आसन्न खतरे की हुई अनदेखी

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नेपाल में प्रतिवर्ष 16 जनवरी के दिन को राष्ट्रीय भूकम्प सुरक्षा दिवस के रूप में मनाया जाता है। यह वहाँ स्वयं की सतर्कता को चौकस बनाए रखने का दिन होता है, जब गैर-सरकारी संगठन और कुछ सरकारी विभाग रैली निकालते हैं। सुरक्षा सम्बन्धी उपायों की जानकारी देने वाले पर्चे बाँटते हैं। लेकिन वहाँ कभी भी आमजन ने इस सच्चाई को दिल से नहीं माना कि 1934 में आए भूकम्प जितना गम्भीर भूकम्प भी आ सकता है।

दूसरी तरफ, वैज्ञानिकों का एक समूह, जिससे आमजन शायद ही कोई ज्यादा परिचित हो, कुछ समाचार पत्रों और पत्रिकाओं ने हमेशा से चेताया कि 1934 जैसा गम्भीर भूकम्प आने की आशंका बराबर बनी हुई है। अब 7.9 की क्षमता वाले भूकम्प ने देश को जमींदोज कर दिया है। हालांकि यह 1934 में आए भूकम्प (जो 8.4 क्षमता का था) से कम क्षमता वाला था, लेकिन उसके बाद आया सबसे बड़ा भूकम्प है।

28 जुलाई, 2014 को कुछ भूविज्ञानियों, जो 1934 जैसे भूकम्प की चेतावनी देते रहे थे, में से एक ने स्पष्ट रूप से मीडिया में भूकम्प की बाबत चेताया। काठमाण्डू स्थित नेपाल रिस्क रिडक्शन कंसोर्सियम के संयोजक मोयेरा रेड्डिक ने मीडिया से बातचीत में कहा, “व्यक्तिगत रूप से मैं बेहद चिन्तित हूँ। मैंने हैती, बाम, कश्मीर और गुजरात में आए भूकम्पों, जिन्हें विश्व के भीषण भूकम्पों में शुमार किया जाता है, को लेकर अध्ययन किया है, लेकिन मैं कहना चाहता हूँ कि अब आने वाला भूकम्प सर्वाधिक गम्भीर होगा।” उन्होंने कहा, “मेरी नींद उड़ गई है। मेरे बागीचे के किनारे मैंने आपात स्थिति से निपटने के लिये एक तैयारी किट रख छोड़ी है। एक कुदाल रखी है, ताकि खोद कर मलबे में दबे लोगों को बाहर निकाल सकूँ। पानी, डिब्बाबन्द खाद्य पदार्थ, रेडियो बैटरी और इसी तरह के तमाम सामान तैयार रखे हैं। कुछ लोगों को लगता है कि मैं सनक गया हूँ लेकिन मुझे लगता है कि मुझे अपने बागीचे में तीस लोगों को पनाह देगी होगी।”

 

 

80 साल के अन्तराल का अन्देशा


उन जैसे भूविज्ञानी अरसे से नेपाल में उस फॉल्टलाइन का अध्ययन करते रहे हैं, जो मौजूदा भूकम्प समेत अनेक भूकम्पों का केन्द्र रही है। यह फॉल्टलाइन करीब-करीब देश के सर्वाधिक व्यस्त महेन्द्र हाइवे के साथ-साथ चलती है। इस फॉल्टलाइन के वैज्ञानिक अध्ययनों में साफ चेताया गया है कि नेपाल में बड़े भूकम्प की आशंका बराबर बनी हुई है। जैसा कि नेपाल का इतिहास रहा है, उसे देखते हुए नेपाल में 1934 जैसा भूकम्प हर 80 साल के अन्तराल पर आने की आशंका सतत बनी रहेगी।

लेकिन जैसा कि कहा जाता है कि भूकम्प नहीं बल्कि उसका सामना करने की तैयारी में कमी प्राणघाती साबित होती है। काठमाण्डू नरम तलछट से बना है, जिससे होकर भूगर्भीय लहरें तेजी से नहीं गुजर पातीं। इस करके वहाँ झटके-पर-झटके लगते रहते हैं, जिनसे खासा नुकसान होता है। यह शहर प्रागैतिहासिकालीन झील स्थल पर स्थित है। काठमाण्डू स्थित नेशनल सिस्मोलॉजिकल सेंटर के भूविज्ञानी लोक बिजय अधिकारी कहते हैं, “इन हालात में भूकम्पीय झटके आने की सम्भावनाएँ आठ गुना बढ़ जाती हैं।” लेकिन इसके बावजूद काठमाण्डू घाटी का विस्तार करते समय शायद ही कभी इस वैज्ञानिक तथ्य की तरफ ध्यान दिया गया हो।

काठमाण्डू आज इस कदर विस्तार कर चुका है, इतना फैल चुका है कि कंक्रीट के जंगल में तब्दील हो गया है। भीड़भाड़ वाला शहर बन गया है। हालांकि यहाँ सरकारी तौर पर भूकम्प-रोधी भवन निर्माण सम्बन्धी नियम लागू हैं, लेकिन शायद ही उनकी परवाह की जाती हो। नेपाल में 1988 में आए भूकम्प के पश्चात भवन निर्माण सम्बन्धी नियमों पर ध्यान दिया जाना आरम्भ हुआ। देश में भूकम्पीय अन्देशों की बाबत वैज्ञानिक शोध की तरफ ध्यान दिया जाने लगा।

नेपाल की नेशनल सोसाइटी फॉर अर्थक्वेक टेक्नोलॉजी- (नसेट) के जनरल सेक्रेटरी आमोद दीक्षित ने अनेक दफा अर्थक्वेक सेफ्टी डे पर मार्मिक अन्दाज में कहा, “भूकम्प से बचाव के मद्देनज़र सुरक्षा के तमाम उपाय और सुधार किए जाने के बावजूद कहना पड़ता है कि बड़ा भूकम्प आने की सूरत में यहाँ के 60 प्रतिशत से ज्यादा मकान ध्वस्त हो जाएँगे। एक लाख से ज्यादा लोग काल के गाल में समा सकते हैं और तीन लाख से ज्यादा घायल।” इन तमाम स्पष्ट अन्देशों और आकलनों के बावजूद 2011 में आए भूकम्प के दौरान देश ने तमाम चेतावनियों की अनदेखी की। न कोई तैयारी देखी गई और किसी बड़ी घटना का सामना करने की गरज से चाक- चौबन्दी नदारद दिखी।

 

 

 

 

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