आश्वस्त हुई काली बेई

काली बेई
काली बेई

देश में तालाबों को पुनर्जीवित करने की मुहिम शुरू हो गई है। जिसका श्रेय निर्विवाद रूप से पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र को जाता है। देश में जगह-जगह 'आज भी खरे है तालाब' की लाखों प्रतियां विभिन्न भाषाओं में अनूदित हो कर लोगों तक पहुंची हैं। उनकी प्रेरणा से राजेन्द्र सिंह का राजस्थान में तालाब का काम चालू हुआ। फिर राजस्थान में तालाबों के संरक्षण से पहली बार कुछ किलोमीटर की 'अरवरी नदी' का पुनर्जन्म हुआ। बाद में वहां ऐसी कई और नदियों का भी जन्म हुआ।

इसी क्रम में देश के इतिहास में पानी बचाने कि मुहिम में एक बड़ा चमत्कार किया है एक संत ने। पर्यावरण बचाने के लिए नदियों का संरक्षण भी जरूरी है यह उनका दृढ़ विश्वास है। उन्होंने एक सौ साठ किलोमीटर लंबी 'काली बेई' नदी को जीवित किया है। पंजाब के होशियारपुर जिले की मुकेरियां तहसील के ग्राम घनोआ के पास से ब्यास नदी से निकल कर काली बेई दुबारा 'हरि के छम्ब' में जाकर ब्यास में ही मिल जाती है।

मुकेरियां तहसील में जहां से काली बेई निकलती है। वो लगभग 350 एकड़ का दलदली क्षेत्र था। अपने 160 किलोमीटर लंबे रास्ते में काली बेई होशियारपुर, जालंधार व कपूरथला जिलों को पार करती है। लेकिन इधर काली बेई में इतनी मिट्टी जमा हो गई थी कि उसने नदी के प्रवाह को अवरूध्द कर दिया था। नदी में किनारे के कस्बों-नगरों और सैकड़ों गांवों का गंदा पानी गिरता था। नदी में और किनारों पर गंदगी के ढेर भी थे। जल कुंभी ने पानी को ढक लिया था। कई जगह पर तो किनारे के लोगों ने नदी के पाट पर कब्जा कर खेती शुरू कर दी थी। उल्लेखनीय है कि यह वही नदी है जिसमें गुरुदेव श्री नानक जी ने चौदह वर्ष तक स्नान किया था और जिसके किनारे श्री गुरुनानक देव जी को आध्यात्म बोध प्राप्त हुआ था।

इस वर्ष पर्यावरण दिवस के अवसर पर खेती विरासत मिशन के श्री उमेन्द्र दत्त ने पंजाब में सुल्तानपुर लोधी में आने का निमंत्रण दिया था। वहां किसी बाबा ने एक नदी पर बड़ा काम किया है, ऐसी खबर मुझे मिली। वहां नदियों को बचाने वालों का एक सम्मेलन रखा गया था। पर अदांजा नहीं था कि मैं इतना बड़ा चमत्कार देखूंगा। वहां काली बेई को पुनर्जीवित करने वाले संत बलबीर सिंह सींचेवाल का दर्शन हुआ। जो कार्य उन्होंने किया है वो सरकारी और गैर सरकारी संगठनों के लिए एक मिसाल है।

'पंच आब' यानि पांच नदियों वाले प्रदेश में काली बेई खत्म हो गई थी। बुध्दिजीवी चर्चाओं में व्यस्त थे। जालंधर में 15 जुलाई 2000 को हुई एक बैठक में लोगों ने काली बेई की दुर्दशा पर चिंता जताई। इस बैठक में उपस्थित सड़क वाले बाबा के नाम से क्षेत्र में मशहूर संत बलबीर सींचेवाल ने नदी को वापिस लाने का बीड़ा उठाया। अगले दिन बाबाजी अपनी शिष्य मंडली के साथ नदी साफ करने उतर गए। उन्होंने नदी की सतह पर पड़ी जल कुंभी की परत को अपने हाथों से साफ करना शुरू किया तो फिर उनके शिष्य भी जुटे।

