आर्थिक वैश्वीकरण : पर्यावरण पर प्रभाव

Tadoba Andhari Tiger Reserve
Tadoba Andhari Tiger Reserve

प्रस्तावना : वैश्वीकरण एवं पर्यावरण


1992 वैश्वीकरण का सूत्रपात करने वाली नई आर्थिक नीतियों को पेश करते समय तत्कालीन केन्द्रीय वित्त मंत्री (वर्तमान प्रधानमंत्री) मनमोहन सिंह ने सुधारों के पर्यावरणीय आयामों पर दिल्ली में एक भाषण दिया था। उस भाषण में उनका मुख्य तर्क ये था कि पर्यावरण संरक्षण के लिये आर्थिक संसाधनों की आवश्यकता होती है जो उनकी नई नीतियों से हासिल हो जाएँगे। सवाल ये है कि दो दशक बाद उनका नुस्खा कारगर साबित हो पाया है या नहीं?

ताड़ोबा टाइगक रिजर्व, महाराष्ट्र से सटी कोयला खानमोटे तौर पर, 1991 से शुरू हुए आर्थिक वैश्वीकरण के निम्नलिखित प्रभाव रहे हैं :

1. अर्थव्यवस्था का तेजी से विकास सुनिश्चित करने के लिये बुनियादी ढाँचे और संसाधनों के दोहन की क्षमता में भारी इजाफा जरूरी था। इसके लिये सम्पन्न वर्ग द्वारा अन्धाधुन्ध उपभोग को बढ़ावा दिया गया। इस दौरान हमारी अर्थव्यवस्था माँग केन्द्रित रही है और इस बात पर कोई ध्यान नहीं देना चाहता कि कितनी माँग (और किस उद्देश्य से) जायज व वांछनीय मानी जा सकती है और उसके क्या परिणाम हो रहे हैं।

2. व्यापाार (निर्यात व आयात) उदारीकरण के दो परिणाम रहे हैं : विदेशी मुद्रा जुटाने के लिये प्राकृतिक संसाधनों का तेजी से दोहन तथा भारत में उपभोक्ता वस्तुओं व कचरे का बड़े पैमाने पर आयात (तेजी से बढ़ते घरेलू कचरे के अलावा)। इससे कचरे के निस्तारण और स्वास्थ्य के लिये गम्भीर समस्याएँ पैदा हुई हैं तथा वानिकी, मछुवाही, चरवाही, खेती, स्वास्थ्य व दस्तकारी से जुड़े परम्परागत रोजगारों पर बहुत बुरा असर पड़ा है।

3. पर्यावरणीय मानकों व नियमों में ढील दे दी गई है या उनके उल्लंघन को नजरअन्दाज कर दिया जा रहा है ताकि देशी और विदेशी, दोनों तरह की कम्पनियों को निवेश के लिये अनुकूल माहौल मिले।

4. अर्थव्यवस्था को विदेशी निवेश के लिये खोल देने की वजह से ऐसी-ऐसी कम्पनियाँ भी भारत में चली आई हैं जिनका पर्यावरण (और/या सामाजिक मुद्दों) पर बहुत बदनाम ट्रैक रिकॉर्ड रहा है। ऊपर से उनके लिये पर्यावरण और सामाजिक समानता प्रावधानों को और कमजोर करने के लिये दबाव बनाया जा रहा है। घरेलू कम्पनियों के आकार और ताकत में भी जबर्दस्त इजाफा हुआ है और अब वे भी इसी तरह का दबाव बनाने लगी हैं।

5. विभिन्न क्षेत्रों के निजीकरण से उनके प्रदर्शन में कुछ हद तक सुधार तो आता है लेकिन यह व्यवस्था पर्यावरणीय मानकों की अवहेलना या उनमें ढील को भी बेलगाम छूट दे देती है।

अगर मनमोहन सिंह का वह दावा सच्चा होता तो अब तक देश के पर्यावरण की रक्षा के लिये हमारे पास बहुत सारे उपाय और कार्यक्रम होते। लेकिन सच ये है कि पर्यावरणीय संकट तो पहले से और ज्यादा गम्भीर हो गया है। हमने आगे दिखाया है कि यह वैश्वीकरण की प्रक्रिया का एक अपरिहार्य और अविभाज्य अंग है। जिस तरह यह सिद्धान्त गरीबों के लिये काम नहीं कर पाता कि अर्थव्यवस्था की विकास दर बढ़ने से तरक्की के लाभ एक दिन रिस-रिसकर गरीबों तक भी पहुँच जाएँगे (ट्रिकल डाउन सिद्धान्त) उसी तरह ‘निवेश के लिये संसाधनों की आवश्यकता’ का तर्क भी पर्यावरण की सेहत नहीं बचा सकता।

यहाँ ये स्पष्ट कर देना जरूरी है कि नीचे हमने कई क्षेत्रों और गतिविधियों की जो आलोचना की है उसका ये मतलब नहीं है कि हम उन व्यवसायों और गतिविधियों के खिलाफ हैं। हम ये नहीं कह रहे हैं कि खनन, फूलों की खेती, औद्योगिक मछुवाही, आयात और निर्यात आदि नहीं होना चाहिए। गौर करने वाली बात सिर्फ ये हैं कि न केवल हम ये सवाल उठाएँ कि हमें उनकी जरूरत है या नहीं, बल्कि ये भी पूछें कि हमें उनकी किस हद तक, किस मकसद के लिये और किन हालात में जरूरत है। ये ऐसे सवाल हैं जिनको फिलहाल पीछे धकेल दिया गया है। दूसरी बात ये है कि नीचे उल्लिखित बहुत सारे रुझान केवल वैश्वीकरण की मौजूदा मुहिम का ही नतीजा नहीं है। उनमें से बहुत सारे ऐसे हैं जो पिछले 5-6 दशकों में अपनाए गए ‘विकास’ का नतीजा हैं और/या वे अभिशासन, सामाजिक-आर्थिक असमानता व दूसरी मूलभूत समस्याओं का नतीजा है। वैश्वीकरण के इस दौर ने उन्हें न केवल और ज्यादा सघन कर दिया है बल्कि ऐसे नए-नए पहलू भी सामने ला दिये हैं जो भारत के पर्यावरण व समाज के लिये इस तरह के ‘विकास’ के खतरों को और ज्यादा बढ़ाते जा रहे हैं।

बुनियादी ढाँचा और माल : माँग ही सब कुछ है!


