अतुल्य भारत की बहुमूल्य प्राकृतिक सम्पदा आर्द्रभूमियाँ

अतुल्य भारत की बहुमूल्य प्राकृतिक सम्पदा आर्द्रभूमियाँ
अतुल्य भारत की बहुमूल्य प्राकृतिक सम्पदा आर्द्रभूमियाँ

वेटलैंड(आर्द्रभूमि) एक विशिष्ट प्रकार का पारिस्थितिकीय तंत्र है तथा जैव-विविधता का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। जलीय एवं स्थलीय जैव-विविधताओं का मिलन स्थल होने के कारण यहाँ वन्य प्राणी प्रजातियों व वनस्पतियों की प्रचुरता पाए जाने की वजह से वेटलैंड समृद्ध पारिस्थतिकीय तंत्र है। आज के आधुनिक जीवन में मानव को सबसे बड़ा खतरा जलवायु परिवर्तन से है और ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि हम अपनी जैव-विविधता का संरक्षण करें।

2 फरवरी सन् 1971 में ईरान के कैस्पियन सागर के तटीय क्षेत्र रामसर नामक स्थान पर एक सम्मेलन का आयोजन किया गया। इस सम्मेलन में यह निश्चित किया गया कि प्रतिवर्ष संपूर्ण विश्व में 2 फरवरी का यह दिन "विश्व आर्द्रभूमि दिवस" के रूप में मनाया जायेगा। इसका मुख्य उद्देश्य ग्लोबल  वॉर्मिंग का सामना करने में आर्द्रभूमि, जैसे दलदल अथवा मैनग्रोव के महत्व के बारे में जागरुकता फैलाना है। वर्ष 2020 में विश्व आर्द्रभूमि  दिवस के दिन इस विषय को सर्वोपरि रखा गया और आर्द्रभूमि की वर्तमान स्थिति, जैव-विविधता और उससे जुड़े अनेकानेक विषयों पर प्रकाश डाला गया। उसमें हुई क्षति की भरपाई करने के उपायों पर बातचीत की गई और इस महत्वपूर्ण विषय को बढ़ावा दिया गया।

जलमग्न अथवा नमभूमि को वेटलैंड आर्द्रभूमि कहते हैं। यह प्राकृतिक अथवा कृत्रिम, स्थायी अथवा अस्थायी, पूर्णकालीन अथवा अन्यकालीन रूप से आई, स्थिर अथवा अस्थिर,स्वच्छ जलयुक्त अथवा अस्वच्छ जलयुक्त, लवणीय या फिर मटमैला जलयुक्त इन सभी प्रकार के जल वाले स्थल, आर्द्रभूमि के अंतर्गत आते हैं। वह समुद्री जल जहाँ माटा जल की गहराई 6 मीटर से अधिक न हो वह भी आर्द्रभूमि में शामिल है। आम भाषा में कच्छ भूमि (मार्श को भी दलदल की संज्ञा दी जाती है।

 आर्द्रभूमिः विभिन्न प्रकार की होती है -

  •  ऐसी आर्द्रभूमि, जिसमें वृक्ष, क्षुप और अन्य काष्ठीय पौधे उग रहे हों, "दलदल वनभूमि" (स्वैम्प) कहलाती है।
  •  ऐसा दलदली क्षेत्र जिसमें घास या अन्य छोटे पौधे ही उग रहे हो, "कच्छ भूमि" (मार्श) कहलाता है।
  • घासयुक्त दलदल, जो जल प्लावित होता है, उस क्षेत्र को  "घास क्षेत्र" (बारस) कहते हैं।
  • खनिज युक्त आर्द्रभूमि को 'फैन्स' कहते हैं।
  • सड़े-गले पेड़-पौधों के कारण उत्पन्न कोयलायुक्त दलदल को 'पीट' कहते हैं।

