अतिनगरीकरण: एक ज्वलंत समस्या

आज के आधुनिक, औद्योगिक, वैज्ञानिक और भूमंडलीकरण के युग में अतिनगरीकरण एक विकराल एवं भयानक दानव के समान है जो विश्व के अधिकांश नगरों को निगल रहा है और हम मूक दर्शक बने उसका कठोर एवं पीड़ादायी दंश झेलने को विवश हैं। इसकी उत्पत्ति के कारणों एवं दुष्परिणामों की चर्चा से पहले यह जान लेना बेहतर होगा कि वास्तव में अतिनगरीकरण है क्या।

तेजी से बदलते नगरीय परिवेश में अतिनगरीकरण एक जटिल एवं ज्वलंत समस्या के रूप में हमारे सामने उभरा है। यद्यपि हमारे यहाँ नगरीकरण अभी-अभी प्रारम्भ हुआ है, बावजूद इसके हमारे नगरों की समस्याएँ पश्चिमी देशों से कहीं अधिक गम्भीर हैं। इस समस्या का कारण, दुष्परिणाम तथा समाधान ढूँढना अत्यन्त आवश्यक है। आज विश्व का कोई भी देश ऐसा नहीं है जहाँ अतिनगरीकरण की समस्या न हो। आज के आधुनिक, औद्योगिक, वैज्ञानिक और भूमंडलीकरण के युग में अतिनगरीकरण एक विकराल एवं भयानक दानव के समान है जो विश्व के अधिकांश नगरों को निगल रहा है और हम मूकदर्शक बने उसका कठोर एवं पीड़ादायी दंश झेलने को विवश हैं।

अतिनगरीकरण वह स्थिति है जब किसी भी नगर की पहचान के लिए आवश्यक जनसंख्या, नगर में होने वाले कार्य, यातायात एवं दूरसंचार साधन एवं अन्य तत्व एक ही स्थान पर इतने अधिक जमा हो जाएँ कि विभिन्न प्रकार की नगरीय समस्याएँ स्पष्ट परिलक्षित होने लगें।

भारत में इस समस्या के लिए मुख्य रूप से निम्न कारण जिम्मेवार हैं:

1. जनसंख्या पलायन: ग्रामीण क्षेत्रों से नगरों की ओर जनसंख्या का पलायन अतिनगरीकरण का सबसे बड़ा कारण है। ग्रामीण क्षेत्रों से इस जनसंख्या पलायन के पीछे कारण हैं ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक बेरोजगारी, अधिक जनसंख्या तथा दैनिक सुविधाओं का अभाव। चूँकि ग्रामीण क्षेत्र मुख्यतः कृषि आधारित होते हैं, वहाँ के स्थानीय लोगों को साल भर काम नहीं मिल पाता। फलस्वरूप वे नगरों की ओर भागते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में जहाँ बड़े परिवार मिलते हैं जिससे उनके समक्ष आर्थिक संकट उत्पन्न होता है, वहीं दैनिक सुख-सुविधाओं या आवश्यकताओं की हमेशा कमी बनी रहती है। इन सब समस्याओं का निदान ग्रामीण नगरों में देखते हैं जहाँ उन्हें रोजगार प्राप्ति के साथ-साथ आवश्यक सुख-सुविधाएँ भी उपलब्ध हो जाती हैं। ग्रामीण क्षेत्रों से नगरीय क्षेत्रों में जनसंख्या का यह पलायन अत्यन्त तीव्र गति से हो रहा है और अनुमान है कि इस वर्ष ऐसे लोगों की संख्या लगभग 360 लाख होगी।