दो अंकों की आर्थिक वृद्धि दर के एकमात्र लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए माँग ने एक ऐसे ईश्वर की हैसियत पा ली है जिस पर आप उंगली नहीं उठा सकते। बुनियादी ढाँचे या कच्चे माल या व्यावसायिक ऊर्जा की जरूरत मानव कल्याण और समानता के आदर्शों को ध्यान में रखकर तय नहीं हो रही है बल्कि इसको आर्थिक वृद्धि दर के लक्ष्यों को ध्यान में रखकर तय किया जा रहा है, यद्यपि इस वृद्धि दर का मानव कल्याण के साथ कोई अनिवार्य सहसम्बन्ध दिखाई नहीं देता।

यही कारण है कि पिछले दो-एक दशकों के दौरान नये बुनियादी ढाँचे (हाइवे, बन्दरगाह और हवाई अड्डे, शहरी बुनियादी ढाँचा और बिजली घर आदि) के निर्माण में बेतहाशा इजाफा हुआ है। नतीजा ये है कि बहुत सारी जमीन इन परियोजनाओं के पेट में चली गई है। ऐसी ज्यादातर जमीन जंगलों व तटों जैसे प्राकृतिक इलाकों की या खेतों और चरागाहों की थीं।

1993-94 और 2008-09 के बीच भारत के खनिज उत्पादन में 75 प्रतिशत इजाफा हुआ है। इसकी वजह से बहुत सारी वन भूमि को खानों में तब्दील कर दिया गया है। 1981 (जब वन भूमि के गैर-वन प्रयोग के लिये केन्द्र सरकार की मंजूरी को अनिवार्य घोषित किया गया था) के बाद अब तक लगभग 1.5 लाख हेक्टेयर वन भूमि को खानों में तब्दील किया जा चुका है:

 

1981-92

13,000 हेक्टेयर (8.7 प्रतिशत)

1992-2002

57,000 हेक्टेयर (38.2 प्रतिशत)

2002-2011

79,000 हेक्टेयर (53 प्रतिशत)

 

इन बदलावों के पर्यावरणीय एवं सामाजिक प्रभाव रोंगटे खड़े कर देने वाले रहे हैं। अरावली और शिवालिक पर्वत श्रृंखलाओं की चूना पत्थर और संगमरमर पहाड़ियों में विस्फोट; गोवा, मध्य प्रदेश व उड़ीसा में लौह अयस्क अथवा बाक्साइट प्लेटो; पूर्वी भारत में भस्म कोयला मैदान और झारखंड की रेडियोधर्मी यूरेनियम पट्टी, ये सभी इस बात के साक्षी हैं कि आर्थिक ‘विकास’ किस तरह की तबाही को जन्म दे सकता है।

1991 से दुनिया की कुछ सबसे विशाल खनन कम्पनियाँ भारत में निवेश कर रही हैं। इनमें रियो टिंटो जिंक (ब्रिटेन), बीएचपी (ऑस्ट्रेलिया), एलकॉन (कनाडा), नॉर्स्क हाइड्रो (नार्वे), मेरीडियन (कनाडा), डी बीयर्स (दक्षिण अफ्रीका), रेथियोन (अमेरिका) और फेल्प्स डॉज (अमेरिका) आदि बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ शामिल हैं। इनमें से बहुत सारी कम्पनियों का पर्यावरणीय एवं सामाजिक रिकॉर्ड भारत की अपनी खनन कम्पनियों जैसा या उनसे भी बदतर रहा है।

नीतिगत बदलावों की दिशा इस लक्ष्य पर केन्द्रित रही है कि खनन कम्पनियों के लिये हालात ज्यादा से ज्यादा आसान हो जाएँ। मिसाल के तौर पर, 1996 में खनन कम्पनियों को अधिकतम 25 वर्ग किलोमीटर जमीन पट्टे पर दी जा सकती थी; अब यह सीमा 5,000 वर्ग किलोमीटर तक बढ़ा दी गई है! पहले से ज्यादा बड़े इलाकों को जनसुनवाई की शर्तों से बाहर कर दिया गया है। ऐसी ही कई दूसरी राहतें भी खनन कम्पनियों को दी गई हैं। 2008 की राष्ट्रीय खनिज नीति में तो यहाँ तक सुझाव दिया गया है कि पर्यावरणीय नियमन को कम्पनियों की मर्जी पर छोड़ दिया जाए!

खनन क्षेत्र में नियमन का अभाव, जो कि भारत और दुनिया के लालच को पूरा करने के लिये चलाई जा रही माँग केन्द्रित अर्थव्यवस्था का अपरिहार्य परिणाम है, को अवैध खनन के एक के बाद एक आए असंख्य रहस्योद्घाटनों में देखा जा सकता है। अकेले कर्नाटक में 2006 से 2009 के बीच अवैध खनन की 11,896 घटनाएँ सामने आई थीं। इसी दौरान आन्ध्र प्रदेश में ऐसी 35,411 घटनाएँ सामने आईं।

निर्यात : भविष्य की नीलामी


सरकारी प्रोत्साहन की बदौलत 2003-04 के बाद भारत के निर्यात में सालाना 25 प्रतिशत से ज्यादा इजाफा हुआ है। 2011-12 में भारतीय निर्यात 300 अरब डॉलर तक पहुँच चुका था। अगर ये मान लिया जाए कि निर्यात कुछ हद तक वांछनीय या अनिवार्य है तो भी एक जिम्मेदारी भरी नीति में कम-से-कम निम्नलिखित सिद्धान्तों का समावेश होना चाहिए:

1. देश के नागरिकों के लिये उन चीजों की कमी न पड़े जिनका निर्यात किया जा रहा है;
2. निर्यात के लिये चीजों के खनन या निर्माण में पर्यावरणीय दृष्टि से टिकाऊ पद्धति का प्रयोग किया जाए;
3. जिन क्षेत्रों से ऐसे संसाधन निकाले जा रहे हैं वहाँ रहने वाले स्थानीय समुदायों के अधिकारों का सम्मान किया जाए; तथा
4. इन समुदायों को प्राथमिक लाभान्वितों की श्रेणी में रखा जाए।

वैश्वीकरण के दौर में निर्यात को बढ़ाने की झोंक में इन सारे सिद्धान्तों की जमकर अवहेलना की गई है। खनन की तरह समुद्री मछुवाही भी एक मुख्य लक्ष्य रही है। 1990-91 में समुद्री उत्पादों का निर्यात 1,39,419 टन था जो 2008-09 में 6,02,835 टन हो गया था। जहाँ पहले हम महज दर्जन भर देशों को थोड़े से उत्पाद भेजा करते थे वहीं अब हम 90 देशों को लगभग 475 तरह की चीजों का निर्यात करते हैं। दुनिया भर में मात्रा और मूल्य, दोनों लिहाज से भारत दूसरा सबसे बड़ा मच्छी खेती उत्पादक देश बन गया है। यह सुनने में तो अच्छा लगता है, मगर इसकी कीमत?

