आर्थिक-सामाजिक उत्थान के स्वयंसेवी प्रयास

आपसी मेलजोल और सामूहिक प्रयासों से हम न केवल अपनी समस्याएँ हल कर सकते हैं, बल्कि विकास को भी गति दे सकते हैं। ऐसे प्रयासों में महिला भागीदारी की अहम भूमिका है।प्रधानमन्त्री, वित्तमन्त्री, रिजर्व बैंक के गवर्नर तथा फिक्की, सीआईआई व एसोचैम जैसे औद्योगिक एवं व्यापारिक संगठन अक्सर देश की वृद्धि दर और जीडीपी के बारे में अपने अनुमान पेश करते हैं। सरकार और बड़े-बड़े व्यापारिक संगठनों की इन गतिविधियों से ऐसा आभास होता है कि देश के विकास और आर्थिक समृद्धि की गाड़ी इन्हीं के जोर लगाने से चल रही है। हमारा मीडिया भी इन्हीं वर्गों के आसपास मण्डराता है और देश के अलग-अलग भागों में व्यक्तियों और कुछ समूहों के उन प्रयासों को बहुत कम उजागर करता है जो विकास के लिए सरकार पर निर्भर रहने की सामान्य प्रवृत्ति से मुक्त होकर आपस में मिलकर स्थानीय स्तर पर कार्य प्रारम्भ करते हैं और अपने इलाके का कायापलट करने तथा वहाँ के लोगों का जीवन बेहतर बनाने में कामयाब होते हैं।

ये व्यक्ति और स्वयंसेवी संस्थाएँ शिक्षा, पेयजल, वृक्षारोपण, पर्यावरण, कृषि उत्पादन, सिंचाई, महिला सशक्तीकरण और असहाय व उपेक्षित वर्गों के पुनर्वास जैसे क्षेत्रों में क्रान्तिकारी परिवर्तन ला रहे हैं और देश के विकास में भी महत्वपूर्ण योगदान कर रहे हैं। इनमें से कुछ संगठन अपने बूते पर तो कुछ सरकारी एजेंसियों के सहयोग से अपने लक्ष्य प्राप्त कर रहे हैं। ऐसे प्रयासों से ही गुजरात और राजस्थान के सैंकड़ों गाँव सूखे की नियति से मुक्त होकर सिंचित क्षेत्र में बदल चुके हैं। उत्तरांचल और उड़ीसा में ग्रामवासियों ने वनों की रक्षा के लिए क्षेत्रीय और राज्य स्तर पर संगठन खड़े किए हैं। असम में ‘ग्रीन फॉरेस्ट कंजर्वेशन’ और ‘नेचर्स फोस्टर’ नाम के स्वयंसेवी संगठनों ने वनों तथा वन्य प्राणियों के संरक्षण एवं सुरक्षा के लिए स्थानीय स्तर पर समितियाँ गठित की हैं जिससे राज्य के वन क्षेत्र की रक्षा का काम आगे बढ़ रहा है। हम यहाँ ऐसे ही प्रयासों की बानगी प्रस्तुत कर रहे हैं जिनसे सन्देश मिलता है कि सरकारी कार्रवाई की आस में हाथ पर हाथ धरे बैठने के बजाय ‘अपना हाथ जगन्नाथ’ का रास्ता अपनाना बेहतर है।

उत्तर प्रदेश के बान्दा जिले में स्वयंसेवी संस्था बीआरसी ने कूड़ा बीनने, भैंस चराने जैसे छोटे-मोटे काम करके परिवार की मदद करने वाले बच्चों को शिक्षा देने का बीड़ा उठाया है। इस संस्था के कार्यकर्ताओं ने आसपास के गाँवों के करीब 60 बच्चों को पढ़ने-लिखने के लिए तैयार किया और इसके लिए एक ब्रिज कोर्स चलाया। ये कार्यकर्ता इन बच्चों के माँ-बाप से मिले और शिक्षा की उपयोगिता समझा कर उन्हें पढ़ाई के लिए भेजने को तैयार किया। 9 से 12 साल के ये बच्चे न केवल पढ़ना-लिखना सीखते हैं बल्कि एक साथ खाते-पीते, उठते-बैठते और खेलते हैं जिससे उनमें अच्छे गुणों का भी विकास होता है। इस तरह एक स्वयंसेवी संस्था के प्रयासों से जीवन की अनन्त सम्भावनाओं से बेखबर इन बच्चों को समाज की मुख्यधारा से जुड़ने और अच्छा नागरिक बनने में मदद मिल रही है।