2. आकर्षक स्वरूप: नगर प्राचीनकाल से ही आकर्षण का केन्द्र रहे हैं। चूँकि नगर का स्वरूप गाँव के स्वरूप से बिल्कुल उल्टा होता है और वहाँ सुख-सुविधाओं का अम्बार लगा रहता है, ग्रामीण शहरों की ओर स्वभावतः आकर्षित होते हैं। यह बात अलग है कि भिन्न-भिन्न नगरों का विकास भिन्न-भिन्न कारणों से होता है, जैसे- दिल्ली, कोलकाता, वाराणसी आदि नगरों को ही लें। इन नगरों का विकास क्रमशः प्रशासनिक, व्यापारिक तथा धार्मिक कारणों से हुआ और इन्हीं कारणों ने उपरोक्त नगरों के विकास के लिए लोगों को आकर्षित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। धीरे-धीरे उनका इतना विकास हो गया कि वहाँ अतिनगरीकरण की स्थिति उत्पन्न हो गई।

3. जनसंख्या वृद्धि: निरन्तर बढ़ती जनसंख्या ने नगरों में अतिनगरीकरण की स्थिति उत्पन्न करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। जिस रफ्तार से जनसंख्या में वृद्धि हो रही है, उस रफ्तार से न तो कृषि एवं उद्योगों का विकास हो रहा है और न ही आवासीय क्षेत्रों का निर्माण। इस प्रकार प्रतिदिन एक नई आबादी उसी सीमित स्थान में रहने को विवश है। कुछ वर्षों पूर्व मुंबई में किए गए एक सर्वेक्षण से पता चला है कि वहाँ 12 प्रतिशत परिवार या तो सड़कों पर रहते हैं या उनका निवास गंदी बस्तियों में है। चेन्नई जैसे महानगर में ऐसे परिवारों की संख्या कुल जनसंख्या का 10 प्रतिशत है। पिछले कुछ वर्षों तक बंगलौर में 95 गंदी बस्तियाँ थी जिनमें 31 लाख व्यक्ति रहते थे। अब इनकी संख्या सम्भवतः और बढ़ गई होगी। नवीनतम अनुमान के अनुसार भारत में रहने वाला हर पाँचवाँ व्यक्ति गंदी बस्ती में रहता है।

4. औद्योगिक विकास: 18वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में पूँजीवादी सिद्धान्त के सामने आने के बाद नई औद्योगिक व्यवस्था प्रारम्भ हुई। कल-कारखानों के स्वरूप में भी अमूल-चूल परिवर्तन हुए। कारखानों के आकार तथा संख्या में वृद्धि के साथ-साथ श्रमिकों की संख्या में भी अत्यधिक वृद्धि हुई। इस समय मशीनीकरण ने उद्योगों को विशाल रूप प्रदान किया। यूरोप में औद्योगिक क्रांति ने नगरीय जनसंख्या में तेजी से वृद्धि की और इसका प्रभाव सारे विश्व में पड़ा। इस दौरान 1821 से 1936 के बीच जहाँ एक तरफ इंग्लैंड की नगरीय जनसंख्या 40 लाख से बढ़कर 370 लाख हो गई, वहीं जर्मनी में यह 20 लाख से बढ़कर 480 लाख हो गई। इस समय कारखानों ने ग्रामीण जनसंख्या को अपनी ओर खींचने में चुंबक की भूमिका निभाई। जो उद्योग पहले से किसी नगर में स्थापित थे, उन्होंने अपने उद्योगों का और विस्तार किया। भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व जमशेदपुर लोहा-इस्पात कारखाने के रूप में स्थापित हो चुका था। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भिलाई, दुर्गापुर, बोकारो, राउरकेला, कुल्टी, बर्नपुर, भद्रावती आदि नगरों की स्थापना लोहा-इस्पात उद्योग के फलस्वरूप हुई। बरौनी, नूनमाटी, अंकलेश्वर आदि नगरों का विकास तेल शोधन कार्यों के कारण हुआ। मुंबई के पृष्ठ प्रदेश में शोलापुर, अहमदाबाद, सूरत, भड़ौच, इंदौर, नागपुर आदि में सूती वस्त्र उद्योग के कारखाने स्थापित हुई। बंगाल में हुगली घाटी में जूट उद्योग ने प्रगति की। ऐसे नगरों ने जो समुद्र किनारे स्थित थे और जहाँ बंदरगाह की सुविधा उपलब्ध थी, औद्योगिक विकास को अधिक बल प्रदान किया। यह बात तो लगभग सर्वमान्य है कि किसी भी उद्योग की स्थापना में श्रमिक एक महत्त्वपूर्ण कारक होता है। जब भी किसी नगर या महानगर में उद्योग स्थापित होते हैं तो भारी संख्या में श्रमिकों की आवश्यकता होती है और उनकी आपूर्ति प्रायः बाहरी क्षेत्रों से होती है। शीघ्र ही ये नगर अनियन्त्रित भीड़-भाड़ व गंदे मकानों से घिर जाते हैं। वर्तमान में मुम्बई जैसे महानगरों ने फिल्म उद्योग के विकास के कारण लाखों युवाओं को अपनी ओर खींचने में सफलता पाई है। आज भी इन नगरों में हजारों की संख्या में ऐसे नवयुवक मिल जाएँगे जो अपेक्षाकृत छोटे शहरों से आए हैं और जो अपना सब कुछ दाँव पर लगाकर बेहतर जीवन-स्तर की चाहत और नगरीय चकाचौंध में खो गए हैं।

