असहाय हुआ राष्ट्रीय पक्षी

यह कहना गलत नहीं होगा कि अगर फसलों में इसी प्रकार अंधाधुंध तरीके से कीटनाशकों का इस्तेमाल किया जाता रहा तो यह राष्ट्रीय पक्षी कुछ वर्षों में ही विलुप्त हो जाएगा। वैसे भी जहां खेतों में नाचते हुए मोर का दिखना आम बात थी वहीं अब यह मात्र याद करने भर के लिए रह गया है। मोरों का बसेरा घने जंगल व पेड़ों के इर्द-गिर्द अधिक होता है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आम के बागों के बहुतायत में होने के कारण मोर इन बागों में रहते हैं तथा वहीं से अपना दाना-पानी लेते हैं। लेकिन जिस रफ्तार से पिछले एक दशक से आम के बागों में कीटनाशकों का प्रयोग बढ़ा है उससे मोर अब अपने ही घर में सुरक्षित नहीं रह गया है।

नीर फाउंडेशन के स्वयं सेवक व जनपद पंचशीलनगर के गांव रसूलपुर के ग्राम प्रधान कर्मवीर सिंह ने फतेहपुर गांव के जंगल में अलवर, राजस्थान के दो शिकारियों को राष्ट्रीय पक्षी मोर का शिकार कर ले जाते हुए पकड़ा। कर्मवीर अपने गांव से हापुड़ के लिए आ रहे थे तो उन्होंने आम के बाग में से दो लोगों को कमर पर बोरी लादे हुए आते देखा। उनके राजस्थानी पहनावे को देखकर कर्मवीर वहां रूक गए और उनके पास जाकर उनसे पूछा कि तुम कहां के रहने वाले हो और यहां क्या कर रहे हो। इस पर वो थोड़े से घबराए तथा ठीक से जवाब नहीं दे सके। बस, कर्मवीर को इतना ही काफी था, उन पर शक पुख्ता हो गया तो कर्मवीर ने उनसे पूछा कि बोरी में क्या है? इतना कहते ही वे अपनी बोरी वहीं फेंक कर भाग खड़े हुए। कर्मवीर शोर मचा दिया और कुछ लोगों ने उन्हें आगे जाकर पकड़ लिया। जब बोरी खोलकर देखा गया तो उसमें मोर के दो शव थे। इस पर सब लोगों का गुस्सा फूट पड़ा और उन शिकारियों की पिटाई शुरू कर दी। इस दौरान कर्मवीर ने नीर फाउंडेशन के कार्यालय को सूचना दी तो कार्यालय से जिला वन अधिकारी, गाजियाबाद व सीओ पुलिस हापुड़ को बताया गया। जिला वन अधिकारी ने तुरंत कार्यवाही करते हुए मौके पर वन विभाग की टीम भेजी तथा सीओ ने पुलिस को वहां भेजा। रंगे हाथों राष्ट्रीय पक्षी का शिकार करते हुए पकड़े गए उन दोनों शिकारियों को हापुड़ थाने ले आया गया तथा वहां उनके खिलाफ मुकदमा दर्ज कर उन्हें जेल भेज दिया गया। मोर के शवों को वन विभाग के साथ मिलकर नियमानुसार कार्यवाही कर उनका पोस्टमार्टम कराया गया। इस प्रकार से एक जागरूक नागरिक ने मोर के शिकारियों को दण्डित करवाया।

हमारी देर से जागने की आदत ने न जाने कितना नुकसान देश का किया है। हमारी इसी बुरी लत का शिकार भारत का राष्ट्रीय पक्षी मोर भी हो रहा है। कैसी विडम्बना है कि कहने को तो मोर राष्ट्रीय पक्षी है लेकिन उसके संरक्षण के लिए कोई ठोस योजना संबंधित विभागों के पास मौजूद नहीं है और न ही ऐसी किसी योजना पर विचार तक किया जा रहा है। अगर हालात यही रहे तो वह दिन अधिक दूर नहीं जब मोर मात्र चित्रों में देखने को मिलेगा व उसके बारे में किताबों से पढ़ने को मिलेगा। हाल ही में कानपुर, बुलंदशहर, सहारनपुर, बिजनौर, मुजफ्फरनगर, बागपत व मेरठ से मोरों के असमय मरने की खबरें खबरनवीसों के माध्यम से खूब पढ़ने को मिली हैं। पर्यावरणविद् भी इसके लिए समय-समय पर चिन्ता प्रकट करते ही रहते हैं। मोर क्यों मर रहे हैं, कौन इसके लिए कसूरवार है और इसकी जिम्मेवारी आखिर किसकी है? ये सब सवाल अनसुलझे से हमारे बीच खड़े हैं। प्रारम्भिक सर्वेक्षण रिर्पोट के माध्यम से यह सामने आया है कि मोर फसलों पर छिड़के जाने वाले कीटनाशकों के कारण काल का ग्रास बन रहे हैं। विषय विशेषज्ञों व जानकारों की मानें तो पता चलता है कि मोर द्वारा फसलों के बीच व मिट्टी में पनपने वाले कीड़ों को खाया जाता है। इन कीटों को ठिकाने लगाने व अपनी फसल को बचाने के फेर में किसानों द्वारा तरह-तरह के जहरीले कीटनाशक फसलों व आम के बागों में प्रयोग किए जाते हैं। जिसके कारण कीट तो मर जाते हैं लेकिन मर कर भी अपने अन्दर समा चुके जहर से मोर को भी मार देते हैं क्योंकि ये मरे हुए कीट ही मोरों का भोजन बनते हैं और काजू-बाजू सा पक्षी मोर इनको खाकर निढाल हो जाता है और अंत में मर जाता है। इसी प्रकार खेतों में पड़े जहरीले दानों को खाकर भी मोर मर रहे हैं।