सुल्तानपुर लोधी में काली बेई के किनारे जब टेंट डालकर ये जीवट कर्मी जुटे तो वहां के कुछ राजनैतिक दल के लोगों ने एतराज किया, बल भी दिखाया। पर ये डिगे नहीं, बल्कि शांति और लगन से काम में जुटे रहे। पहले आदमी उतरने का रास्ता बनाया गया फिर वहां से ट्रक भी उतरे और जेसीबी मशीन भी। नदी को ठीक करने बाबा जहां भी गए, वहां नई तरह की दिक्कतें थी। नदी का रास्ता भी ढूंढना था। कई जगह लोग खेती कर रहे थे।

कईयों ने तो मुकदमे भी किए। पर बाबा ने कोई मुकदमा नहीं किया। वे गांव वालों को बुलाने के लिए संदेश भेजते, गांव वाले आते तो समझाते। सिक्खों की कार सेवा वाली पध्दति ही यहां चली। हजारों आदमियों ने साथ में काम किया। नदी साफ होती गई। बाबा स्वयं लगातार काम में लगे रहे। उनके बदन पर फफोले पड़ गए। पर कभी उनकी महानता के वे आड़े नहीं आए।

बाबा ने नदी के रास्ते को निकाला तो फिर उस पर घाटों का निर्माण चालू हुआ। 21 वर्षीय युवा दलजीत सिंह बताते हैं कि कहीं किसी इंजीनियर की जरूरत नहीं पड़ी। बाबा जमीन पर उंगली से लकीरें खींच देते थे और हम सब उसे बना डालते थे। दलजीत सिंह बाबा की योजना बताते हैं, 'बाबा ने पहले ही बता दिया था कि यहां सड़कें बनेंगी, लाइटें लगेंगी, दूर-दूर से लोग आएंगे देखने। रातों को लोग टहला करेंगे। हमें गुरु के शब्दों पर विश्वास था और आज नतीजा सबके सामने है।'

सुल्तानफर लोधी में नदी के पास पहले कुछ जमीन खरीदी गई पर आज भी उस पर 'डेरा' ;कोई बड़ा भवनध्द नहीं बना। उस स्थान का नाम दिया गया 'निर्मल कुटिया'। उनका पहला मिशन नदी को वापिस लाना था। अब तक बेई के किनारे 110 किलोमीटर कच्ची सड़क बन गई है और चार किलोमीटर से ज्यादा लंबी पक्के घाटों वाली खूबसूरत जगह बना दी गई है। कभी गंदगी के ढेर रहे पाट अब सुन्दर नयनाभिराम घाट में बदल गये हैं। वहां सीढ़ियां बनी हैं। दूर तक छोटे मटकों को एक के उपर एक रखकर बनाए गए खंभों पर रखे कम खर्च वाली रोशनी से किनारे जगमगाते रहते हैं।

परमजीत सिंह बताते हैं, 'पहले ऊंचे लोहे के पोल लगाए, वे महंगे और ज्यादा बिजली खर्च वाले थे। फिर पांच मटकों के खंभे बनाए। मटकों में रेत और सीमेंट का मसाला भरा गया।' बाबा का सारा काम एक कलाकार जैसा दिखता है। रेखाएं खिंचती गईं, रंग भरते गए। काम में लोकभावना जुड़ने से व्यवस्थाओं में आसानी हुई। लोग अपने सामान जैसे गेंती, फावड़े, तसले आदि स्वयं लेकर आते हैं। जो नहीं ला पाते उन्हें दिए जाते हैं। गांव-गांव से लोग आकर निष्काम भाव से सेवा देते रहे। कोई बड़ा हल्ला भी नहीं। आस्था जरूर बड़ी दिखती है।

