आस्था से खिलवाड़

आज सत्ता पक्ष में जो लोग हैं, वे एक प्रकार के ‘नव संभ्रांतवादी’ मानसिकता से प्रभावित हैं। इसलिए वे आस्था, श्रद्धा, भावना, परंपरा को दकियानुसी समझते हैं। साथ ही उसे विकास के रास्ते में आ रहे बाधक के रूप में देखते हैं। ऐसे में सत्ता पक्ष गंगा की बेहतरी की उम्मीद करना बेमानी है। राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण सरकारी मंत्रालय का विस्तार भर होकर रह गया है। इसकी सबसे बड़ी विडंबना तो यह है कि यह प्राधिकरण पर्यावरण मंत्रालय के मातहत होता मालूम पड़ता है, जबकि इसके अध्यक्ष स्वयं प्रधानमंत्री हैं।

राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण के गठन को तीन वर्ष हो गए हैं, लेकिन विगत तीन वर्षों में मूल-भूत विसंगतियां भी दूर नहीं की जा सकी हैं। यह स्थिति तब है, जब प्रधानमंत्री स्वयं इस प्राधिकरण के अध्यक्ष हैं। दूसरी तरफ प्राधिकरण से गैर सरकारी सदस्यों की सहभागिता को काफी हद तक काट-छांटकर उनकी भूमिका को प्रभावहीन बना दिया गया है। गंगा नदी के संबंध में आस्था पक्ष के आधार पर ही समझौता हुआ था, लेकिन ऐसा लगता है मानो इस पक्ष को प्राधिकरण में शामिल करने के विचार को ही तिरस्कृत कर दिया गया है। इसका माखौल उड़ाया जा रहा है। ये सामान्य बातें नहीं हैं। आज सत्ता पक्ष में जो लोग हैं, वे एक प्रकार के ‘नव संभ्रांतवादी’ मानसिकता से प्रभावित हैं इसलिए वे आस्था, श्रद्धा, भावना, परंपरा को दकियानुसी समझते हैं। साथ ही उसे विकास के रास्ते में आ रहे बाधक के रूप में देखते हैं। जबकि, समाज में एकजुट होकर चलने के आधार-भाव तो यही हैं। पर इन भावनाओं का सम्मान करने की बजाय इन्हें कुचलने का दंभ सत्ता-तंत्र में दिखता है। वहीं सत्ता-तंत्र से संचालित हो रहे नेता या तो इससे अनभिज्ञ हैं या जो थोड़ा बहुत समझते हैं, वे स्वयं को लाचार पाते हैं। साथ ही नौकरशाही के साथ कदम-दर-कदम शह और मात के खेल में अपने को हमेशा पराजित मानते हैं।

गंगा नदी से जुड़ी वार्ता के दौरान बार-बार ऐसे ही अनुभव सामने आए। हम देखते हैं कि एक तरफ सत्ता तंत्र की विकास को लेकर आधी-अधूरी समझ है और दूसरी तरफ राजनेताओं-नौकरशाहों का नापाक गठजोड़ है। वह धीरे-धीरे और मजबूत होता जा रहा है। पुराने अनुभव भी बताते हैं कि इनसे कोई उम्मीद नहीं की जा सकती है। मुद्दों को टरकाने, आंदोलनकारियों को तोड़ने और उसकी विविधता को विभेद की शक्ल देने की साजिश व तिकड़म के खेल में ही वे अपनी ऊर्जा अधिक लगाते रहे हैं। गंगा मैया से जुड़े मामले में ऐसा ही हुआ है। यहां नौकरशाहों ने हर तरीके से कोशिश की हैं कि उनकी सर्वोपरिता अक्षुण्य बनी रहे। इन पर काबू रखते हुए जनोपयोगी योजनाओं को लागू करने की जो कुशलता होनी चाहिए, वह चुनावी तिकड़मों से सत्ता में पहुंचने वाले राजनेताओं में नहीं है। इसलिए सत्ता में आने के बाद राजनेता भी नौकरशाहों के अधीन हो जाते हैं और फिर एक-दूसरे से परस्पर लाभान्वित होते रहते हैं।

यह भी देखने को मिला है कि विषय ज्ञान के बगैर नौकरशाही में कोई किसी भी विभाग का सचिव बना दिया जाता है। राजनेताओं के साथ भी यही स्थिति है। विषयवस्तु की गहराई से समझ न होने और उक्त विषय में दिलचस्पी न रखने के बावजूद किसी को भी विभाग का मंत्री बना दिया जाता है। इसका खामियाजा संबंधित क्षेत्र को ही भुगतना पड़ता है। गंगा मैया इसी की शिकार होती रही है। हालांकि, कभी-कभार सही नियत के लोग आए और उन्होंने कुछ निर्णय लिए, लेकिन उसमें बारम्बार बाधा उत्पन्न की गई। मसलन पहले एक रणनीति के तहत प्राधिकरण का गठन और फिर उसमें गैर सरकारी सदस्यों की सहभागित को खत्म करने की कोशिश।

