अध्ययन के मुताबिक मौजूदा एजेंसियों को मजबूत बनाने से भी आर्सेनिक के कारण होने वाले नुकसान के प्रति लोगों में जागरूकता बढ़ाई जा सकती है और उनको आर्सेनिक-मुक्त पानी पीने के लिये ज्यादा से ज्यादा प्रेरित किया जा सकता है।वास्को-द-गामा (गोवा), 17 जुलाई, 2017 (इंडिया साइंस वायर): देश के कई हिस्से आर्सेनिक प्रदूषण के खतरे से जूझ रहे हैं और इस समस्या से निपटने के लिये वैज्ञानिक तकनीक एवं अन्य उपाय भी उपलब्ध हैं। इसके बावजूद यह समस्या जस की तस बनी हुई है। एक ताजा अध्ययन में इस स्थिति के लिये जिम्मेदार कारणों का पता लगाया गया है।
इस अध्ययन में उन कारकों का पता लगाया गया है, जिनके चलते लोग आर्सेनिक से बचाव के लिये विभिन्न तकनीकों के चयन के प्रति अलग-अलग धारणा रखते हैं। आर्सेनिक से प्रदूषित जल के खतरों से बचने के लिये ज्यादातर लोग नलकूप, ट्यूबवेल और वर्षा जल संचयन के बजाय आर्सेनिक फिल्टर और पाइपों के जरिये की जाने वाली जलापूर्ति पर ज्यादा भरोसा करते हैं।
इसके अलावा आर्सेनिक-मुक्त पानी उपलब्ध कराने में जुटी विभिन्न एजेंसियों के प्रति लोगों का विश्वास भी एक बहुत बड़ा कारण है। यही कारण है कि लोग आर्सेनिक फिल्टरों पर ज्यादा भरोसा करते हैं। जबकि पाइपों से जल आपूर्ति और नलकूप व ट्यूबवेल परियोजनाएँ कई बार व्यावहारिक तौर पर सफल नहीं हो पातीं। इसलिए लोगों का इन पर विश्वास पूरी तरह नहीं बन पाता। वहीं, वर्षाजल संचयन प्रणाली पूरी तरह से लोगों की जागरूकता एवं इच्छाशक्ति पर निर्भर करती है और ग्रामीण इलाकों में जागरूकता की कमी के कारण इसे बहुत अधिक सफलता नहीं मिल पाती है।
यह अध्ययन पटना के अत्यधिक आर्सेनिक प्रदूषित क्षेत्र मानेर में किया गया है। इसके नतीजे करंट साइंस शोध पत्रिका के ताजा अंक में प्रकाशित किए गए हैं। अध्ययनकर्ताओं की टीम में भारतीय वैज्ञानिक सुशांत के. सिंह के अलावा अमेरिका की मॉन्टेक्लेयर स्टेट यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक रॉबर्ट डब्ल्यू. टेलर और हेयान सु शामिल थे।
अक्सर यह देखा गया है कि नीति-निर्माताओं, शोधकर्ताओं और समुदायों के लिये यह सुनिश्चित कर पाना चुनौती होती है कि लोग आर्सेनिक मुक्त जल के लिये उपलब्ध तकनीकों का इस्तेमाल किस स्तर तक कर रहे हैं। वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि मौजूदा अध्ययन के दौरान लोगों की सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक पृष्ठभूमि के साथ-साथ प्रशासनिक जागरूकता और आर्सेनिक-मुक्त तकनीकों को चयन करने की उनकी वरीयता पर केंद्रित निष्कर्ष इस समस्या से निपटने में महत्त्वपूर्ण साबित हो सकते हैं।
अन्तरराष्ट्रीय मानकों के अनुसार जल में आर्सेनिक की मात्रा 0.01 मिलीग्राम प्रति लीटर से अधिक होने पर उसमें आर्सेनिक प्रदूषण का खतरा बढ़ जाता है। आर्सेनिक प्रदूषित जल के उपयोग से चर्म रोग, चर्म कैंसर, यकृत, फेफड़े, गुर्दे एवं रक्त विकार संबंधी रोगों के अलावा हाइपर केरोटोसिस, काला पांव, मायोकॉर्डियल, स्थानिक अरक्तता (इस्कैमिया) आदि होने का खतरा होता है।
अध्ययन के मुताबिक मौजूदा एजेंसियों को मजबूत बनाने से भी आर्सेनिक के कारण होने वाले नुकसान के प्रति लोगों में जागरूकता बढ़ाई जा सकती है और उनको आर्सेनिक-मुक्त पानी पीने के लिये ज्यादा से ज्यादा प्रेरित किया जा सकता है।
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