नदी का रास्ता बनने के बाद सवाल यह था कि नदी की सेहत का क्या होगा? ये सब बाबाजी ने सोचा। उन्होंने नदी के किनारे नीम-पीपल जैसे बड़े पेड़ लगाए। हरसिंगार, रात की रानी व दूसरे खूशबू वाले पौधो भी लगाए। जामुन जैसे फलदार वृक्ष भी लगाए। इससे सुंदरता के साथ नदी किनारे फल व छाया का इंतजाम भी हो गया। साथ ही नदी किनारे मजबूत रहेंगे। भविष्य में नदी पर कब्जा करने की संभावना भी शून्य हो जाती है।

एक अहम सवाल यह भी था कि कई किलोमीटर लंबे घाटों पर लगे इन पेड़-पौधों की देखभाल कैसे होगी? उसका भी पूरा इंतजाम निर्मल कुटिया से एक पानी की पाइप लाईन पक्के घाटों तक डाल कर किया गया। नल लगे हैं। पीने का पानी और सिंचाई के लिए नलकूप भी लगाए गए हैं। एक बड़ा प्रश्न यह भी था कि नदी में जाने वाला गंदा पानी कैसे रोका जाए? राज्य सरकार ने नौ करोड़ रुपए जिलाधीशों को दिए ताकि नदी में गंदा पानी जाने से रोका जाए और पानी का उपचार किया जा सके। सरकारी जल-उपचार केन्द्र बनाया गया किन्तु कुछ नहीं हुआ। बाबा से जिला प्रशासन ने कुछ सोच समझ कर रास्ता निकालने के लिए तीन दिन का समय लिया, पर फिर भी कुछ नहीं हुआ। तब सुल्तानफर लोधी में बाबा की ओर से जल-उपचार केन्द्र का पानी नदी में गिरने से रोक दिया गया। उस वक्त योजना यह बनी कि जल-उपचार केन्द्र से पानी की निकासी खेतों में कर दी जाए। जिसके लिए शुरुआत में आठ किलोमीटर लंबी सीमेंट पाईप लाईन बिछाई जाए। काम चालू हो गया। नतीजे सामने थे किसानों को पानी मिला जो खेती के लिए काफी फायदेमंद भी रहा। जमीनी पानी की बचत भी हुई। बेई नदी में हुए जल अभाव के कारण गत चार दशकों से कम हो रहे जलस्तर से जहां हैंडपंपों में पानी कम होने लगा था, अब उसमें भी पर्याप्त सुधार आया है।

अब यही प्रक्रिया नदी किनारे दूसरे कस्बों-शहरों में अपनाई जाएगी। ये होगा बाबा का दूसरा काम, जो शुरु हो चुका है। शायद इसे ही सरल सहज ज्ञान कहते हैं। जिसके बल पर बाबा ने एक 160 किलोमीटर लंबी नदी को साफ किया। उसके किनारों को सुंदर व मजबूत किया। लंबे समय के लिए नदी के स्वास्थ्य रक्षण के लिए गंदा पानी अंदर जाने से रोका। लोगों में कारसेवा के माधयम से स्वयं उद्यमिता का संस्कार डाला, जो कि आज प्राय: समाज में समाप्त होता जा रहा है। उन्होंने श्रध्दा, भक्ति को ग्राम रचनात्मक कार्यों से जोड़ा। साथ ही विदेश में बसे लोगों का धान व मन भी इस रचनात्मक कार्य में लगवाया। अपने पास आने वालों को मात्र भजन में नहीं वरन् सही में गांधी के कर्म के साथ ही पूजा वाले तत्व से भी जोड़ा है।

