प्रकृति की सबसे खूबसूरत सौगात पर्यावरण का जिस प्रकार हमने अपनी जरूरतों की खातिर क्रूरता से दोहन किया है। उससे उत्पन्न हो रहे खतरों की फेहरिस्त बड़ी लंबी हो गई है। पर्यावरण पर इंसानी क्रूर प्रहार और दोहन की वजह से परिंदों का बसेरा भी अब छिन गया है। पक्षियों की कई खूबसूरत प्रजातियां अब नजर नहीं आती और पर्यावरण के दोहन से हमने उनके विलुप्त होने की बुनियाद रख दी है। जाहिर सी बात है शहरीकरण और कटते जंगल इसके जिम्मेदार कारकों में सबसे अहम है।
सवाल है कि सौ साल से भी कम समय में ऐसा क्यों हुआ कि केरल का समूचा क्षेत्र पंछियों के लिए बेगाना हो गया। पिछले काफी समय से प्रदूषण और जंगल कटने जैसे कई कारणों से आबोहवा की जो हालत हो चुकी है उसे सभी जानते हैं। आज इसे विकास का एक अनिवार्य परिणाम मान कर चला जा रहा है, पर यह विकास टिकाऊ नहीं है। इसलिए आज नहीं तो कल विकास की दिशा बदलने का निर्णय मनुष्य को करना ही होगा। जीव-जंतु प्रकृति की ताकत से ही जीवन पाते हैं। कुदरत के लगातार छीजते जाने का सबसे ज्यादा नुकसान जीव-जंतुओं को उठाना पड़ रहा है। इनमें भी परिंदों का संकट यह है कि ज्यादातर की शरीर संरचना बेहद नाजुक होती है और एक खास आबोहवा में ही वे सुरक्षित पलते-बढ़ते हैं।
मौसम या वातावरण में किसी भी तरह के बदलाव का सबसे पहला असर इन्हीं पर पड़ता है। सवाल है कि अपनी सुविधाओं में बेहिसाब इजाफा करने के मकसद से जिस तरह पेड़-पौधों या जंगलों को नष्ट किया जा रहा है, उसमें मनुष्येतर जीव-जंतु आखिर अपना ठिकाना कहां बनाएं? यह स्थिति तब है जब भारत सहित दुनिया भर में जैव-विविधता के लिए चिंता जताई जा रही है। अनेक अध्ययनों में ऐसे तथ्य सामने आ चुके हैं कि शहरीकरण की तेज रफ्तार और ऊंची इमारतें पक्षियों के लिए प्रतिकूल साबित हो रही हैं। खेत-खलिहान पक्षियों के भोजन के सबसे मुख्य स्रोतों में से एक हैं। मगर खेती में रसायनों और कीटनाशकों के अंधाधुंध इस्तेमाल ने उनसे जिंदा रहने के इस साधन को भी छीन लिया है। पेड़-पौधों पर कीटनाशकों के छिड़काव से पैदा होने वाले रोगों और मोबाइल टॉवरों से निकलने वाली तरंगों के असर के चलते अनेक प्रजातियों की प्रजनन क्षमता में कमी आई है।
बल्कि मोबाइल टॉवरों को पक्षियों के जीवन के लिए अब सबसे बड़े खतरे के रूप में देखा जाने लगा है। इसके अलावा, वनक्षेत्र के लगातार सिकुड़ते जाने से परिंदों के लिए घोंसलों की जगहें भी छिनती गई हैं। तेजी से पसरते कंक्रीट के जंगलों ने हमारे आसपास दिखने वाले कौवा, तोता, बगुला, तीतर, गौरैया और दूसरे कई पक्षियों को लगभग गायब कर दिया है। एक अनुमान के मुताबिक पिछले बीस सालों में पक्षियों की सैकड़ों प्रजातियां लगभग खत्म होने के कगार पर हैं। तो क्या हम एक ऐसे समाज की ओर बढ़ रहे हैं जिसमें मनुष्येतर जीवों के लिए जगह नहीं होगी? और क्या पारिस्थिति चक्र और जैव विविधता के विनाश का खमियाजा इंसानी समाज को नहीं भुगतना होगा?
