मॉनसून आने में अभी शायद देर है!लेकिन बिहार की अधिकांश नदियों में मॉनसून की आहटें अभी से सुनाई देने लगी हैं। उन नदियों में भी, जहां साल के अधिकतर दिनों पानी की बजाय रेत भरी रहती है। खासकर, बिहार की वो नदियां, जो अपने पानी के बहाव के लिए तो कम लेकिन अपने किनारे बसे गांवों में बहने वाले लहू की रंगत के लिए ज्यादा विख्यात हैं।
मध्य बिहार की गोद में डरी-सहमी और कहीं-कहीं, बेबाक बहने वाली नदियां अप्रैल-मई के महीने में, ऊपर से देखने पर शांत मालूम पड़ती हैं। फलगू हो या पुनपुन, दरधा हो या मंगुरा या महाने, काव हो या ठोरा, दुर्गावती हो, सोन हो, या कर्मनाशा, जिन नदियों में पानी की सतहें रेत में बदल गई हैं, उन्हें छोड़कर बाकी नदियों के पानी का गंधलाया रंग क्या कोई संकेत नहीं दे रहा है?
एक दहाई पूर्व, यही नदियों थीं, जिनके किनारे-किनारे इंसानी लहू के अनेक सोते फूटे थे और कई-कई बस्तियां बारूद के कुहासे में घिर गई थीं। जवान औरतों के सुहाग लुटे थे और छह महीने की पिंकी से दस साल की मनमातो के जिस्म गोलियों से छिद गए थे। गांव के दक्षिण टोलों में आग के शोले भड़के थे और झोपड़पट्टियों की खुदाई के दौरान जली हुई इंसानी हड्डियों के अवशेष मिले थे।
मध्य बिहार के अभिशप्त गांवों से होकर बहने वाली नदियों के पानी का गंधलाया रंग जिस मॉनसून की आहटें बनकर हमारे कानों तक पहुंच रहा है, उस मॉनसून का स्वरूप आखिर कैसा होने वाला है!
आप चाहें तो हम इस प्रश्न का उत्तर यहां दे सकते हैं।
लेकिन हम इससे पहले मॉनसून की आहटों की छायादार पार्श्वभूमि में कुछ देर विश्राम करना चाहते हैं।
मध्य बिहार की नदियों में मॉनसून की आहटों का जिक्र करते समय मुझे भागलपुर की याद हो आई है। शायद मैं मध्य-बिहार की हिंसा और भागलपुर के अभिशाप के बीच किन्हीं समान तत्वों की खोज नहीं कर सकूं। लेकिन यह है कि मुझे भागलपुर और मध्य बिहार के गांवों में बहने वाले लहू की रंगत के बीच भेद करना असंभव सा महसूस होता है।
मध्य बिहार की हिंसा की छायादार पार्श्वभूमि में विश्राम करते समय मेरे स्मृति-पटल पर मध्य बिहार की नदियों की गोद में बसे गांवों के कई पात्र उत्तेजक बिंब की तरह उभर आए हैं।
मैं चाहता हूं, मध्य बिहार की स्मृति-यात्रा से पूर्व मैं इन बिंबों से आपका परिचय कराता चलूं।
इन बिंबों से परिचित होते समय, संभव है, आपके स्मृति-पटल पर भी कुछ आकृतियां उभर आएं। यदि ऐसा हो, तो आप मुझे जरूर बताएंगे कि मैं इन बिंबों को शब्द-रूप देते समय साहित्यिक कल्पना के अतिरेक का दोषी तो नहीं हूं।
1- साल का आखिरी दिन। महाने नदी का किनारा। आग की बू। जले हुए मकान। रोती-बिलखती औरतें। मिट्टी की दीवारों पर गोलियों के निशान। गोबर के लेप से झांकते खून के धब्बे। गांव की तंग गलियों में जगह-जगह सहमे-डरे बच्चे। एक तरफ सिपाहियों का जत्था। दूसरी तरफ भूमिहीनों की टोली। आज की तारीख में प्राणचक का सही नाम मौत की घाटी है।
2- दरधा नदी में, इस वक्त, पानी छोड़, सब कुछ है। बालू है, मिट्टी है, ईंट-पत्थर है। झाड़-फूस है और उनके बीच से गांव वालों के आने-जाने का रास्ता है। कभी-कभी मोटरसाइकिल गुजरने से पहियों के निशान भी हैं। नदी के सीने पर असंख्य कदमों के निशान बताते हैं कि यह रास्ता काफी चालू है।
3- जैसे दरधा नदी में पानी छोड़ सब कुछ है, वैसे ही जैंतिया गांव में शांति छोड़, सब कुछ है। कलह है, द्वेष है, दुश्मनी है। केस-मुकद़मा है। नफरत है, तनाव है, विवाद है। मार-माट है, हिंसा है। और इन सबके ऊपर से पुलिस है। पुलिस जो सर्वोपरि है।