इस समय सुल्तानर लोधी व अन्य घाटों पर सफाई का कार्य बहुत व्यवस्थित है। रोज रात को बाबा के सींचेवाल स्थित डेरे से बस चलती है और नदी किनारे ग्रामवासी गांव के बाहर खड़े हो जाते हैं। बस लोगों को इकट्ठा करके घाटों पर छोड़ देती है और लोग रात को सफाई करके सुबह पांच बजे तक वापस भी लौट जाते हैं। सब काम सेवा भावना से होता है। कोई दबाव नहीं, कोई शिकायत नहीं। अपनी जिम्मेदारी और अपनेपन के एहसास के साथ। निकट के ग्रामवासी इस पूरी प्रक्रिया से इतने जुड़ गए हैं कि यह सब अब उनके जीवन का एक हिस्सा बन गया है। नदी को साफ करने बल्कि सही मायने में कहें तो उसे फन: जीवित करने का काम इस छोटे से गांव में किसी निश्चित रूप से आती रकम के साथ नहीं शुरू हुआ था। इस काम में मुश्किलें बहुत थीं। पहले तो उन राजनेताओं के अहं का सामना करना था जो यह नहीं स्वीकार कर पा रहे थे कि कोई संत कैसे विकास कार्य कर रहा है? बड़ा डर तो यह था कि उनकी बढ़ती लोकप्रियता से इन राजनेताओं के वोट की पोटली बिखर ना जाए। फिर कुछ जिम्मेदार स्थानीय व्यक्तियों ने बड़ी गैर जिम्मेदारी से इस बात को सिध्द करने की कोशिश की कि काली बेई को सरकार द्वारा ही साफ किया जा रहा है। स्वास्थ्य संबधी दिक्कतें भी बहुत थीं। नदी में किनारे के कस्बे-गांवों की गंदगी आती थी। उसके बीच काम करना पड़ता था। सांप, बिच्छू और बदन पर चिपकने वाली जोंक कार सेवकों के शरीर से चिपक जाती थी। हां, यह भी सच है कि सरकारी महकमे वाले भी बहुत बार कार्यस्थल पर पहुंचे । वे बाबा के काम की प्रशंसा करते और भरपूर सहयोग का वचन देते। लेकिन वे वचन कभी वास्तविकता में नहीं बदले। सुल्तानपुर लोधी की गुरूद्वारा कमेटी ने भी आपत्तियां उठाईं। क्योंकि वहां से आने वाले गंदे पानी को भी बाबाजी ने रोका था। इन सबके बावजूद बाबा का काम रुका नहीं। इन सब मुश्किलों को अदम्य इच्छाशक्ति, सहनशीलता, कार्यक्षमता और लगन द्वारा अंतत: जीत ही लिया गया। वे पिछले लगभग साढ़े पांच साल से प्रतिदिन लगभग पांच हजार से अधिक कार सेवकों की सहायता से 160 किलोमीटर लंबी बेई को प्रदूषण मुक्त करवाने के कार्य में लगे हुए हैं।

इतने बड़े काम के लिए पैसे की व्यवस्था कैसे हुई होगी, यह सवाल उठना भी स्वभाविक है। बाबा जी के सहयोगी बताते हैं कि इसमें जनता का सहयोग रहा। विदेशों में रहने वाले सिखों ने भारी मदद दी। इंग्लैण्ड में बसे शमीन्द्र सिंह धालीवाल ने मदद में एक जे.सी.बी. मशीन दे दी, जो मिट्टी उठाने के काम आई। निर्मल कुटिया में बाबा का अपना वर्कशाप है, जिसमें खराद मशीने हैं। वहां काम करने वाले कोई प्रशिक्षण प्राप्त इंजीनियर नहीं बल्कि बाबा के पास श्रध्दा भाव से जुड़े करीब 25 युवा सेवादारों की टुकड़ी है। ये युवा आसपास के गांवों के हैं। वर्षों से सेवा भाव से वे बाबा से जुड़े हैं। एक ने जो जाना वह औरों को बताया। फिर ऐसे ही प्लम्बरों, बिजली के फिटर और खराद वालों की टुकड़ियां बनती गईं।

