी द्रुत गति की रेल लाइन व सड़कें बनेंगी। यह परियोजना विशाल छह राज्यों से होकर जाएगी। मककिन्से की रिपोर्ट के मुताबिक पहली बार वैश्विक जनसंख्या के आंकड़ों से स्पष्ट हुआ है कि दुनिया के अधिसंख्य लोग अब शहरों में रहने लगे हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार भारत में अगले चार दशक में आधे से ज्यादा आबादी शहरों में होगी।

इस कॉरिडोर के पूरे क्षेत्र में आबादी 23.1 करोड़ से बढ़कर सन् 2019 तक 32 करोड़ और 2030 में 52.4 करोड़ हो जाएगी। शहरी नियोजन सलाहकार व वास्तुविद रोमी खोसला और विक्रम सोनी का डीएमईसी की रिपोर्ट पर मत है कि कॉरिडोर के शहरीकरण से निजी क्षेत्र के लिए जहां वहां शाईनिंग इंडिया साकार होगा तो वहीं सरकार के लिए यह भयावह समस्या की पूर्व चेतावनी है। निजी पूंजी निवेशकों की प्राकृतिक संसाधनों के बेहिसाब दोहन की असीमित लालच से जिस तरह की विशालकाय परियोजनाएं बनाई जा रही हैं उसके कारण पर्यावरण का संकट तेजी से बढ़ता जा रहा है। कारपोरेट घरानों और सरकारों के गठबंधन से विकास और पर्यावरण दोनों चिंताजनक स्थिति में हैं। चूंकि विशालकाय परियोजनाओं के प्रस्ताव देश का राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक और प्राकृतिक भविष्य तय करेंगे इसलिए आने वाली सदियों के लिहाज से बनाई जाने वाली ऐसी परियोजनाओं में पूरी पारदर्शिता, ईमानदारी व जनता की सहमति महत्वपूर्ण है।

भारतीय शहरों की नारकीय स्थिति पर मककिन्से की रिपोर्ट सरकार के नीति निर्धारकों के लिए बाइबिल के समान है। रिपोर्ट में कॉरिडोर की सार्थकता पर 34 अनुशंसाएं भी सरकार को सुझाई गई हैं। क्योंकि 20 महानगरों के आसपास 25 नए शहर बनेंगे। अतएव इतने बड़े शहरीकरण के लिए बिजली, पानी, परिवहन जैसी जरुरतें बड़ी चुनौतियां हैं। देश में डीएमआईसी जैसे 19 कॉरिडोर टायर 1 और टायर 2 शहरों को जोड़ने के लिए सुझाए गए हैं। जाहिर है कि विकास के ऐसे मॉडल में औद्योगिकीकरण और शहरीकरण हेतु सबसे अहम है पानी की निरंतर उपलब्धता। जलसंकट के दलदल में धंस रहे इस देश में पानी के दो मुख्य स्रोत भूमिगत जल और नदियां ही हैं। डीएमईसी के महत्वाकांक्षी औद्योगीकरण व शहरीकरण के लिए कुल पानी की जरूरत का दो तिहाई नदियों से उलीचा जाएगा। शेष पानी भूमिगत जलस्रोतों से निचोड़ा जाएगा जो पहले ही अत्यधिक दोहन से पाताल में समाते जा रहे हैं।

