अपनी नदियों से हमारा नाता

गंगा और दूसरी नदियाँ मात्र पानी से भरी नदियाँ नहीं हैं। ये हमारी संस्कृति का प्रतीक हैं। भारतीय जनमानस की स्वच्छता और निर्मलता का प्रतीक हैं। लेकिन आज ये प्रतीक मानवीय लोभ के कारण दूषित होते जा रहे हैं। अगर हमें अपनी संस्कृति की रक्षा करनी है तो गंगा सहित अपनी तमाम नदियों को बचाना होगा।
.हमारा कालबोध राजाओं की जय-पराजय की गणना तक ही सीमित नहीं है। उसमें भारत के गौरवशाली समाज के साथ-साथ नदियों, पहाड़ों, पशु-पक्षियों सभी का समावेश रहा है। अपने भूगोल से हमारा आत्मीय सम्बन्ध ही हमें भारतभूमि को पुण्यभूमि के रूप में देखने के लिए प्रेरित करता रहा है। भारत के लोगों के लिए शौर्य की प्रतिमूर्ति सिंह है, इसी कारण शौर्य की साधना में लीन लोग अपने नाम के अन्त में सिंह जोड़ते रहे। मांगल्य का प्रतीक गाय रही है और इसी से उसके अवध्य होने की धारणा दृढ़मूल हुई इसी तरह शुचिता की, पवित्रता की प्रतिमूर्ति गंगा मानी गई। उसके महात्म्य को बताने के लिए यह तथ्य पर्याप्त है कि भारतवासियों के लिए सबसे बड़ी शपथ गंगा की शपथ ही है। उसे लेकर कोई अपने वचन से मुड़ नहीं सकता।

भारत की कोई गाथा उसकी नदियों के पुण्यधर्मी प्रवाह को भूलकर नहीं लिखी जा सकती। इसलिए हमारी संस्कृति को संजोने वाले सारे वेदों में उनकी महिमा विस्तार से वर्णित है। संसार के किसी और समाज ने अपने सामाजिक जीवन के प्रवाह को अपनी नदियों के प्रवाह से उस तरह जोड़कर नहीं देखा जिस तरह उसे भारत के लोगों ने देखा है। इसका एक सीधा कारण यह भी है कि भारत का पूरा भूगोल जिस तरह नदियों से ओत-प्रोत है उस तरह संसार के किसी और देश का नहीं। भारत की सभी दिशाओं में और सभी क्षेत्रों में सदानीरा नदियाँ रही हैं जो सतत लाई गई गाद-मिट्टी से पूरे भू-भाग को उर्वर और जलापूर्त करने का काम कर रही है।

भारत के मर्मस्थल उत्तरी क्षेत्र को तो गंगा और यमुना ने ही संसार का सबसे विस्तृत उर्वर क्षेत्र बनाया है। पूर्व में ब्रह्मपुत्र और महानदी-जैसी विशाल धाराएँ हैं, तो पश्चिम अपनी पाँच गौरवशाली नदियों के कारण ही पंचनद प्रदेश के रूप में विख्यात रहा है। मध्य प्रदेश से नर्मदा और सोन-जैसी नदियाँ निकलकर दूर तक के भू-भाग को सींचती रही हैं। दक्षिण तो गोदावरी, कृष्णा और कावेरी के कारण ही धन-धान्य से भरा रहा है। इन सबके बीच भी सैकड़ो ऐसी नदियाँ हैं जिन्होंने अपनी अमृतमयी धारा से गंगा की सहोदरा होने का गौरव प्राप्त किया है। क्या आप भगवान राम के जन्म से जल समाधि तक के उनके जीवन की साक्षी रही सरयू को भूल सकते हैं? क्या प्रत्येक बारह वर्ष बाद लाखों भारतीयों के समागम को कुम्भ के समय से देखती आई क्षिप्रा को अनदेखा किया जा सकता है? क्या अपनी अनन्त जलराशि से भगवान बुद्ध और महावरी के विहार क्षेत्र को आलोड़ित करती रही गंडक को किसी से कम आँका जा सकता है?