4 - हम उसे गौर से पहचानने की कोशिश कर रहे हैं। वो आदमी है, या सुअर। जो अपने सीने पर बीसों तमगे सजाए उस पहाड़ी टीले वाले राहत-शिविर से एक अधनंगी आदिवासी लड़की को उठाकर अपने तंबू में ले आया है। जिसके तंबू में आते ही तेज बारिश शुरू हो गई है और तंबू में जलने वाली मोमबत्ती एक झोंके में गुल हो गई है। वो आदमी है या सुअर, जिसके रोबीले चेहरे ने उस आदिवासी लड़की की चीख दबा दी है।
5 - कारण जो भी हो, चंपापुर में आज मौत का एक गहरा कुंआ खुद रहा है। कुएं की इस खुदाई में फावड़ा तो अपराधियों के हाथ में है, परंतु खुदाई की निगरानी का भार पुलिस के कंधों पर है। सबको मालूम है, पुलिस के कंधे कितने मजबूत हैं।
6 - हरोहर नदी में अभी ठेहुना-भर पानी है। नदी में दोनों तरफ गेहूं, चना, खेसारी, मकई और मटर की फसलें लगी हैं। कटनी में अभी दो महीनों की देर है। जमीन मालिकों तथा उनके हथियारबंद पहरुओं की आंखें टाल की फसलों पर केंद्रित हैं। लेकिन पाली गांव में मल्लाहों ने साल के पहले दिन से हरोहर नदी में जाल डालने और मछली मारने का काम बंद कर रखा है।
7 - उन्हें अपनी जान के खतरे के साथ-साथ, अपनी बहू बेटियों की इज्जत का खतरा भी सामने दिख रहा है। उन्हें लगता है, फसल की कटनी के बाद इलाके की मल्लाह आबादियों पर जमीन-मालिकों का आक्रमण होगा और गांव के गांव धू-धूकर जल उठेंगे।
8 - जमीन की इसी भूख और प्रशासन के इन्हीं लुंजपुंज तरीकों के कारण अरवल की जमीन ने हिंसा का एक खौफनाक दृश्य देखा था, जिसमें मनमातो जैसी दस साल की एक मासूम बच्ची बली चढ़ गई थी। अरवल और फरीदपुर में ज्यादा फर्क नहीं। एक हो चुका है, दूसरा हो सकता है। क्या सरकार इसे रोक पाएगी?
9 - कारण जो भी हों, परिणाम यही है कि मुगलानीचक गांव पूरी तरह उजड़ गया है। यहां के गरीब, भूमिहीन, हरिजन खेत-मजदूर दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं। उनका अमन-चैन ही नहीं जीविका भी नष्ट हो गई है। टाल के विशाल भू-भाग में सक्रिय भू-सामंतों की सेनायें उन्हें रौंद रही हैं और सरकार द्वारा प्रतिनियुक्त पुलिस बल अपनी चौकियों में बैठा ऊंघ रहा है। कैसे टूटेगी यह ऊंघ?
10 - गांव की महिलाओं ने स्वयं आंखों से पुलिस को जुगेश्वर, विलायती और सीताराम की कमर में रस्सी बांधते देखा। फिर उन्होंने रस्सी का दूसरा सिरा घोड़सवार पुलिसकर्मियों की हिदायत पर घोड़ों की पीठ पर बांधते देखा। इसके बाद ही तीनों की चीख और घोड़ों की सरपट दौड़ का सिलसिला शुरू हुआ। गांव की औरतें बहुत देर इस दृश्य को नहीं देख पायीं। वो अपने-अपने आदमी का लहूलुहान चेहरा करीब से देखना भी चाहतीं, तो यह संभव नहीं था, क्योंकि तेज रफ्तार से भागने वाले घोड़े तीनों बंदियों को अपनी पीठ पर बांधे घोसवरी थाने की ओर जाने वाली गांव की कच्ची सड़क पर बहुत आगे निकल चुके थे। रास्ते में जगह-जगह सिर्फ धूल और गर्द की परतें नजर आती थीं। खेतों और खलिहानों में खड़ी रहम की भीख मांगने वाली औरतों को सड़क पर उड़ने वाली धूल अपनी मांग पर पसरती महसूस हो रही थी।
11 - अलीपुर गांव एक टापू नहीं। इसलिए अलीपुर के सच को झुठलाने का साहस किसी में नहीं। हर गांव के उत्तरी कोने में कुछ पहरेदार इसी ताक में बैठे हैं। विकास की रोशनी गांव की दहलीज पर आए, तो वो उसे रोक लें और अपने घरों को चकाचौंध में बदल दें। फिर अपने घरों को तार के बड़े जंगलों से घेर दें, ताकि यह रोशनी गांव के दक्षिणी छोर पर बसी नंगी-अधनंगी आबादी तक नहीं पहुंच पाए। और वो इंतजार करते रहें। इंतजार करते रहें।
12 - देवी स्थान के पास नीम के पेड़ तले होने वाली गांव की इस आम सभा में गांव वासियों की आंखों में नाराजगी की लहर है। रामवृक्ष बाबू मानते हैं, या तो इस गांव में बिजली के खंभे लगेंगे या जिले के मालिकों को गांव वालों की नारजगी सहनी पड़ेगी। आखिरी फैसला कौन करेगा? गांव का गरीब या जिले का मालिक!