डीएमआईसी परियोजना के निर्माण और इसके विकास के साथ हमेशा उपयोग में आने वाले पानी का प्रबंधन छह राज्यों की प्रमुख नदियों से ही संभव होगा। रोमी खोखला और विक्रम सोनी ने गहन विश्लेषण में पाया है कि परियोजना के लिए खपने वाला पानी अन्ततः उन्हीं नदियों व भूमिगत जलस्रोतों से प्राप्त किया जाना है जिन पर ग्रामीण किसान खेती के लिए निर्भर हैं। सीमित जल सम्पदा की शिकार नदियों को लेकर ऐसे में संघर्ष की स्थिति निर्मित हो सकती है। कॉरिडोर की स्कॉट विल्सन रिपोर्ट ने डीएमआईसी की परियोजना क्षेत्र की नदियों के कुल बहाव और उपयोग में लिये जाने वाले पानी का ब्यौरा पेश किया हैं। जानकार इस तरह के अध्ययन को सतही करार देते हैं। क्योंकि इसमें क्षेत्र की संबंधित पचास फीसदी पानी उलीच कर परियोजना के उपयोग में लाया जाने का सुझाव दिया गया है। लेकिन ये नदियां वैसे ही अतिदोहन का शिकार होकर अपने अस्तित्व को बचाने में लगी हैं। कॉरिडोर परियोजना को छह राज्यों की नदियां, यमुना, चम्बल, माही, साबरमती, नर्मदा और तापी के साथ कच्छ सौराष्ट्र की मौसमी नदियां व लुनी नदी से पानी की आपूर्ति की योजना सुझाई है। इसके लिए नदियों पर बांध और नहरों का निर्माण करना है। लेकिन इन नदियों पर पहले से ही बांध निर्मित हैं और पानी का सीमा से ज्यादा उद्वहन/दोहन हो रहा है।

स्पष्ट है ऐसी विशाल परियोजना के लिए पेश किए गए काल्पनिक सुझाव और आंकड़ों को आधार बनाकर सरकार ने कॉरिडोर निर्माण कैसे शुरू कर दिया? वैसे भी केंद्रीय जल आयोग व इंटरनेशनल वॉटर मैनेजमेंट के नदी जल संबंधी आंकड़े उक्त कॉरिडोर परियोजना की सलाहकार एजेंसियों के आंकड़ों व तथ्यों से एकदम भिन्न हैं। स्कॉट विल्सन की रिपोर्ट में तो और आगे जाकर परियोजना क्षेत्र के बाहर की नदियों से भी पानी खींचने की कल्पना की गई है। पूर्वी बहाव वाली नदियों खासकर पश्चिम घाट की नदियों की जलसंपदा को उलीचकर लाने की दलील दी गई है। पश्चिमी घाट की 600 मीटर की ऊंचाई को लांघकर गोदावरी, कृष्णा जैसी नदियों का पानी कॉरीडोर परियोजना के लिए सुझाया है। पर इन दोनों नदियों के पानी को लेकर महाराष्ट्र व आंध्रप्रदेश में संघर्ष की जो स्थिति हमेशा से रही है उसकी जानकारी शायद इन अंतर्राष्ट्रीय सलाहकारों को नहीं है। जिन राज्यों में भयावह जलसंकट है और किसान जलसंकट से जूझते आत्महत्या को मजबूर हैं वहां का पानी शहरीकरण व औद्योगीकरण की चकाचौंध के लिए बढ़ाया जाए ऐसी योजनाएं आखिर देश को किस दिशा में ले जाएंगी?

रोमी खोसला और विक्रम सोनी ने इस परियोजना के तथ्यों का विश्लेषण करते हुए अपने शोध पत्र में कहा है कि डीएमआईसी जैसी परियोजनाओं का अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन वास्तविकताओं से मेल नहीं खाता है। चूंकि इस तरह की परियोजनाएं दशक नहीं बल्कि शताब्दियों का भविष्य तय करेगी इसलिए पर्यावरण सम्मत और टिकाऊ परियोजनाएं ही बननी चहिए। ऐसी परियोजनाएं यदि प्रस्तावित स्वरूप में लाई जाएंगी तो प्राकृतिक संसाधनों को नष्ट करेगी जो कि वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन का कारण बनेंगी। डीएमआईसी की सारी रिपोर्टों का वैज्ञानिक तरीके व जन जागृति करके लागू करना ही हितकर होगा। विशेषज्ञों के मुताबिक इस परियोजना के लिए एक स्वतंत्र आयोग का गठन कर समस्त पर्यावरणीय मंजूरी लेनी चाहिए। वैसे भी अब शहरों को प्राकृतिक शहरों के रूप में विकसित करना बेहद जरुरी हो गया है।

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