मोरों की संख्या में लगातार होती कमी का दूसरा बड़ा कारण यह है कि उनका शिकारियों द्वारा शिकार किया जा रहा है। ऐसा इसलिए किया जा रहा है क्योंकि मोर के पंख व उसके मांस के चाहने वाले बाजार में बैठे हुए हैं। मोर पंखों से जहां शो पीस व हाथ के पंखे आदि बनाए जाते हैं वहीं कुछ चाहने वाले मोर का मांस भी बड़े चाव से खाते हैं। यही कारण है कि मोर पंखों व उसके मांस का व्यापार धड़ल्ले से होता है। हालांकि वन्यजीव अधिनियम की अनुसूची-1 में मोर के पंख का इस्तेमाल प्रतिबंधित नहीं है लेकिन वन्य जीव प्रेमी लगातार इस पर प्रतिबंध लगाने की मांग करते रहे हैं। शिकारियों द्वारा मोर का शिकार करने के लिए कीटनाशक युक्त दानों आदि का प्रयोग किया जाता है।

बुलंदशहर जनपद के मिर्जापुर गांव के आम के बाग में दो दर्जन मोर इसलिए मर गए क्योंकि बाग के मालिक ने एक दिन पहले ही आम के पेड़ों पर कीटों की रोकथाम के लिए भरपूर मात्रा में कीटनाशकों का इस्तेमाल किया था। इस बाग में आने वाले मोर ठीक प्रकार से श्वांस न ले पाने व बाग में पड़े मृत कीटों को खाने के कारण मरते रहे। इसी प्रकार सहारनपुर व मुजफ्फरनगर में भी कीटनाशकों के कारण ही दो दर्जन मोर अकाल मौत मरे। गत वर्ष बागपत में भी एक खेत में जहरीला दाना खाने से, पंचशीलनगर के बनखंडा गांव में शिकारी दो मोर मारकर ले जाते हुए पकड़े गए तथा मेरठ जनपद के कुनकुरा गांव में काली नदी (पूर्व) का प्रदूषित पानी पीने से कई दर्जन मोर मरे थे।

यह कहना गलत नहीं होगा कि अगर फसलों में इसी प्रकार अंधाधुंध तरीके से कीटनाशकों का इस्तेमाल किया जाता रहा तो यह राष्ट्रीय पक्षी कुछ वर्षों में ही विलुप्त हो जाएगा। वैसे भी जहां खेतों में नाचते हुए मोर का दिखना आम बात थी वहीं अब यह मात्र याद करने भर के लिए रह गया है। मोरों का बसेरा घने जंगल व पेड़ों के इर्द-गिर्द अधिक होता है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आम के बागों के बहुतायत में होने के कारण मोर इन बागों में रहते हैं तथा वहीं से अपना दाना-पानी लेते हैं। लेकिन जिस रफ्तार से पिछले एक दशक से आम के बागों में कीटनाशकों का प्रयोग बढ़ा है उससे मोर अब अपने ही घर में सुरक्षित नहीं रह गया है। इन कीटनाशकों की महक श्वांस के जरिए जैसे ही दिमाग तक जाती है तो तुरंत संवेदी तंत्र को निष्क्रिय कर देती है। जिस कारण संवेदनशील पक्षी मोर की मौत हो जाती है।

आखिर हम किस समाज का हिस्सा बन गए हैं जिसमें किसी भी कीमत पर अपने आप को बचाने भर की कवायद शेष रह गई है। हालातों पर अगर काबू न पाया गया तो मोर के नाचने के बारे में भी हमें अपनी आने वाली पीढ़ियों को सीर्फ बताना ही पड़े। भारत व उत्तर प्रदेश सरकार को राष्ट्रीय पक्षी की रक्षार्थ नियमों को और अधिक कड़ा करना चाहिए। कहीं गिद्ध की तरह ही मोर को भी हम खो न दें।

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