पृथ्वी पर जीवों के विकास की एक लंबी कहानी है और इस कहानी का सार यह है कि धरती पर सिर्फ हमारा ही अधिकार नहीं है अपितु इसके विभिन्न भागों में विद्यमान करोड़ों प्रजातियों का भी इस पर उतना ही अधिकार है जितना कि हमारा। नदियों, झीलों, समुद्रों, जंगलों और पहाड़ों में पाए जाने वाले विभिन्न प्रकार के पादपों एवं जीवों (समृद्ध जैव विविधता ) को देखकर हम रोमांचित हो उठते हैं। जब जल एवं स्थल दोनों स्थानों पर समृद्ध जैव-विविधता देखने को मिलती है तो सोचने वाली बात यह है कि जिस स्थान पर जलीय एवं स्थलीय जैव-विविधताओं का मिलन होता है वह जैव-विविधता की दृष्टि से अपने आप में कितना समृद्ध होगा?

इस प्रकार आर्द्रभूमियाँ विभिन्न प्रकार की प्राकृतिक वस्तुओं के सम्मिश्रण से बनती हैं। यह इस बात पर निर्भर करता है कि आर्द्रभूमि किस क्षेत्र में है। इन प्राकृतिक आभूमियों के अलावा स्थिरीकरण तालाब, मछली तालाब प्रदूषण को दूर करने के लिये बनाया गया तालाब, चावल के खेत, लवण कुंड इत्यादि कृत्रिम नम-भूमियाँ हैं जो मनुष्यों द्वारा बनाई गई हैं। ये क्षेत्र प्राकृतिक या कृत्रिम हो सकते हैं। इनमें अस्थायी या स्थायी रूप से विद्यमान जल रुका हुआ अथवा बहाव वाला भी हो सकता है ये जल हल्का नमकीन, ताजा, खारा कैसा भी हो सकता है। इसमें समुद्री जल भी सम्मिलित है, कम ज्वार के समय जिसकी गहराई 6 मीटर से अधिक न हो।

भारत में आद्रभूमि क्षेत्र बड़ विस्तृत रूप से फैला हुआ है। यह क्षेत्र हिमालय से लेकर डेकन (पुराने भारत में चिन्हित किया गया दक्षिणी क्षेत्र) के पठार तक विद्यमान है। भारत में विभिन्न प्रकार के जल स्त्रोत हैं। मुख्य रूप से नदियों, झरने, समुद्र तट इत्यादि क्षेत्र के हिसाब से लगभग 4.65% अर्थात् देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 4.65% भाग भारत में समुद्र तटीय आर्द्रभूमियों का क्षेत्र अत्यंत व्यापक है। इनमें 10,204 प्राकृतिक और 2820 कृत्रिम हैं।

Table 1

मैनग्रोव का आर्द्रभूमि की दृष्टि से अत्यंत महत्व है। ये ऐसे झाड़ी या वृक्ष होते है जो खारे पानी या अर्थ खारे पानी में पाये जाते हैं। ये अक्सर ऐसे तटीय क्षेत्रों में होते हैं जहाँ कोई नदी किसी सागर में बह  रही होती है। जिससे उस जल में मीठे पानी और खारे पानी का मिश्रण होता है। मैनग्रोव वनों का पारिस्थितिकी में बहुत महत्व है क्योंकि ये तटों को स्थिरता प्रदान करते हैं और बहुत सारे प्राणी जैसे मछलियों और पक्षी जातियों को निवास और सुरक्षा प्रदान करते हैं।

हवा और भूमि की नमी का भी अटूट रिश्ता है। पृथ्वी के सबसे ऊपर वाले तल, फिर उससे नीचे दो तलों में यदि नमी नहीं हो तो भूमि फट जायेगी जिसमें प्राणी जगत के समा जाने का खतरा है। भूमि की ऊपरी परत में यदि नमी न हो तो कितने भी बीज बिखेरे जाएं. उनमें से नन्हा अंकुर कभी बाहर नहीं आयेगा। उसी तरह यदि हवा में नमी न हो तो धरती तापघर में परिवर्तित हो जायेगी. नन्हा अंकुर निकलेगा भी तो दिन-दहाड़े झुलस जायेगा। हवा की नमी अवश्य कुछ कीड़ों वाली छोटी-मोटी बीमारियाँ लेकर आती हैं लेकिन नमी की पूर्ण रूप से अनुपस्थिति हो जाए, तो फसल ही न हो । लोग भरते मर जाएंगे।