5. तकनीकी विकास: विश्व के जितने भी नगरों में अतिनगरीकरण की समस्या है, उन नगरों की अर्थव्यवस्था तथा आधारभूत संरचना अपेक्षाकृत सुदृढ़ है। सुदृढ़ अर्थव्यवस्था और आधाभूत संरचना की प्रचुरता रोजगार के नए अवसर प्रदान करती है। साथ ही उन्नत प्रौद्योगिकी का लाभ सर्वप्रथम नगरीय क्षेत्रों को मिलता है।

बीसवीं सदी के प्रारम्भ से ही तकनीकी विकास का प्रभाव विभिन्न क्षेत्रों पर पड़ा। एक ओर कृषि के क्षेत्र में नई-नई तकनीकों के प्रयोग से भूमि की उत्पादन शक्ति में भारी वृद्धि दर्ज की गई, अनाज उत्पादन में कई गुना बढ़ोत्तरी हुई, दूसरी ओर विनिर्माण उद्योग तथा खनन उद्योग भी इससे अछूते नहीं रहे। तकनीक का प्रयोग जैसे-जैसे बढ़ता गया, मानव शक्ति की आवश्यकता कम महसूस की जाने लगी और मानव श्रम की खपत विनिर्माण उद्योग, व्यापार, भिन्न-भिन्न प्रकार की सेवाओं आदि कार्यों में होने लगी। उपयुक्त सभी परिस्थितियों ने मिलकर ग्रामीण या अर्द्ध-ग्रामीण क्षेत्रों से जनसंख्या पलायन में मदद की।

6. यातायात एवं दूरसंचार माध्यम: विश्व में अतिनगरीकरण की समस्या से जूझ रहे विभिन्न नगरों के गर्भ में ही इस समस्या का कारण छिपा है। अतिनगरीकरण में सस्ते एवं तीव्र यातायात के साधन तथा उन्नत दूरसंचार माध्यमों की भूमिका को नजरअंदाज करना हमारी अपरिपक्वता होगी। आज सड़क मार्ग द्वारा जहाँ सुदूरवर्ती ग्रामीण क्षेत्रों का सम्पर्क महानगरों से सम्भव हुआ है, वहीं रेलमार्गों ने सस्ते एवं तीव्र गति के यातायात साधन उपलब्ध कराए हैं। तेज गति के यातायात साधनों की उपलब्धता के कारण लोग बड़े-बड़े नगरों की ओर इन सेवाओं को प्राप्त करने के लिए भागते हैं। आज की इस गलाकाट प्रतियोगिता के दौर में उद्योग अथवा व्यापारिक कार्य वहीं केन्द्रित होते हैं जहाँ उपरोक्त सुविधाएँ उपलब्ध हों। जैसे भारत के हर बड़े नगर को लें जहाँ सेल्यूलर फोन, रेडियो पेजिंग सिस्टम, इंटरनेट, फैक्स, मोबाइल फोन, ई-मेल आदि की सुविधा उपलब्ध है जो सर्वोत्कृष्ट दूरसंचार प्रणालियाँ हैं। इस स्थिति में उद्योगपतियों तथा व्यापारियों का रुझान वहीं होगा जहाँ उपरोक्त सुविधाएँ उपलब्ध हों।

