अपनी मुक्ति की राह देखती गंगा

नव उदार आर्थिक नीतियों और तंत्र के सहारे गंगा की सफाई की चाहे जितनी भी योजनाएं चलाई जाएंगी, उसका हश्र वैसा ही होगा जैसा कि राजीव गांधी द्वारा शुरू किए गए गंगा एक्शन प्लान का हुआ है। क्या वजह है कि सरकारी संजीदगी के बावजूद गंगा सफाई योजना सिरे से परवान नहीं चढ़ पा रही है? इसकी बड़ी वजह योजनाओं को ब्यूरोक्रेटिक अंदाज में लागू करने और आगे बढ़ाने की परिपाटी रही है। वहीं सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के गंगा सफाई वाले रोड मैप पर सवाल उठा दिया है कि इस रोड मैप पर काम हुआ तो गंगा को साफ होने में 200 साल से अधिक का वक्त लग जाएगा।

आम चुनावों के पहले चरण के अगले दिन यानी सात अप्रैल के दिन चुनाव घोषणा-पत्र जारी करते वक्त भारतीय जनता पार्टी ने गंगा सफाई पर जोर देने का वादा किया था। परंपरावादी दर्शन में चूंकि भाजपा का रुझान रहा है, लिहाजा ऐसी योजनाओं को भाजपा के हिंदुत्व की तरफ लौटने की कोशिश के तौर पर देखने और समझे जाने की परंपरा रही है। लेकिन गंगा का प्रदूषण आज जिस तरह राष्ट्रीय चिंता का विषय बना हुआ है, उससे गंगा सफाई को लेकर पार्टी के वायदे पर ना तो विपक्ष और ना ही प्रगतिवादी सेाच वाले मीडिया हलकों से सवाल उठे। ऐसे माहौल में जब नरेंद्र मोदी की अगुवाई में केंन्द्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनी तो गंगा सफाई को लेकर उम्मीदों का एक नया पहाड़ खड़ा होना शुरू हो गया।

जिस तरह गंगा सफाई के लिए अलग से मंत्रालय बनाया गया और कैबिनेट के वरिष्ठ मंत्री नितिन गडकरी की अगुवाई में गंगा सफाई योजना के लिए एक समन्वय तंत्र स्थापित किया गया, उससे लगा कि जो काम 1985 से शुरू होने के बाद भी अंजाम तक नहीं पहुंच पाया, वह कम-से-कम अब अपने अंजाम तक जरूर पहुंच जाएगा। लेकिन जिस तरह सुप्रीम कोर्ट ने सरकार की कार्ययोजना को खारिज कर दिया है, उससे लगता नहीं कि सरकार भी गंगा सफाई के मामले में उस स्तर की संजीदगी दिखा पा रही है, जैसी कि उम्मीदें की जा रही थीं।

सुप्रीम कोर्ट में गंगा की सफाई को लेकर मामला 1985 से ही चल रही है। लेकिन राजनीतिक माहौल का असर कहें या फिर न्यायपालिका की संजीदगी, अब सुप्रीम कोर्ट भी इस मामले को गंभीरता से लेने लगा है। सुप्रीम कोर्ट की नाराजगी मौजूदा सरकार के रवैये पर भी है। अदालत ने सरकार से गंगा सफाई पर पूरा एक्शन प्लान मांगा था। इसके तहत केन्द्र सरकार ने सोमवार 01 सितंबर 2014 को ही सुप्रीम कोर्ट में गंगा सफाई के लिए अपना खाका पेश किया था। इसमें सरकार ने कहा है कि पांच राज्यों में गंगा सफाई की 76 परियोजनाओं को मंजूरी दी जा चुकी है। जिन पर करीब पांच हजार करोड़ रुपये का खर्च आने की संभावना है।

सरकार के मुताबिक यह खर्च गंगा नदी के रास्ते में आने वाले चुनिंदा 48 शहरों में इस महती नदी को बचाने के लिए तीन स्तरों पर कार्य करने के लिए किया जाएगा। दिलचस्प यह है कि सुप्रीम कोर्ट के कड़े रुख के बाद राष्ट्रीय गंगा स्वच्छता मिशन के निदेशक की ओर से यह हलफनामा दाखिल किया गया।

इस मसले पर सरकारी रवैये से सुप्रीम कोर्ट कितना नाराज है, इसे इसी बात से समझा जा सकता है कि अदालत ने 13 अगस्त को केन्द्र सरकार से पूछा था कि आखिर क्यों पवित्र नदी के लिए तत्काल कदम नहीं उठाए जा रहे हैं? लेकिन सरकार की तरफ से जो रोड मैप पेश किया गया है, उसे ही अदालत ने अब खारिज कर दिया है और उल्टे सरकार की तरफ सवाल उछाल दिए गए हैं कि अगर इस रोडमैप के तहत काम हुआ तो गंगा को साफ होने में 200 साल से अधिक का वक्त लग जाएगा।

ऐसा नहीं कि गंगा सफाई के लिए पहली बार प्रयास किए जा रहे हैं। गंगा की गंदगी और प्रदूषण की तरफ पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी का ध्यान गया था और उन्होंने मैली गंगा की सफाई के लिए 1985 में ही गंगा एक्शन प्लान शुरू किया था। तब इस योजना के प्रति जागरूकता फैलाने को लेकर जोर-शोर से प्रचार अभियान तक शुरू किया गया। तब सिनेमा हॉलों में फिल्म शुरू होने के पहले सरकारी प्रचार वाली लघु फिल्में दिखाने का चलन था।