एक अध्ययन से पता चला है कि आन्ध्र प्रदेश व तमिलनाडु में झींगा खेती की सामाजिक एवं पर्यावरणीय लागत उसकी आर्थिक आमदनी से 3.5 गुना ज्यादा बैठ रही है (सालाना नुकसान : 6,728 करोड़ रुपये; सालाना आय 1,778 करोड़ रुपये)। जैसे-जैसे नए-नए इलाके झींगा खेती के लिये तब्दील होते जाते हैं वैसे-वैसे स्थानीय समुदायों के आहार का मुख्य हिस्सा - स्थानीय मछलियाँ, जैसे मुलेट (मुगीलीदाई) और पर्ल स्पॉट (एट्रोलस सुराटेंसिस) - खत्म होता जाता है। 2008 में समुद्र से पकड़ी गई मछलियों की तादाद 30 लाख टन तक पहुँच गई थी और तटवर्ती पानी में (गहरे समुद्र में नहीं) अतिदोहन के लक्षण दिखाई देने लगे थे और कई प्रजातियों का अतिदोहन हो चुका था। दसवीं पंचवर्षीय योजना के मछुवाही कार्यबल की रिपोर्ट के अनुसार, ये समुद्र को ‘खुली पहुँच वाले क्षेत्र’ के रूप में इस्तेमाल करने का नतीजा है जहाँ परम्परागत मछुवाही समुदायों को कोई पट्टेदारी अधिकार नहीं दिए गए हैं। तकनीकी भी बदल चुकी है।

सरकर का दावा है कि नई नीतियों के तहत बड़े ऑपरेटरों को केवल गहरे समुद्र में ही मछली पकड़ने की इजाजत दी जाएगी जहाँ परम्परागत मछुवारे नहीं जाते। मगर अभी तक के अनुभव तो यही बताते हैं कि बड़े ट्रॉलर मालिक भी तट के आस-पास ही मछली पकड़ना ज्यादा सुगम और सस्ता मानते हैं। ऊपर से ये ट्रॉलर मछलियों के प्रजनन के मौसम में भी गैरकानूनी ढंग से मछलियाँ पकड़ने से बाज नहीं आते। इन्हीं कारणों से ट्रॉलर मालिकों और स्थानीय मछुवारों के बीच मारपीट की घटनाएँ आम हो गई हैं।

आयात उदारीकरण : कूड़ेदान बनता भारत


पिछले एक दशक के दौरान भारत औद्योगिक देशों से आने वाले खतरनाक और विषैले कचरे का एक बड़ा आयातक बन गया है। अब हम मोटा-मोटी 100 तरह का कचरा आयात करते हैं। इनमें से कुछ दर्जन चीजें बेहद खतरनाक हैं। धातु कचरे का आयात सालाना कई मिलियन टन तक पहुँच गया है। 1996-97 में कचरे की छीलन व पीवीसी (प्लास्टिक) कचरे का आयात लगभग 33 टन था जो 2008-09 में 12,224 टन तक जा पहुँचा था। प्लास्टिक कचरे का आयात 2003-04 में 1,01,313 टन था जो 2008-09 में 4,65,921 टन यानी चार गुने से भी ज्यादा हो चुका था। इस मामले में पेप्सिको और हिन्दुस्तान लीवर जैसे बड़े औद्योगिक घराने भी अक्सर अपराधी दिखाई देते हैं।

आयातित कचरे में एक बहुत बड़ा हिस्सा कम्प्यूटर और इलेक्ट्रॉनिक उद्योग का रहा है और यह लगातार बढ़ता जा रहा है। कचरे से सम्बन्धित मुद्दों पर काम करने वाली संस्था टॉक्सिक्स लिंक की एक जाँच के मुताबिक, दिल्ली के रीसाइक्लिंग कारखानों में लगभग 70 प्रतिशत ई-कचरा औद्योगिक देशों द्वारा भारत में भेजा गया था।

उपभोक्तावाद और कचरा


भारत में आडम्बरपूर्ण उपभोग की मौजूदा लहर देश के मुट्ठी भर अमीर तबके में विदेशी उपभोक्ता वस्तुओं की भूख से पैदा हुई है। अस्सी के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने आयात क्षेत्र को खोलना शुरू किया था लेकिन उपभोक्तावाद को सबसे बड़ा उछाल तभी मिला जब आर्थिक ‘सुधार’ शुरू किए गए।

विलासिता वस्तुओं या लग्जरी गुड्स के उत्पादन में जो भारी इजाफा हुआ है उससे पर्यावरणीय सन्तुलन पर गहरे असर पड़े हैं। इस प्रक्रिया में संसाधनों के खनन (खदानें, पेड़ों की कटाई) से उत्पादन (प्रदूषण, कामकाजी खतरे आदि) तक बहुत सारे दुष्परिणाम सामने आते हैं। दि एनर्जी रिसर्च इंस्टीट्यूट (टेरी) ने गैर-पुनर्नवीकरणीय पदार्थों (जैसे खनिज पदार्थ), औद्योगिक उपभोक्ता वस्तुओं (जिनमें रेफ्रिजरेटर और एयरकंडीशनर जैसे पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने वाले उत्पाद शामिल हैं), वाहनों आदि के इस्तेमाल में तेज इजाफे का अध्ययन किया है। ये सारे नुकसान सिर्फ जनसंख्या वृद्धि का परिणाम नहीं है बल्कि सम्भवतः बदलती जीवनशैली का परिणाम ज्यादा हैं। अब उपभोक्ताओं की पसन्द-नापसन्द भी बदल रही है। पहले गैर-डिब्बाबन्द वस्तुओं की माँग ज्यादा थी तो अब डिब्बाबन्द वस्तुओं की माँग बढ़ गई है। टेरी का अनुमान है कि 2047 तक डिब्बाबन्द या पैकेटों में आने वाली वस्तुओं की पैकिंग पर होने वाला कागज का उपभोग प्रतिवर्ष 13.5 किलोग्राम प्रति व्यक्ति तक पहुँच जाएगा जो 1997 में सालाना केवल 2.7 किलोग्राम था। इलेक्ट्रॉनिक कचरा केवल पिछले दो-ढाई दशकों की देन है। 2005 में 1,46,180 टन इलेक्ट्रॉनिक कचरा पैदा हो रहा था जो 2012 तक 8,00,000 टन तक जा पहुँचेगा।

प्लास्टिक पदार्थ हमारे लोगों की जिन्दगी में कितनी गहरी पैठ बना चुके हैं इसका महज दो दशक पहले तक उसका अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता था। 1991 से अब तक हमारी विभिन्न प्रकार के प्लास्टिक पदार्थों की उत्पादन क्षमता 10 लाख टन से बढ़कर 50 लाख टन से भी काफी ऊपर जा चुकी है। 2000-01 तक भारत 5,400 टन प्लास्टिक कचरा प्रतिदिन और लगभग 20 लाख टन प्रतिवर्ष पैदा कर रहा था (बाद के आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं)।

