आर्थिक विकास से जुड़ा पानी

किसी भी देश के आर्थिक विकास में जीवनदायी जल की महत्ता अंतर्निहित है। हालांकि विकास दर के सूचकांक को नापे जाते वक्त पानी के महत्व को दरकिनार रखते हुए किसी भी देश की औद्योगिक प्रगति को औद्योगिक उत्पादन के सूचकांक (IIP) से नापा जाता है। इनकी पराश्रित सहभागिता आर्थिक विकास की वृध्दि दर दर्शाती है। 2006-2007 में भारत की विकास दर ने 9.6 तक की उंचाइयां छुईं थीं और सकल घरेलू उत्पाद एक टिलियन डॉलर तक पहुच गया था। यदि हमें देश की औसत विकास दर 6 प्रतिशत तक ही बनाए रखना है तो एक अधययन के अनुसार 2031 तक मौजूदा स्तर से चार गुना अधिक पानी की जरुरत होगी, तभी सकल घरेलू उत्पाद बढ़कर 2031 तक चार टिलियन डॉलर तक पहुच सकेगा। अब सवाल उठता है कि बीस साल बाद इतना पानी आएगा कहां से ? क्योंकि लगातार गिरते भू-जल स्तर और सूखते जल स्त्रोतों के कारण जलाभाव तो अभी से मुंह बाये खड़ा है ? इन हालातों में हम 20-21 साल बाद कहां खड़े होंगे यह एक गंभीर सवाल हैं।

पानी भारत में ही नहीं पूरी दुनिया में एक समस्या के रुप में उभर चुका है। भूमण्डलीकरण और उदारवादी आर्थिक व्यवस्था के दौर में बड़ी चतुराई से विकासशील देशों के पानी पर अधिकार की मुहिम अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों ने पूर्व से ही चलाई हुई हैं। भारत में भी पानी के व्यापार का खेल युरोपीय संघ के दबाव में शुरु हो चुका है। पानी को 'मुद्रा' में तब्दील करने की दृष्टि से ही इसे विश्व व्यापार संगठन के दायरे में लाया गया। जिससे पूंजीपति देशों की आर्थिक व्यवस्था विकासशीलदेशों के पानी का असीमित दोहन कर फलती-फुलती रहे। अमेरिकी वर्चस्व के चलते इराक में मीठे पेयजल की आपूर्ति करने वाली दो नदियों यूपरेट्स और टाइग्रिस पर तुर्की नाजायज अधिकार जमा रहा है। दूसरी तरफ योरोपीय देश कनाडा इसलिए परेशान है क्योंकि वहां के समृध्द तालाबों पर नियंत्रण की मुहिम एक षडयंत्र के तहत अमेरिका ने चलाई हुई है। ये कुचक्र इस बात की सनद हैं कि पानी को लेकर संघर्ष की पृष्ठभूमि रची जा सकी है। इसी पृष्ठभूमि में तीसरे विश्वयुध्द की नींव अंतर्निहित है।

भारत विश्वस्तर पर जल का सबसे बड़ा उपभोक्ता है। दुनिया के जल का 13 फीसदी उपयोग भारत करता है। भारत के बाद चीन 12 फीसदी और अमेरिका 9 फीसदी जल का उपयोग करते हैं। पानी के उपभोग की बड़ी मात्रा के कारण ही भू-जल स्त्रोत, नदियां और तालाब संकट ग्रस्त हैं। वैज्ञानिक तकनीकों ने भू-जल दोहन को आसान बनाने के साथ खतरे में डालने का काम भी किया। लिहाजा नलकूप क्रांति के शुरुआती दौर 1985 में जहां देश भर के भू-जल भंडारों में मामूली स्तर पर कमी आना शुरु हुई थी, लेकिन अंधा धुंधा दोहन के चलते ये दो तिहाई से ज्यादा खाली हो गए हैं। नतीजतन 20 साल पहले 15 प्रतिशत भू-जल भण्डार समस्या ग्रस्त थे, आज ये हालात बढ़कर 70 प्रतिशत तक पहुंच गए हैं। ऐसे ही कारणों के चलते देश में पानी की कमी प्रति वर्ष 104 बिलियन क्यूबिक मीटर तक पहुंच गई है। जल सूचकांक एक मनुष्य की सामान्य दैनिक जीवन-चर्या के लिए प्रति व्यक्ति एक चौथाई रह गया है। यदि किसी देश में जीवनदायी जल की उपलब्धाता 1700 क्यूबिक मीटर प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष कम होती चली जाए तो इस आसन्न संकट माना जाता है। इसके विपरीत विंडबना यह है कि देश में स्वच्छ पेयजल के स्थान पर शराब व अन्य नशीले पेयों की खपत के लिए हमारे देश के ही कई प्रांतों में वातावरण निर्मित किया जा रहा है। शराब की दुकानों के साथ अहाते होना अनिवार्य कर दिए गए हैं, जिससे ग्राहक को जगह तलाशनी न पड़े। मधयप्रदेश सरकार ने तो अर्थव्यवस्था सुचारु रखने का जो सबसे बड़ा हिस्सा है। इस तरह से देश - दुनिया की अर्थव्यवस्था चलाने में पानी का योगदान 20 हजार प्रति डॉलर प्रति हेक्टेयर की दर से सर्वाधिक है।

