आस्थाजनित प्रदूषण से कैसे मिले मुक्ति

पहले गणेशोत्सव, फिर विश्वकर्मा पूजा और फिर नवरात्र के समय जगह-जगह स्थापित की गई मूर्तियों का सार्वजनिक तालाबों, झीलों और नदियों में विसर्जन और अब आसन्न दीपावली के वक्त पर्यावरणपूरक मूर्ति-विसर्जन पर विचार किया जाना बेहद जरूरी है।

दिल्ली के जिन-जिन इलाकों में मूर्तियां यमुना में विसर्जित की जाती हैं वहां के पानी के सैपलों को लेकर अध्ययन करने के बाद बोर्ड ने पाया कि मूर्तियों के विसर्जन से पानी की चालकता, ठोस पदार्थों की मौजूदगी, जैव रासायनिक ऑक्सीजन की मांग और घुले हुए ऑक्सीजन में कमी बढ़ जाती है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का निष्कर्ष है कि इस कर्मकांड से नदी को भी काफी भरपाई लायक नुकसान हो रहा है और प्रदूषण फैल रहा है। दीपावली का पर्व करीब आ चुका है। पटाखों की आवाज और धुएं से तो ध्वनि और वायुप्रदूषण होगा ही, इस मौके पर पूजी जाने वाली लक्ष्मी-गणेश की मिट्टी की प्रतिमाओं के सार्वजनिक जलाशयों में विसर्जन से व्यापक पैमाने पर जल प्रदूषण भी होगा। हर साल की तरह इस बार भी बाजारों में लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियां बिक्री के लिए आ चुकी हैं। ये मूर्तियां मिट्टी की भी हैं और प्लास्टर ऑफ पेरिस की भी। आस्थावान लोग हमेशा की तरह इस बार भी जलाशयों में विसर्जित करेंगे और बाजार से नई मूर्तियां खरीद लाएंगे अगले साल विसर्जित करने के लिए। दीपावली पूजन के बाद व्यक्ति या समुदाय विशेष की धार्मिक आस्था का पर्यावरण के स्वास्थ्य पर किस किस्म का असर वांछनीय है? जिस तरह कोई भी इंसाफ पसंद व्यक्ति चाहेगा कि उसकी अपनी आस्था सामाजिक वातावरण में विघटन का सबब न बने, वही कामना वह प्राकृतिक वातावरण अर्थात पर्यावरण के संदर्भ में भी करेगा। यह अलग बात है कि जो वांछनीय है और जो वास्तविकता में घटित होता है, उसमें काफी अंतर नजर आता है। यह सवाल उन दिनों अधिक प्रासंगिक दिखता है जिन दिनों त्योहारों की धूमधाम रहती है। पहले गणेशोत्सव, फिर विश्वकर्मा पूजा और फिर नवरात्र के समय जगह-जगह स्थापित की गई मूर्तियों का सार्वजनिक तालाबों, झीलों और नदियों में विसर्जन और अब आसन्न दीपावली के वक्त इस पर विचार किया जाना बेहद जरूरी है।

जैसा कि एक स्थूल अनुमान के हिसाब से इस बार यमुना नदी में लगभग तीन हजार से अधिक मूर्तियों का विसर्जन हुआ। गौरतलब है कि नदी के प्रदूषण को रोकने के नाम पर सैकड़ों करोड़ रुपए खर्च कर चुकी सरकारी एजेंसियों ने मूर्तियों के विसर्जन के लिए वैकल्पिक इंतज़ाम करने के दावे अवश्य किए थे, इस दिशा में कुछ व्यवस्था हुई भी थी, मगर निश्चित ही वह नाकाफी थी।

कोई यह पूछ सकता है कि क्या वाकई मुद्दा इतना गंभीर है या यह महज प्रचार का मामला है। पिछले साल की बात है जब हरियाणा ने यमुना नदी में अपने रासायनिक कचरे का अनुपात बढ़ा दिया था, तब यमुना में क्लोराइड का स्तर 500 मिलीग्राम प्रति लीटर पहुंच गया था स्वीकार्य स्तर से बीस गुना अधिक था और पूर्वी, उत्तरी यहां तक कि दक्षिणी दिल्ली की कुछ जिलों में नमकीन और पीले रंग का पानी आने की शिकायत दर्ज की गई थी। इसके परिणामस्वरूप दिल्ली शहर में बोतलबंद पानी की खपत अचानक बढ़ गई थी।