उपभोग असमानता


2007 में ग्रीनपीस इंडिया ने भारत में वायुमण्डलीय परिवर्तन के मुद्दों पर एक रिपोर्ट जारी की थी जिसमें बताया गया था कि भारत की आबादी का एक बहुत छोटा हिस्सा बेहिसाब कार्बन उत्सर्जन पैदा कर रहा है। अब तक यह बात इस हकीकत के पीछे छिपी हुई थी कि ज्यादातर भारतीय बहुत कम मात्रा में कार्बन उत्सर्जन पैदा कर रहे थे और इसकी वजह से औसत कार्बन उत्सर्जन काफी कम था। इस रिपोर्ट में पाया गया कि देश के सबसे अमीर लोग (ऐसे लेग जिनकी आमदनी 30,000 रुपये प्रतिमाह से ज्यादा है) सबसे निर्धन तबके (जिनकी आमदनी 3000 रुपये प्रतिमाह से कम है और जिनकी संख्या देश की आधी से ज्यादा आबादी बैठती है) के मुकाबले 4.5 गुना ज्यादा कार्बन उत्सर्जन पैदा कर रहे थे। 8000 रुपये माहवार से ज्यादा कमाने वाले 15 करोड़ भारतीय पहले ही 2.5 टन प्रति व्यक्ति की वार्षिक वैश्विक सीमा से ऊपर जा चुके हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि अगर हम वायुमण्डल में तापमान वृद्धि को 2 डिग्री से नीचे रोकना चाहते हैं तो हमें प्रति व्यक्ति उत्सर्जन स्तर को इससे ऊपर नहीं जाने देना चाहिए। सामान्य बत्तियाँ, पंखे और टेलीविजन सभी वर्गों में आम हैं (हालाँकि इनका भी अमीर ही ज्यादा इस्तेमाल करते हैं) लेकिन कई उपकरण - एयर कंडीशनर, बिजली के गीजर, वॉशिंग मशीन, बिजली या इलेक्ट्रॉनिक किचन उपकरण, डीवीडी प्लेयर्स, कम्प्यूटर आदि - ऐसे हैं जो मुख्य रूप से केवल अमीर परिवारों में ही दिखाई पड़ते हैं। दूसरी बात, जीवाश्म ईंधनों का इस्तेमाल करने वाले यातायात साधनों, जिनमें गैस से चलने वाले कारें और हवाई जहाज भी शामिल हैं, के इस्तेमाल में भारी इजाफा भी अमीरों की उपभोग प्रवृत्ति की ही विशेषता है।

आर्थिक वैश्वीकरण : पर्यावरण पर प्रभावकार्बन उत्सर्जन तो उपभोग असमानता का सिर्फ एक संकेतक है। अगर हम उन सारे उत्पादों और सेवाओं को भी जोड़ लें जो सबसे अमीर वर्गों के लोग इस्तेमाल करते हैं और ये देखें कि वे कितना कचरा पैदा करते हैं तो उनके व्यवहार का पर्यावरणीय प्रभाव सबसे निर्धन तबकों के पर्यावरणीय प्रभाव के मुकाबले और भी ज्यादा भयानक दिखाई पड़ेगा।

आन्तरिक उदारीकरण : खुला खेल फर्रूखाबादी


दुनिया के तमाम औद्योगिक देशों में औद्योगिक व विकास परियोजनाओं से सम्बन्धित पर्यावरण मानक व नियंत्रण सख्त होते जा रहे हैं क्योंकि परियोजना प्राधिकरण और कॉरपोरेट घराने अपने दम पर पर्यावरणीय एवं सामाजिक उत्तरदायित्व का पालन करने में नाकाम रहे हैं। भारत में यही प्रक्रिया उलटी दिशा में चल रही है।

1994 में पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986 के अन्तर्गत एक अधिसूचना जारी की गई थी। इसके माध्यम से यह अनिवार्य किया गया था कि कुछ खास किस्म की परियोजनाओं के लिये पर्यावरण प्रभाव आकलन (ईआईए) अनिवार्य होगा। हालाँकि यह अधिसूचना भी काफी कमजोर थी और विभिन्न प्रकार की क्रियान्वयन विफलताओं का शिकार रही है लेकिन इसमें विकास नियोजन के लिये पर्यावरणीय संवेदनशीलता के प्रति एक हद तक प्रतिबद्धता जरूर दिखायी गई थी। हमारे उद्योगपति, नेता और बहुत सारे विकास अर्थशास्त्री इसे सिर्फ एक सिरदर्दी ही मानते रहे। लिहाजा भारत सरकार द्वारा बनाई गई एक समिति ने दलील दी कि इस पर्यावरणीय रुकावट पर अंकुश लगाया जाए और विश्व बैंक के पैसे से किये गये एक पर्यावरणीय आकलन में भी इस नियम तथा दूसरे प्रावधानों में सुधार (यानी उनको शिथिल करने) का सुझाव दिया गया। इस तरह, 2006 में गैर-सरकारी संस्थओं के तमाम विरोध के बावजूद सरकार ने इस अधिसूचना को बदल दिया और औद्योगिक व विकास परियोजनाओं के लिये पर्यावरणीय मंजूरी लेना बेहद आसान बना दिया जबकि अनिवार्य जनसुनवाइयों के प्रावधान को कमजोर कर दिया।

इस अधिसूचना में पर्यटन उद्योग को भी ऐसी परियोजनाओं की सूची से बाहर निकाल दिया गया जिनको पर्यावरणीय मंजूरी की जरूरत है जबकि बहुत सारे स्थानों पर यह उद्योग पूरी तरह बेलगाम साबित हो चुका है।

इन बदलावों (तथा इस अध्याय में उल्लिखित दूसरे बदलावों) का कुल नतीजा ये रहा है कि बहुत सारी परियोजनाएँ बड़ी आसानी से पर्यावरणीय मंजूरी पा लेती हैं। इसके चलते केन्द्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के लिये आवेदनों की जाँच करना या उनके प्रभावों पर नजर रखना भी असम्भव हो गया है। 2009 तक पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की निगरानी में 6,000 से ज्यादा परियोजनाएँ थी और इस काम के लिये केवल 20 कर्मचारी थे। गौरतलब है कि पर्यावरणीय मंजूरी पा चुकी परियोजनाओं की 3-4 साल में केवल एक बार जाँच की जाती है।

नदी क्षेत्र को तहस-नहस करती लोअर सुबांसिरी हाइड्रो परियोजना, अरुणाचल प्रदेशपर्यावरणीय नियमन पर वैश्वीकरण के प्रभावों को सबसे स्पष्ट रूप से तब समझा जा सकता है जब हम ये देखते हैं कि किस तरह वन संरक्षण अधिनियम, 1980 (जिसके तहत वन भूमि के गैर-वन प्रयोग सम्बन्धी सारे प्रस्तावों पर केन्द्र सरकार की अनुमति का प्रावधान किया गया था) वन सफाया अधिनियम बन चुका है। जैसा कि खनन परियोजनाओं के सम्बन्ध में पीछे जिक्र किया गया था, वैश्वीकरण के दौर में जंगलों के सफाये में बहुत ज्यादा तेजी आयी है। 1980-81 के बाद जितने जंगल काटे गए हैं उनमें से लगभग आधे 2001-02 के बाद ही कटे हैं।

1991 में तटीय नियमन क्षेत्र (कोस्टल) रेग्यूलेशन जोन या सीआरजेड) अधिसूचना को पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986 के तहत ऐसी गतिविधियों पर नजर रखने के लिये जारी किया गया था जो प्राकृतिक क्षेत्रों और आजीविकाओं के लिये नुकसानदेह हो सकती हैं। हालाँकि ये अधिसूचना मुकम्मल नहीं मानी जा सकती और ज्यादातर राज्य सरकारों द्वारा इसे अनमने ढंग से ही लागू किया गया है, फिर भी, इस अधिसूचना से बहुत सारे तटीय क्षेत्रों और वहाँ रहने वाले मछुवारों की आजीविकाओं को बचाने में मदद मिली है। यह अधिसूचना भी औद्योगिक और व्यावसायिक लॉबियों की आँख की किरकिरी बननी ही थी और लिहाजा उन्होंने सरकार पर दबाव डालकर मूल अधिसूचना में लगभग 20 बिन्दुओं पर रियायतें हासिल कर ही लीं। फलस्वरूप, 2005-06 में सरकार ने अधिसूचना को भी सिरे से बदलने का मन बना लिया और एक ऐसी व्यवस्था सुझायी जिसमें राज्य सरकारें ये तय कर सकती हैं कि तटों के आस-पास विभिन्न क्षेत्रों में किन चीजों को मंजूरी दी जा सकती है और किन चीजों को मंजूरी नहीं दी जा सकती। नागर समाज संगठन और मछुवाही समुदाय (नेशनल फिशवर्क्स फोरम जैसे नेटवर्कों के जरिए) ने इस प्रस्ताव की बहुत तीखी आलोचना की है क्योंकि यह व्यावसायिक और औद्योगिक स्वार्थों के सामने पूरी तरह घुटने टेक देने का उदाहरण है।