7. विनिमय तथा व्यापारिक सुविधा: चूँकि नगरों का आधार व्यापार होता है अतः नगरों में ग्रामीण क्षेत्रों की अपेक्षा विनिमय एवं व्यापार की सुविधा अधिक होती है। नगरों में व्यवसाय के अनेक द्वार खुले हुए हैं। जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में स्थिति इसके ठीक विपरीत होती है। ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि ही लोगों का आर्थिक कार्य होता है, जबकि नगरों में आर्थिक उद्देश्य से अनेक कार्य किए जाते हैं।

8. अव्यवस्थित विकास: भारत के अधिकांश नगर ऐसे हैं जिनका नगरीय विकास अव्यवस्थित रूप में हो रहा है। रिहायशी क्षेत्रों के बीच वैसे उद्योग भी कार्यरत नजर आएँगे जिनसे वातावरण अत्यधिक प्रदूषित होता है और जिनसे मानव जीवन के अस्तित्व एवं पर्यावरण को गम्भीर खतरा है। यह स्थिति बिल्कुल ही अटपटी और अव्यवहारिक लगती है। सिर्फ चंडीगढ़, भुवनेश्वर, जमशेदपुर, गाँधीनगर आदि कुछ गिने-चुने नगर ऐसे हैं जिन्हें व्यवस्थित रूप में बसाया गया है। यदि इन नगरों का भारत के अन्य नगरों के साथ तुलनात्मक अध्ययन किया जाए तो हम पाएँगे कि इन नगरों में भारत के अन्य नगरों की अपेक्षा अतिनगरीकरण की समस्या कम है। इसका प्रमुख कारण यह है कि इन नगरों को विकास के क्रम में ही व्यवस्थित एवं नियोजित ढँग से बसाया गया।

9. समीपवर्ती क्षेत्रों की निर्धनता: यदि नगरीय प्रदेशों के समीपवर्ती क्षेत्रों का सूक्ष्म दृष्टि से अध्ययन किया जाए तो हमें वहाँ व्याप्त गरीबी और तज्जनित समस्याओं का स्पष्ट रूप देखने को मिलेगा। यद्यपि इन नगरों के पृष्ठ प्रदेश में जमीन के ऊपर और जमीन के नीचे पर्याप्त प्राकृतिक एवं मानवीय संसाधन मौजूद हैं परन्तु उनका विवेकपूर्ण उपयोग न होने के कारण उस क्षेत्र विशेष में गरीबी व्याप्त है। जैसे कोलकाता और मुम्बई महानगर को ही लें। इनदोनों महानगरों का पृष्ठप्रदेश काफी विस्तृत है। बावजूद इसके उस पृष्ठप्रदेश की एक बड़ी जनसंख्या आज भी न्यूनतम जीवन-स्तर पाने में असमर्थ है। यह बात अलग है कि उस पृष्ठप्रदेश के प्राकृतिक एवं मानवीय संसाधनों का विदोहन भिन्न-भिन्न कारणों से नहीं हुआ है जिनमें मुख्य हैं- प्राकृृतिक, राजनीतिक एवं परिस्थितिजन्य कारण। यही वजह है कि आज भी उस प्रदेश के लोग अकाल, महामारी, भूकम्प, तूफान, सूखा आदि प्राकृतिक विपदाओं को झेलने को विवश हैं। कहने का मतलब है कि भिन्न-भिन्न कारणों से महानगरीय प्रदेश के समीपवर्ती क्षेत्रों में व्याप्त निर्धनता लोगों को नगरीय क्षेत्रों में जाने को प्रोत्साहित या मजबूर करती है और निश्चय ही उपरोक्त परिस्थितियों ने मुम्बई और कोलकाता के वर्तमान स्वरूप में अहम भूमिका निभाई है।