आर्द्रभूमियों का महत्व

आर्द्रभूमियों का समय-समय पर कई प्रकार से उपयोग किया जा रहा है मुख्य रूप से इनका उपयोग सिंचाई, मछली पालन और मनोरंजन के लिये किया जा रहा है। आर्द्रभूमि पारिस्थितिकी तंत्र के संतुलन हेतु एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। इनमें से कुछ विशेष भूमिका इस प्रकार है.

 कार्बन पृथकरण 

कार्बन पृथकरण के तहत पौधों, मिट्टी, भूगर्भ संरचनाओं और महासागर में कार्बन का दीर्घकालिन भंडारण होता है। यह वह प्रक्रिया है जिसके माध्यम से वायुमंडल से कार्बन डाइऑक्साइड को प्रकाश संश्लेषण द्वारा पेड़-पौधों में अवशोषित कर मिट्टी और बायोमास ( पेड़ की शाखाओं, पत्ते और जड़ों में कार्बन के रूप में संग्रहीत किया जाता है। प्रकृति ने पेड़-पौधों, समुद्रों, पृथ्वी और जानवरों को स्वयं कार्बन सिंक या स्पंज का रूप प्रदान किया। इस ग्रह में कार्बनिक जीव, कार्बन आधारित हैं, अतः जब पौधे और जानवर की मृत्यु हो जाती है तो अधिकांश कार्बन वापस जमीन में चला जाता है, जिस कारण ग्लोबल वार्मिंग में इसका योगदान काफी कम हो जाता है।

कार्बन-चक्र

में आर्द्रभूमियाँ मुख्य रूप से सक्रिय होकर भाग लेती हैं। कार्बन सिंक एक कृत्रिम या प्राकृतिक भंडार है जो अनिश्चित अवधि के लिये कुछ मात्रा में कार्बन युक्त रासायनिक अवयवों का भंडारण करता है। कार्बन सिंक द्वारा कार्बन डाइऑक्साइड को निष्कासित करने की प्रक्रिया को "कार्बन प्रच्छादन" (कार्बन सिक्वेस्ट्रेशन) के नाम से जाना जाता है।

आर्द्रभूमि पारिस्थितिकी की दृष्टि से विभिन्न कार्यों को संपन्न करती है। कृषि और सिंचाई में आर्द्रभूमियों को विभिन्न तकनीकों द्वारा उपयोग में लाया जाता है जिसमें टकियों द्वारा सिंचाई करने का तरीका भारत के विभिन्न क्षेत्रों में प्रयोग में लाया जाता है, विशेषकर दक्षिण भारत में वहाँ अधिकाधिक संख्या में टकियों का निर्माण किया जाता है। इस तरह आस-पास की वनस्पतियों व जीव-जंतुओं को जीने का आसरा मिल जाता है।

मछली उत्पादन

पारिस्थितिकी की दृष्टि से मछली उद्योग / पालन में आर्द्रभूमि का अपना एक अलग महत्व है। कुल मछलियों का 60% भाग देश के भीतर ही जल निकायों, जैसे- नहर, नदियों, तालाब, जलाशयों और प्राकृतिक झीलों से ही एकत्र किया जाता है।