वैश्वीकरण के युग में पर्यटन को जबर्दस्त बढ़ावा मिला है। घरेलू पर्यटकों की संख्या 1996 में 14 करोड़ थी जो 2007 में बढ़कर 52.7 करोड़ तक पहुँच चुकी थी। इसी दौरान विदेशी सैलानियों की संख्या भी 22.9 लाख से बढ़कर 50.8 लाख तक पहुँच गई थी। पहले भारत के कई इलाके सैर-सपाटे के लिये प्रतिबन्धित थे लेकिन अब उन्हें भी सैलानियों के लिये खोल दिया गया है। इनमें लद्दाख, अंडमान व निकोबार द्वीप समूह, लक्षद्वीप और बहुत सारे उत्तर-पूर्वी क्षेत्र शामिल थे जो पर्यावरणीय, सांस्कृतिक एवं रक्षा सम्बन्धी दृष्टि से बहुत संवेदनशील इलाके हैं। जिन इलाकों में वैश्वीकरण के पहले से ही सैर-सपाटे की खुली छूट थी वे बेलगाम पर्यटन गतिविधियों के बोझ से चरमराते जा रहे हैं। पर्यटन उद्योग द्वारा कानूनों की अवहेलना के सैकड़ों मामले सामने आ चुके हैं। उदाहरण के लिये, तटों पर बनने वाले पर्यटन रिजॉर्ट्स द्वारा सीआरजेड अधिसूचना की अवहेलना (केवल केरल में स्थित कोवलम बीच इलाके में ही इस अधिसूचना के उल्लंघन की 1500 से ज्यादा घटनाएँ प्रकाश में आ चुकी हैं)। कान्हा, बांधवगढ़, कार्बेट, पेरियार, रणथंभौर, बंदीपुर और नागरहोले जैसे बाघ संरक्षण क्षेत्र (टाइगर रिजर्व) एवं अन्य संरक्षित क्षेत्र रिजॉर्ट्स से घिर चुके हैं। ये रिजॉर्ट्स इन अभ्यारण्यों के कार्मिक बल और सुविधाओं पर बेहिसाब दबाव पैदा करते हैं, पर्यटन के दुष्परिणामों को रोकने के लिये बनाए गए नियमों की धज्जियाँ उड़ाते हैं और अभ्यारण्यों के रख-रखाव में कोई योगदान नहीं देते।

भारत के मध्य में स्थित विशाल भूभाग - जहाँ देश के सर्वाधिक संवेदनशील जनजतीय समुदाय और बढ़िया जंगल स्थित हैं - को खनन, इस्पात उद्योग व अन्य उद्योगों के लिये औद्योगिक घरानों को सौंपा जा रहा है। क्योंकि आदिवासी प्रतिरोध और तथाकथित नक्सल अथवा माओवादी संगठनों की पकड़ के कारण इनमें से कोई भी योजना साकार नहीं हो पा रही है इसलिये राज्य सरकारें नक्सलवाद से लड़ने के नाम पर आदिवासियों को ही एक-दूसरे के खिलाफ लड़वाने लगी हैं। सलवा जुडूम (शान्तिपूर्ण शिकार) नामक इस मुहिम ने गृह युद्ध जैसी स्थिति पैदा कर दी है जिसमें सैकड़ों गाँवों को या तो जबरन खाली करवा दिया गया है या लोगों को खदेड़ दिया गया है। केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय की एक उच्चस्तरीय समिति ने अपनी ड्राफ्ट रिपोर्ट में बताया था कि एस्सार और टाटा जैसे विशाल औद्योगिक घराने “कोलम्बस के बाद से अब तक आदिवासी जमीनों पर हो रहे सबसे बड़े कैंजे की मुहिम में सबसे आगे हैं।” अन्तिम रिपोर्ट से इस वाक्यांश और विशेष औद्योगिक घरानों के नाम, दोनों बातों को हटा दिया गया था। इसी बीच फेडरेशन ऑफ इंडियन चेम्बर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (फिक्की) द्वारा 2009 में जारी की गई ‘राष्ट्रीय सुरक्षा और आतंकवाद’ नामक रिपोर्ट में मध्य भारत को कम्पनियों द्वारा दोहन के लिये खोलने की वकालत की गई है।

इसमें कहा गया है कि “विशाल खनिज भंडारों वाले इलाकों में फैल रहा माओवादी उग्रवाद जल्दी ही कई औद्योगिक निवेश योजनाओं को अस्त-व्यस्त कर सकता है। ...जब भारत को अपनी औद्योगिक मशीनरी को और तेज करना था और जब विदेशी कम्पनियाँ भी इस जश्न में शरीक होने आ रही हैं तभी नक्सलवादी गुट खनन और स्टील कम्पनियों के साथ दो-दो हाथ करने पर आमादा है जबकि ये कम्पनियाँ भारत की दीर्घकालिक प्रगति के लिये बहुत आवश्यक है। ...इस चिन्ता के पीछे एक वजह ये है कि औद्योगिक जगत तथा नक्सलवादियों के प्रभुत्व वाले जंगल एक-दूसरे के नजदीक आते जा रहे हैं...। भारत के समृद्ध शहरी उपभोक्ता ऑटो, उपकरण और मकान खरीद रहे हैं तथा वे देश की सड़कों, पुलों और रेलमार्गों में सुधार चाहते हैं। भारतीय मेन्यूफेक्चरिंग को आगे बढ़ाने और उपभोक्ताओं को संतोष देने के लिये देश को रिकॉर्ड मात्रा में सीमेंट, स्टील और बिजली की जरूरत है...। इस राष्ट्रीय चुनौती से निपटने के लिये एक अनुकूल सामाजिक व आर्थिक वातावरण की आवश्यकता है। इसके बावजूद नक्सलवादियों से टकराव जारी है...। भारत के लौह अयस्क भंडारों का 23 प्रतिशत और कोयले के विशाल भंडार नक्सलवादी गतिविधियों का केन्द्र बन चुके छत्तीसगढ़ में ही स्थित है। राज्य सरकार ने टाटा स्टील और आरसेलर मित्तल (एमपी), डी बीयर्स कंसॉलिडेटेड माइन्स, बीएचपी बिलिटन (बीएचपी) और रियो टिंटो (आरटीपी) के साथ अरबों डॉलर के समझौतों पर दस्तखत किये हैं। इसी तरह के सौदे दूसरी राज्य सरकारें भी कर चुकी हैं। इसके अलावा कैटरपिलर (सीएटी) जैसी अमेरिकी कम्पनियाँ भी पूर्वी भारत में सक्रिय खनन कम्पनियों को अपने औजार बेचना चाहती हैं।”

गैर-टिकाऊपन की तरफ अन्धी दौड़?