10. उच्च संस्थान: भारतीय नगरों में एक आम बात देखने को मिलती है कि जितने भी उच्च संस्थान हैं, जैसे- शिक्षा संस्थान, अस्पताल, कार्यालय, न्यायालय आदि, वे सब नगरों या महानगरों में अवस्थित हैं। इन संस्थानों का महानगरों में स्थित होने का सबसे बड़ा कारण शायद यह है कि उनका सेवा क्षेत्र काफी विस्तृत है अर्थात वे काफी बड़े क्षेत्र को अपनी सेवाएँ प्रदान करते हैं। उदाहरण के लिए एक प्राथमिक स्कूल आपको एक गाँव अथवा कस्बे में मिल जाएगा परन्तु उच्च शिक्षा के लिए मेडिकल एवं इंजिनियरिंग कॉलेज नगरों में ही मिलेंगे। एक जनरल फिजिशियन या प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र एक कस्बे या छोटे शहर में मिल सकते हैं किन्तु एक हृदय-रोग विशेषज्ञ, अस्थि-रोग विशेषज्ञ, शल्य-चिकित्सक महानगरों में ही मिलेंगे। इन संस्थानों के कारण समीपवर्ती या उस महानगर के चारों ओर की जनसंख्या वहाँ आकर्षित होती है और यह आकर्षण कभी-कभी स्वाभाविक न होकर मजबूरी में होता है। इस तरह उपरोक्त संस्थान एक चुम्बक की भूमिका निभाते हैं जिसके चारों ओर जनसंख्या केन्द्रित होती चली जाती है।

11. खगोलीकरण: वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भूमंडलीकरण, निजीकरण तथा मुक्त अर्थव्यवस्था ने देश के विकास से सम्बन्धित गाँधी एवं नेहरू अवधारणा को पूरी तरह ध्वस्त कर दिया है। उपरोक्त व्यवस्था अपनाने के कारण जहाँ विभिन्न देशों की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का देश में आना सम्भव हुआ है और फलस्वरूप रोजगार के अवसरों में वृद्धि हुई है, वहीं उपभोक्तावादी संस्कृति, पूँजीवादी व्यवस्था का प्रसार, नैतिकता का पतन, शक्ति की पूजा, नौकरशाही संस्कृति का विकास, पश्चिमी संस्कृति का अंधाधुंध अनुकरण आदि बातों का महत्व काफी बढ़ गया है। अतिनगरीकरण की स्थिति उत्पन्न करने के संदर्भ में हम यह बात निश्चित रूप से कह सकते हैं कि उपरोक्त व्यवस्था को स्थापित करने या स्थापित करने या अपनाने का स्थान नगरीय क्षेत्र ही हो सकता है, ग्रामीण नहीं।

भारत में 1991 से आर्थिक उदारीकरण के सिद्धान्त को अपनाया गया। फलस्वरूप पिछले 10 वर्षों में सैकड़ों बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को भारत में स्थापित होने का मौका मिला जिनमें बड़ी संख्या में कुशल और अकुशल दोनों प्रकार के श्रमिकों को रोजगार मिला जिसकी आपूर्ति ग्रामीण और अर्द्ध ग्रामीण क्षेत्रों से हुई। साथ ही इसने विदेशों से भी कुशल एवं प्रशिक्षित लोगों को अपनी ओर आकर्षित किया। इस तरह भूमंडलीकरण, आर्थिक उदारीकरण आदि ने प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों प्रकार से नगरीय स्वरूप एवं उसके पर्यावरण को प्रभावित किया।