लेकिन आधुनिक दुनिया पानी की अन्यायपूर्ण आपूर्ति की ओर लगातार बढ़ती जा रही है। एक तरफ घनी आबादी अपना वैभव बनाए रखने के लिए पाश्चात्य शौचालयों, बॉथ टबों और पंचतारा तालाबौं में रोजाना हजारों गैलन पानी बेवजह बहा रही है, वहीं दूसरी तरफ भारत की बहुसंख्यक आबादी ऐसी है जो तमाम जद्दोजहद के बाद 10 गैलन पानी, यानी करीब 38 लीटर पानी बमुश्किल जुटा पाती हैं। पानी के इसी अन्यायपूर्ण दोहन के सिलसिले में किसान नेता देवीलाल ने बड़ी तल्ख टिप्पणी की थी कि नगरों में रहने वाले अमीर लोग शौचालय में एक बार फलश चलाकर इतना पानी बहा देते है जितना किसान के एक पूरे परिवार को पूरे दिन के लिए उपलब्धा नहीं हो पाता है। पानी के इस असमान दोहन के कारण ही भारत, चीन और अमेरिका पानी की समस्या की गिरफत में हैं। इन देशों में पानी की मात्रा 160 अरब क्यूबिक मीटर प्रति वर्ष की दर घटती चली जा रही है। इन्हीं हालातों के नतीजतन अनुमान लगाया जा रहा है कि 2031 तक विश्व की दो तिहाई आबादी, मसलन साढ़े पांच अरब लोग गंभीर जल संकट से जूझ रहे होंगे। जल वितरण के इन असमान हालातों के चलते ही भारत में हर साल पांच लाख बच्चे पानी की कमी से पैदा होने वाली बीमारियों से मर जाते हैं। करीब 23 करोड़ लोगों का जल की उपलब्धाता के लिए जद्दोजहद करना दिनचर्या में तब्दील हो गई है। और 30 करोड़ से ज्यादा लोगों की आबादी के लिए निस्तारी के लिए पर्याप्त जल की सुविधााएं हासिल नहीं हैं। बहरहाल भारत को सामाजिक, आर्थिक और स्वास्थ्य के स्तर पर पेयजल सबसे बड़ी व भयावह चुनौती बनने जा रहा है। यहां यह धयान रखने की जरुरत है कि प्राकृतिक संसाधानों का इस बेलगाम गति से दोहन जारी रहा तो भविष्य में भारत की आर्थिक विकास दर की औसत गति क्या होगी ? और आम आदमी का औसत स्वास्थ्य किस हाल में होगा ?

मौजूदा हालातों में हम भले ही आर्थिक विकास दर को औद्योगिक और प्रौद्योगिक पैमानों से नापते हों, लेकिन यहां यह धयान देने की जरुरत है कि इस विकास का आधार भी आखिरकार प्राकृतिक संसाधानों पर आधारित है। जल, जमीन और खनिजों के बिना कोई आधुनिक विकास संभव नहीं है। यहां यह भी तय है कि विज्ञान के आधुनिक प्रयोग प्राकृतिक संपदा को रुपांतरित कर उसे मानव समुदायों के लिए सहज सुलभ तो बना सकते हैं लेकिन प्रकृति के किसी भी तत्व का स्वतंत्र रुप से निर्माण नहीं कर सकते ? क्योंकि इनका निर्माण तो निरंतर परिवर्तनशील जलवायु पर निर्भर है। इसलिए जल के सीमित उपयोग के लिए यथाशीघ्र कोई कारगर जल नीति अस्तित्व में नहीं लाई जाती है तो भारत का आर्थिक विकास जबरदस्त ढंग से प्रभावित होना तय है।

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