13 - चमार टोली का रामू शायद ठीक ही कहता है। हमारे घरों में दीपावली कभी नहीं आती। दीप कभी नहीं जलते। बताशे कभी नहीं बंटते। पटाखे कभी नहीं फूटते। वजह जानते हों? तुम्हारे घरों में जो दीप जलते हैं, उनमें दरअसल हमारा लहू जलता है। वर्षों से हम अपना लहू दे-देकर तुम्हारा घर-आंगन रौशन कर रहे हैं। मगर इस बार हमने तय किया है कि अपना लहू नहीं देंगे। चाहो तो अपने लहू से चिराग रौशन कर लो। चांद-तारे जला लो। दीपावली मना लो।
14 - बिहार और उत्तर प्रदेश की सीमा पर बसा यह गांव इलाके भर में अपनी घनी आबादी के लिए मशहूर है। इस गांव में जाते-जाते हमने गंगा भी देखी और कर्मनाशा भी। दोनों ही नदियों के साथ सैकड़ों कथाएं जुड़ी हैं। इतिहास की परम्पराएं जुड़ी हैं। मेरी समझ में नहीं आता, भोजपुर की पुलिस को इंसानी समाज के किस खाने में रखा जाए।
15 - गाढ़ो राम ने अपने बदन से लिपटी चादर उतार दी। जगह-जगह से फटी कमीज नोंच कर फेंक दी। और चिल्लाते हुए कहा - देख लो। ठीक से देख लो। शहर की सौगात। मेहनत-मजदूरी का इनाम। मेहनताना मांगने की सजा।
पूरी पंचायत ने देखा। गाढ़ो राम का सारा शरीर तेजाब से झुलसा हुआ था और घाव ताजा जान पड़ते थे।
16 - इस बीच खून से लथपथ कारू राम की लाश अस्पताल लायी गयी। थानेदार के हुक्म से लाश एक कोठरी में बंद कर दी गयी। योजना यह बनी कि लाश गायब कर दी जाये। मगर तब तक जनता थाने की तरफ उमड़ पड़ी थी। हजारों लोगों ने थाने की नाकेबंदी कर दी। कोठरी का ताला तोड़कर लाश बाहर निकाली गयी और थाने के सामने सड़क पर सवारियों का आना बंद कर दिया गया। जनता उग्र हो चली थी।
17 - झुलसा चेहरा और पट्टियां लिये रामरूप मुझे अपने मकान के सामने ढेर पर बैठा मिल गया है। मैं उसे यों ही बैठा छोड़कर उसके मकान के भीतर आ गया हूं। मेरी आंखों के सामने रामरूप के मकान की अकेली दीवार खड़ी है, जिसके ताक पर शिव और पार्वती की मूर्तियां रखी हैं और जिसके ऊपर एक रंगीन कैलेंडर टंगा है। रंगीन कैलेंडर, जिसकी तारीखें फट गई हैं, और जिसका बाहरी हिस्सा बारिश के पानी और मिट्टी से गंधला गया है।
रामरूप ने इसी ताक पर, दोनों मूर्तियों के नीचे कागज का वो टुकड़ा रख दिया है, जो उसे आज सुबह जिले के हाकिम से मिला है और जिस पर उसकी बूढ़ी मां, उसकी जवान औरत और डेढ़ साल की बच्ची के नाम की रकम दर्ज है। कागज के इस टुकड़े को रखने की रामरूप के पास दूसरी कोई सुरक्षित जगह शायद नहीं है।
18 - मालती नहीं मानती कि पिंकी का बदन छलनी हो गया और वह मर गयी। वह मानती है, छह महीने की जिस बच्ची की लाश उस दिन सूर्यास्त के समय दरधा नदी के किनारे जालयी गयी, वो पिंकी नहीं दौलतिया की लाश थी। पिंकी तो अभी भी उसकी छाती से लगी है।
19 - जब ओठवां मदारी की लुरगर औरत ब्याह कर गांव आई, तो उसने जैसे इस दस्तूर की धज्जियां उड़ा दीं। पहलवान ने हस्बे आदत डोली मांगी। ओठवां मदारी की बेटी इस बेगार की सीख लेकर बिक्कम गांव नहीं गई थी। उत्तेजित और उग्र होकर मायके भाग आई। मायके वालों ने इस घटना को अपनी इज्जत पर हमला माना और बदले की भावना से प्रेरित होकर बिक्कम गांव पर चढ़ बैठे। जिस पहलवान ने ओठवां मदारी की लुरगर औरत की डोली चाही थी, उसकी छियानवे बोटियां कर दी गयीं। तब से किस्से-कहानी में उस पहलवान का नाम हो गया, छियानवे पहलवान।
20 - वर्षों बाद, आज, जब वो पुनपुन में उतरी और पानी के आईने में अपना चेहरा देखने की कोशिश करने लगी तो उसका कूबड़ जिस्म एक बड़ी परछाई बनकर उसके सामने नहीं उभरा। वर्षों बाद, उसे पानी की लहरों के बीच अपना जवान और सुंदर चेहरा दिखाई दिया। शायद, पहली बार, पानी में उसे अपना सांवला बदन भी नजर आया। बदन, जो कूबड़ नहीं रह गया था।21 - सत्तर साल की बूढ़ी औरत अस्पताल में दम तोड़ चुकी है। उस रात की घटना के एक और गवाह को घातक हथियार की मार से घायल कर दिया गया है। उसे सत्रह टांके लगे हैं। लेकिन घायल छाती पर लगे टांकों से कहीं ज्यादा टांके उसकी जबान पर लग गए हैं।
जो टांके डाॅक्टरों ने लगाये हैं, वो तो जख्म के भरने पर खुल जाएंगे, मगर जो टांके राजधानी के शातिर अपराधियों ने पुलिस की मदद से उसकी जबान पर जड़ दिए हैं, वो भला कैसे खुलेंगे।