उधर आन्ध्र प्रदेश में एक स्वयंसेवी संगठन डक्कन डेवलपमेण्ट सोसायटी ने महिला किसानों के जीवन में नयी आशा जगाने का अद्भुत काम किया है। इस संगठन ने मेडक जिले के 75 गाँवों में 5,000 एकड़ बंजर जमीन को उपजाऊ बनाकर रोजगार के अवसरों में उल्लेखनीय वृद्धि कर दी है। उदाहरण के लिए जहीराबाद इलाके में पहले साल में 200 दिन का औसत रोजगार उपलब्ध था, जो अब 300 दिन तक पहुँच गया है। संगठन ने कई स्थानों पर महिला संघम गठित किए हैं जिन्होंने 1,000 एकड़ से अधिक भूमि में पेड़ लगाकर न केवल पर्यावरण को समृद्ध बनाया है बल्कि कई महिलाओं के लिए रोजगार भी उपलब्ध कराया है। पिछले 5-6 वर्षों से डक्कन डेवलपमेण्ट सोसायटी से सम्बद्ध महिला किसान प्रति वर्ष 10 से 15 क्विण्टल जैव-खाद भी तैयार कर रही हैं। जिन महीनों में खेती-बाड़ी का काम कम होता है, उन महीनों में इन गतिविधियों में रोजगार मिलने से क्षेत्र में खुशहाली बढ़ी है। कृषि उत्पादन बढ़ाने के एक और उपाय के रूप में सोसायटी ने गाँवों में बीज बैंक खोले हैं। बीजों की बिक्री से महिलाएँ मुनाफा भी कमाती हैं। इन गतिविधियों से आसपास के अन्य गाँवों में भी चेतना पैदा हो रही है।

एक उद्यमी किसान हरिमोहन बिस्वास हैं जिन्होंने कुछ वर्ष पहले पश्चिम बंगाल के अपने प्रवास के दौरान अपने एक रिश्तेदार को फूलों की खेती करते देखा जिससे उन्हें भी प्रेरणा मिली और उन्होंने अपने गाँव में यही प्रयोग करने का निर्णय लिया। उन्होंने असम आकर फूलों की खेती पर कई पुस्तकें पढ़ीं और कृषि विशेषज्ञों की राय ली। स्थानीय लोगों के असहयोग के बावजूद बिस्वास ने अपने निश्चय को व्यावहारिक रूप दिया और पहले साल ही उन्हें अच्छा मुनाफा हुआ।पूर्वोत्तर राज्य असम में कृषि उत्पाद के क्षेत्र में एक गाँव की उपलब्धियाँ चर्चा का विषय बनी हुई हैं। गुवाहाटी से करीब 300 किलोमीटर दूर कुसुम्बिल गाँव के लोगों ने बोडो उपद्रवियों की धमकियों और आतंक के भय के बीच फूलों की खेती शुरू करके अपनी और गाँव की खुशहाली बढ़ाने में सफलता प्राप्त की है। यहाँ के लोगों ने चावल की खेती छोड़कर फूलों की खेती करने का फैसला किया और उनकी आमदनी कई गुना बढ़ गई। इस कायापलट के सूत्रधार एक उद्यमी किसान हरिमोहन बिस्वास हैं जिन्होंने कुछ वर्ष पहले पश्चिम बंगाल के अपने प्रवास के दौरान अपने एक रिश्तेदार को फूलों की खेती करते देखा जिससे उन्हें भी प्रेरणा मिली और उन्होंने अपने गाँव में यही प्रयोग करने का निर्णय लिया। उन्होंने असम आकर फूलों की खेती पर कई पुस्तकें पढ़ीं और कृषि विशेषज्ञों की राय ली। स्थानीय लोगों के असहयोग के बावजूद बिस्वास ने अपने निश्चय को व्यावहारिक रूप दिया और पहले साल ही उन्हें अच्छा मुनाफा हुआ। इस समय कुसुम्बिल गाँव के एक तिहाई से भी अधिक परिवार 50 बीघे से ज्यादा भूमि पर फूलों की खेती कर रहे हैं। फूलों की बिक्री असम में ही हो जाती है। अब ये लोग पड़ोसी राज्यों के पुष्प व्यापारियों से भी बातचीत कर रहे हैं।

