![गंगा,प्रदूषण का जाल बन चुका है।](/sites/default/files/styles/node_lead_image/public/hwp-images/pollution%20ganga_3.jpg?itok=cHXVOGGc)
‘गंगाजल है।’ बहुत समय तक पानी की गुणवत्ता का सबसे बड़ा आश्वासन यही होता था। इतिहास में बड़े-बड़े राजाओं के लिए पीने का पानी गंगा से ही जाता था। हर्षवर्धन तो गंगा किनारे कन्नौज के ही राजा थे, सो उनका गंगाजल पीना सहज बात थी। लेकिन 1340 में, जब मुहम्मद बिन तुगलक अपनी राजधानी दिल्ली से दौलताबाद ले गए, तब उनके लिए 1,500 किलोमीटर की दूरी से गंगाजल लाने के लिए हरकारे लगे रहते थे। मुगल शासक अकबर चाहे आगरा में रहते हों या पंजाब में, उनके लिए ‘अमरता का पानी’ गंगा से ही लाया जाता था। औरंगजेब की रसोई भी गंगाजल से ही बनाई जाती थी। लेकिन आज गंगा का जल दूषित है। कई रपटें कहती हैं कि नदी के पानी में कैंसर फैलाने वाले तत्व अत्यधिक हैं। यह स्थिति हमारी लगभग सभी नदियों की है। इनके प्रदूषण का मुख्य कारण शहरों के शौचालयों से आने वाला मल-मूत्र ही है। जैसे-जैसे हम अपने शहरों को साफ करते जा रहे हैं, हमारी नदियां और दूषित होती जा रही हैं।
आजकल पानी की गुणवत्ता का आश्वासन गंगा के नाम से नहीं, एक यंत्र से मिलता है। जगह-जगह लोग भरोसा जताने के लिए कहते हैं, ‘चिंता न करें, पानी आरओ का है।’ इश्तेहार दिखते हैं कि यहां ‘आरओ’ का शुद्ध पानी मिलता है। जिस किसी के पास साधन है, वह अपनी रसोई में ‘रिवर्स ओस्मोसिस’ पद्धति से चलने वाले पानी साफ करने के यंत्र लगवा लेता है। जिनके पास ये महंगे ठीकरे खरीदने का धन नहीं, अब वे परिवार स्वच्छ पानी के भागीदार नहीं बचे। उनके नौनिहालों को स्वच्छ पानी की अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए। यह एक बंटे हुए बीमार समाज का लक्षण है।
यही नहीं, ‘आरओ’ के यंत्र पानी की घोर बरबादी करते हैं। इनमें घुसने वाले पानी का बड़ा हिस्सा बेकार कर फेंका जाता है। कुछ मामलों में तो यह आंकड़ा डरावना निकलता है। एक लीटर साफ पानी पाने के लिए चार से छह लीटर पानी बरबाद हो जाता है। हर जगह पर उपलब्ध पानी को पीने लायक बनाने के लिए ‘आरओ’ की आवश्यकता नहीं होती। यह तकनीक केवल बहुत दूषित पानी को साफ करने के लिए जरूरी है। लेकिन हमारी बाजारू उपभोक्ता संस्कृति समझदारी या विज्ञान के भरोसे नहीं, विज्ञापन और औकात के नाते चलती है। चूंकि ‘आरओ’ बनाने-बेचने वाली कंपनियां महंगे-महंगे सितारों को पेश करके हमें पानी की शुद्धता के बारे में डराती हैं, तो हमारे परिवारों में सबसे महंगे ‘आरओ’ लगाने का दबाव बढ़ता जाता है।
‘राष्ट्रीय हरित अधिकरण’ ने बीते मंगलवार को एक मामले में ‘आरओ’ के बेतरतीब बढ़ते चलन को रोकने वाला आदेश जारी किया है। पर्यावरण मंत्रालय को दिए इस आदेश के अनुसार, जहां कहीं पानी में मौजूद ठोस तत्व के कणों की मात्रा एक लीटर में 500 ग्राम से कम है, वहां ‘आरओ’ लगाने पर रोक लगनी चाहिए, यानी ‘आरओ’ सिर्फ वहीं लगना चाहिए, जहां के पानी में महीन कंकड़-जैसा कचरा अधिक हो। पानी की बरबादी रोकने के लिए जारी किए गए इस आदेश में यह याद दिलाया गया है कि करोड़ों भारतीयों के पास पीने लायक पानी नहीं पहुंचता। इस आदेश का स्वागत होना चाहिए। इसका प्रभाव क्या होता है, यह तो समय ही बताएगा। हालांकि हमारे यहां हर बात पर अच्छे कानून-कायदे होते हैं, पर उन्हें लागू करना असंभव हो जाता है। खासकर पर्यावरण से जुडे़ मामलों में हमारे यहां मीठी-मीठी बातें होती हैं, और काम उनके ठीक विपरीत होता है।
इस आदेश का एक असर तो यही हो सकता है कि ‘आरओ’ बनाने वाली कंपनियों को अपने यंत्रों का प्रारूप बदलना पड़ेगा। मगर यह दुखद है कि इस बारे में कंपनियां न्यायालय के आदेश तक रुकी रहीं, कि उन्होंने खुद इस बरबादी को रोकने की चेष्टा नहीं की। केवल स्वास्थ्य के बारे में लोगों को डराकर अपने यंत्र बेचने पर ही ध्यान दिया। जब पानी पाइप से हमारे घरों तक नहीं आता था, तब हमारे जल स्रोत साफ थे। अब घर-घर में पानी पहुंचाने की कवायद चल रही है और नदी-तालाब मल-मूत्र से अटे पड़े हैं। यह हमारे शरीर की नदी से दूरी का प्रमाण है। यह बताता है कि ‘आरओ’ के रूप में, जिसे हमने विकास मान लिया है, वह आगे चलकर हमारे समाज और पर्यावरण के विनाश का रास्ता है।
(लेखक विज्ञान और पर्यावरणीय पत्रकार हैं।)
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