आस्था का प्रदूषण

यह साबित हो चुका है और सरकारी रिपोर्ट का हिस्सा गंगा कार्ययोजना की तकनीक बेहद खर्चीली और भारत के लिए अनुपयुक्त रही है। इसे ध्‍यान में रखते हुए यह सतर्कता भी बरतनी होगी कि वैकल्पिक तकनीक के नाम पर कहीं सरकारी धान का दुरुपयोग निजी हाथों से न हो रहा हो।

अगले साल एक बार फिर दुनिया का सबसे बड़ा मेला कुंभ हरिद्वार में लगने जा रहा है। माना जा रहा है कि इसमें पांच करोड़ लोग आएंगे। इससे पहले 2001 में इलाहाबाद के महाकुंभ में एक करोड़ लोग आए थे। यह एक तस्वीर है जिसकी तुलना हमें गंगा किनारे बसे सबसे बड़े धार्मिक शहर बनारस से करनी जरूरी है। तथ्यों पर नजर डालें, तो पता चलता है कि बनारस में गंगा का पानी आज घोषित तौर पर जहर बन चुका है। यह तथ्य आज का नहीं है। 2006 में इंटरनेशनल जर्नल ऑफ इन्वायरमेंटल हेल्थ रिसर्च ने बनारस में गंगा के पानी के 10 साल के आंकड़ों के आधार पर निष्कर्ष निकाला था कि यहां गोलाघाट और सराय मोहना के दो इलाकों में रहने वाले लोगों को 84 व 93 फीसदी जल जनित रोग होते हैं क्योंकि वे गंगा के पानी से नहाते हैं। प्रसिद्ध तुलसीघाट और दशाश्वमेध घाट पर भी जल जनित बीमारियों की दर करीब 40 फीसदी थी। ऐसा तब है जब बनारस में औसतन 60 हजार लोग रोजाना गंगा में डुबकी लगाते हैं। उनमें से मुश्किलन 3-4 हजार ही ऐसे होते होंगे जो न तो गंगा में कपड़े धोते हैं, न ही पान खाकर थूकते हैं और न ही उसकी गंदगी में कोई योगदान देते हैं।

अब सोचिए कि यदि हरिद्वार में पांच करोड़ लोग गंगा को गंदा करने एक साथ अगले साल जुटेंगे, तो हरिद्वार से लेकर उन क्षेत्रों तक गंगा के पानी का क्या हाल हो जाएगी, जिसे बनारस के लोग अब भी स्वच्छ मानते हैं। जाहिर है, हरिद्वार के पानी को जहर बनने में बहुत वक्त नहीं लगने वाला। गंगा को हरिद्वार में जहरीला बनाने के लिए करीब 400 करोड़ रुपये बहाए जा रहे हैं। अब तक कुंभ की तैयारियों पर 100 करोड़ फूंके जा चुके हैं। अजीब विडंबना है कि 400 करोड़ रुपये के प्रस्तावित बजट में से गंगा प्रदूषण नियंत्रण इकाई के मद में महज 30-35 करोड़ रुपये आ सके हैं। कहा जा रहा है कि इससे सीवर लाइन और सीवर मशीन आदि लगाए जाएंगे। हरिद्वार में गंगा के पानी को अब भी लोग सबसे साफ और पीने लायक मानते हैं। सच्चाई यह है कि यह पानी भी पीने लायक नहीं रह गया है। उत्तराखंड सरकार ने खुद इस बात को स्वीकार किया है। राज्य के पर्यावरण मंत्री बिशन सिंह चुफाल ने विधानसभा में जवाब दिया था कि हरिद्वार में गंगा का पानी बगैर शोधन किए पीने लायक नहीं है क्योंकि इसमें फीकल कोलिफॉर्म यानी मनुष्यों और जानवरों के मल में पाए जाने वाले कीटाणुओं की मात्रा ज्यादा है। कुल मिलाकर देखा जाए तो गोमुख से लेकर गंगोत्री, उत्तरकाशी, टिहरी, चाका, गाजा, देवप्रयाग, व्यासी और ऋषिकेश तक के गंगा जल के नमूने की जांच रिपोर्ट बताती है कि गंगा इन इलाकों में अब भी सफाई की दृष्टि से बेहतर है लेकिन हरिद्वार तक आते-आते इसका पानी अमृत नहीं रह जाता। कानपुर और बनारस में तो यह जहर बन ही चुका है।गंगा में प्रदूषण की समस्या आज देश की सबसे बड़ी पर्यावरणीय समस्याओं में एक बन चुकी है।