पिछले कुछ दशकों के दौरान हमने अपने पर्यावरण के साथ जैसा बर्ताव किया है, उसी की वजह से पर्यावरणवादी और सामाजिक कार्यकर्ता आगाह करने लगे हैं कि हम ‘विकास’ के जिस रास्ते पर बढ़ रहे हैं वह टिकाऊ रास्ता नहीं है। प्रेक्षणों और अनुभवों पर आधारित इस निष्कर्ष की ग्लोबल फुटप्रिंट नेटवर्क (जीएफएन) तथा कन्फेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्रीज (सीआईआई) द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट में भी पुष्टि हो चुकी है। 2008 में जारी किए गए इस वक्तव्य में कहा गया है कि :

1. अमेरिका और चीन के बाद दुनिया में तीसरे सबसे बड़े पर्यावरणीय पदचिन्ह (प्रभाव) भारत के ही हैं;
2. भारत में जितने प्राकृतिक संसाधनों की क्षमता है उसके मुकाबले वह लगभग दोगुना प्राकृतिक संसाधनों की खपत कर रहा है (यानी ‘जैव क्षमता’ का दोगुना);
3. पिछले चार दशकों के दौरान मनुष्य के उपभोग को बर्दाश्त करने की प्रकृति की क्षमता भारत में लगभग आधी ही रह गई है।

नब्बे के दशक के आखिर में किये गये एक अध्ययन में टेरी ने ये निष्कर्ष दिया था कि भारत की पर्यावरण लागतें कृषि उत्पादन में गिरावट, जंगलों के सफाये के कारण लकड़ी के मूल्य में गिरावट, जल व वायु प्रदूषण के कारण पैदा हो रही स्वास्थ्य लागतों तथा क्षीण होते जा रहे जल संसाधनों की वजह से पैदा हो रही पर्यावरण लागतें जीडीपी के 10 प्रतिशत से भी ऊपर जा चुकी है। इसके अलावा मिट्टी की उपजाऊ क्षमता में गिरावट के कारण भी सालाना 11 से 26 प्रतिशत तक कृषि उपज का नुकसान हो रहा है।

भारत के ऊर्जा परिदृश्य पर तैयार की गई एक रिपोर्ट में कुछ सकारात्मक विश्लेषण दिखाई देता है : भारतीय अर्थव्यवस्था में निम्न कार्बन वृद्धि के कुछ बहुत शक्तिशाली पहलू दिखाई देते हैं जिनके चलते इसकी व्यापक ऊर्जा एवं CO2 सघनता चीन से कम तथा अमेरिका के बराबर है। इसके बावजूद, रिपोर्ट का निष्कर्ष यही है कि : इन सकारात्मक लक्षणों के बावजूद भारत टिकाऊ विकास की दिशा में किसी बढ़िया रास्ते पर कतई नहीं चल रहा है, यहाँ विकास बहुत असमतल रहा है, बहुत बड़ी आबादी पीछे छूटती जा रही है; और अकुशल कोयला प्रौद्योगिकी व खस्ता वितरण प्रणाली पर आश्रित ऊर्जा क्षेत्र के कार्बन सघनता दुनिया में अभी भी सबसे ऊपरी पायदान पर आती है।

वायुमण्डलीय परिवर्तन का प्रभाव और प्रतिक्रिया


पर्यावरण के प्रति पूँजीवादी भारत के रवैये का एक उदाहरणअस्सी के दशक में जब दक्षिण के देशों पर आर्थिक वैश्वीकरण थोपा जाने लगा था, तभी से ऐसे उत्सर्जनों में सबसे भारी इजाफा हुआ है जो धरती का तापमान बढ़ा रहे हैं और वायुमण्डलीय परिवर्तन के लिये जिम्मेदार है। फलस्वरूप, आने वाले समय में भारत को कई तरह के दुष्परिणामों का सामना करना पड़ेगा। बाइसवीं शताब्दी की शुरुआत तक समुद्री जलस्तर में एक मीटर तक का इजाफा हो चुका होगा जो लगभग 5,764 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल को पानी की चपेट में ले लेगा। इससे 70 लाख से ज्यादा लोग विस्थापित होंगे। कुल वर्षा में तो इजाफा होगा लेकिन बहुत सारे इलाकों में बारिश के दिनों और मात्रा में गिरावट आ जाएगी जिससे ऐसे सूखे और बाढ़ की स्थितियाँ पैदा होंगी जो हमने आज तक कभी नहीं देखी है। इसके अलावा, तापमान में वृद्धि के कारण अनाज उत्पादन में भी गिरावट आ जाएगी (कुछ फसलों में 20 प्रतिशत तक की गिरावट)। समुद्री पानी के तापमान में आने वाले बदलावों से समुद्री की उत्पादकता पर असर पड़ेगा। समृद्ध मूँगा (कोरल) इलाके मरने लगेंगे और मछलियों की आवाजाही के रुझानों में बदलाव आ जाएँगे जिससे मछुवारों का जीना दूभर हो जाएगा।

बेशक वैश्विक धरातल पर भारत सरकार उत्तर के देशों से जवाबदेही और पहलकदमी की माँग करती रही है और ये एक जायज बात है लेकिन उसकी अपनी घरेलू नीतियाँ अभी भी बेहद कमजोर और फिसलन भरी दिखाई देती हैं। 2009 में भारत सरकार ने वायुमण्डलीय बदलाव की राष्ट्रीय कार्ययोजना (एनएपीसीसी) जारी की थी। इसमें सौर ऊर्जा पर जोर तथा उपयुक्त मिशनों का गठन करके ऊर्जा कुशलता का बन्दोबस्त करने जैसे कुछ सकारात्मक तत्व सुझाए गए हैं। लेकिन इसमें गम्भीर अवधारणात्मक और क्रियान्वयन सम्बन्धी समस्याएँ भी हैं (मसलन, सौर ऊर्जा पर तो जोर दिया गया है मगर दूसरी पुनर्नवीकरणीय ऊर्जाओं पर कोई ध्यान नहीं है, विकेन्द्रीकृत ऊर्जा उत्पादन पर जोर नहीं दिया गया है और ऊर्जा कुशलता में कई कड़ियाँ गायब है)। बहुत सारे दूसरे पहलू (जैसे टिकाऊ कृषि और पानी सम्बन्धी मिशन) अभी भी थकी हुई, बीते जमाने की रणनीतियों में खोए हुए हैं जिनमें कोई साहसिक, नए तरह की सोच दिखाई नहीं देती। पानी मिशन अभी भी बड़े बाँधों पर ही निर्भर है और उनकी भारी पर्यावरणीय एवं सामाजिक लागतों को लगातार नजरअन्दाज किया जा रहा है। खेती में रासायनिक उर्वरकों (जो भारत में लगभग 6 प्रतिशत वायुमण्डलीय उत्सर्जनों के लिये जिम्मेदार हैं) से जैविक खादों की तरफ कोई उल्लेखनीय बदलाव दिखाई नहीं दे रहा है (यह मिशन अभी भी केवल तैयारी के चरण में है)। इस आशय की असमानताओं का कोई जिक्र नहीं है कि भारत की आबादी के विभिन्न तबकों ने कितना वायुमण्डलीय क्षेत्र घेरा हुआ है और महाधनी तबका किस तरह के भद्दे उपभोक्तावादी आचरण में डूबा हुआ है। एनएपीसीसी का मसविदा तैयार किया जा चुका है और अलग-अलग मिशनों की मार्फत इसमें संशोधन भी हो रहे हैं लेकिन एकाध मिशन को छोड़कर न तो इसमें जनता की राय ली जा रही है और न ही किसी तरह की पारदर्शिता है।

