आस्था का डंका, गटर ही गंगा

गंगा नदी में जारी अवैध खनन को रोकने के लिए आमरण अनशन पर बैठे स्वामी निगमानंद की मौत के बाद स्वच्छ गंगा का सवाल नए सिरे से समीचीन हो उठा है। दो दशकों से अधिक समय से चल रहे नियोजन एवं कार्रवाई के बाद भी गंगा की दुर्दशा का कोई अंत नहीं है। आखिर यह कैसी सफाई योजना है जो गंगा के पानी को स्वच्छ बनाने के बजाय उसे और प्रदूषित कर रही है।

अगली दफा जब आप अपनी धार्मिक मान्यताओं के अनुरूप भागीरथी का जल ग्रहण करना चाहें तो एक क्षण के लिए रुक जाइए। आपकी अंजुरी का पानी दरअसल मल में पाए जाने वाले जंतुओं से भरा हो सकता है। स्पष्ट कर दें कि यह किसी नास्तिक का बयान नहीं है बल्कि यह कहना है केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा भागीरथी की जल की गुणवत्ता पर जारी रिपोर्ट का। गंगा की उपनदियों में से एक भागीरथी नदी के बारे में रिपोर्ट आगे कहती है कि इसके मार्ग पर पड़ने वाले अहम तीर्थस्थानों, टूरिस्टों के लिए आकर्षक ठिकानों पर रोगजनक जल प्रदूषण तेजी से बढ़ रहा है। इस समूची स्थिति के लिए वह खुले में शौच की भारतीयों की परंपरा तथा सेप्टिक टैंकों, टॉयलेट तथा होटलों से सीवर के रिसने को जिम्मेदार मानते हैं। रिपोर्ट के मुताबिक गंगोत्री, उत्तरकाशी, धराषु चिनयालिसौट, देवप्रयाग आदि स्थानों पर जल प्रदूषण बहुत तीव्र गति से जारी है जहां नदी किनारे लोगों की बस्तियां बस रही हैं। ध्यान रहे कि रिपोर्ट यह भी स्पष्ट करती है कि महज भागीरथी नहीं बल्कि गंगा की अन्य उपनदियां - मंदाकिनी, अलकनंदा आदि भी बुरी तरह प्रदूषित हैं।

वे सभी जो हिंदुओं के पुराने धर्मशास्त्रों में वर्णित भागीरथी के जल के गुणों की बात करते होंगे, जिसमें उसे पाचन में सहायक, यहां तक कि बुद्धि के विकास में मददगार बताया जाता है, उन्हें भागीरथी के पानी के टॉयलेट के पानी के समकक्ष रूपांतरण देखकर निश्चित ही पीड़ा होगी। मालूम हो कि भागीरथी नदी अपने ताजा जल की प्रचुरता, प्रवाह की धार और यहां तक कि घुले हुए ऑक्सीजन के चलते विशिष्ट समझी जाती थी लेकिन अब वे सभी पहलू धीरे-धीरे गौण हो चले हैं। सवाल उठता है कि गंगा एवं उसकी उपनदियों के प्रदूषण को लेकर क्या हम पहली दफा सुन रहे हैं। याद रहे कि वर्ष 2004 में उत्तराखंड की पहली पर्यावरण रिपोर्ट में इस बात पर जोर दिया गया था कि गंगा एवं उसकी उपनदियों पर सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगाए जाएं। विगत सात सालों से यह सिफारिश धूल खा रही है, एक भी नया प्लांट नहीं बना है। लाजिमी है कि इनकी गैरमौजूदगी में प्रदूषित पानी को सीधे गंगा में बहाया जाता है।

अभी पिछले ही साल हरिद्वार में कुंभ मेले का आयोजन हुआ था, जिसमें लाखों लोगों ने आकर गंगा में डुबकी लगाई। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री निशंक ने मेले के सफल आयोजन के लिए खुद के लिए 'नोबेल पुरस्कार' की भी मांग कर डाली। अब जबकि कंट्रोलर एंड ऑडिटर जनरल की रिपोर्ट आई है तो उसने न केवल मेला आयोजन में हुए जबर्दस्त भ्रष्टाचार को निशाना बनाया है बल्कि यह भी बताया है कि किस तरह सभी मापदंडों को किनारे रखकर सीवेज पानी को ही गंगा में बहाया जाता रहा। मेला आयोजन के लिए खर्च हुए 565 करोड़ रुपए में से 43 करोड़ रुपए का गबन हुआ। कुंभ मेले के बहुत पहले नए सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगाने की बात हुई थी मगर कुछ भी नहीं हुआ। पहले से उपस्थित सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट की क्षमता बढ़ाने के लिए उत्तराखंड सरकार ने 10 से 15 करोड़ रुपए आवंटित भी किए थे मगर कोई कार्रवाई नहीं की गई। अंततः आलम यह रहा कि हरिद्वार एवं ऋषिकेश के सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट की क्षमता महज 24 मिलियन लीटर प्रतिदिन बनी रही जबकि तीर्थयात्री खुद रोज 135 मिलियन लीटर मानवीय मल बना रहे थे।

