बस्ती का नाम डोंगीटोली है। यह राजस्व ग्राम पाहरसाड़ा का एक टोला है। यह टोला गांव के बाकी आठ टोलों से पूरी तरह अलग है। इसके पूरब में शंख नदी बहती है जिसकी दूरी महज आधा किलोमीटर है। पूरब में यह नदी गांव की सीमारेखा भी है। पश्चि म में खलिजोर नदी है जो 100 मीटर दूर है। उत्तर में एक किलोमीटर की दूरी पर इन दोनों नदियों का संगम है। दक्षिण में घने जंगल से लगता आलू पहाड़ है। इसमें सखुआ, केंदू आदि के पेड़ हैं। बस्ती में दर्जन भर परिवार हैं। जनसंख्या लगभग 200 है। सभी परिवार आदिवासी समुदाय के हैं। गांव का प्रखंड कार्यालय के रसई है। यहां से यह छह किलोमीटर दूर है। ग्राम पंचायत मुख्यालय बागडेगा पड़ता है जो आठ किलोमीटर दूर है। गांव में बिजली नहीं है। चारों ओर नदी एवं जंगल से घिरे इस बस्ती के लोग केरोसिन के सहारे लालटेन एवं डिबिया जलाकर रात काटते हैं। पेयजल के लिए न तो कुआं है और न ही चापानल। विधायक निधि से एक चापानल दिया भी गया था। लेकिन, सालभर से खराब है। इसलिए ग्रामीण खलिजोर नदी में गड्ढा बनाकर पानी निकालते और पीते हैं। सिवाय एक पारा शिक्षक के गांव में कोई नौकरी पेशा व्यक्ति नहीं है। सभी परिवार पूरी तरह खेती पर निर्भर हैं। गांव में न सिंचाई कूप हैं और न ही कोई तालाब. इसके बाद भी ग्रामीण सालोंभर खेती करते हैं। इस साल की ही बात है। धान के अलावा ग्रामीणों ने गेहूं, आलू, प्याज, मिर्च, फूलगोभी, बंद गोभी, भिंडी, तरबूज आदि की खेती की। गांव के किशोर तिर्की एवं उनके भाइयों ने चार क्विंटल गेहूं, दो क्विंटल आलू, छह क्विंटल प्याज और 10 हजार रुपये के मिर्च उपजाया। बकौल किशोर तिर्की उनके परिवार में सदस्यों की संख्या 14 हैं और सभी के सालोंभर का खाना-पीना, पहनना-ओढ़ना, पढ़ाई- लिखाई, आया-गया आदि खर्च खेती से ही मेंटेन होता है। पानी की सुविधा नहीं है। इसके बाद भी सालों भर खेती कैसे करते हैं। इस पर वे कहते हैं कि खलिजोर नदी में वे लोग हर साल अक्टूबर-नवंबर महीने में बांध बनाते हैं। इससे मार्च-अप्रैल तक इतना पानी जमा रहता है कि रबी फसल एवं सब्जियों की खेती के लिए भरपूर पानी मिल जाता है। तिर्की बताते हैं कि वे लोग यह काम 20 साल से करते आ रहे हैं। रबी का सीजन आते ही ग्रामीण सामूहिक श्रमदान से बांध बनाते हैं। फिर डीजल पंपिंग सेट के जरिये खेतों और टांड़ जमीन पर बने बाड़ियों में पानी पहुंचाया जाता है।
गांव में सरकारी सहायता के नाम पर बस एक लिफ्ट सिंचाई सिस्टम है। मेसो परियोजना कार्यालय की ओर से 2005 में इसे अधिस्थापित किया गया है। इसके तहत एक पंप हाउस का निर्माण किया गया है। इसमें आठ हॉर्सपावर की डीजल पंपिंग सेट लगा। दो हजार फीट पाइप बिछाये गये हैं। इसके जरिये श्रमदान से बने बांध के पानी को ऊपरी जमीन पर पहुंचाया जाता है। बाड़ियों में जगह-जगह वॉल्ब भी लगाये हैं. इसे खोलकर सभी आवश्यक जगहों पर पानी पहुंचाया जाता है। सिंचाई सिस्टम का इस्तेमाल कैसे होता है। इस बारे में ग्रामीण रिचर्ड तिर्की बताते हैं कि एक समिति है जो पंपिंग सेट के संचालन और रख-रखाव का काम करती है। पंपिंग सेट के तेल का टंकी हमेशा डीजल से भरा रहता है। जिसे पानी की जरूरत होती है वह पहले मशीन चला लेता है। इसके बाद फिर डीजल भर कर टंकी को फूल कर दिया जाता है। यह क्रम