प्रदूषण नियंत्रण

आर्द्रभूमि का क्षेत्र, जल से प्रदूषण को कम करने में सहायक होता है। मुख्य रूप से मनुष्यों द्वारा संरचित आर्द्रभूमि तकनीक द्वारा तालाब और टंकियों में जल का परिबंधन व अवरोधन करके उसके द्वारा अपजल का उपचार संयंत्र की तरह इस्तेमाल किया जाता है। इस अपजल उपचार संयंत्र को अक्सर मल उपचार हेतु गाँवों व अल्पविकसित क्षेत्रों में किया जाता है। प्रदूषण नियंत्रण के कारण जल की गुणवत्ता  में वृद्धि हो जाती है। मानव शरीर में जैसे गुर्दे खून की सफाई करते हैं, वैसे ही आर्द्रभूमि प्रदूषण का नियंत्रण करती है।

बाढ़ नियंत्रण

आर्द्रभूमियों में एक विशेषता होती है कि वे बाढ़ मैं बहते अतिरिक्त जल का संचयन भली-भांति कर लेती हैं। बाढ़ का पानी इस प्रकार ऊंचाई से नीचे आते-आते किसी एक स्तर पर आर्द्रभूमि द्वारा रोक लिया जाता है। इस प्रकार किसी क्षेत्र के निचले हिस्सों में बाढ़ का प्रकोप कम हो जाता है। अतिरिक्त जल-राशि की इस प्रकार गति भी कम हो जाती है। इससे पता चलता है कि ये आर्द्रभूमियाँ किस सीमा तक बाढ़ नियंत्रण में सहायक होती है।

जल का रिचार्ज 

आर्द्रभूमियाँ धरती के अधोस्तर में विद्यमान भूजल को फिर से भर देती हैं, यही जल का को फिर से भर देती है, यही जल का रिचार्ज है।

जैव विविधता का संतुलन 

आर्द्रभूमियाँ जैव-विविधता को संतुलित और कायम रखती हैं। ये विस्तृत रूप से 'फूड वेब' का निर्माण करती हैं। जैव विविधता अतिक्षेत्र हॉटस्पॉट एक जैव-भौगोलिक क्षेत्र है जहाँ विभिन्न स्तर की जैव-विविधता स्पष्ट रूप से पाई जाती है। जीवों की प्रजाति विभिन्नता को आश्रय देकर उन्हें वहाँ का निवासी बनाने का कार्य आर्द्रभूमियाँ बखूबी करती हैं। विभिन्न प्रकार के मेरुदण्डयुक्त/ मेरुदण्डहीन जीव अपना संपूर्ण जीवन इन्हीं आर्द्रभूमि के आस-पास बिता देते हैं क्योंकि उन्हें उपयुक्त वातावरण और पर्यावरण मिल जाता है जिन्हें खोजने के लिये उन्हें जगह-जगह भटकना नहीं पड़ता। विशेष बात एक यह भी है कि उन्हें मनचाहा भोजन वहीं उपलब्ध हो जाता है। इस प्रकार वास और आहार श्रृंखला का भी अच्छा खासा प्रबंध हो जाता है। 1200 की संख्या से भी अधिक वनस्पतियों की प्रजातियों से भरपूर यह आर्द्रभूमि इन जीवों के लिये स्वर्ग से क्या कम है?

उसके अतिरिक्त अनेक प्रजातियों की मछलियाँ, घाँधे इत्यादि सभी भोज्य पदार्थ भी तो मिलते हैं। कई जलीय वनस्पतियाँ भी सरलता से मिल जाती हैं।
आर्द्रभूमि के साथ जलकुम्भी (इकॉर्निया क्रेसिपिस) का उल्लेख करना अति आवश्यक है। ये वही वनस्पतियाँ हैं जो आद्रभूमि के जल अथवा दलदल में अक्सर तैरते दिखाई देती हैं। इसके पत्ते चमकीले, हरे चौड़े होते हैं, जिनके डंठल छोटे-छोटे गुब्बारों की तरह फूले हुए होते हैं, जो इन्हें सतह में तैरने में सहायता करते हैं। फूल हल्के नीले रंग के बहुत खूबसूरत होते हैं।