उन लघु फिल्मों को या तो राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम के सहयोग से बनाया जाता था या इन फिल्मों को दृश्य और प्रचार निदेशालय तैयार कराता था। तब गंगा की सफाई को लेकर भी कई फिल्में बनाई गईं, लेकिन देश की हजारों साल से सांस्कृतिक पहचान रही गंगा उल्टे और मैली होती गई। इन फिल्मों का कोई खास असर नहीं हो पाया। कह सकते हैं कि आस्था भारी पड़ गई। यह अकेले गंगा की बात नहीं बल्कि यमुना नदी का हाल भी कमोबेश ऐसा ही है। यमुना एक्शन प्लान इसका गवाह है।

मौजूदा सरकार संसद में बात ही चुकी है कि गंगा सफाई पर अब तक कुल 986.34 करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं। इसके बाद 2009 में ‘गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण’ बनाया गया और इसके तहत गंगा को प्रदूषण मुक्त बनाने पर गंगा नदी से गुजरने वाले पांचों राज्यों और केन्द्र सरकार की तरफ से 1229.87 करोड़ रुपये जारी किए गए। जिसमें केन्द्र ने 921.52 करोड़ रुपए और राज्य सरकारों ने 317.35 करोड़ रुपये दिए।

गंगासरकार के मुताबिक इसके तहत शुरू हुई परियोजनाओं को लागू करने के लिए मार्च 2014 तक 838.76 करोड़ रुपए खर्च किए जा चुके हैं। जिसके तहत 589.93 एमएलडी की शोधन क्षमता तैयार की जानी है। जिनमें से अब तक 110.50 एमएलडी तैयार हो चुके हैं। ऐसे में तो गंगा को साफ नजर आना चाहिए था। लेकिन हकीकत में अब तक कुछ ऐसा होता नजर नहीं आ रहा है। ऐसे ही हालात पर विचार करते वक्त वाराणसी के संकट मोचन मंदिर के महंत वीरभद्र मिश्र याद आते हैं। मिश्र अब इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन तब से लेकर अपने आखिरी दौर तक वाराणसी से वे जब भी दिल्ली आते, गंगा सफाई अभियान के लिए उनकी कुछ मुलाकातें गंगा सफाई पर अभियान चलाने और इसके लिए जवाबदेही तय करने की कोशिश में ही होती थीं। ऐसी पृष्ठभूमि में गंगा सफाई अभियान की जब दोबारा शुरुआत होने की कोशिशें दिखने लगीं तो इस कलयुगी भागीरथ प्रयास की तरफ उम्मीदें लगना अस्वाभाविक भी नहीं था।

ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर क्या वजह है कि सरकारी संजीदगी के बावजूद गंगा सफाई योजना सिरे से परवान नहीं चढ़ पा रही है? इसकी बड़ी वजह योजनाओं को ब्यूरोक्रेटिक अंदाज में लागू करने और आगे बढ़ाने की परिपाटी रही है। गंगा ब्यूरोक्रेसी से कहीं ज्यादा आस्था, विश्वास और संस्कृति का प्रतीक है और इसी में उसकी जीवंतता भी समाहित है। जाहिर है कि इसके लिए ब्यूरोक्रेटिक अंदाज सही नहीं होगा। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र के राडमैप पर जो सवाल उठाए हैं, उसमें ब्यूरोक्रेटिक पर भी चोट की गई है।

वैसे मौजूदा तंत्र में गंगा को समकालीन अर्थों में पर्यावरण और पर्यटन के नवउदारवादी ढांचे में विकसित करने का विचार दिया गया है। हो सकता है कि इस विचार के पीछे राजनीतिक सोच रही हो। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि तमाम गंदगियों के बावजूद गंगा अब भी अपनी गंगोत्री से लेेकर गंगा सागर तक की करीब 2500 किलोमीटर की यात्रा में श्रद्धा का बड़ा प्रतीक है। इसलिए उसकी सफाई अभियान में इस श्रद्धा तंत्र को ही जोड़ा जाना जरूरी है।

नव उदार आर्थिक नीतियों और तंत्र के सहारे गंगा की सफाई की चाहे जितनी भी योजनाएं चलाई जाएंगी, उसका हश्र वैसा ही होगा जैसा कि राजीव गांधी द्वारा शुरू किए गए गंगा एक्शन प्लान का हुआ है। शायद यह तथ्य राजनीतिक नेतृत्व समझे, लेकिन भारतीय ब्यूरोक्रेसी का एक बड़ा वर्ग इस तथ्य को टीवी कैमरों के सामने भले ही स्वीकार कर ले, लेकिन वह अपने ब्यूरोक्रेटिक अंदाज में इसे शायद ही स्वीकार कर पाता होगा।

सुप्रीम कोर्ट का सवाल गंगा सफाई की इस वैचारिक समस्या की तरफ भी ध्यान दिलाता है। ऐसे में उम्मीद की जानी चाहिए कि अदालत के हस्तक्षेप से ही सही, राजनीतिक नेतृत्व चेतेगा और गंगा की सफाई के लिए ज्यादा सांस्कृतिक संजीदगी के साथ वैज्ञानिक योजना ना सिर्फ अदालत में पेश करेगा, बल्कि गंगा को लंदन की टेम्स नदी की तरह साफ भी बनाएगा।

लेखक वरिष्ठ स्तंभकार

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Post By: Shivendra
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