चलता रहता है। मशीन में किसी प्रकार की खराबी के समय ग्रामीण इकट्ठा होते हैं। खर्चका आंकलन कर चंदा इकट्ठा किया जाता है। सभी परिवारों पर बराबर-बराबर हिस्सा बांटा जाता है। फिर पैसा जमा लेकर मशीन की मरम्मत करा ली जाती है। ग्रामीणों के मुताबिक यह सिस्टम पिछले सात साल से गांव में बिना किसी रूकावट एवं विवाद के चल रहा है। किशोर तिर्की बताते हैं कि जब कभी यह नौबत आती है कि चार लोगों को एक ही समय पानी की जरूरत है तो ऐसे समय में आपसी बातचीत के जरिये क्रमवार मशीन चलाया जाता है। यानी व्यवस्था पूरी तरह कॉपरेटिव पर आधारित है। एडलिन तिर्की जिनके खेत में अभी भी भिंडी के पौधे लगे हुए हैं, कहती हैं कि लिफ्ट से उन लोगों को काफी सुविधा मिली है।
वैसे तो डोंगी टोली बस्ती के ग्रामीण पिछले 20 साल से नदी में बांध बनाते आ रहे थे। टोले के लोग एक दिन जुटते थे और बालू को जमा कर नदी को बांध देते थे। इसमें उन्हें काफी मशक्कत करनी पड़ती थी। बालू जमा करते थे। पानी बहाकर ले जाता था। लेकिन, 2012 में ग्रामीणों को नयी तकनीक मिली। यह तकनीक है सीमेंट की बोरी से बांध बनाना। जिला परिषद सदस्य एवं सामाजिक कार्यकर्ता जस्टिन बेक ने ग्रामीणों को इस तकनीक के बारे में बताया और सीमेंट की बोरियां उपलब्ध करायी। इससे ग्रामीणों को अस्थायी ही सही, लेकिन मजबूत बांध बनाने में मदद मिली। इस बार बोरी से ज्यादा ऊंचा बांध बन सका।
सिमडेगा के दक्षिणी-पश्चिरमी इलाके में दर्जनों गांव हैं जहां नदियों एवं प्राकृतिक नालों पर मिट्टी से छोटा एवं कच्चा बांध बनाने का काम होता है। लेकिन, यह काम सभी गांवों में नहीं है। ऐसे में जिला परिषद सदस्य जस्टिन बेक ने इसे अभियान के तौर पर लिया है। वे हर गांव में पानी रोकने के लिए न केवल सीमेंट बोरी वाले बांध का पूरा प्रचार-प्रसार करते हैं। बल्कि इसमें बोरी उपलब्ध कराने से लेकर लोगों की हर तरह की मदद भी करते हैं। वर्ष 2012 में उन्होंने डोंगी टोली के खलिजोर नदी के अलावा डोंगीझरिया के सोनाजोर नदी, बासिन गांव के जिरमा नदी आदि जगहों पर भी सीमेंट की बोरी का बांध बनवाया। इस साल इसे और भी गांवों में फैलाने की योजना है। बकौल जस्टिन बेक सीमेंट की बोरियां बेहद सस्ती हैं। इसके साथ ही पानी में ज्यादा दिनों तक टिकी रहती है। उनके मुताबिक सरकार 10 लाख रुपये का चेक डैम बनाकर जितना पानी नहीं रोक पाती है वह महज हजार रुपये की सीमेंट बोरियों के बांध से रूक जाती है। इसके अलावा जिप सदस्य जस्टिन कॉपरेटिव को भी बढ़ावा दे रहे हैं। क्षेत्र में कृषि एवं वनोत्पाद को बिचौलियों के हाथों बेचने के बदले कॉपरेटिव के जरिये इसके व्यापार पर काम कर रहे हैं। श्री बेक की सूचना पर ही डोंगीझरिया गांव में लाह के कीट पालन की योजना बनायी गयी।
2005 में मेसो से मिला है लिफ्ट एरीगेशन सिस्टम