कानपुर में विभिन्न किस्म की औद्योगिक इकाइयां, जिनमें चमड़े की फैक्टरियां भी शामिल हैं, इनके चलते गंगा में विभिन्न किस्म के रसायन तथा क्रोमियम जैसे धातु भी प्रवाहित किए जाते हैं। प्रदूषित सामग्री के ट्रीटमेंट के लिए 1994 में जो प्लांट लगा था उसकी क्षमता प्रतिदिन नौ मिलियन लीटर है, जबकि हर रोज 40 मिलियन लीटर प्रदूषित जल तैयार होता है। अगर हम पवित्र कहे गए अन्य शहर वाराणसी को देखें तो उसके बारे में अनुमान है कि वहां हर दिन 350 मिलियन लीटर सीवेज पानी तैयार होता है जबकि वहां स्थित तीन सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट की कुल क्षमता महज 100 मिलियन लीटर ही प्रतिदिन है। विडम्बना यह है कि इन तीन प्लांटों में से दो प्लांट काफी समय से बंद पड़े हैं। अगर हम इस पहलू को भूल भी जाएं तो भी स्पष्ट है कि हर रोज कम से कम 250 मिलियन लीटर सीवेज पानी गंगा में बहाया जाता है।

गंगा अपना अस्तित्व खो रही हैंगंगा अपना अस्तित्व खो रही हैंवाराणसी में यह भी देखा जाता है कि हर साल वहां के घाटों पर 35,000 लाशों का अंतिम संस्कार होता है, जबकि 1989 से वहां बना विद्युत शवदाह गृह अब खस्ताहाल हो चला है। लोगों की श्रद्धा का आलम यह है कि वे लाशों को जलाने के लिए उसे पसंद नहीं करते। कई लाशों- खासकर साधुओं की लाशों - को गंगा में ऐसे ही बहा दिया जाता है। गंगा किनारे जली लाशें भी कई बार पानी के बहाव में फेंक दी जाती हैं। याद रहे कि गंगा नदी में जारी अवैध खनन को रोकने के लिए आमरण अनशन पर बैठे स्वामी निगमानंद की मौत के बाद स्वच्छ गंगा का सवाल नए सिरे से समीचीन हो उठा है। दो दशकों से अधिक समय से चल रहे नियोजन एवं कार्रवाई के बाद भी गंगा की दुर्दशा का कोई अंत नहीं है। अपने ऊपरी हिस्से में उसकी धार पतली हुई जाती है क्योंकि उसके प्राकृतिक प्रवाह को रोकने के लिए कई कुनियोजित बांध जगह-जगह बने हैं जो उसके पानी को पावर टर्बाइंस के लिए इस्तेमाल करते हैं, जबकि निचले हिस्सों में कानपुर और कोलकाता जैसे शहरों में गंगा को लाखों लीटर सीवेज पानी को आए दिन झेलना पड़ता है जो बिना किसी ट्रीटमेंट के उसमें छोड़ा जाता है।

पिछले दिनों सरकार ने गाजे-बाजे के साथ यह योजना बनाई है कि 2020 तक वह स्वच्छ गंगा का लक्ष्य हासिल कर लेगी। वर्ष 2009 से ही सरकार ने इसके लिए 15,000 करोड़ रुपए की राशि आवंटित की है ताकि आइंदा सीवेज या औद्योगिक निकासी की सामग्री बिना ट्रीटमेंट के सीधे गंगा में न छोड़ी जाए। एक बिलियन डॉलर का कर्ज देकर विश्व बैंक भी गंगा को बचाने के काम में शामिल हुआ है। चाहे गंगा को शुद्ध करने का काम हो या देश की तमाम नदियों, जलाशयों को शुद्ध रखने का, उसके लिए सरकारी स्तर पर पहल तो आवश्यक एवं अनिवार्य है ही मगर हमारे जैसे देश में जहां व्यक्तिगत स्वच्छता एवं सार्वजनिक अस्वच्छता का सहअस्तित्व हमारी अपनी संस्कृति में रचा बसा दिखता है, वहां इस काम में लोगों की सक्रियता एवं उनकी मानसिकता में परिवर्तन भी बेहद जरूरी है। एक स्थूल अनुमान के मुताबिक हर साल दुर्गापूजा एवं गणेशोत्सव के आयोजन के बाद लगभग दस लाख मूर्तियां पानी के हवाले की जाती हैं। चूंकि ज्यादातर मूर्तियां पानी में न घुलने वाले प्लास्टर ऑफ पेरिस से बनी होती हैं और उन्हें विषैले एवं पानी में न घुलने वाले रंगों से (नॉन बायोडिग्रेडेबे) रंगा जाता है, इसलिए हर साल इन मूर्तियों के लिए विसर्जन के बाद पानी की बायोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड तेजी से घट जाती है जो जल जीवों के लिए कहर बनती है।

(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं)

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