जलकुम्भी 12. C के न्यूनतम तापमान पर भी भली प्रकार जीवित रहती है और 25-30C में बड़ी तेजी से बढ़ती है। तेजी से बढ़ने के कारण इसे औद्योगिक प्रदूषण को कम करने के लिए उपयोग में लाया जा सकता है, क्योंकि औद्योगिक प्रदूषण करने वाले भारी धातुओं, जैसे- कैडमियम, क्रोमियम, कोबाल्ट, निकल, सीसा, पारा इत्यादि को सोखने की इसकी अत्यधिक क्षमता होती है, अतः अपजल को यह साफ कर देती है ऐसे जलकुम्भी के पत्तों व अन्य भागों को चारों के रूप में ढोरों को नहीं खिलाया जा सकता। इसे बायोगैस भी बनाने के काम में लाया जा सकता है। इसके सूखे इंठलों में फाइवर (रेशों) की मात्रा पर्याप्त होती है, अतः टोकरिया, फर्नीचर, कागज इत्यादि बनाने के काम आती है। इतना सब कुछ होने के बावजूद इसके कुछ अवगुणों के कारण इसे इनवेसिव या आक्रमणकारी घोषित किया गया है। मुख्य अवगुण यह है कि एक तो यह तेजी से बढ़कर जल की पूरी सतह को घेर लेता है, जल की पारदर्शिता को कम कर देता है। उस जल में पलने वाले जीवों, मछलियों इत्यादि को ऑक्सीजन नहीं मिल पाती जिसके अभाव में वे मर जाती हैं। सूरज की रोशनी न पहुंचने के कारण अन्य जलीय वनस्पति जैसे शैवाल इत्यादि की वृद्धि रुक जाती है। इस तरह आहार श्रृंखला गड़बड़ा जाती है।

आर्द्रभूमि एक अनूठा अद्वितीय प्रकार का वास दिलाती है, वो भी उन पक्षियों को जो वहीं जीवन पर्यन्त निवास करते हैं, और कुछ प्रवासी पक्षी होते हैं। प्रवासी पक्षी सुदूर देशों से उड़कर यहाँ पहुँचते हैं, संगी साथियों के साथ रहते हैं फिर खुशी-खुशी लौट जाते हैं। प्रवासी पक्षी साधारणतया उन देशों से जाड़ों के मौसम में जाते हैं जहाँ उन्हें भोजन उपलब्ध नहीं होता। भारत में आने वाले प्रवासी पक्षी और निवासी पक्षियों की संख्या लगभग 1340 है। इनमें से लगभग 310 प्रजातियों को आर्द्रभूमि-पक्षियों ( वेटलैंड बड्स) की संज्ञा दी गई है। भारत में ऐसी कई आर्द्रभूमियाँ हैं। जहाँ ऐसे पक्षियों का किसी एक विशेष मौसम में आना-जाना लगा रहता है। जैसे भरतपुर (राजस्थान) का अभयारण्य, गुजरात का समुद्र तटीय क्षेत्र, चिल्का झील (जोडिशा) भारत में और भी कई आर्द्रभूमियाँ हैं जो हजारों प्रवासी पक्षियों को पोषित करते हैं। ये प्रवासी पक्षी मुख्य रूप से मध्य एशिया और यूरोप से जाड़ों के मौसम में आते हैं।

आर्द्रभूमियों के आस-पास मंडराता खतरा

विश्व भर में आज आर्द्रभूमियों को लेकर तरह-तरह की चिंता बनी हुई हैं। एक तरह से इन स्थानों का शोषण किया जा रहा है। उन्हें सतत रूप से जीवित और सक्रिय रखने का प्रयास नहीं किया जा रहा। एशियाई देशों में इन आर्द्रभूमियों पर एक निरंतर दबाव है जिसके कारण धीरे-धीरे पृथ्वी से ये भाग लुप्त होते जा रहे हैं।