बिस्वास ने ‘रूपज्योति’ नाम से एक स्वयंसहायता समूह गठित किया है और एक बैंक से ऋण लेने की व्यवस्था की है। राज्य का बागवानी विभाग बिना सरकारी मदद से ऐसी सफलता प्राप्त करने के लिए कुसुम्बिल गाँव के लोगों से प्रभावित होकर उन्हें ऋण दिलाने में मदद करने को तैयार हो गया है। कहते हैं अच्छाई और सफलता संक्रामक होती है। तभी तो असम के अन्य गाँवों में भी सफलता के इन फूलों की खुशबू पहुँच रही है और वे भी कुसुम्बिल का अनुसरण करके खुशहाली लाने के सपने संजोने लगे हैं।

सपना देखने वाले संगठन हों या व्यक्तिव सच्चे प्रयास करके लोगों के जीवन को बदलने में सफल हो ही जाते हैं। स्वयंसेवी प्रयासों से मूक क्रान्ति लाने की यह यात्रा केवल ग्रामीण क्षेत्रों तक सीमित नहीं है। दिल्ली जैसे महानगर में भी विकास और सामाजिक न्याय की दिशा में उठाए गए कदमों की सफलता सुखद भविष्य की आशा जगाती है। बहुत कम लोग जानते हैं कि राजधानी में बिजली की तरह जल वितरण के भी निजीकरण की योजना बनाई गई थी। जल जैसी बुनियादी आवश्यकता निजी कम्पनियों की झोली में चले जाने से शुरू होने वाली मुनाफाखोरी की होड़ में गरीबों की उपेक्षा होने की आशंका ने अनेक संवेदनशील व्यक्तियों और संगठनों को चिन्तित कर दिया।

‘परिवर्तन’ नाम के स्वयंसेवी संगठन के नेतृत्व में पानी की उपलब्धता को सर्वसुलभ बनाने की माँग को लेकर संघर्ष करने वाले कार्यकर्ताओं ने दिल्ली जल बोर्ड तथा विश्व बैंक की इस योजना का वर्ष 2000 से 2006 तक लगातार विरोध किया। ‘परिवर्तन’ ने वर्ष भर सातों दिन चौबीस घण्टे पानी की आपूर्ति के दावों के खिलाफ विस्तृत आँकड़े और दस्तावेज पेश करके यह सिद्ध किया कि निजी कम्पनियाँ पानी की दरें इतनी ऊँची रखेंगी कि गरीब परिवार प्यासे मरने को मजबूर हो जाएँगे। अन्ततः दिल्ली जल बोर्ड को जल आपूर्ति के निजीकरण की अपनी योजना चुपचाप वापस लेनी पड़ी।

इसी तरह महाराष्ट्र में पुणे में भी जल सप्लाई के निजीकरण की 700 करोड़ रुपए की योजना जन विरोध के कारण रद्द करनी पड़ी। सांगली-मिराज, कोयम्बटूर, बंगलुरु और मुम्बई में भी पानी की आपूर्ति के निजीकरण की योजनाएँ जन आक्रोश तथा स्वयंसेवी संगठनों के विरोध के चलते रद्द करनी पड़ीं। एक इंजीनियर श्रीपद धर्माधिकारी अपने गैर-सरकारी संगठन ‘मंथन अध्ययन केन्द्र’ के माध्यम से पिछले 20 वर्षों से पेयजल सम्बन्धी समस्याओं का अध्ययन करने में लगे हैं। उनका कहना है कि 'निजी कम्पनियों का मकसद मुनाफा कमाना होता है और उनके हाथ में जल क्षेत्र चले जाने से अनेक लोगों को पानी से वंचित हो जाना लाजिमी है।'