22 - चारों दिशाओं में पानी की तेज लहरें हैं। उन लहरों के उस पार बलुआही जमीन का किनारा है, जहां आए दिन बंदूक की गोलियों की आवाजें अपने निशानों से टकराती रहती हैं। और जहां निशानों पर लगने वाली आवाजें अक्सर किसी नामालूम मछुआरे की चीख में बदल जाती हैं। ऐसी चीख जो माहौल के सन्नाटे पर उदासी की एक काली चादर चढ़ा जाती है।
23 - गांव की कीचड़-कादो-भरी गली के एक छोर पर बनी झोपड़ी की दहलीज पर बैठी खामोश औरत को नहीं मालूम कि दरधा नदी के किनारे संगीनों के साये में जो लाशें आग को सौंपी गयीं, उनमें उसके कमसिन बेटे की लाश भी शामिल थी। उसे यह भी नहीं मालूम कि उसका आदमी हत्यारों की गोली का शिकार होकर अस्पताल में पड़ा है, और जिंदगी-मौत के बीच झूल रहा है। झोपड़ी के दरवाजे पर बैठी-बैठी वो झोपड़ी के बाहर वाली गली की तरफ एकटक देख रही है, जहां आने वालों का तांता लगा है। और जिधर से उसके आदमी की मौत की खबर बस आने ही वाली है।
24 - गांव से थोड़ी दूर हटकर बहने वाली दरधा नदी खतरे के निशाने को छू रही है। पुलिस के जवान अपनी संगीनें संभाले नदी किनारे खड़े हैं। ढेर सारी अधजली लाशों से उठने वाला धुआं उनके स्याही बनकर फैल गया है।
25 - प्रभु के जाने के बाद टाल, एक बार फिर, अंधेरे में डूब गया। टाल की गुमनाम बस्तियों में, एक बार फिर, जमीन-मालिकों की घुड़-दौड़ शुरू हो गई। एक बार फिर, जमीन-मालिकों की कचहरियों और डेरों से असलहों और बारूद की गंध निकलने लगी। एक बार फिर, टाल के खेतों में काम कर रही औरतों की चूड़ियां दरकने लगीं और उनकी कलाइयों में मजबूत शहरी हाथों के निशान पड़ने लगे। एक बार फिर, गांव के बड़े-बुजुर्गों पर गाली की बौछार होने लगी। शायद, एक बार फिर, टाल में मौत का सन्नाटा लौट आया।
26 - मरघट तो जैसे 70 वर्षीय अरुणी देवी की आंखों में सिमट आया है। अरुणी ने अपने दो जवान बेटे खो दिए हैं। ओंटा के सामने चबूतरे पर खून के फैले धब्बे को खुरदरे हाथों से रगड़कर अपने चेहरे पर मलते इस बूढ़ी औरत को कोई भी देख सकता है। अपने तीन वर्षीय बोते रईस को कलेजे से लगाकर अरुणी बार-बार रो पड़ती है -
‘हमने बहुत कहा कि हमारी जान ले लो, बबुआ को छोड़ दो, लेकिन राक्षस नहीं माने।’
27 - चीत्कार सुनकर अगल-बगल के कमरों से भाई-भौजाई और मां पहुंची। सबने बहू को तड़प-तड़प कर मरते देखा। गर्दन की हड्डी टूट गई थी और नशे में धुत सुनील पास खड़ा अपनी पुलिसिया मूंछों पर उंगलियां फेर रहा था। उसने घर की औरतों के सामने स्वीकारा - ‘हां मैंने इसे गला घोंटकर मार डाला है।’
फिर उसके साथी-संगी आए। औरत को जलाकर गंगा में फेंकने का फैसला हुआ। लाश उठाकर ले जायी गयी। वहीं जहां हरोहर और किउल नदियां आकर एक हो जाती हैं।
पुआल की आंटियां जमा की गयी और औरत को फूंक दिया गया। लाश जली या नहीं, यह देखने का होश किसे था। सब उसे नदी में बहा आए।
28 - बंगला मिश्रित हिंदी बोलने वाली बंगाल के गांव की वह बेटी पंचों का फैसला मान गई। कौन थे ये पंच? क्या वही जो एक रात पहले गांव के उस सुनसान खेत में उसका जिस्म रौंद रहे थे? और जिनमें से एक ने उसकी जांघ पर तेज और नुकीले चाकू से एक लंबा निशान बना दिया था? और कहां बैठी थी यह पंचायत? क्या धान की बालियों से लदे उसी खेत में, जहां एक रात पहले पंचों ने उसकी इज्जत उतारी थी?
29 - इस दीप के बुझते ही गांव में इंसाफ की परंपरा टूट गई है। अब कोई भी जवान फसलों भरे खेत, साज-समान भरे मकान, आम, अमरूद, अंजीर-भरे बगीचे और गुलाब की क्यारियों को अपने पैरों तले रौंद सकता है। उन पर अपने नाम की तख्तियां लगा सकता है। उन्हें मियां जान से डरने की जरूरत नहीं है। मियां जान कभी भी न टूटने वाली नींद सो रहे हैं!
मध्य बिहार की नदियों के हवाले से हमारे स्मृति-पटल पर उभरने वाले ये बिंब क्या हमारे दिलों में उन सामाजिक, आर्थिक नाइंसाफियों का तकलीफदेह एहसास नहीं पैदा करते, जो एक लंबे अरसे से मध्य बिहार की नियति बन गई हैं?
एक दशक, डेढ़ दशक तक इन्हीं आर्थिक, सामाजिक नाइंसाफियों से लड़ते रहने और असंख्या चेतनशील, जागरूक एवं प्रतिबद्ध राजनीतिक प्राणों की आहूति देने के बाद हम आज मध्य बिहार की संघर्ष-यात्रा के किस पड़ाव तक पहुंच सके हैं?