कहीं खेती-बाड़ी हो रही है तो कहीं गाँवों की विकासशीलता भौतिकवादिता में बदल रही है। कुल मिलाकर आर्द्रभूमियों के पतन होने के कारण उनके सहारे जीती जीव प्रजातियाँ जैसे पक्षी ( 21%), स्तनपायी (31%) ताजे पानी में रहने वाली मछलियाँ (20%), इन सबके लुप्त होने की संभावना बढ़ रही है, खतरा मुँह उठाये खड़ा है। जल और कई साधन जो आर्द्रभूमियों की नितांत आवश्यकताएं हैं उनकी अनुपस्थिति में उन पर तो दबाव बढ़ ही रहा है, साथ ही पारिस्थितिकी तंत्र पर भी उसका प्रभाव स्पष्ट दिखने लगा है। एक समय था जब वानस्पतिक व जीव प्रजातियाँ प्रचुर संख्या में दिखाई दिया करती थीं, उन पर सीधा प्रभाव पड़ रहा है जिससे कई प्रजातियाँ और उनकी संख्या में भारी कमी नज़र आने लगी हैं और आर्द्रभूमियों के रख-रखाव का संचालन पर्याप्त रूप से नहीं चल रहा है। ऐसा होने के कुछ प्रमुख कारण हैं जैसे आर्द्रभूमियों की संरक्षण योजना का भली प्रकार कार्यान्वयन न होना; दिन पर दिन प्रदूषण का बढ़ना; स्थानीय लोगों का लगातार जल की मांग को बढ़ाते जाना।

इन सभी बातों के कारण जल स्त्रोत पर प्रत्यक्ष रूप से कुप्रभाव पड़ा है। इस कारण जहाँ कुछ समय पहले पर्यावरण का अच्छा-खासा संतुलन था, वह आज गड़बड़ा गया है। कहीं ऐसा भी हुआ हैं कि आर्द्रभूमियों का नामो निशान तक नहीं। इसका यह भी एक कारण है कि गाँव शहर में बदलते जा रहे हैं। शहरीकरण का लोगों के दिमाग में भूत सवार है जिससे पलक झपकते ही आर्द्रभूमियों का ढाँचा आमूल चूल बदल गया है। जब ढाँचा ही बदल गया तो सक्रियता कैसे बढ़े? एक बात और भी है कि जल विज्ञान संबंधी परिवर्तन हुआ है। अब जल स्त्रोत की धरती संरचना परतदार नहीं रही, उसमें अपजल को छानने की क्षमता क्षीण होती जा रही है और इस जल में रासायनिक प्रदूषण अधिकता से हो गई है। कुल मिलाकर यह जीव समुदाय के हित में नहीं है।

कृषि, नगरपालिका और औद्योगिक प्रदूषण

भारत में अधिकतर जल स्त्रोत जैसे नदी, झील झरने आदि पतन की और जाकर नष्ट होते जा रहे हैं। इसका कारण है अरक्षणीय कृषि-पद्धति । घातक रसायनों को कीटनाशक और उर्वरक के रूप में खेत में छिड़का जा रहा है, जिसका कुप्रभाव मनुष्यों पर आस-पास चलते जीव-जंतुओं पर पड़ता है उसी प्रकार औद्योगिक और नगरपालिका के द्वारा जल में छोड़ा गया अपशिष्ट पदार्थ उस प्राकृतिक रूप से उपलब्ध स्वच्छ जल को प्रदूषित कर देता है, इस तरह वह भी बर्बाद हो जाता है। अतः औद्योगिक संस्थानों और नगरपालिका के लोगों को अपनी जिम्मेदारी भली प्रकार निभाना चाहिये। आज भारत में शहरी वातावरण में केवल 30% अपजल का ही उपचार संभव है क्योंकि हमारे संयंत्रों की क्षमता उतनी ही है। प्रतिदिन विशाल मात्रा में अनउपचारित अपजल व मल जल को पास के स्वच्छ जल स्त्रोत के भीतर छोड़ना पड़ जाता है क्योंकि उत्पन्न अपजत और उसके उपचार में भारी अंतर है। अपजल का 100% उपचार लगभग असंभव है, अतः प्रत्यक्ष रूप से आर्द्रभूमियों को इसका भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है और अप्रत्यक्ष रूप से मानव जाति व अन्य जीव-जंतुओं को स्वास्थ्य की दृष्टि से हरजाना भरना पड़ रहा है।