जनहित से जुड़ी समस्याओं के समाधान में ‘सूचना का अधिकार’ कानून भी काफी कारगर सिद्ध हो रहा है। दिल्ली की अनपढ़ महिलाओं ने इस लोकतान्त्रिक हथियार का इस्तेमाल करके दिल्ली नगर निगम के अधिकारियों को घुटने टेकने को मजबूर कर दिया। यमुना पार क्षेत्र की कुछ झुग्गी-झोंपड़ी कॉलोनियों की महिलाओं ने सूचना के अधिकार के अन्तर्गत कॉलोनियों में शौचालय बन्द हो जाने तथा वहाँ के निवासियों के पास अन्त्योदय कार्ड न होने के लिए सरकार से जवाब माँगा। उन्होंने अपने आवेदन में स्वच्छता व पेयजल की अपर्याप्त व्यवस्था के बारे में जानकारी माँगी। यही नहीं, उन्होंने एक कदम आगे बढ़कर अपने इलाके में गन्दगी की वीडियो फिल्म बनाई और उसे उपराज्यपाल श्री तेजेन्द्र खन्ना को दिखाया। दिल्ली नगर निगम ने न केवल उनकी शिकायतें सुनीं बल्कि उन पर तुरन्त कार्रवाई की जिससे इन कॉलोनियों के निवासियों को अन्त्योदय कार्ड मिल गए और सफाई व्यवस्था में सुधार हुआ।

कैदियों के जीवन में सार्थकता लाने और उन्हें आर्थिक दृष्टि से स्वावलम्बी बनाकर उनमें आत्मगौरव का भाव जगाने का उल्लेखनीय प्रयोग राजधानी की तिहाड़ जेल में किया जा रहा है। जेल में हुनरमन्द कैदियों को उनके खाली समय के सकारात्मक उपयोग के जरिये आमदनी का जरिया उपलब्ध कराने के लिए आम उपयोग की वस्तुओं का उत्पादन किया जाता है।कैदियों के जीवन में सार्थकता लाने और उन्हें आर्थिक दृष्टि से स्वावलम्बी बनाकर उनमें आत्मगौरव का भाव जगाने का उल्लेखनीय प्रयोग राजधानी की तिहाड़ जेल में किया जा रहा है। जेल में हुनरमन्द कैदियों को उनके खाली समय के सकारात्मक उपयोग के जरिये आमदनी का जरिया उपलब्ध कराने के लिए आम उपयोग की वस्तुओं का उत्पादन किया जाता है। यहाँ बनी वस्तुएँ टी.जे. (तिहाड़ जेल) ब्राण्ड से मशहूर हैं। इस उद्यम को ‘फैक्टरी’ नाम दिया गया है। कुछ कैदी उत्पादन कार्य का निरीक्षण करते हैं तो कुछ मशीनों के रख-रखाव की जिम्मेदारी सम्भालते हैं। कैदियों को उनके ज्ञान, अनुभव और काबलियत के हिसाब से काम सौंपा जाता है। यहाँ पर स्कूलों, अस्पतालों तथा इसी तरह की सरकारी संस्थाओं और कार्यालयों के लिए फर्नीचर जैसे मेज, कुर्सी, स्टूल, अलमारियाँ आदि तैयार होती हैं। इसके अलावा ‘फैक्टरी’ में प्रति दिन करीब 1,250 पैकेट ब्रेड, 350 किलो चिप्स, 500 किलो नमकीन, 900 किलो सरसों का तेल तथा 100 किलो बिस्कुट बनते हैं। इनकी बिक्री मुख्यता सरकारी विभागों को की जाती है।

‘फैक्टरी’ में काम करने वालों को 1,400 रुपए वेतन मिलता है। इससे वे अपने मुकदमों की फीस दे सकते हैं और अपनी दैनिक जरूरतें पूरी कर सकते हैं। तिहाड़ जेल की फैक्टरी का कुल कारोबार वर्ष 2006-07 में साढ़े तीन करोड़ रुपए था जो 2007-08 में बढ़कर 6 करोड़ हो गया। जेल अधिकारियों ने जेल उत्पादों के लिए आईएसओ-9002 प्रमाणपत्र के लिए भी आवेदन किया है। फैक्टरी का महत्व केवल आर्थिक गतिविधियों तक सीमित नहीं है, इससे कैदी अपने जीवन की सार्थकता अनुभव कर रहे हैं और उनमें आत्मसम्मान का भाव फिर से उभर रहा है जिससे वे रिहाई के बाद भी स्वाभिमान के साथ समाज और परिवार में लौट सकेंगे। अपराध बोध से पीड़ित कैदियों को जीवन की सार्थकता का अहसास कराने के साथ-साथ उनकी खुशहाली बढ़ाने तथा देश के आर्थिक विकास में योगदान का यह अनूठा प्रयास सचमुच आह्लादकारी और उत्साहजनक है।