सुझाव


नगरों में ओवर अरबनाइजेशन की स्थिति के जो दुष्परिणाम सामने आए हैं, वे हैं: रिहायशी मकानों की कमी; मकानों के किराए अधिक होना; गंदी बस्तियों का विकास; प्रशासनिक कठिनाईयाँ; नगरीय सुविधाओं की कमी; यातायात की समस्या; स्वास्थ्य एवं चिकित्सा सुविधाओं का अभाव; अपराधों में वृद्धि; प्रदूषण की समस्या; दुर्घटनाओं में वृद्धि; मनोरंजक स्थलों की कमी; कूड़ा-कर्कट विसर्जन समस्या; विद्युत समस्या; पेयजल समस्या; बेरोजगारी समस्या; एवं सार्वजनिक क्षेत्रों में अतिक्रमण की समस्या। यद्यपि इस समस्या का समाधान सरल नहीं है, फिर भी कुछ सुझाव अवश्य दिए जा सकते हैं जो निम्न प्रकार हैं:

1. जन-निष्क्रमण पर रोक: इस बात पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए कि उस क्षेत्र विशेष में योजनाओं के क्रियान्वयन में स्थानीय लोगों की भागीदारी सुनिश्चित की जाए। इस दिशा में सरकार सराहनीय प्रयास कर रही है। जवाहर रोजगार योजना, इंदिरा आवास योजना, काम के बदले अनाज योजना, सूखा उन्मुख क्षेत्र योजना, ट्राइसेम आदि योजनाओं के माध्यम से ग्रामीण जनता को रोजगार मुहैया कराने के प्रयास किए जा रहे हैं। यह एक विडम्बना ही है कि भारत जैसे विकासशील और जनसंख्या-बहुल देश में यदि गाँवों से शहरों की ओर जन-निष्क्रमण की गति नहीं बढ़ाई जाती तो गाँव बेरोजगार लोगों से भर जाएँगे और यदि गति बढ़ाई गई तो नगरों का दुर्भाग्यपूर्ण विकास नहीं रोका जा सकेगा। अतः योजनाओं के क्रियान्वयन में इस प्रकार का तालमेल बढ़ाना होगा कि साँप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे।

2. जनसंख्या नियन्त्रण: यह बात तो लगभग सर्वमान्य है कि जिस रफ्तार से जनसंख्या बढ़ रही है, उस रफ्तार से न तो रोजगार के अवसर बढ़ रहे हैं और न ही रिहायशी क्षेत्र। ऐसे में स्वाभाविक है कि नगरों में जनसंख्या का घनत्व बढ़ेगा और अंततोगत्वा अतिनगरीकरण की स्थिति उत्पन्न होगी। कहने का तात्पर्य है कि देश में जनसंख्या की वृद्धि दर को नियन्त्रित करना होगा। यह न केवल अतिनगरीकरण की समस्या को दूर करने के लिए बल्कि देश के समग्र विकास के लिए भी आवश्यक है।

3. नगरों का व्यवस्थित रूप: भारत में जिस तरह चंडीगढ़, भुवनेश्वर, जमशेदपुर, गाँधीनगर आदि को बसाया गया है, उसी तरह अन्य उभरते नगरों को उनके विकास क्रम में ही नियोजित ढँग से बसाया जाए। अभी जो नगर छोटे हैं उसे गम्भीरता से लेते हुए उनके नियोजित एवं दूरदर्शितापूर्ण विकास की प्रक्रिया को अपनाया जाए। जहाँ तक सम्भव हो सके औद्योगिक क्षेत्र नगर के बाहरी क्षेत्र या सीमा में ही स्थापित किए जाएँ। उद्योगों की स्थापना में अन्य बातों को ध्यान में रखने के साथ-साथ वायु की दिशा को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए।

