इस साल बारिश के सभी पुराने रिकार्ड टूट गए हैं। राजस्थान व गुजरात के वे इलाके जो बूंद-बूंद पानी के लिए तरसते हैं, के बाशिंदे बाढ़ से जूझ चुके हैं।
जोधपुर और बाड़मेर के आसपास आषाढ़ में ही बादल खूब बरसे। फलस्वरूप जिस रेगिस्तान में दूर-दूर तक रेत के धोरे होते थे, वहां घनी हरियाली दिख रही है लेकिन यह हरियाली एक बड़ी विपदा को आमंत्रित कर रही है। माना जा रहा है कि राजस्थान, गुजरात और मध्यप्रदेश के तीन दर्जन जिलों में आने वाले महीनों में अफ्रीका से आने वाले टिड्डों का हमला हो सकता है। इस बार टिड्डियों का हमला पहाड़ की तरफ से हुआ है। जम्मू-कश्मीर में कारगिल के आसपास बड़े-बड़े टिड्डी दल आ पहुंचे हैं जो बलूचिस्तान, अफगानिस्तान के रास्ते आ रहे हैं। माना जा रहा है कि ये या तो कश्मीर से हिमाचल होते हुए चीन की तरफ जाएंगे या फिर राजस्थान का रास्ता पकड़ेंगे।
राजस्थान के बीकानेर, जैसलमेर, बाड़मेर और गुजरात के कच्छ इलाकों में हरियाली न के बराबर है। यहां किसी मीठे पानी के ताल के पास कुछ पेड़ दिखेंगे या यदा-कदा बबूल जैसी कंटीली झाडि़यां ही दिखती हैं लेकिन इस साल की धुंआधार बारिश ने रेगिस्तान के हर कोने को हरा-भरा बना दिया है। लूनी नदी लबालब है । लोग खुश हैं, लेकिन आशंकित भी क्योंकि खड़ी फसल को पलभर में चट करके लिए कुख्यात अफ्रीकी टिड्डे इस हरियाली की ओर आकर्षित हो रहे हैं।
सोमालिया जैसे उत्तर-पूर्वी अफ्रीकी देशों से ये टिड्डे यमन, सऊदी अरब और पाकिस्तान होते हुए भारत पहुंचते रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की चेतावनी है कि यदि ये कीट एक बार इलाके में घुस गए तो इनका प्रकोप कम से कम तीन साल जरूर रहेगा। 1959 में ऐसे टिड्डों के बड़े दल ने बीकानेर की तरफ से धावा बोला था, जिसने 1961-62 तक टीकमगढ़ (मध्यप्रदेश) में तबाही मचाई। 1967-68, 1991-92 में भी इनके हमले हो चुके हैं।
उक्त खबरों के मद्देनजर हाल में कश्मीर के मुख्यमंत्री ने करगिल में राज्य के अफसरों की मींटिंग बुलाकर इस समस्या ने निबटने के उपाय के निर्देश दिए हैं। फसल और पेड़-पौधों के ये दुश्मन वास्तव में मध्यम या बड़े आकार के वे साधारण टिड्डे (ग्रास हॉपर) हैं, जो यदा-कदा दिखाई देते हैं। जब ये छुटपुट संख्या में होते हैं तो सामान्य रहते हैं लेकिन प्रकृति का अनुकूल वातावरण पाकर इनकी संख्या में अप्रत्याशित बढ़ोतरी हो जाती है। रेगिस्तानी टिड्डे इनकी सबसे खतरनाक प्रजाति हैं। इनकी पहचान पीले रंग और विशाल झुंड के रूप में होती है। मादा टिड्डी का आकार नर से कुछ बड़ा होता हैं और यह पीछे से भारी होती हैं। तभी जहां नर टिड्डा एक सेकंड में 18 बार पंख फड्फड़ाता है, वहीं मादा की रफ्तार 16 बार होती है।
एक मादा हल्की नमी वाली रेतीली जमीन पर 40 से 120 अंडे देती है और इसे एक तरह के तरल पदार्थ से ढक देती है। कुछ देर में यह तरल सूख कर कड़ा हो जाता है और इस तरह यह अंडों के रक्षा कवच का काम करता हैं। सात से दस दिन में अंडे पक जाते हैं । बच्चा टिड्डा पांच बार रंग बदलता है। पूर्ण वयस्क होने पर इनका रंग पीला हो जाता है। इस तरह हर दो-तीन हफ्ते में टिड्डी दल हजारों गुना की गति से बढ़ता जाता है।
ये टिड्डी दल दिन में तेज धूप की रोशनी होने के कारण बहुधा आकाश में उड़ते रहते हैं और शाम ढलते ही पेड़-पौधों पर बैठकर उन्हें चट कर जाते हैं । अगली सुबह सूरज उगने से पहले ही ये आगे उड़ जाते हैं। जब आकाश में बादल हों तो ये कम उड़ते हैं, पर यह उनके प्रजनन का माकूल मौसम होता है। ताजा शोध से पता चला है कि जब अकेली टिड्डी एक विशेष अवस्था में पहुंच जाती है तो उससे एक गंधयुक्त रसायन निकलता है। इसी रासायनिक संदेश से टिड्डियां एकत्र होने लगती हैं और उनका घना झुंड बन जाता है। इस विशेष रसायन को नष्ट करने या उसके प्रभाव को रोकने की कोई युक्ति अभी तक नहीं खोजी जा सकी है।
रेगिस्तानी इलाकों में बढ़ती हरियाली को देखकर संभावित टिड्डी हमले के खौफ से उससे सटे जिलों के किसानों की नींद उड़ गई है। यदि टिड्डी दलों का हमला हो गया तो सरकारी अमला दौरा और चिंता जताने के अलावा कुछ नहीं कर पाएगा। कुछ जगहों पर कंट्रोल रूम बनाने की भी चर्चा भी है, लेकिन इनका कंट्रोल कागजों पर ही ज्यादा है। पिछले टिड्डी हमलों के दौरान राजस्थान व मध्यप्रदेश सरकार ने मेलाथियान और बीएचसी का छिड़काव करवाया था लेकिन दोनों ही असरहीन रहे थे। अब भी सरकारों को नहीं मालूम कि हमला होने पर कौन सा कीटनाशक काम में लाया जाएगा। टिड्डों के व्यवहार से अंदाज लगाया जा सकता है कि उनका प्रकोप आने वाले साल में जून-जुलाई तक चरम पर होगा। यदि राजस्थान और उससे सटी पाकिस्तान सीमा पर टिड्डी दलों के भीतर घुसते ही सघन हवाई छिड़काव किया जाए, साथ ही रेत के धोरों में अंडफली नष्ट करने का काम जनता के सहयोग से शुरू किया जाए तो स्थिति पर काफी हद तक नियंत्रण पाया जा सकता है।
खबर है कि अफ्रीकी देशों से एक किलोमीटर लंबाई तक के टिड्डी दल आगे बढ़ रहे हैं। सोमालिया जैसे देशों में आंतरिक संघर्ष और गरीबी के कारण सरकार इनसे बेखबर है। यमन या अरब में खेती होती नहीं हैं। जाहिर है कि इनसे निबटने के लिए भारत और पाकिस्तान को ही मिलजुल का सोचना पड़ेगा।
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