संसार की सबसे बड़ी सभ्यताओं के केन्द्र में एक या कुछ नदियाँ रही हैं। लेकिन भारत की नदियाँ तो पूरे शरीर में फैली रक्तवाहिनी शिराओं की तरह हैं। धुर मरूस्थल के अपवाद को छोड़ दें, तो क्या देश का कोई ऐसा भू-भाग आप ढूँढ सकते हैं जहाँ कोई छोटी-बड़ी नदी न हो ? इन नदियों का ही प्रताप है कि भारत में जितनी अन्न उपजाने वाली भूमि है, उतनी संसार में और कहीं नही है। अमेरिका, रूस या चीन का क्षेत्रफल भारत से कहीं अधिक है, लेकिन उनकी कृषि योग्य भूमि का आयतन इससे छोटा है। अगर दो-तीन शताब्दी पहले तक भारत संसार का सबसे अधिक सम्पन्न देश गिना जाता था तो अपनी इसी प्राकृतिक समृद्धि के कारण।

लेकिन पिछली एक शताब्दी की अंग्रेजी शिक्षा ने हमारे इस काल-बोध को क्षीण कर दिया है। इसका सबसे बुरा प्रभाव हमारी राजनीतिक बुद्धि पर पड़ा है। अंग्रेजों की विदाई के समय हमें केवल दिल्ली की राजगद्दी दिखाई दे रही थी। अपनी प्राणदायी नदियों से निर्मित चतुर्दिक भारत दिखाई नहीं दे रहा था। स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय हमें यह याद नहीं रहा कि भारत की सीमाएँ कुछ मुस्लिम नेताओं की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं से निर्धारित नही हो सकतीं। भारत की पश्चिमी सीमा उस सिन्धु को छोड़कर निर्धारित नहीं की जा सकती जिसने सदियों से हिन्दुस्तान के रूप में हमारी पहचान बनाई थी। हमारी पारम्परिक राजनीतिक बुद्धि में सीमान्त प्रदेशों का उतना ही महत्त्व था मर्म प्रदेश का। मर्म क्षेत्र की रक्षा सीमान्त को भूलकर सम्भव नहीं है। जिस सीमान्त को खोने के कारण हम पराधीन हुए थे, उसी को स्वाधीन होते समय हमने बिना विचारे छोड़ दिया।

अगर हमारी राजनीतिक बुद्धि में अंग्रेजी शिक्षा ने राज्य को प्रधानता देकर देश के भूगोल को उपेक्षणीय न बनाया होता, तो हमें यह भी याद रहता कि हमारी चार बड़ी नदियों का मूल जिस मानसरोवर में है उसके आधिपत्य को हम चीन द्वारा हड़पे जाते समय मूक देखते नहीं रह सकते। गंगा, ब्रह्मपुत्र और सिन्धु-जैसी महान नदियों का मूल अपने सहधर्मा तिब्बतियों से छीना जाता हम देखते रहे। कैलाश और मानसरोवर के प्रति हुए अपने इस अपराध का प्रायश्चित हम कब और कैसे करेंगे, हम नहीं जानते। यह अपराध तिब्बतियों के प्रति भी हुआ है। वे हमारे शरणागत हैं, उनके प्रदेश की रक्षा हमारा धर्म है - शायद हम यह भूल गए हैं कि भारत में शरणागत की रक्षा ही सबसे बड़ा क्षत्रिय धर्म माना जाता रहा है।

भारत के सर्वसाधारण जन तो आज भी अपने ही काल-बोध से परिचालित हैं। उनके लिए काल घड़ियों की सुइयों के बीच बीतता समय भर नहीं है। वह उनके शुभ-अशुभ की समझ का आधार है, उसी से वे अपने अहो-राज कर्तव्यों का निर्धारण करते हैं। उनके इन्हीं कर्तव्यों में एक है नदियों की निर्मलता से अपने जीवन को निर्मल-पवित्र बनाए रखने की प्रेरणा लेते रहना। नदियों की, जल मात्र की प्रतिनिधि गंगा है और सब नदियाँ, जलमात्र गंगा ही हैं। सर्वरूपमयी देवी सर्वदेवीमयम् जगत। हमारा साहित्य नदियों की स्तुतियों से भरा पड़ा है। हर नदी के स्तोत्र हैं जिनका गायन करते हुए नदी की आरती-पूजा करते रहने का विधान है। यह सृष्टि मात्र दिव्य है तो नदी कैसे नहीं होगी? इन्हें केवल भौतिक रूप में देखना तो पश्चिमी विज्ञान के अंधविश्वास की नकल है।

