असली बीमारी तो लूट की है

आज देश में कहीं भी सादा नमक नहीं मिल सकता। पशु आहार और बर्फ बनाने वाली फैक्टरियों के नाम पर कहीं सादे नमक के डले, बोरे दिख जाएं तो अलग बात, लेकिन हमारे आपके भोजन में अब आयोडीन मिला नमक ही इस्तेमाल होता है। इसकी शुरुआत सन् 1990 से हुई है। उससे पहले की परिस्थिति बता रहा है डाॅ ज्योति प्रकाश का यह लेख जो उन्होंने सन् 1986 में लिखा था- घेंघा या थायराइड रोग पर सामाजिक दृष्टि से कुछ बुनियादी काम करते हुए।

. नमक आयुक्त ने घोषणा की है कि सन् 1990 तक देश में बनने-बिकने वाले सारे नमक को आयोडीन युक्त कर दिया जाएगा। कहा जा रहा है कि यह कदम आयोडीन की कमी से होने वाले घेंघा, थायराइड रोग से लड़ने के लिए उठाया गया है।

घेंघा रोग से लड़ने की यह कोई पहली कोशिश नहीं है। पिछले 20 साल से ‘राष्ट्रीय घेंघा नियंत्रण कार्यक्रम’ इसी उद्देश्य से चलाया जा रहा है, पर वह समस्या को कुरेद तक नहीं पाया। शोषण की शिकार और कई सामाजिक कारणों से आयोडीन की कमी झेल रही गरीब आबादी को आज तक आयोडीन वाला नमक न दे पाने वाले जिम्मेदार नेताओं और अधिकारियों की आलोचना कम नहीं हुई है।

अंतरराष्ट्रीय मंचों और सम्मेलनों में हुई इसी खिंचाई से घबरा कर यह नया निर्णय हुआ है। आयोडीन की कमी भारतीय उप-महाद्वीप में जड़ जमाए बैठी पोषण की कमी की बीमारियों में से एक है। पोषण विज्ञानियों की नजर में घेंघा तो इस कमी का एकदम सामान्य और सहज नजर आ जाने वाला दुष्परिणाम भर है।

घेंघा जरूरत भर आयोडीन न मिलने से होता है। पर आमतौर पर यह जरूरत भोजन पानी से पूरी हो जाती है। दूसरे शब्दों में घेंघा भी कुपोषण का ही नतीजा है। लेकिन इसे मानकर सरकार अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने से रही। इसलिए अपनी नौकरी बजा रहे हर संबंधित अधिकारी से वह यह कहलवा रही है कि क्षेत्र विशेष में बहने वाली तेज बहाव वाली नदियां वहां का सारा आयोडीन बहा ले जा रही हैं। और इस कारण वहां कुंओं के पानी तक में आयोडीन की गंभीर कमी हो रही है!

अब तो पर्यावरण की रक्षा के लिए उठने वालों ने इन्हें और ढाल दे दी है। डाॅ ईश्वरदास का कहना है कि तेजी से कट रहे वनों से भी आयोडीन की कमी को बढ़ावा मिल रहा है। अगर इस तर्क में कोई दम है तो इसका यही अर्थ है कि उस सारे क्षेत्र में जहां सालों से वन नदारद हैं, घेंघा का भयंकर प्रकोप होना था।

लेकिन सच यह है कि घेंघा का प्रकोप ज्यादा वन क्षेत्रों में ही देखा गया है और इस बात से कौन मना कर सकता है कि वनवासी जीवन घने वनों की छाया में पला-बढ़ा है। आज से कोई दो हजार साल पहले अथर्व वेद में जिस गलगंड की चर्चा है, वह घेंघा ही है।

एक मोटे अनुमान से देश के कोई पंद्रह करोड़ लोग आयोडीन की कमी के घेरे में हैं और इनमें से लगभग पांच करोड़ घेंघा से पीड़ित हैं। एक समय केवल हिमाचल की तराई और उससे जुड़े मैदानी इलाके में पूर्व से पश्चिम तक फैली देश की लगभग 2400 किलोमीटर लंबी पट्टी ही इस बीमारी का घर मानी जाती थी। लेकिन अब यह निश्चित हो गया है कि देश के सोलह राज्यों और चार केंद्र शासित क्षेत्रों में घेंघे का खतरा हर समय मौजूद है।