विविध संकट : भोजन, पानी, आजीविका


भारत की आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा बहुत गम्भीर संकटों – खाद्य असुरक्षा, पानी की कमी, अपर्याप्त ईंधन तथा असुरक्षित आजीविका – से जूझ रहा है। ये सारे संकट वैश्वीकरण के मौजूदा चरण से पहले भी मौजूद थे और विकास के आधुनिक रूपों के आने से पहले भी उनकी आहट सुनाई पड़ने लगी थी लेकिन मौजूदा विकास और वैश्वीकरण को इन्हीं संकटों का इलाज बताकर तो लागू किया गया था। परन्तु इलाज तो दूर की बात रही, इस इलाज ने तो इन संकटों को और बढ़ा दिया है और बहुत सारे इलाकों व समुदायों में इन्होंने विकराल रूप ले लिया है।

पहले खाद्य असुरक्षा पर बात करें। हर रोज भूखे पेट सोने वाली आबादी का प्रतिशत 1990 के दशक में 24 प्रतिशत से गिरकर 2004-06 में 22 प्रतिशत रह गया था। ये बहुत मामूली गिरावट है। इसके साथ यह भी तथ्य है कि दुनिया में सबसे ज्यादा कुपोषित और भूखे लोग भारत में ही है। खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) के मुताबिक 2004-06 के दौरान यह संख्या 25.1 करोड़ यानी देश की आबादी का लगभग एक चौथाई थी। अभी भी हमारे पास काफी मात्रा में अन्न है, भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) के भण्डारों में अभी भी अनाज भरा है। इसके बावजूद हर चौथा हिन्दुस्तानी भूखे पेट सोने को मजबूर है। हमारे यहाँ एक तबका ऐसा है जो अनाज खरीद ही नहीं सकता और सरकार की कल्याण योजनाएँ उस तक नहीं पहुँच पातीं। इक्कीसवीं सदी में खाद्य पदार्थों की कीमतों में चौंकाने वाले इजाफे से ये स्थिति और खराब हो गई है। जैसे-जैसे करोड़ों लोग प्राकृतिक संसाधनों तथा कृषि आधारित आजीविकाओं से वंचित होते जा रहे हैं और बाजार अर्थव्यवस्था पर आश्रित होते जा रहे हैं वैसे-वैसे भोजन केवल नकदी के जरिए ही उपलब्ध होने लगा है जो कि ऐसे लोगों के लिये एक बहुत दुर्लभ संसाधन है। परम्परागत अनाज (जैसे ज्वार) और दलहन अथवा जंगलों व जलाशयों और नदियों से मिलने वाले जंगली व अर्धजंगली आहार आदि परम्परागत पोषण स्रोतों की उपलब्धता में गिरावट आई है और उनकी कीमतें भी गरीबों की पहुँच से बाहर चली गई हैं (मसलन नब्बे के दशक की शुरुआत से दलहन की प्रति व्यक्ति उपलब्धता में 26 प्रतिशत गिरावट आ चुकी है)।

जल असुरक्षा भी उतनी ही गम्भीर है। ग्रामीण और शहरी इलाकों के करोड़ों लोगों के लिये पीने क पर्याप्त पानी जुटाना एक दैनिक संघर्ष बना हुआ है। जलाशयों, नदियों व भूमिगत जलस्रोतों का कुप्रबन्धन, वर्षाजल को खींचने वाले कैचमेंट क्षेत्रों का क्षरण, बार-बार आने वाले सूखे, शहरों में आबादी की तेज वृद्धि, सतही और भूमिगत स्रोतों का प्रदूषण इसके सबसे प्रमुख कारण है। नीतियों की विफलता (जल संरक्षण व प्रबन्धन) तथा जल संसाधनों पर शक्तिशाली कम्पनियों व अमीर तबके का कैंजा इन समस्याओं की एक बड़ी जड़ में है (उदाहरण के लिये, देश के बहुत सारे भागों में स्थित कोका कोला के बॉटलिंग संयंत्रों ने स्थानीय समुदायों को सुरक्षित भूमिगत पानी से वंचित कर दिया है)।

भूमिगत पानी का संकट खासतौर से चिन्ता का विषय है। खेती और औद्योगिक व शहरी जरूरतों के लिये इसका दोहन देश के बहुत सारे भागों में इतने ऊँचे स्तर पर पहुँच गया है कि जमीनी जलस्रोत बहुत तेजी से गिरते जा रहे हैं। ग्रामीण भारत में आधे से ज्यादा भूमिगत जलखंडों में पानी की भरपाई उतनी तेजी से नहीं हो पा रही है जितनी तेजी से पानी निकाला जा रहा है। संसद में पूछे गए एक सवाल के जवाब में सरकार ने बताया है कि देश के एक तिहाई जिलों में भूमिगत पानी पीने लायक नहीं है क्योंकि उसमें लोहा, फ्लोराइड, आर्सेनिक और खारापन बहुत ज्यादा है।

भारत में पानी का कुल प्रयोग (लगभग 750 अरब घन मीटर अभी भी उपलब्ध मात्रा (लगभग 1869 अरब घन मीटर) से कम ही है लेकिन 2025 के बाद यह कभी भी उपलब्ध स्तर को पार कर जाएगा और 2050 तक बहुत ऊँचे स्तर पर जा पहुँचेगा। यह स्थिति तब है जब हम सिर्फ मानवीय प्रयोग की बात करें। अगर हम प्राकृतिक इलाकों और दूसरी अन्य प्रजातियों के लिये भी पानी के तमाम इस्तेमालों के बारे में सोचें तो दरअसल हम पहले ही संकट में फँस चुके हैं।

और अन्त में आजीविका या रोजगार का संकट है। जैसे-जैसे प्रकृति का विखंडन और जल/जमीन का क्षरण तेज होता जाता है अथवा प्राकृतिक संसाधनों पर परम्परागत समुदायों की पहुँच घटती जाती है वैसे-वैसे वे समुदाय बेरोजगार होने लगते हैं जो पहले स्वरोजगारयुक्त (किसान, शिकारी-संग्राहक, मछुवारे, चरवाहे, दस्तकार आदि) हुआ करते थे। अभी तक ऐसे आजीविका और रोजगारों का कितना नुकसान हुआ है, इस बारे में कोई व्यापक अनुमान उपलब्ध नहीं है। यह अपने आप में इस बात का संकेत है कि इस मुद्दे की कितनी अनदेखी होती रही है।