4. व्यापार विकास: विभिन्न कारणों से ग्रामीण तथा कम शहरी क्षेत्र रोजगार के अवसर बढ़ाने में सक्षम नहीं हो रहे हैं। इसका एक कारण यह भी है कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था काफी दयनीय है। सबसे पहले उन क्षेत्रों में कृषि-मंडी की स्थापना होनी चाहिए, जहाँ से स्थानीय लोगों को उनकी आवश्यकता की वस्तुएँ जैसे खाद, उत्तम बीज, कृषि यन्त्र इत्यादि प्राप्त हो सके और उन्हें इन वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए शहर न जाना पड़े। इन क्षेत्रों में उत्पादित वस्तुओं जैसे दूध, अंडा, फल एवं साग-सब्जी का एक ही स्थान पर एकत्रीकरण हो और वहाँ से ही उन वस्तुओं का विभिन्न शहरी क्षेत्रों की ओर वितरण हो।

दूसरी बात यह कि उन क्षेत्रों में कृषि-आधारित उद्योगों का विकास हो, जैसे कि हाल ही में कई चीनी मिलें उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में स्थापित हुई हैं। इससे तीन फायदे हुए हैं। पहला यह कि वहाँ के लोगों को अपनी फसल बेचने नहीं जाना पड़ा। दूसरा, बिचौलियों की आवश्यकता न होने के कारण वे अपनी फसलों को सीधे कारखानों में बेच सके जिससे उन्हें अधिकतम मूल्य की प्राप्ति हुई। तीसरे, उन्हें गाँव में ही रोजगार मिल गया। ग्रामीण तथा कम शहरी क्षेत्रों में जिन उद्योगों का विकास सम्भव है, उनमें चीनी उद्योग, पोल्ट्री उद्योग तथा वनोत्पाद आधारित उद्योग मुख्य हैं। साथ ही कुटीर एवं लघु उद्योगों को भी प्रोत्साहन मिलना चाहिए। इसके अतिरिक्त ग्रामीण क्षेत्रों में विद्युतीकरण और बैंकिंग सुविधा का विस्तार भी अति आवश्यक है ताकि ग्रामीणों का व्यापार तथा उनकी अर्थव्यवस्था सुदृढ़ हो सके। तब निश्चित रूप से नगरों के स्वरूप में परिवर्तन आएगा और बहुत हद तक अतिनगरीकरण की समस्या दूर होगी।

5. उद्योगों का क्षेत्रीय विस्तार: नगरों में अतिनगरीकरण की स्थिति के लिए विभिन्न उद्योगों का एक ही स्थान पर केन्द्रीकरण बहुत हद तक जिम्मेवार है। किसी स्थान पर पहले से स्थापित उद्योग और दूसरे स्थापित होने वाले उद्योग के बीच पर्याप्त दूरी होनी चाहिए जिससे जनसंख्या के एक ही स्थान पर बसने की स्थिति ही उत्पन्न न हो। अर्थातः उद्योगों का क्षेत्रीय विस्तार हो जिससे नगर विशेष में उद्योग एवं सम्बन्धित जनसंख्या का दबाव कम हो।

6. कस्बों से जोड़कर विकास: प्रत्येक नगर या महानगर के आस-पास या उसके चारों ओर छोटे-छोटे शहर या कस्बे होते हैं। यदि इन कस्बों को बड़े नगरों के साथ इस प्रकार जोड़ा जाए कि वे तमाम सुविधाएँ उन कस्बों को उपलब्ध हों जो मुख्य नगरों में उपलब्ध हैं, तो जनसंख्या घनत्व नगर विशेष में एकत्रित होने से रोका जा सकता है। जैसे-जैसे सुदूरवर्ती क्षेत्रों में सुविधाएँ एवं सेवाएँ उपलब्ध होती जाएँगी, जनसंख्या का सुदूरवर्ती क्षेत्रों में प्रसार होता जाएगा। इससे आंशिक रूप से ही सही, अतिनगरीकरण की स्थिति को कम किया जा सकेगा। अब तो दिल्ली जैसे महानगर में यह विधि अपनाई भी जा रही है। दूसरे शब्दों में, ग्रामीण क्षेत्रों का नगरीकरण और नगरी क्षेत्रों का ग्रामीणीकरण आज अत्यन्त आवश्यक है।

(लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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