कई जिलों में तो कुछ क्षेत्रों की आबादी का पचास फीसदी से भी अधिक इस बीमारी से परेशान है। मध्य प्रदेश में जन स्वास्थ्य के उपसंचालक के अनुसार सतपुड़ा और विंध्याचल के दोनों ओर के ढलानों में आयोडीन की कमी के कई क्षेत्र हैं। इनमें बड़वानी, खंडवा, बैतूल, होशंगाबाद, मंडला और बिलासपुर जैसे जिलों में सर्वेक्षण का काम तो अभी शुरू भी नहीं हो पाया है।

आबादी के हिसाब से प्रदेश के लगभग डेढ़ करोड़ लोगों पर, जिसमें स्त्री-पुरुष-बच्चे सभी शामिल हैं, यह तलवार झूल रही है। ग्यारह जिलों में कुल जनसंख्या के लगभग पैंतीस प्रतिशत घेंघा के मरीज हैं और इसमें आदिवासियों का प्रतिशत लगभग चालीस है। उपसंचालक ने इस तथ्य की तरफ अलग से ध्यान दिलाया है कि घेंघा मुक्त क्षेत्र की तुलना में घेंघा क्षेत्र में शोषण बहुत अधिक है।

.लगभग बीस सालों से देश में नियमित रूप से यह कहा जा रहा है कि नमक के माध्यम से आयोडीन की कमी दूर करके स्थिति को सुधारा जा सकता है। परंतु खुद घेंघा नियंत्रण कार्यक्रम के स्रोतों से इस चौंकाने वाले तथ्य का पता चलता है कि सन् 1982 की अनुमानित जरूरत 7 लाख 67 हजार मैट्रिक टन का निर्यात कर दिया गया! यानी कुल सोची समझी और आंकी गई जरूरत का लगभग 15 प्रतिशत ही देश में उपलब्ध कराया गया था।

वास्तव में आयोडीन वाला नमक दिलाने की कहानी तो और भी दुखद है। बिहार के पूर्वी और पश्चिमी चंपारन जिलों को घेंघा क्षेत्र घोषित करके वहां केवल आयोडीनयुक्त नमक ही उपलब्ध कराने का निर्णय सन् 1960 में लिया गया था। तब इन दोनों जिलों में किए गए सर्वेक्षण से अनुमान लगाया गया था कि इन जिलों की कुल जनसंख्या का 40.3 प्रतिशत घेंघा की तकलीफ भोग रहा है।

सन् 1964 से इन दोनों जिलों में केवल आयोडीन मिला नमक उपलब्ध कराया जा रहा है। 1979 में यानी 15 वर्ष बाद जब यहां दूसरी बार सर्वेक्षण किया गया तो पता चला कि बीमारी घटने की जगह बढ़ी है! पूर्वी और पश्चिमी चंपारन क्षेत्रों में मरीजों की अनुमानित संख्या कम होने की जगह बढ़ी है। पूर्वी और पश्चिमी चंपारन क्षेत्रों में मरीजों की अनुमानित संख्या बढ़ कर कुल आबादी का क्रमशः 64.5 और 57.2 फीसदी हो गई है।

देश में नमक आयुक्त से लेकर पोषण विज्ञानियों तक हर जिम्मेदार व्यक्ति स्पष्ट रूप से इस दुर्गति के लिए, वितरण और नियंत्रण में लगे प्रादेशिक और जिला स्तर के अधिकारियों को दोषी ठहरा रहे हैं। वे कह रहे हैं कि इन 15 सालों में आयोडीन मिले नमक की इन दोनों जिलों में की गई सप्लाई केवल कागजों तक सीमित रही थी। ऐसा न होने पर तो आयोडीन संबंधी धारणा ही झूठी ठहरेगी।

हाल ही में मध्य प्रदेश के चार जिलों- सीधी, शहडोल, सरगुजा और रायगढ़ में सादे नमक की बिक्री पर कानूनी रोक लगा दी गई है। प्रदेश के जन स्वास्थ्य संचालक मानते हैं कि इस क्षेत्र में प्रति व्यक्ति 25 ग्राम आयोडीन मिले नमक की जरूरत है। देश में नमक की हर प्रकार की आवक-जावक पर सीधा नियंत्रण रखने वाले नमक आयुक्त ने इन जिलों की कुल आबादी का हिसाब-किताब लगाकर आयोडीन वाले नमक का जो कोटा निश्चित किया था, प्रदेश सरकार उसका भी पूरा उपयोग नहीं कर पा रही है। इसे एक उदाहरण के रूप में सामने रख कर नमक आयुक्त की ओर से कहा जा रहा है कि जिलों में सादा नमक भी गैर कानूनी रूप से आ रहा है और बिक रहा है।