खेत-खलिहान पक्षियों के भोजन के सबसे मुख्य स्रोतों में से एक हैं। मगर खेती में रसायनों और कीटनाशकों के अंधाधुंध इस्तेमाल ने उनसे जिंदा रहने के इस साधन को भी छीन लिया है। पेड़-पौधों पर कीटनाशकों के छिड़काव से पैदा होने वाले रोगों और मोबाइल टॉवरों से निकलने वाली तरंगों के असर के चलते अनेक प्रजातियों की प्रजनन क्षमता में कमी आई है। बल्कि मोबाइल टॉवरों को पक्षियों के जीवन के लिए अब सबसे बड़े खतरे के रूप में देखा जाने लगा है।
जैव विविधता पर लगातार बढ़ते संकट से न तो हमारी सरकारें अनजान हैं न समाज। पर इससे निपटने की कोई ठोस पहल नहीं दिखाई देती। नतीजतन, एक-एक करके कई जीव प्रजातियां दुर्लभ या लुप्तप्राय की श्रेणी में आती जा रही हैं। केरल के वन विभाग की एक ताजा रपट के मुताबिक राज्य में परिंदों के बहुत सारे आशियाने बुरी तरह तबाह हो चुके हैं और आज हालत यह है कि वहां कई प्रजातियों के पक्षियों का वजूद खतरे में है। यह देश का वही क्षेत्र है जहां लगभग अस्सी साल पहले मशहूर पक्षी वैज्ञानिक सलीम अली एक सर्वेक्षण के दौरान इस इलाके की प्राकृतिक खूबसूरती पर मुग्ध हो गए थे। उनके रोमांचित होने की एक वजह अलग-अलग प्रजातियों के पक्षियों की बड़े पैमाने पर मौजूदगी थी। यों भी, भारतीय उपमहाद्वीप में पक्षियों की हजारों प्रजातियां रही हैं। इसके अलावा, कुछ खास मौसम में दूर देशों से भी कई प्रकार के परिंदे चले आते हैं।सवाल है कि सौ साल से भी कम समय में ऐसा क्यों हुआ कि केरल का समूचा क्षेत्र पंछियों के लिए बेगाना हो गया। पिछले काफी समय से प्रदूषण और जंगल कटने जैसे कई कारणों से आबोहवा की जो हालत हो चुकी है उसे सभी जानते हैं। आज इसे विकास का एक अनिवार्य परिणाम मान कर चला जा रहा है, पर यह विकास टिकाऊ नहीं है। इसलिए आज नहीं तो कल विकास की दिशा बदलने का निर्णय मनुष्य को करना ही होगा। जीव-जंतु प्रकृति की ताकत से ही जीवन पाते हैं। कुदरत के लगातार छीजते जाने का सबसे ज्यादा नुकसान जीव-जंतुओं को उठाना पड़ रहा है। इनमें भी परिंदों का संकट यह है कि ज्यादातर की शरीर संरचना बेहद नाजुक होती है और एक खास आबोहवा में ही वे सुरक्षित पलते-बढ़ते हैं।
मौसम या वातावरण में किसी भी तरह के बदलाव का सबसे पहला असर इन्हीं पर पड़ता है। सवाल है कि अपनी सुविधाओं में बेहिसाब इजाफा करने के मकसद से जिस तरह पेड़-पौधों या जंगलों को नष्ट किया जा रहा है, उसमें मनुष्येतर जीव-जंतु आखिर अपना ठिकाना कहां बनाएं? यह स्थिति तब है जब भारत सहित दुनिया भर में जैव-विविधता के लिए चिंता जताई जा रही है। अनेक अध्ययनों में ऐसे तथ्य सामने आ चुके हैं कि शहरीकरण की तेज रफ्तार और ऊंची इमारतें पक्षियों के लिए प्रतिकूल साबित हो रही हैं। खेत-खलिहान पक्षियों के भोजन के सबसे मुख्य स्रोतों में से एक हैं। मगर खेती में रसायनों और कीटनाशकों के अंधाधुंध इस्तेमाल ने उनसे जिंदा रहने के इस साधन को भी छीन लिया है। पेड़-पौधों पर कीटनाशकों के छिड़काव से पैदा होने वाले रोगों और मोबाइल टॉवरों से निकलने वाली तरंगों के असर के चलते अनेक प्रजातियों की प्रजनन क्षमता में कमी आई है।
बल्कि मोबाइल टॉवरों को पक्षियों के जीवन के लिए अब सबसे बड़े खतरे के रूप में देखा जाने लगा है। इसके अलावा, वनक्षेत्र के लगातार सिकुड़ते जाने से परिंदों के लिए घोंसलों की जगहें भी छिनती गई हैं। तेजी से पसरते कंक्रीट के जंगलों ने हमारे आसपास दिखने वाले कौवा, तोता, बगुला, तीतर, गौरैया और दूसरे कई पक्षियों को लगभग गायब कर दिया है। एक अनुमान के मुताबिक पिछले बीस सालों में पक्षियों की सैकड़ों प्रजातियां लगभग खत्म होने के कगार पर हैं। तो क्या हम एक ऐसे समाज की ओर बढ़ रहे हैं जिसमें मनुष्येतर जीवों के लिए जगह नहीं होगी? और क्या पारिस्थिति चक्र और जैव विविधता के विनाश का खमियाजा इंसानी समाज को नहीं भुगतना होगा?
Path Alias
/articles/aphata-maen-paraindaon-kaa-jaivana
Post By: Hindi