आषाढ़ : प्रकृति खिलखिलाने के बजाय अब डराती है

आषाढ़ का महीना आते ही प्रकृति खिलखिलाने लगती है रिमझिम वर्षा की बारीश की बुंदे धरती पर पड़ते ही मिट्टी के शौंधेपन की खुशबू और कोयल की कुकू-कुकू की आवाज के साथ आषाढ़ महीने की आगाज हो जाता है और लोगों के मन में एक उल्लास पैदा हो जाता था। आषाढ़ किसानों के लिए खुशखबरी होती थी लेकिन अब ऐसा ऐसा नहीं होता है क्योंकी आषाढ़ का महीना उल्लास लाने के बजाय डराती है।

कल-कल करती नदियां... झर-झर बहते झरने... सन्-सन्-सन् करती हवाएं और लहर-लहर लहराती सागर की लहरें... ऐसे में भला किसका मन मयूर न होगा? बादलों के पंख दिल पर उग आएंगे और उड़ते-उड़ते वह जा पहुंचेगा प्रकृति की गोद में, जहां हरीतिमा की चादर ओढ़े, इंद्रधनुषी आभा को सिर का ताज बनाए इस सृष्टि ने श्रृंगार किया है। कितनी अद्भुत कल्पना! कितनी सुखद और मन को आह्लादित करने वाली कल्पना! एक सुरभित और सुंदरतम कल्पना! क्या ऐसा होता है? हां, ऐसा ही होता है!

नहीं, नहीं। यूं कहें कि ऐसा ही होता था। आषाढ़ के आते ही... रिमझिम फुहारों की मस्ती में, भीगी माटी के सौंधेपन में, कोयल की कुहू-कुहू में और अमराई में झूलते आम के कच्चे झुमकों में ये कल्पना साकार हो उठती थी। चारों ओर वर्षा की बौछारों के साथ यौवन झूम उठता था, बुढ़ापा गा उठता था और बचपन कागज की कश्ती के साथ तैर जाता था। वर्षा की बूंदों के बीच अधरों पर मुस्कान खिल जाती थी। आंखों में चमक और चेहरे पर दमक छा जाती थी। तब... हां, तभी मन का मयूर नृत्य करता था और एक कल्पना साकार हो उठती थी। इस तरह हर कोई वर्षा का स्वागत करने को आतुर रहता था।

किसान की जर्जर आंखें टकटकी लगाए आसमान की ओर देखती रहती हैं। जैसे ही बादलों का शोर सुनाई देता है, उसके बूढ़े शरीर में जोश भर जाता है, कमजोर आंखों में चमक आ जाती है। शरीर से भले ही तैयार न हो, पर मन से पूरे जोश के साथ वह वर्षा के स्वागत के लिए तैयार हो जाता है। फिर वह अपने हल, बैल को लेकर निकल जाता है अंधेरे में ही, धरती की छाती से लहलहाती फसल लेने का संकल्प लेकर।

पहले जब आषाढ़ का आगमन होता था, तो प्रकृति खिलखिलाती थी। उसकी गोद में कई सुखद कल्पनाएं जन्म लेती थीं, किंतु आज हालात ये हैं कि जब यह आता है, तो लगता है प्रकृति खिलखिलाने के बजाय अट्टहास या आर्तनाद कर रही हो। आषाढ़ हमें डराने लगा है, न जाने कब किस हालत में वह हमारे घर आ जाए और हम सब बाहर निकल जाएं? आज हालत यह है कि बारिश शुरू होते ही मन एक अनजाने भय से सिहर उठता है। पिछले कई बरस से आषाढ़ जब भी आया है हमारे आंगन में, तब से वह आंगन भी अधमरा हो गया है। आखिर ऐसा क्यों करने लगा है आषाढ़ हम सबसे? हमने ऐसा क्या किया है कि वह हमें डराने लगा है। हमें तो वह सदैव भला ही लगता रहा है, हमने कभी उसे दुत्कारा नहीं, उसकी अगवानी में सदैव ही अपनी सूखी आंखें बिछाई हैं। उसकी पूजा करने में कभी कोई कसर बाकी नहीं रखी। उसे तो दुत्कारा है शहरियों ने, जहां कांक्रीट का जंगल है। कहते हैं पानी अपना रास्ता खुद बनाता है, पर पानी के बनाए रास्ते को ही जब डामर की सड़क में तब्दील कर दिया जाए, तो भला किसे अच्छा लगेगा? पानी के रास्ते में मानव आ रहा है।

आज रामनारायण उपाध्याय जी बरबस याद आते हैं। उन्होंने कहा है - सितारों की कील की चुभन से जब आसमान का दिल भर आता है, तो उसे वर्षा कहते हैं।

लेकिन आज प्रकृति की छाती पर इतनी अधिक इंसानी कीलें चुभो दी गई हैं कि वह आर्तनाद करने लगी है। उसका यही आर्तनाद हमारे सामने विभिन्न रूपों में सामने आने लगा है। बहुत बर्बाद कर दिया है हमने प्रकृति को। अब प्रकृति स्वयं ही अपनी रक्षा करने में सक्षम हो गई है। वह भी बर्बाद कर देगी, उससे छेड़-छाड़ करने वालों को! इसलिए चेत जाओ पर्यावरण के दुश्मनों।

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