.मध्य प्रदेश के जन-स्वास्थ्य तथा परिवार कल्याण मंत्रालय से संबंद्ध और अतिरिक्त मुख्य सचिव स्तर के आई.ए.एस. अधिकारी डाॅ ईश्वरदास के अनुसार इन चार जिलों में सादा नमक पशु आहार के नाम पर लाया जा रहा है। इस प्रकार लाए जाने वाले सादे नमक को कम मूल्य और रेल भाड़े के कारण यहां के बाजारों में आयोडीन मिले नमक के मुकाबले सस्ते दाम पर बेचा जा रहा है।

इससे कानूनी मान्यता वाले आयोडीन मिले नमक की बिक्री पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। डाॅ ईश्वरदास यह भी मानते हैं कि एकाध (जैसे टाटा) को छोड़कर किसी भी निजी व्यापारिक संस्थान को आयोडीन वाला नमक बनाने की अनुमति नहीं मिली है, प्रतियोगिता के अभाव में या कि उत्पादन पर एकाधिकार के कारण सार्वजनिक उपक्रम के सरकारी कारखानों में बनाए जाने वाले आयोडीन युक्त नमक की कीमत बहुत अधिक है। तो कुल मिलाकर नमक में आयोडीन मिलाने वाला काम भी कोई हल नहीं है।

इस देश की असली बीमारी तो लूट की है। खाते-पीते लोग तो इससे किसी तरह बच निकलते हैं परंतु गरीब इसके एक न एक स्वरूप की चपेट में बने रहते हैं। इन बीमारियों को एकदम अलग-अलग करके देखने और हल करने की नीति अपनाई जाती है।

नतीजा यह है कि इनके बारे में ऐसे कठिन, महंगे और अव्यावहारिक उपाय सुझाए जाते रहे हैं, जो गरीब आदमी में भरी हुई टूटन को तो बढ़ाते ही हैं, उन्हें इस स्थिति तक लाने वाले जिम्मेदार स्वार्थों को इसमें से भी लाभ कमाने का मौका देते रहते हैं।

घेंघा से घिरी गरीब आबादी पर जो बीती है सो तो है ही, अब तो सरकार द्वारा तय की जाने वाली नई नीतियां भी इस बारे में खतरनाक हो रही हैं। आजकल डेयरी के दूध में प्रिजरवेटिव के रूप में थायोसाइनेट्स के ज्यादा सेवन से घेंघा का खतरा पैदा होने लगा है।

वैसे भी साधारण दूध में थायोसाइनेट्स प्रतिलीटर 10 से 20 मिलीग्राम तक प्राकृतिक रूप से मौजूद रहता है जो कि उबालने से भी समाप्त नहीं हो पाता है। माना जा रहा है कि दिल्ली जैसे शहरों में अचानक ही घेंघा के मामले बढ़ने के पीछे थायोसाइनेट्स और खाने-पीने के अन्य पदार्थों में दूसरे प्रिजरवेटिव की ही भूमिका है।

सन् 87 में दिल्ली के स्कूली बच्चों के एक सर्वे से पता चला है कि साधारण स्कूलों की अपेक्षा अमीर स्कूलों के बच्चों में घेंघा के लक्षण ज्यादा मिले हैं। यानी जो ज्यादा दूध पीते हैं, वे इसके ज्यादा शिकार होंगे। जो रोग अब तक ठेठ वनवासी और गरीब क्षेत्रों का माना जाता था, अब राजधानी के संपन्न क्षेत्रों में भी गर्दन उठाने लगा है।

समाज का एक बड़ा भाग अपना सब कुछ लुट जाने के कारण घेंघा का शिकार हुआ है तो दूसरा छोटा-सा नया हिस्सा पश्चिम की जीवन शैली के आगे अपने को खुशी-खुशी खुद लुटाते हुए इस रोग को अनजाने में न्यौता दिए चला जा रहा है।

भोपाल में रहते हुए होम्योपैथी के माध्यम से असाध्य माने गए रोगों पर काम। चिकित्सक की भूमिका निभाते हुए अनेक सामाजिक प्रश्नों से जुड़े हैं।

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