इसके पीछे जितना बड़ा हाथ औद्योगीकरण और मुनाफे पर केंद्रित पूंजीवादी विकास का है, उतना ही उन अंधा धार्मिक आस्थाओं का भी है जो इस देश के लोगों की गंगा के प्रति है। देश के पांच बड़े राज्यों से गुजरने वाली गंगा पर लोगों की धार्मिक आस्था इतनी ज्यादा है कि वे शायद अनजाने में इसे जहरीला बनाने में अपना योगदान दिए जा रहे हैं। हजारों लोग सच्चाई को जानते हुए भी गंगा का पानी पीते हैं और उससे नहाते हैं। ऐसा नहीं है कि सरकार ने गंगा पर कोई ध्‍यान नहीं दिया। राजीव गांधी के समय ही गंगा कार्ययोजना बनी। इस कार्ययोजना का प्रमुख केंद्र बनारस रहा। अब तक अकेले यहां पर करीब 900 करोड़ रुपये नदी की सफाई पर खर्च किए जा चुके हैं और इतनी भारी-भरकम राशि कहां गई, इसका कोई हिसाब या परिणाम नहीं है। यह बात केंद्रीय पर्यावरण राज्यमंत्री जयराम रमेश के उस बयान से जाहिर होती है जो उन्होंने हाल ही में संसद में दिया था। उन्होंने कहा था कि 1986 की तुलना में – जब गंगा कार्ययोजना शुरू की गई थी – आज गंगा और यमुना कहीं ज्यादा गंदी हैं और सरकारें दोनों नदियों को साफ करने में पूरी तरह विफल रही हैं। जयराम रमेश ने कहा था, “लेकिन मैं आंकड़ों पर विश्वास नहीं करता। एक आम आदमी के लिए इसकी सच्ची परीक्षा यह होगी कि क्या गंगा 20 साल पहले के मुकाबले ज्यादा साफ हुई है…अफसोसजनक जवाब है- नहीं।”

योजना आयोग के सदस्य किरीट पारिख द्वारा मई 2009 में 36 पन्ने की एक रिपोर्ट पर नजर डालें, तो गंगा कार्ययोजना की सच्चाई और विश्वसनीयता पर सवाल खड़े होते हैं। अपने दो चरणों में इस योजना पर 816 करोड़ रुपये खर्च किए गए और शहरों में नदी के किनारे बेहद खर्चीले सीवेज उपचार संयंत्र लगाए गए। रिपोर्ट का निष्कर्ष है, “लक्ष्य पूरी तरह हासिल नहीं किया जा सका… कहीं-कहीं पानी की गुणवत्ता में मामूली सुधार हुआ है, बाकी जगह इसमें और गिरावट आई है।” इतना सब जानते-बूझते हुए सरकार एक बार फिर पांच करोड़ लोगों को अगले साल गंगा को गंदा करने और कार्ययोजना को ठेंगा दिखाने की मंजूरी दे रही है। क्या यह संभव नहीं कि किसी तरह कुंभ मेले में आने वाली इस भीड़ को नियंत्रित किया जा सके? जाहिर है सिर्फ एक मेला गंगा को एक झटके में इतना गंदा कर देगा जितना वह शायद सालों में होती हो। यह बात समझना बहुत मुश्किल नहीं है। जिस तरह स्वयं उत्तराखंड सरकार ने गंगोत्री जानेवाले तीर्थयात्राओं की संख्या निश्चित की हुई है या फिर जैसा कि हज में होता है, कुंभ के मामले में भी ऐसा क्यों नहीं लागू किया जा सकता? प्राथमिक चिंता तो गंगा की ही है लेकिन हरेक शहर या गांव से कुंभ में आने वाले लोगों की संख्या सीमित करने के कई और फायदे भी हो सकते हैं। कानून और व्यवस्था समेत भगदड़ जैसी घटनाओं को नियंत्रित करने में भी यह कारगर साबित होगा। दूसरे, हर बार जितने पैसे फूंके जाते हैं, उस पर कुछ लगाम लगेगी लेकिन सवाल सिर्फ कुंभ तक सीमित नहीं। कुंभ एक संदर्भ है जिससे गंगा के बहाने पर्यावरणीय विनाश और प्रदूषण के सवाल पर गंभीरता से सोचने की प्रक्रिया की शुरूआत की जा सकती है। विशेष कर उत्तराखंड के पर्यावरणीय स्तर पर संवेदनशील बद्रीनाथ व केदारनाथ जैसे स्थलों पर भी तीर्थ यात्रियों की संख्या को तत्काल नियंत्रित करने की जरूरत है।