हमें शायद वर्तमान के आईने में अतीत का चेहरा देखते रहने की आदत पड़ गई है!
मई: 1994
मध्य बिहार की गोद में डरी-सहमी और कहीं-कहीं, बेबाक बहने वाली नदियां अप्रैल-मई के महीने में, ऊपर से देखने पर शांत मालूम पड़ती हैं। फलगू हो या पुनपुन, दरधा हो या मंगुरा या महाने, काव हो या ठोरा, दुर्गावती हो, सोन हो, या कर्मनाशा, जिन नदियों में पानी की सतहें रेत में बदल गई हैं, उन्हें छोड़कर बाकी नदियों के पानी का गंधलाया रंग क्या कोई संकेत नहीं दे रहा है?
एक दहाई पूर्व, यही नदियों थीं, जिनके किनारे-किनारे इंसानी लहू के अनेक सोते फूटे थे और कई-कई बस्तियां बारूद के कुहासे में घिर गई थीं। जवान औरतों के सुहाग लुटे थे और छह महीने की पिंकी से दस साल की मनमातो के जिस्म गोलियों से छिद गए थे। गांव के दक्षिण टोलों में आग के शोले भड़के थे और झोपड़पट्टियों की खुदाई के दौरान जली हुई इंसानी हड्डियों के अवशेष मिले थे।
मध्य बिहार के अभिशप्त गांवों से होकर बहने वाली नदियों के पानी का गंधलाया रंग जिस मॉनसून की आहटें बनकर हमारे कानों तक पहुंच रहा है, उस मॉनसून का स्वरूप आखिर कैसा होने वाला है!
आप चाहें तो हम इस प्रश्न का उत्तर यहां दे सकते हैं।
लेकिन हम इससे पहले मॉनसून की आहटों की छायादार पार्श्वभूमि में कुछ देर विश्राम करना चाहते हैं।
मध्य बिहार की नदियों में मॉनसून की आहटों का जिक्र करते समय मुझे भागलपुर की याद हो आई है। शायद मैं मध्य-बिहार की हिंसा और भागलपुर के अभिशाप के बीच किन्हीं समान तत्वों की खोज नहीं कर सकूं। लेकिन यह है कि मुझे भागलपुर और मध्य बिहार के गांवों में बहने वाले लहू की रंगत के बीच भेद करना असंभव सा महसूस होता है।
मध्य बिहार की हिंसा की छायादार पार्श्वभूमि में विश्राम करते समय मेरे स्मृति-पटल पर मध्य बिहार की नदियों की गोद में बसे गांवों के कई पात्र उत्तेजक बिंब की तरह उभर आए हैं।
मैं चाहता हूं, मध्य बिहार की स्मृति-यात्रा से पूर्व मैं इन बिंबों से आपका परिचय कराता चलूं।
इन बिंबों से परिचित होते समय, संभव है, आपके स्मृति-पटल पर भी कुछ आकृतियां उभर आएं। यदि ऐसा हो, तो आप मुझे जरूर बताएंगे कि मैं इन बिंबों को शब्द-रूप देते समय साहित्यिक कल्पना के अतिरेक का दोषी तो नहीं हूं।
1- साल का आखिरी दिन। महाने नदी का किनारा। आग की बू। जले हुए मकान। रोती-बिलखती औरतें। मिट्टी की दीवारों पर गोलियों के निशान। गोबर के लेप से झांकते खून के धब्बे। गांव की तंग गलियों में जगह-जगह सहमे-डरे बच्चे। एक तरफ सिपाहियों का जत्था। दूसरी तरफ भूमिहीनों की टोली। आज की तारीख में प्राणचक का सही नाम मौत की घाटी है।
2- दरधा नदी में, इस वक्त, पानी छोड़, सब कुछ है। बालू है, मिट्टी है, ईंट-पत्थर है। झाड़-फूस है और उनके बीच से गांव वालों के आने-जाने का रास्ता है। कभी-कभी मोटरसाइकिल गुजरने से पहियों के निशान भी हैं। नदी के सीने पर असंख्य कदमों के निशान बताते हैं कि यह रास्ता काफी चालू है।
3- जैसे दरधा नदी में पानी छोड़ सब कुछ है, वैसे ही जैंतिया गांव में शांति छोड़, सब कुछ है। कलह है, द्वेष है, दुश्मनी है। केस-मुकद़मा है। नफरत है, तनाव है, विवाद है। मार-माट है, हिंसा है। और इन सबके ऊपर से पुलिस है। पुलिस जो सर्वोपरि है।
4 - हम उसे गौर से पहचानने की कोशिश कर रहे हैं। वो आदमी है, या सुअर। जो अपने सीने पर बीसों तमगे सजाए उस पहाड़ी टीले वाले राहत-शिविर से एक अधनंगी आदिवासी लड़की को उठाकर अपने तंबू में ले आया है। जिसके तंबू में आते ही तेज बारिश शुरू हो गई है और तंबू में जलने वाली मोमबत्ती एक झोंके में गुल हो गई है। वो आदमी है या सुअर, जिसके रोबीले चेहरे ने उस आदिवासी लड़की की चीख दबा दी है।
5 - कारण जो भी हो, चंपापुर में आज मौत का एक गहरा कुंआ खुद रहा है। कुएं की इस खुदाई में फावड़ा तो अपराधियों के हाथ में है, परंतु खुदाई की निगरानी का भार पुलिस के कंधों पर है। सबको मालूम है, पुलिस के कंधे कितने मजबूत हैं।
6 - हरोहर नदी में अभी ठेहुना-भर पानी है। नदी में दोनों तरफ गेहूं, चना, खेसारी, मकई और मटर की फसलें लगी हैं। कटनी में अभी दो महीनों की देर है। जमीन मालिकों तथा उनके हथियारबंद पहरुओं की आंखें टाल की फसलों पर केंद्रित हैं। लेकिन पाली गांव में मल्लाहों ने साल के पहले दिन से हरोहर नदी में जाल डालने और मछली मारने का काम बंद कर रखा है।
7 - उन्हें अपनी जान के खतरे के साथ-साथ, अपनी बहू बेटियों की इज्जत का खतरा भी सामने दिख रहा है। उन्हें लगता है, फसल की कटनी के बाद इलाके की मल्लाह आबादियों पर जमीन-मालिकों का आक्रमण होगा और गांव के गांव धू-धूकर जल उठेंगे।
8 - जमीन की इसी भूख और प्रशासन के इन्हीं लुंजपुंज तरीकों के कारण अरवल की जमीन ने हिंसा का एक खौफनाक दृश्य देखा था, जिसमें मनमातो जैसी दस साल की एक मासूम बच्ची बली चढ़ गई थी। अरवल और फरीदपुर में ज्यादा फर्क नहीं। एक हो चुका है, दूसरा हो सकता है। क्या सरकार इसे रोक पाएगी?