गांव में सरकारी सहायता के नाम पर बस एक लिफ्ट सिंचाई सिस्टम है। मेसो परियोजना कार्यालय की ओर से 2005 में इसे अधिस्थापित किया गया है। इसके तहत एक पंप हाउस का निर्माण किया गया है। इसमें आठ हॉर्सपावर की डीजल पंपिंग सेट लगा। दो हजार फीट पाइप बिछाये गये हैं। इसके जरिये श्रमदान से बने बांध के पानी को ऊपरी जमीन पर पहुंचाया जाता है। बाड़ियों में जगह-जगह वॉल्ब भी लगाये हैं. इसे खोलकर सभी आवश्यक जगहों पर पानी पहुंचाया जाता है। सिंचाई सिस्टम का इस्तेमाल कैसे होता है। इस बारे में ग्रामीण रिचर्ड तिर्की बताते हैं कि एक समिति है जो पंपिंग सेट के संचालन और रख-रखाव का काम करती है। पंपिंग सेट के तेल का टंकी हमेशा डीजल से भरा रहता है। जिसे पानी की जरूरत होती है वह पहले मशीन चला लेता है। इसके बाद फिर डीजल भर कर टंकी को फूल कर दिया जाता है। यह क्रम चलता रहता है। मशीन में किसी प्रकार की खराबी के समय ग्रामीण इकट्ठा होते हैं। खर्चका आंकलन कर चंदा इकट्ठा किया जाता है। सभी परिवारों पर बराबर-बराबर हिस्सा बांटा जाता है। फिर पैसा जमा लेकर मशीन की मरम्मत करा ली जाती है। ग्रामीणों के मुताबिक यह सिस्टम पिछले सात साल से गांव में बिना किसी रूकावट एवं विवाद के चल रहा है। किशोर तिर्की बताते हैं कि जब कभी यह नौबत आती है कि चार लोगों को एक ही समय पानी की जरूरत है तो ऐसे समय में आपसी बातचीत के जरिये क्रमवार मशीन चलाया जाता है। यानी व्यवस्था पूरी तरह कॉपरेटिव पर आधारित है। एडलिन तिर्की जिनके खेत में अभी भी भिंडी के पौधे लगे हुए हैं, कहती हैं कि लिफ्ट से उन लोगों को काफी सुविधा मिली है।
2012 में मिली नयी तकनीक
वैसे तो डोंगी टोली बस्ती के ग्रामीण पिछले 20 साल से नदी में बांध बनाते आ रहे थे। टोले के लोग एक दिन जुटते थे और बालू को जमा कर नदी को बांध देते थे। इसमें उन्हें काफी मशक्कत करनी पड़ती थी। बालू जमा करते थे। पानी बहाकर ले जाता था। लेकिन, 2012 में ग्रामीणों को नयी तकनीक मिली। यह तकनीक है सीमेंट की बोरी से बांध बनाना। जिला परिषद सदस्य एवं सामाजिक कार्यकर्ता जस्टिन बेक ने ग्रामीणों को इस तकनीक के बारे में बताया और सीमेंट की बोरियां उपलब्ध करायी। इससे ग्रामीणों को अस्थायी ही सही, लेकिन मजबूत बांध बनाने में मदद मिली। इस बार बोरी से ज्यादा ऊंचा बांध बन सका।
सिमडेगा के दक्षिणी-पश्चिरमी इलाके में दर्जनों गांव हैं जहां नदियों एवं प्राकृतिक नालों पर मिट्टी से छोटा एवं कच्चा बांध बनाने का काम होता है। लेकिन, यह काम सभी गांवों में नहीं है। ऐसे में जिला परिषद सदस्य जस्टिन बेक ने इसे अभियान के तौर पर लिया है। वे हर गांव में पानी रोकने के लिए न केवल सीमेंट बोरी वाले बांध का पूरा प्रचार-प्रसार करते हैं। बल्कि इसमें बोरी उपलब्ध कराने से लेकर लोगों की हर तरह की मदद भी करते हैं। वर्ष 2012 में उन्होंने डोंगी टोली के खलिजोर नदी के अलावा डोंगीझरिया के सोनाजोर नदी, बासिन गांव के जिरमा नदी आदि जगहों पर भी सीमेंट की बोरी का बांध बनवाया। इस साल इसे और भी गांवों में फैलाने की योजना है। बकौल जस्टिन बेक सीमेंट की बोरियां बेहद सस्ती हैं। इसके साथ ही पानी में ज्यादा दिनों तक टिकी रहती है। उनके मुताबिक सरकार 10 लाख रुपये का चेक डैम बनाकर जितना पानी नहीं रोक पाती है वह महज हजार रुपये की सीमेंट बोरियों के बांध से रूक जाती है। इसके अलावा जिप सदस्य जस्टिन कॉपरेटिव को भी बढ़ावा दे रहे हैं। क्षेत्र में कृषि एवं वनोत्पाद को बिचौलियों के हाथों बेचने के बदले कॉपरेटिव के जरिये इसके व्यापार पर काम कर रहे हैं। श्री बेक की सूचना पर ही डोंगीझरिया गांव में लाह के कीट पालन की योजना बनायी गयी।
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