वैश्विक मौसम परिवर्तन

चारों और ग्लोबल वॉर्मिंग को लेकर हाहाकर मचा हुआ है आसान शब्दों में समझें तो ग्लोबल वॉर्मिंग का अर्थ है पृथ्वी के तापमान में वृद्धि और इसके कारण मौसम में होने वाले परिवर्तन। आर्द्रभूमियों में मीथेन गैस उत्पन्न होती है और वह भी अत्यधिक मात्रा में, और यह मीवेन गैस ऊष्मा का स्त्रोत है। इसके द्वारा उत्पन्न हुई ऊष्मा वातावरण में एक तरह से अटक जाती है, यही आगे चलकर पृथ्वी के तापमान को बढ़ा देती है, वॉर्मिंग कहते हैं। 

भारत में आर्द्रभूमि प्रबंधन नीति

  • भारत के सभी प्राकृतिक व संवेदनशील आर्द्रभूमियों व पारिस्थितिकी तंत्रों के प्रबंधन की जिम्मेदारी मुख्य रूप से वन एवं पर्यावरण मंत्रालय भारत सरकार की है।
  • रामसर सम्मेलन- भारत में आर्द्रभूमि के कुल 42 रामसर साइट्स हैं जो अंतराष्ट्रीय महत्व के हैं। इस समझौते पर भारत ने फरवरी 1982 में हस्ताक्षर किये यह सम्मेलन अपने में एक ही है जिसका वैश्विक दृष्टि से समझौता हुआ है। इसका मुख्य मुद्दा है, आर्द्रभूमियों की सतत रूप से जीवित रखना और उसका संरक्षण करना। जीवों के हित में समयानुसार उसका उपयोग करना।
  • राष्ट्रीय आर्द्रभूमि संरक्षण कार्यक्रम (एन.डब्लू.सी.पी.)- इस कार्यक्रम को सबसे पहले 1985 में प्रस्तावित किया गया। इसका मुख्य उद्देश्य था, भारत में आर्द्रभूमियों का बेहतर संरक्षण।
  • केन्द्रीय आर्द्रभूमि संरक्षण और प्रबंधन के नियम- सन् 2010 में उपयुक्त नियमों को प्रस्तावित किया गया जिसका मुख्य उद्देश्य या भारत की आर्द्रभूमि का बेहतर प्रबंधन और विनियमन। इसके अंतर्गत कुछ नये नियम भी बने जिन्हें सी.डब्लू.आर.ए. का नाम दिया गया। इसे भी भारत की आर्द्रभूमि के संरक्षण व प्रबंधन हेतु बनाया गया समय-समय पर इन नियमों को संशोधित किया जाता रहा है। सन् 2017 में नवीनतम नियम आर्द्रभूमियों के लिये लागू किये गये जिसमें इनसे संबंधित कुछ विशेष प्रकार की गतिविधियों को प्रतिबंधित किया गया।

इन सभी नियमों के अतिरिक्त भारत सरकार की नीतियों को लेकर चर्चायें हुईं, नियमों का कड़ाई से कार्यान्वयन करने का आदेश भी दिया गया। समय-समय पर संबंधित शिक्षा व जागरुकता को कार्यक्रम में सम्मिलित किया गया, जिसमें आद्रभूमियों की उन विशेष बातों पर जोर दिया गया, जिसके कारण जैवविविधता है।

लेखक परिचय :- वासंती रामचंद्रन,सी-2, 16-सहयाद्रि, प्लॉट-5, सैक्टर-12, द्वारका, नई दिल्ली-78 मो0 9818752270; ramvas2000@yahoo.com|

स्रोत :- विज्ञान प्रगति | जून 2021

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Post By: Shivendra
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