कैदियों की तरह वेश्याओं को आत्मसम्मान और इज्जत का एहसास कराने का अभिनव प्रयास किया है गोवा की स्वयंसेवी संस्था ‘अर्ज’ ने। गोवा के वास्को क्षेत्र में बैना बीच के रेडलाइट एरिया को 2004 में तोड़ दिया गया था, जिससे अनेक वेश्याएँ बेकार हो गईं। इनमें अधिकतर वेश्याएँ कर्नाटक और आन्ध्र प्रदेश की थीं, जिन्हें वेश्यावृत्ति के लिए गोवा लाया गया था। ‘अर्ज’ ने लगभग 50 वेश्याओं को इज्जत की रोटी देने के लिए ‘स्विफ्ट वाश’ नाम से एक लाँडरी शुरू की जिसमें ये औरतें कपड़ों की धुलाई करने के साथ-साथ वेश्यावृत्ति का सामाजिक कलंक भी धो रही हैं। वेश्याओं के आर्थिक और सामाजिक पुनर्वास का यह उद्यम जब शुरू किया गया तो स्थानीय लोगों की प्रतिक्रिया थी — 'अरे धन्धेवालियाँ क्या काम करेंगी। किन्तु धीरे-धीरे लोगों का नजरिया बदला है और वे इस लाँडरी से अपने कपड़े धुलाने लगे। एक स्वयंसेवी संस्था के इस सद्प्रयास का कितना बड़ा नैतिक फलितार्थ है, यह वहाँ काम करने वाली एक पूर्व वेश्या सलमा के इस कथन से प्रकट होता है — 'पहले मैं एक दिन में एक हजार रुपए कमा लेती थी और यहाँ मुझे महीने के अन्त में 2,000 रुपए मिलते हैं। लेकिन यह इज्जत की कमाई है और मैं आजाद हूँ।' एक स्वयंसेवी संस्था द्वारा बिना किसी सरकारी सहयोग के चलाए गए छोटे से उद्यम से 50 महिलाओं के जीवन में वसन्त आ गया है और विकास का पहिया भी आगे बढ़ा है।

विकलांगता हमारे देश का बहुत बड़ा अभिशाप है। आँकड़ों के अनुसार विश्व का हर छठा विकलांग व्यक्ति भारतीय है। इसका दुखद पहलू यह है कि इनमें से 75 प्रतिशत 18 से 25 वर्ष आयु वर्ग के हैं। इनमें से बहुत कम लोगों को शिक्षा, रोजगार आदि की सुविधाएँ नसीब हो पाती हैं। इनकी बदहाली का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि रोजगार में विकलांगों का हिस्सा केवल 0.4 प्रतिशत है। विकलांगों को शिक्षा और रोजगार उपलब्ध कराना एक राष्ट्रीय चुनौती है। इस काम में भी स्वयंसेवी संगठन और कुछ निजी कम्पनियाँ सक्रिय हैं। व्हील चेयर के सहारे चलने-फिरने वाली दिल्ली की स्मिनू जिन्दल ने अपने खुद के अनुभव से प्राप्त करुणा को सहायता में बदलने के लिए ‘स्वयं’ नाम की संस्था बनाई है। ‘स्वयं’ विकलांग व्यक्तियों के लिए बुनियादी सुविधाएँ जुटाने पर ध्यान केन्द्रित कर रही है। इसका कारण यह है कि हमारी इमारतें, सड़कें, गलियाँ आदि शारीरिक रूप से विकलांग लोगों के लिए सुविधाजनक नहीं हैं। स्मिनू जिन्दल इसके लिए सरकार का साथ दे रही है और उसका साथ ले भी रही है।

उपर्युक्त सभी उदाहरण इस तथ्य का स्पष्ट संकेत देते हैं कि समाज स्वयं ही मेल-जोल और सामूहिक प्रयासों से समस्याएँ हल कर सकता है और विकास को गति दे सकता है। इसके लिए सरकार और प्रशासन की ओर ताकते रहना आवश्यक नहीं है। यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि इन प्रयासों में महिलाओं की भागीदारी प्रशंसनीय है। यह सचमुच शुभ संकेत है। इससे जाहिर होता है कि महिला सशक्तीकरण काफी जोर पकड़ रहा है और औरतें समाज के निर्माण तथा राष्ट्र के विकास के प्रति पूरी तरह जागरूक हैं और उसमें बढ़-चढ़ कर हिस्सेदारी कर रही हैं।

(लेखक आकाशवाणी के समाचार निदेशक रह चुके हैं)
ई-मेल : setia_subhash@yahoo.co.in

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