सबसे बुरा असर घुमन्तू समुदायों पर पड़ा है। उनके मौसमी आवागमन के रास्ते अस्त-व्यस्त हो गए हैं, उनकी जीवन शैली व संस्कृतियाँ संकट में हैं या उनकी अवमानना हो रही है और नाना प्रभावों के चलते उनके अपने बच्चे उनसे छिटकते जा रहे हैं। राष्ट्रीय मानविकी सर्वेक्षण संस्थान (एंथ्रोपोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया) का अनुमान है कि भारत में कम-से-कम 276 गैर-चरवाहा घुमन्तू व्यवसाय हैं (शिकारी-संग्राहक और बहेलिये, मछुवारे, दस्तकार, बाजीगर और कथावाचक, ओझा आध्यात्मिक व धार्मिक कलाकार, सौदागर आदि)। इनमें से ज्यादातर खतरे में हैं। कुछ पहले ही खत्म हो चुके हैं या खत्म होते जा रहे हैं और इन व्यवसायों से जो लोग विस्थापित हुए हैं वे या तो असंगठित क्षेत्र में असुरक्षित, अपमानजनक, कम आमदनी वाली और शोषण भरी नौकरियाँ करने लगे हैं या बेरोजगार हो गए हैं। देश के तकरीबन चार करोड़ चरवाहा घुमन्तुओं में से ज्यादातर की भी कुछ ऐसी ही स्थिति है।

क्या पर्यावरण का राष्ट्रीय नियोजन में समावेश किया गया है?


आइए अभी एक बार फिर मनमोहन सिंह की उसी दलील पर लौटें जिसका हमने पीछे जिक्र किया था। जो नष्ट हो चुका है (जैसे लाखों हेक्टेयर प्राकृतिक वन जो बाँधों में डूब चुके हैं या खनन तथा उद्योगों के लिये साफ कर दिए गए हैं) उसको बहाल किया जा सकता है या नहीं, इस बुनियादी मसले के अलावा ये सवाल भी पूछा जा सकता है कि वैश्वीकृत ‘विकास’ ने जो समस्याएँ पैदा की हैं, क्या उनके अनुपात में पर्यावरण की हिफाजत के लिये उपलब्ध पैसे में भी इजाफा हुआ है या नहीं? क्या पर्यावरण हमारी नियोजन प्रक्रिया का एक केन्द्रीय अंग बन पाया है?

आर्थिक वैश्वीकरण : पर्यावरण पर प्रभाव पर्यावरण एवं वन मंत्रालय को केन्द्र सरकार से मिलने वाला पैसा नब्बे के दशक की शुरुआत से लगातार बढ़ा है (1995-96 में 370 करोड़ रुपये और 2009-10 में 1500 करोड़ रुपये)। इसके बावजूद कुल बजट में इसका हिस्सा 1 प्रतिशत से काफी नीचे ही रहा है। बजट में उसका हिस्सा 2004-05 के बाद लगातार नीचे गिरता गया है और 2009-10 में तो ये 0.36 प्रतिशत था जो कि अभी तक कुल बजट का सबसे कम हिस्सा था। गौरतलब है कि इसी दौरान (1995-96 से 2009-10) कुल बजट पाँच गुना बढ़ चुका है जबकि पर्यावरण एवं वन मंत्रालय का बजट सिर्फ चार गुना बढ़ा है। बजट में गैर-परम्परागत ऊर्जा स्रोतों जैसे दूसरे सम्बन्धित क्षेत्रों का हिस्सा भी कोई खास नहीं बढाया गया है।

भारत सरकार द्वारा कराए जाने वाले सालाना आर्थिक सर्वेक्षण में अर्थव्यवस्था के मुख्य रुझानों की समीक्षा की जाती है और आने वाले साल की एक मोटा-मोटी तस्वीर पेश की जाती है। नब्बे की दशक की शुरुआत से ही सर्वेक्षण में पर्यावरण पर एक खंड रहा है लेकिन वास्तव में यह केवल एक महत्त्वहीन हिस्सा होता है। 200 पन्ने की रिपोर्ट में इसे महज एक या दो पन्ने नसीब होते हैं। यद्यपि इसमें भी जंगल, जमीन और पानी तथा प्रदूषण के सवाल पर दयनीय तस्वीर ही दिखाई देती है, लेकिन इसे साल के मुख्य आर्थिक घटनाक्रमों से जोड़कर कभी नहीं देखा जाता है। उदाहरण के लिये, सर्वेक्षण के लेखक इस बात का विश्लेषण नहीं करते कि इन घटनाक्रमों का प्रभाव प्रकृति व पर्यावरण के लिये हानिकारक था या लाभदायक था। न ही भावी आर्थिक विकास के लिये पर्यावरणीय विखंडन के दुष्परिणामों की जाँच की जाती है।

‘टिकाऊ विकास’ के लक्ष्यों की बार-बार होने वाली घोषणाओं के बावजूद ये आंकने के लिये कोई कसौटी या संकेतक नहीं है कि हम इस लक्ष्य की तरफ कितना आगे बढ़ पाए हैं?

क्या वैश्वीकरण से पर्यावरण को कतई लाभ नहीं हुआ है?


निश्चय ही वैश्वीकरण से कई पर्यावरणीय लाभ भी मिले हैं! पुनर्नवीकरणीय ऊर्जा, प्रदूषण नियंत्रण व कुशलता के क्षेत्र में नई-नई तकनीकें सामने आई हैं; इलेक्ट्रॉनिक्स तथा संचार साधनों के प्रसार से सूचनाओं व विचारों का तेज आदान-प्रदान सम्भव हुआ है और बड़ी कम्पनियाँ पर्यावरणीय दृष्टि से सुरक्षित तकनीकों के लिये ज्यादा संसाधन जुटा सकती हैं।

फिर भी इस आशय का कोई संकेत दिखाई नहीं देता कि वैश्वीकरण के ये लाभ इसके नुकसानों के बराबर हैं। अभी तक जो भी संकेत मिल रहे हैं - मात्रात्मक या गुणात्मक - वे सभी देश भर में बढ़ती पर्यावरणीय अस्थिरता और करोड़ों लोगों के लिये बढ़ती पर्यावरणीय असुरक्षा की ही कहानी कह रहे हैं। ज्यादा से ज्यादा ये माना जा सकता है कि नई तकनीकियाँ पर्यावरणीय ध्वंस को कुछ समय के लिये पीछे धकेल देंगी और हमें नए हालात की तरफ बढ़ने, एक बिल्कुल अलग तरह के समाज में पहुँचने के लिये थोड़ा ज्यादा समय मिल जाएगा। लेकिन इस तरह का समाज कैसा होगा? आर्थिक वैश्वीकरण का क्या विकल्प है?

 

भारत में वैश्वीकरण प्रभाव और विकल्प

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।)

1

भारत में वैश्वीकरण प्रभाव -  पर्यावरण, समाज और अर्थव्यवस्था (Impact of Globalisation in India - Environment, Society and Economy)

2

आर्थिक वैश्वीकरण : पर्यावरण पर प्रभाव

3

विकल्पों की तलाश : मूलभूत पर्यावरणीय लोकतंत्र

 

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