यहां सेवा दे रहे 25 वर्षीय अमरीक सिंह पहले अमेरिका में जाने की सोचते थे। वे कहते हैं, 'अब बाबा के पास ही सेवा में मन लगता है।' 21 वर्ष के दलजीत सिंह कहते हैं, 'कोई इंजीनियर नहीं, कोई ठेकेदार नहीं, छोटे बच्चों ने काम किया है। हमारे मुख्य परामर्शदाता बाबा हैं। हम एक साथ खाते हैं, काम करते हैं और एक गिलास में पानी पीते हैं। वैसे खाने-पीने की चिन्ता सेवादारों को होती नहीं है। हमारी विनती है कि ये सेवा का मौका सबको मिले तभी विकास होगा। हम पहले कभी-कभी आते थे बड़ों के साथ रास्ते बनाने की सेवा करने। फिर मन कहीं लगता ही नहीं। अब बाबाजी के साथ समाज सेवा से जुड़ गए हैं।' युवा संत बलवीर सिंह सींचेवाल के गुरु अवतार सिंह भिक्षा के लिए गांव में आते थे। एक दिन वे एक घर पर भिक्षा मांगने गए। वहां उन्होंने बलबीर सिंह नामक युवक को देखा और कहा कि सेवा के लिए आना। और वह युवक उनके डेरे पर गया। उसने पढ़ाई छोड़ दी और सेवा में लग गए। अवतार सिंह ने बलवीर सिंह को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया और वे बन गए संत बलबीर सिंह सींचेवाल उर्फ सड़क वाले बाबा।

बाबा विकास की सोच रखते हैं। मगर उसमें पर्यावरण का स्थान भी है। नदी बनाने से पहले वे सड़क वाले बाबा के नाम से जाने जाते रहे हैं। उन्होने 50 के करीब छोटी-बड़ी सड़कें बनवाईं जो कागजों में शायद हजारों किलोमीटर लंबी होंगी। जालंधार-फिरोजफर रोड सरकारी कागजों में बनी थी पर असलियत में वहां खेत थे। काली बेई के काम के साथ-साथ उनका सड़कों को सुधारने का काम भी चल रहा है। बाबा के सेवा के अन्य कार्यों की सूची भी लंबी है। स्वच्छ पर्यावरण खासकर साफ पानी उनकी मुहिम है और शिक्षा उनका सरोकार है। उन्होंने तलवंडी माधोपुर के पास के गांवों में सीवर लाईनें और कंप्यूटर सेंटर स्थापित किए हैं। सींचेवाल में गांव के बीच में तालाब में गंदगी भर रही थी। वह जगह उन्होंने एक बड़े बाग में तब्दील कर दी और तालाब गांव के बाहर बना दिया।

ये युवा संत पहले पढ़ाई के साथ राज मिस्त्री का काम करते थे। अभी वे सींचेवाल के सरपंच हैं। उनका कहना है मुझे विधायक या सांसद नहीं बनना है। बाबाजी कहते हैं कि दुनिया को समाप्त करने के लिए परमाणु बम बनाने कि क्या जरुरत है? प्रदूषित वातावरण ही इतना खतरनाक है कि उससे दुनिया नष्ट हो जाएगी। आज सच्ची जरुरत वातावरण साफ करने की है। उनकी सभी धार्मों को सम्मान देने की बात इससे भी सिध्द होती है कि उनके सींचेवाल वाले विद्यालय में मुस्लिम बच्चे भी हैं।

संत सींचेवाल के इस महान कार्य की प्रशंसा करने वालों की कमी नहीं है। पूर्व राष्ट्रपति डा. ए.पी.जे अब्दुल कलाम ने उन्हें फरवरी 2006 में राष्ट्रपति भवन बुला कर सम्मानित किया था। संत सींचेवाल के कार्य को महामहिम कलाम ने 'सीनरजी मिशन फार एनवायरमेंट' की संज्ञा देते हुए कहा था कि अगर संत सींचेवाल इस महान कार्य में सफल हो गए तो पूरा राष्ट्र सफल हो जाएगा। उन्होंने कहा कि वे स्वयं देश में नदियों के प्रदूषित एवं लुप्त होने से बेहद चिंतित रहते थे लेकिन संत सींचेवाल उनकी आशा की किरण बने हैं। उन्होंने दुनिया में एक मिसाल कायम की है।
 

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