आज हमारा अपनी नदियों के प्रति यह कर्तव्य बाधित हो गया है। अब तक पूरा मथुरा नगर यमुना के जल से आचमन के बाद ही द्वारकाधीश के दर्शन करता था और उसके बाद ही उनके दैनंदिन के कार्य-व्यापार आरम्भ होते थे। आज मथुरा में यमुना है ही नहीं। उसे दिल्ली ने लील लिया है। जिस काल में केवल अधिकारों की छीन-झपट मची हो, उस काल में कर्तव्यों की चिन्ता कौन करे! देश भर के लोगों ने नदियों से जुड़े विधि-विधान को अपने कर्तव्यों से जोड़े रखा था। हमने जो राजनीतिक-औद्योगिक तन्त्र खड़ा किया है, उसमें इन कर्तव्यों की जगह है ही नहीं। अधिकांश नदियाँ अपनी यात्रा के दस-बीस कदम पर लील ले गई हैं और उसके बाद वे शहरों और उद्योगों की गन्दगी ढोने वाले नाले रह गई हैं। उनसे अपना जीवन हम कैसे पवित्र करें?

जनभावना के दबाव के कारण हमारा राजनीतिक तन्त्र कुछ समय से गंगा सफाई की बात कर रहा है। अब तक इस पर करोड़ों रूपये भी खर्च किए जा चुके हैं। नरेंद्र मोदी के प्रधानमन्त्री बनने के बाद इस उद्देश्य को कुछ और गम्भीरता मिली है। नई सरकार के ‘नमामि गंगा’ अभियान में पहले की अपेक्षा कुछ अधिक निष्ठा है। इस काम में उमा भारती को लगाना इसी निष्ठा का परिचायक है। लेकिन यह समूचा अभियान अभी तक तो लूला-लंगड़ा ही है। उसमें गंगा का बोध एक अकेली नदी के रूप में ही है। गंगा केवल नदी नहीं है, वह नदी मात्र की, जल मात्र की अधिष्ठात्री देवी है। उसकी पवित्रता का संकल्प भारत की सभी नदियों की पवित्रता का संकल्प बनाया जाना चाहिए था।

.‘नमामि गंगा’ केवल अभियोजना नहीं, एक राष्ट्रव्यापी अभियान बनना चाहिए। वह राष्ट्रव्यापी अभियान तभी बन सकता है जब उसमें देश की सभी नदियों को निर्मल करने का संकल्प हो। हर राज्य को अपने यहाँ की प्रमुख नदी को निर्मल करने की सार्थक योजना घोषित करनी चाहिए। इतना ही नहीं, हर जनपद में अपनी यहाँ की नदी-धारा को निर्मल बनाए रखने का संकल्प लिया जाना चाहिए। जब तक यह अभियान इस तरह देशव्यापी नहीं बनता और हर जनपद में इस संकल्प को व्यावहारिक रूप देने का प्रयत्न नहीं होता, तब तक हम इस अभियान में न सभी लोगों की भागीदारी करवा सकते हैं, न व्यक्तिगत और सांस्थानिक अनुशासन के लिए वह उत्साह पैदा कर सकते हैं जो निर्मल नदी और निर्मल जल के संकल्प को स्थायी बना सके।

आज भी देश में करोड़ों लोग कुछ नित्य और अन्य नैमित्तिक अवसरों पर नदी की शरण में जाते हैं। इस सुदीर्घ काल से चले आ रहे सम्बन्ध को एक और व्यावहारिक रूप दिया जा सकता है- कि समाज सजगतापूर्वक ऐसी नियमित चौकसी की व्यवस्था करे कि देश की कोई नदी, कोई जलाशय कहीं, कभी दूषित, संकटापन्न न हो पाए। यदि हमने समाज का यह संकल्प जगा दिया और इस संकल्प को व्यावहारिक रूप देने का सामर्थ्य उसे दे दिया तो अल्प साधनों, लेकिन अपार मानवी ऊर्जा से यह कार्य सिद्ध किया जा सकता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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