वैसे इसके बारे में आधिकारिक सूचना हमें केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से मिल सकती है। कुछ समय पहले ही उसने दिल्ली में यमुना का अध्ययन कर बताया था कि किस तरह नदी का दम घुट रहा है और उसकी पानी जहरीला हो रहा है। बोर्ड के निष्कर्षों के मुताबिक सामान्य काल में पानी में पारे की मात्रा लगभग न के बराबर होती है, लेकिन धार्मिक उत्सवों के दौरान वह अचानक बढ़ जाती हैं। यहां तक कि क्रोमियम, तांबा, निकल, जस्ता, लोहा और आर्सेनिक जैसी भारी धातुओं का पानी में अनुपात भी बढ़ जाता है। दिल्ली के जिन-जिन इलाकों में मूर्तियां यमुना में विसर्जित की जाती हैं वहां के पानी के सैपलों को लेकर अध्ययन करने के बाद बोर्ड ने पाया कि मूर्तियों के विसर्जन से पानी की चालकता (कंडक्टीविटी), ठोस पदार्थों की मौजूदगी, जैव रासायनिक ऑक्सीजन की मांग और घुले हुए ऑक्सीजन में कमी बढ़ जाती है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का निष्कर्ष है कि इस कर्मकांड से नदी को भी काफी भरपाई लायक नुकसान हो रहा है और प्रदूषण फैल रहा है।

ग़ौरतलब है कि जहां तक सुप्रीम कोर्ट का सवाल है तो वह इस मामले में प्रोएक्टिव अर्थात सक्रिय रहा है। इस संदर्भ में दायर एक जनहित याचिका को लेकर उसने 14 अक्टूबर, 2003 को पानी का प्रदूषण रोकने के लिए फैसला सुनाया था। जब उसने पाया कि उसके फैसले पर अमल नहीं हो रहा है तो आला अदालत के अंतर्गत गठित निगरानी समिति ने वर्ष 2005 में सभी राज्यों के प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों को निर्देश दिए। अब हर साल होता यही है कि राज्यों के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ऐसे त्योहारों के पहले नगरपालिकाओं आदि को एक रूटिन परिपत्र भेज कर गोया रस्मअदायगी करते हैं। लेकिन जमीनी स्तर पर कोई फर्क नहीं पड़ता।

अदालती सरगर्मियों का एक परिणाम यह जरूर हुआ कि केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के तत्वावधान में फरवरी 2009 में एक कमेटी बनी, जिसने पर्यावरणपूरक मूर्ति-विसर्जन को लेकर कुछ अहम सुझाव दिए। उसके मुताबिक मूर्तियों पर ऐसे केमिकल से बने रंगों के इस्तेमाल पर पाबंदी लगनी चाहिए जो जहरिले हों और नॉनबायोडिग्रेडेबल हों अर्थात घुलनशील न हों, सिर्फ प्राकृतिक तथा पानी में घुलनशील रंग ही इस्तेमाल हों; प्लास्टर ऑफ पेरिस के बजाय मिट्टी की मूर्ति बनाने को प्रोत्साहित किया जाए; पानी में बहाने के पहले मूर्तियों पर पड़े फूल, वस्त्र और थर्मोकोल आदि अलग किए जाएं। यह सुझाव दिया गया कि ऐसे कृत्रिम तालाबनुमा गड्ढे बना दिए जाएं जिनमें आसानी से विसर्जन हो सके ताकि विसर्जित की गई मूर्तियां समूचे सार्वजनिक जलाशय को प्रदूषित न करें।

पर्यावरण को बचाने के लिए सरकारों या जिम्मेदार अधिकारियों की अपनी उदासीनता के बरअक्स या राजधानी के प्रबुद्ध कहलाने वाले लोगों के ऐसे मसलों पर गाफील रहने के बरअक्स यह एक सकारात्मक बात है कि शेष भारत के आम-नागरिकों में इस मसले को लेकर थोड़ी बहुत जागरूकता आ रही है। कुछ साल पहले फतेहपुर, कानपुर, रायबरेली और हरदोई समेत उत्तर प्रदेश के तमाम जिलों से देवी प्रतिमाओं के भू-विसर्जन के समाचार मिले थे। फतेहपुर में तो करीब नब्बे फीसदी मूर्तियों को धरती की गोद में विसर्जित किया गया था। पता चला था कि फतेहपुर के नौबस्ता घाट में निषादों ने गंगा मैली न करने की सौंगध ले रखी थी, जिसके चलते वहां पहुंची 112 प्रतिमाएं गंगा तट की रेत में विसर्जित की गई थीं। कानपुर में जहां चालीस दुर्गा प्रतिमाओं और लक्ष्मी-गणेश की हजारों मूर्तियों का भूविसर्जन किया गया।

इस सिलसिले में देश के अलग-अलग हिस्सों में ऐसे पर्यावरणप्रेमी समूह भी खड़े हो रहे हैं जो ऐसे उत्सवों को हरित अंदाज में मनाए जाने के लिए प्रयत्नशील हैं। कुछ समय पहले हैदराबाद के किसी ग्रीनकार्प्स नामक समूह की चर्चा आई थी, जिसके कार्यकर्ता अलग अलग स्कूलों में जाकर बच्चों को इसके बारे में प्रशिक्षित करते दिखे थे। ‘पुणे-मिरर’ के अगस्त शुरुआत के अंक में पुणे के दो निवासियों द्वारा संचालित किसी ‘इकोलॉजिक नामक’ सामाजिक उद्यम की चर्चा आई थी, जो विगत कुछ सालों से पर्यावरणनुकूल/ईकोफ्रेंडली मूर्तियों के लिए प्रचार के काम में मुब्तिला हैं।

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