गंगा में गिरता गंदा नालागंगा में गिरता गंदा नालाआज राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण सरकारी मंत्रालय का विस्तार भर होकर रह गया है। इसकी सबसे बड़ी विडंबना तो यह है कि यह प्राधिकरण पर्यावरण मंत्रालय के मातहत होता मालूम पड़ता है, जबकि इसके अध्यक्ष स्वयं प्रधानमंत्री हैं। इसका अर्थ तो यही हुआ कि पर्यावरण मंत्री अब प्रधानमंत्री को निर्देशित करेगा। या फिर दूसरी क्या स्थिति बनेगी? उसी तरह प्राधिकरण से गैर सरकारी सदस्यों को अलग-थलग करने की कोशिश की गई। कहा गया कि वे आर्थिक विषय पर अपनी राय नहीं रख सकते हैं। इसके क्या अर्थ लगाए जाएं? यह प्राधिकरण नौकरशाही के मकड़जाल में फंस गया है। आस्था और पर्यावरणीय पक्ष की पूर्णतया उपेक्षा की जा रही है। रुपए की बंदरबांट हो रही है।

यह लगातार देखने में आ रहा है कि सत्तातंत्र में विकास को लेकर अधूरी समझ होने के बावजूद वह निर्णय लेने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। उनमें आस्था के प्रति उपेक्षा का भाव है। फलतः सत्ता और जनता के बीच की कड़ी पूरी तरह टूट गई है। सत्ता जनता की आकांक्षाओं को पहचानकर उसके अनुरूप अपने को ढालने की बजाय जनता के प्रति संपूर्ण उपेक्षा का रवैया रखे हुए है। वह मनमानी पर उतारू सी लगती है। गंगा मैया से जुड़े मुद्दे पर यह असर स्पष्ट नजर आ रहा है। दरअसल, नई आर्थिक नीति के बाद लाभोन्माद और भोगोन्माद इतना बढ़ गया कि उससे जीवन और प्रकृति का संतुलन ही बिगड़ गया। रुपया-पैसा मानव जीवन पर दिनों-दिन हावी चला गया और कई बहुमूल्य चीजें पीछे छूट गई। पिछले 20 वर्षों में हम देख रहे हैं कि सरकारों का चलन तेजी से बदल गया है। जिस मंत्रालय में पैसा ज्यादा है वही मंत्रालय दिनों-दिन महत्वपूर्ण माना जाने लगा। जन सरोकार से जुड़े मंत्रालय सीधे-सीधे कम महत्वपूर्ण होते चले गए हैं।

पर मैं मानता हूं कि इतने के बावजूद गंगा नदी से जुड़ा आंदोलन मजबूत हुआ है। देश में जो दूसरे कई आंदोलन चल रहे हैं, उससे अलग इसमें कुछ सफलताएं मिली हैं। गंगा महासभा समेत कई लोग विभिन्न स्थानों पर इस दिशा में पूरी निष्ठा के साथ काम कर रहे हैं। इसमें स्वामी ज्ञानस्वरुप और गिरिधर मालवीय जैसे उपयुक्त लोग निखरकर उभरे हैं। तमाम कसरत-कवायत से आंदोलन की विभिन्न धाराओं को जोड़ने का भाव इनमें है। वहीं आनंद स्वामी की तपस्या – साधना का फल मिला है। आस्था और विज्ञान का समन्वय भी स्थापित हो गया है। निजी प्रयास से भी जगह-जगह कई सफलताएं मिली हैं। दलीय हित से ऊपर उठकर किसी राजनेता ने गंगा के मामले में सफलता का स्वाद यदकिंचित चखा है तो वह उमा भारती हैं जिन्हें धारी देवी के मामले में सफलता मिली है। मुझे ऐसा लगता है कि अब तक सत्ता का जो विद्रूप चेहरा सामने आया है, उसके विरुद्ध 2012 के अंत तक गंगा आंदोलन अपनी गति पकड़ेगा। देशभर में चल रही अभी की सारी चहलकदमियां उसे गति देंगी। उससे नए प्रकार की राजनैतिक ताकत और उसके अपने फल सामने आने की संभावनाएं बनेंगी।

Path Alias

/articles/asathaa-sae-khailavaada

Post By: Hindi
×