इस संदर्भ में पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने पिछले महीने 29 तारीख को हिमालय की पारिस्थितिकी को बचाने के लिए जारी एक दिशानिर्देश में साफ कहा है कि भारत के हिमालयी क्षेत्र में कृषि भूमि को व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए हस्तांतरित करने पर लगाम कसनी चाहिए। अक्टूबर में इस दिशानिर्देश पर प्रधानमंत्री के साथ 12 हिमालयी राज्यों के मुख्यमंत्रियों की एक अहम बैठक हुई है। इस बैठक में इस बात पर चर्चा की गई थी कि संवेदनशील स्थानों पर पर्यटकों की संख्या में कटौती करनी होगी। इसमें धार्मिक पर्यटन पर भी सीमित मात्रा में रोक लगाने की बात कही गई है। जयराम रमेश ने इन दिशानिर्देशों में कहा है, ‘इन स्थानों पर पर्यटकों के लिए आर्थिक प्रोत्साहन की भी कोई योजना होनी चाहिए।’ ये दिशानिर्देश हिमालयी पारिस्थितिकी को बचाने के राष्ट्रीय अभियान का हिस्सा हैं, जो जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्ययोजना के आठ अभियानों में एक है। सवाल यह है कि केंद्र सरकार क्यों नहीं उत्तराखंड सरकार को आदेश देती कि वह अपने यहां आने वाले तीर्थयात्रियों की संख्या को नियंत्रित करने के लिए तत्काल कदम उठाये। इसमें सबसे पहले हर वर्ष हरिद्वार में जमघट लगाने वाले कांवड़ियों की संख्या को नियंत्रित करने की शुरूआत होनी चाहिए। दूसरी बात यह है कि सरकार आखिर क्यों जनता को इस काम में शामिल नहीं करती। बड़े पैमाने पर प्रचार कर जनता को समझाया जाना चाहिए कि आपकी आस्था किस तरह से उन्हीं प्रतीकों और तीर्थों का ध्‍वंस कर रही है जिनसे आपकी, आपके देश की और आपके धर्म व संस्कृति की पहचान बनती है।

आस्था की प्रतीक गंगा का पानी जहरीला हुआआस्था की प्रतीक गंगा का पानी जहरीला हुआगंगा का असली दर्द दरअसल हमारे देश का राजनीतिक और आर्थिक मॉडल है। राजनीतिक मॉडल ऐसा है जो कि लोगों की धार्मिक आस्थाओं व भावनाओं को छूना ही नहीं चाहता क्योंकि इस देश में सभी दल भावना की ही राजनीति करते हैं। आर्थिक मॉडल ऐसा है जो कि मुनाफे के लिए लगाए गए किसी भी धंधों को विकास का पैमाना मान कर प्रचारित कर सकता है। इसी राजनीतिक और आर्थिक मॉडल का नतीजा है कि गंगा के रास्ते में पड़ने वाले छह प्रमुख शहरी केंद्र जहां 1985 में 76 करोड़ लीटर कचरा बहाते थे, वहीं अब वे तकरीबन 130 करोड़ लीटर कचरा बहाते हैं। देश में जिस तरीके से विकास का मॉडल लागू किया जा रहा है, उसमें गंगा के प्रवाह वाले ऊपरी इलाकों यानी हरिद्वार से लेकर गंगोत्री के बीच सैंकड़ों बांध परियोजनाओं को प्रस्तावित किया गया है। हम देख चुके हैं कि किस तरह टिहरी शहर सिर्फ एक बांध बनने से नेस्तनाबूत हो गया। यदि इन परियोजनाओं को मंजूरी दी गई, तो फिर शायद गंगा की गंदगी के बारे में कहने को ही कुछ न रह जाए क्योंकि संभव है गंगा नदी ही लुप्त हो जाए। गंगा के लुप्त होने का अर्थ करोड़ों लोगों के जीवन और आजीविका का खत्म हो जाना है। यह स्थिति विनाशक होगी और अपरिवर्तनीय होगी।

अगर सरकार इस बात को वास्तव में समझ चुकी है कि गंगा की सफाई से जुड़ी तमाम योजनाएं विफल हो गई हैं और कुछ वैकल्पिक किए जाने की जरूरत है, तो सबसे पहले धार्मिक आस्था के नाम पर मचाई जाने वाली गंदगी पर लगाम कसी जाए। एक बार को औद्योगिक कचरे से तो निपटा जा सकता है, लेकिन अंधा धार्मिक से निपटने का कोई संयंत्र अभी तक पश्चिम ने बनाया नहीं है। कुंभ करीब है। तात्कालिक तौर पर उत्तराखंड सरकार और केंद्र सरकार दोनों को गंगा की रक्षा के लिए अल्पकालिक कठोर कदम उठाने होंगे। इसके अलावा दीर्घकालिक दृष्टि से कुछ वैकल्पिक तरीके अपनाने होंगे जो कम खर्चीले, देशी और कारगर होंगे। यह साबित हो चुका है और सरकारी रिपोर्ट का हिस्सा गंगा कार्ययोजना की तकनीक बेहद खर्चीली और भारत के लिए अनुपयुक्त रही है। इसे ध्‍यान में रखते हुए यह सतर्कता भी बरतनी होगी कि वैकल्पिक तकनीक के नाम पर कहीं सरकारी धान का दुरुपयोग निजी हाथों से न हो रहा हो। बनारस में वीरभद्र मिश्र के एनजीओ की बहुप्रचारित तकनीकों और उसे मिले भारी सरकारी अनुदान पर पहले ही सवाल खड़े हो चुके हैं। इन तमाम सवालों को ध्‍यान में रखते हुए बुनियादी बात यह याद रखने की है कि गंगा की गंदगी के लिए इस देश के लोग ही जिम्मेदार हैं, लिहाजा कुर्बानियां भी उन्हें ही देनी होंगी।
 

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