9 - कारण जो भी हों, परिणाम यही है कि मुगलानीचक गांव पूरी तरह उजड़ गया है। यहां के गरीब, भूमिहीन, हरिजन खेत-मजदूर दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं। उनका अमन-चैन ही नहीं जीविका भी नष्ट हो गई है। टाल के विशाल भू-भाग में सक्रिय भू-सामंतों की सेनायें उन्हें रौंद रही हैं और सरकार द्वारा प्रतिनियुक्त पुलिस बल अपनी चौकियों में बैठा ऊंघ रहा है। कैसे टूटेगी यह ऊंघ?
10 - गांव की महिलाओं ने स्वयं आंखों से पुलिस को जुगेश्वर, विलायती और सीताराम की कमर में रस्सी बांधते देखा। फिर उन्होंने रस्सी का दूसरा सिरा घोड़सवार पुलिसकर्मियों की हिदायत पर घोड़ों की पीठ पर बांधते देखा। इसके बाद ही तीनों की चीख और घोड़ों की सरपट दौड़ का सिलसिला शुरू हुआ। गांव की औरतें बहुत देर इस दृश्य को नहीं देख पायीं। वो अपने-अपने आदमी का लहूलुहान चेहरा करीब से देखना भी चाहतीं, तो यह संभव नहीं था, क्योंकि तेज रफ्तार से भागने वाले घोड़े तीनों बंदियों को अपनी पीठ पर बांधे घोसवरी थाने की ओर जाने वाली गांव की कच्ची सड़क पर बहुत आगे निकल चुके थे। रास्ते में जगह-जगह सिर्फ धूल और गर्द की परतें नजर आती थीं। खेतों और खलिहानों में खड़ी रहम की भीख मांगने वाली औरतों को सड़क पर उड़ने वाली धूल अपनी मांग पर पसरती महसूस हो रही थी।
11 - अलीपुर गांव एक टापू नहीं। इसलिए अलीपुर के सच को झुठलाने का साहस किसी में नहीं। हर गांव के उत्तरी कोने में कुछ पहरेदार इसी ताक में बैठे हैं। विकास की रोशनी गांव की दहलीज पर आए, तो वो उसे रोक लें और अपने घरों को चकाचौंध में बदल दें। फिर अपने घरों को तार के बड़े जंगलों से घेर दें, ताकि यह रोशनी गांव के दक्षिणी छोर पर बसी नंगी-अधनंगी आबादी तक नहीं पहुंच पाए। और वो इंतजार करते रहें। इंतजार करते रहें।
12 - देवी स्थान के पास नीम के पेड़ तले होने वाली गांव की इस आम सभा में गांव वासियों की आंखों में नाराजगी की लहर है। रामवृक्ष बाबू मानते हैं, या तो इस गांव में बिजली के खंभे लगेंगे या जिले के मालिकों को गांव वालों की नारजगी सहनी पड़ेगी। आखिरी फैसला कौन करेगा? गांव का गरीब या जिले का मालिक!
13 - चमार टोली का रामू शायद ठीक ही कहता है। हमारे घरों में दीपावली कभी नहीं आती। दीप कभी नहीं जलते। बताशे कभी नहीं बंटते। पटाखे कभी नहीं फूटते। वजह जानते हों? तुम्हारे घरों में जो दीप जलते हैं, उनमें दरअसल हमारा लहू जलता है। वर्षों से हम अपना लहू दे-देकर तुम्हारा घर-आंगन रौशन कर रहे हैं। मगर इस बार हमने तय किया है कि अपना लहू नहीं देंगे। चाहो तो अपने लहू से चिराग रौशन कर लो। चांद-तारे जला लो। दीपावली मना लो।
14 - बिहार और उत्तर प्रदेश की सीमा पर बसा यह गांव इलाके भर में अपनी घनी आबादी के लिए मशहूर है। इस गांव में जाते-जाते हमने गंगा भी देखी और कर्मनाशा भी। दोनों ही नदियों के साथ सैकड़ों कथाएं जुड़ी हैं। इतिहास की परम्पराएं जुड़ी हैं। मेरी समझ में नहीं आता, भोजपुर की पुलिस को इंसानी समाज के किस खाने में रखा जाए।
15 - गाढ़ो राम ने अपने बदन से लिपटी चादर उतार दी। जगह-जगह से फटी कमीज नोंच कर फेंक दी। और चिल्लाते हुए कहा - देख लो। ठीक से देख लो। शहर की सौगात। मेहनत-मजदूरी का इनाम। मेहनताना मांगने की सजा।
पूरी पंचायत ने देखा। गाढ़ो राम का सारा शरीर तेजाब से झुलसा हुआ था और घाव ताजा जान पड़ते थे।
16 - इस बीच खून से लथपथ कारू राम की लाश अस्पताल लायी गयी। थानेदार के हुक्म से लाश एक कोठरी में बंद कर दी गयी। योजना यह बनी कि लाश गायब कर दी जाये। मगर तब तक जनता थाने की तरफ उमड़ पड़ी थी। हजारों लोगों ने थाने की नाकेबंदी कर दी। कोठरी का ताला तोड़कर लाश बाहर निकाली गयी और थाने के सामने सड़क पर सवारियों का आना बंद कर दिया गया। जनता उग्र हो चली थी।
17 - झुलसा चेहरा और पट्टियां लिये रामरूप मुझे अपने मकान के सामने ढेर पर बैठा मिल गया है। मैं उसे यों ही बैठा छोड़कर उसके मकान के भीतर आ गया हूं। मेरी आंखों के सामने रामरूप के मकान की अकेली दीवार खड़ी है, जिसके ताक पर शिव और पार्वती की मूर्तियां रखी हैं और जिसके ऊपर एक रंगीन कैलेंडर टंगा है। रंगीन कैलेंडर, जिसकी तारीखें फट गई हैं, और जिसका बाहरी हिस्सा बारिश के पानी और मिट्टी से गंधला गया है।
रामरूप ने इसी ताक पर, दोनों मूर्तियों के नीचे कागज का वो टुकड़ा रख दिया है, जो उसे आज सुबह जिले के हाकिम से मिला है और जिस पर उसकी बूढ़ी मां, उसकी जवान औरत और डेढ़ साल की बच्ची के नाम की रकम दर्ज है। कागज के इस टुकड़े को रखने की रामरूप के पास दूसरी कोई सुरक्षित जगह शायद नहीं है।
18 - मालती नहीं मानती कि पिंकी का बदन छलनी हो गया और वह मर गयी। वह मानती है, छह महीने की जिस बच्ची की लाश उस दिन सूर्यास्त के समय दरधा नदी के किनारे जालयी गयी, वो पिंकी नहीं दौलतिया की लाश थी। पिंकी तो अभी भी उसकी छाती से लगी है।
19 - जब ओठवां मदारी की लुरगर औरत ब्याह कर गांव आई, तो उसने जैसे इस दस्तूर की धज्जियां उड़ा दीं। पहलवान ने हस्बे आदत डोली मांगी। ओठवां मदारी की बेटी इस बेगार की सीख लेकर बिक्कम गांव नहीं गई थी। उत्तेजित और उग्र होकर मायके भाग आई। मायके वालों ने इस घटना को अपनी इज्जत पर हमला माना और बदले की भावना से प्रेरित होकर बिक्कम गांव पर चढ़ बैठे। जिस पहलवान ने ओठवां मदारी की लुरगर औरत की डोली चाही थी, उसकी छियानवे बोटियां कर दी गयीं। तब से किस्से-कहानी में उस पहलवान का नाम हो गया, छियानवे पहलवान।
20 - वर्षों बाद, आज, जब वो पुनपुन में उतरी और पानी के आईने में अपना चेहरा देखने की कोशिश करने लगी तो उसका कूबड़ जिस्म एक बड़ी परछाई बनकर उसके सामने नहीं उभरा। वर्षों बाद, उसे पानी की लहरों के बीच अपना जवान और सुंदर चेहरा दिखाई दिया। शायद, पहली बार, पानी में उसे अपना सांवला बदन भी नजर आया। बदन, जो कूबड़ नहीं रह गया था।21 - सत्तर साल की बूढ़ी औरत अस्पताल में दम तोड़ चुकी है। उस रात की घटना के एक और गवाह को घातक हथियार की मार से घायल कर दिया गया है। उसे सत्रह टांके लगे हैं। लेकिन घायल छाती पर लगे टांकों से कहीं ज्यादा टांके उसकी जबान पर लग गए हैं।
जो टांके डाॅक्टरों ने लगाये हैं, वो तो जख्म के भरने पर खुल जाएंगे, मगर जो टांके राजधानी के शातिर अपराधियों ने पुलिस की मदद से उसकी जबान पर जड़ दिए हैं, वो भला कैसे खुलेंगे।
22 - चारों दिशाओं में पानी की तेज लहरें हैं। उन लहरों के उस पार बलुआही जमीन का किनारा है, जहां आए दिन बंदूक की गोलियों की आवाजें अपने निशानों से टकराती रहती हैं। और जहां निशानों पर लगने वाली आवाजें अक्सर किसी नामालूम मछुआरे की चीख में बदल जाती हैं। ऐसी चीख जो माहौल के सन्नाटे पर उदासी की एक काली चादर चढ़ा जाती है।
23 - गांव की कीचड़-कादो-भरी गली के एक छोर पर बनी झोपड़ी की दहलीज पर बैठी खामोश औरत को नहीं मालूम कि दरधा नदी के किनारे संगीनों के साये में जो लाशें आग को सौंपी गयीं, उनमें उसके कमसिन बेटे की लाश भी शामिल थी। उसे यह भी नहीं मालूम कि उसका आदमी हत्यारों की गोली का शिकार होकर अस्पताल में पड़ा है, और जिंदगी-मौत के बीच झूल रहा है। झोपड़ी के दरवाजे पर बैठी-बैठी वो झोपड़ी के बाहर वाली गली की तरफ एकटक देख रही है, जहां आने वालों का तांता लगा है। और जिधर से उसके आदमी की मौत की खबर बस आने ही वाली है।
24 - गांव से थोड़ी दूर हटकर बहने वाली दरधा नदी खतरे के निशाने को छू रही है। पुलिस के जवान अपनी संगीनें संभाले नदी किनारे खड़े हैं। ढेर सारी अधजली लाशों से उठने वाला धुआं उनके स्याही बनकर फैल गया है।
25 - प्रभु के जाने के बाद टाल, एक बार फिर, अंधेरे में डूब गया। टाल की गुमनाम बस्तियों में, एक बार फिर, जमीन-मालिकों की घुड़-दौड़ शुरू हो गई। एक बार फिर, जमीन-मालिकों की कचहरियों और डेरों से असलहों और बारूद की गंध निकलने लगी। एक बार फिर, टाल के खेतों में काम कर रही औरतों की चूड़ियां दरकने लगीं और उनकी कलाइयों में मजबूत शहरी हाथों के निशान पड़ने लगे। एक बार फिर, गांव के बड़े-बुजुर्गों पर गाली की बौछार होने लगी। शायद, एक बार फिर, टाल में मौत का सन्नाटा लौट आया।
26 - मरघट तो जैसे 70 वर्षीय अरुणी देवी की आंखों में सिमट आया है। अरुणी ने अपने दो जवान बेटे खो दिए हैं। ओंटा के सामने चबूतरे पर खून के फैले धब्बे को खुरदरे हाथों से रगड़कर अपने चेहरे पर मलते इस बूढ़ी औरत को कोई भी देख सकता है। अपने तीन वर्षीय बोते रईस को कलेजे से लगाकर अरुणी बार-बार रो पड़ती है -
‘हमने बहुत कहा कि हमारी जान ले लो, बबुआ को छोड़ दो, लेकिन राक्षस नहीं माने।’
27 - चीत्कार सुनकर अगल-बगल के कमरों से भाई-भौजाई और मां पहुंची। सबने बहू को तड़प-तड़प कर मरते देखा। गर्दन की हड्डी टूट गई थी और नशे में धुत सुनील पास खड़ा अपनी पुलिसिया मूंछों पर उंगलियां फेर रहा था। उसने घर की औरतों के सामने स्वीकारा - ‘हां मैंने इसे गला घोंटकर मार डाला है।’
फिर उसके साथी-संगी आए। औरत को जलाकर गंगा में फेंकने का फैसला हुआ। लाश उठाकर ले जायी गयी। वहीं जहां हरोहर और किउल नदियां आकर एक हो जाती हैं।
पुआल की आंटियां जमा की गयी और औरत को फूंक दिया गया। लाश जली या नहीं, यह देखने का होश किसे था। सब उसे नदी में बहा आए।
28 - बंगला मिश्रित हिंदी बोलने वाली बंगाल के गांव की वह बेटी पंचों का फैसला मान गई। कौन थे ये पंच? क्या वही जो एक रात पहले गांव के उस सुनसान खेत में उसका जिस्म रौंद रहे थे? और जिनमें से एक ने उसकी जांघ पर तेज और नुकीले चाकू से एक लंबा निशान बना दिया था? और कहां बैठी थी यह पंचायत? क्या धान की बालियों से लदे उसी खेत में, जहां एक रात पहले पंचों ने उसकी इज्जत उतारी थी?
29 - इस दीप के बुझते ही गांव में इंसाफ की परंपरा टूट गई है। अब कोई भी जवान फसलों भरे खेत, साज-समान भरे मकान, आम, अमरूद, अंजीर-भरे बगीचे और गुलाब की क्यारियों को अपने पैरों तले रौंद सकता है। उन पर अपने नाम की तख्तियां लगा सकता है। उन्हें मियां जान से डरने की जरूरत नहीं है। मियां जान कभी भी न टूटने वाली नींद सो रहे हैं!
मध्य बिहार की नदियों के हवाले से हमारे स्मृति-पटल पर उभरने वाले ये बिंब क्या हमारे दिलों में उन सामाजिक, आर्थिक नाइंसाफियों का तकलीफदेह एहसास नहीं पैदा करते, जो एक लंबे अरसे से मध्य बिहार की नियति बन गई हैं?
एक दशक, डेढ़ दशक तक इन्हीं आर्थिक, सामाजिक नाइंसाफियों से लड़ते रहने और असंख्या चेतनशील, जागरूक एवं प्रतिबद्ध राजनीतिक प्राणों की आहूति देने के बाद हम आज मध्य बिहार की संघर्ष-यात्रा के किस पड़ाव तक पहुंच सके हैं?
हमें शायद वर्तमान के आईने में अतीत का चेहरा देखते रहने की आदत पड़ गई है!
मई: 1994
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Post By: Shivendra