अपने ही मॉडल पर बहने दें उसे साफ और तेज

गंगा के लिए किस नदी का पानी लाया जाएगा? और वह भी इसके कितने लंबे हिस्से के लिए? केवल वाराणसी के लिए ही तो इस प्रकार की व्यवस्था नहीं की जा रही? जिस परियोजना-नदियों को परस्पर जोड़े जाने की जोर-शोर से घोषणा की गई थी, उसे फिर से शुरू किए जाने की चर्चा है। उस परियोजना में गंगा को सुवर्णरेखा तथा महानदी से जोड़े जाने की बात थी। और उससे आगे दक्षिण की अन्य नदियों से इसे जोड़े जाने की बात कही गई थी। चिंता इस बात की है कि गंगा से पानी की दिशा बदला जाना नदी के भरा-पूरा होने के लक्ष्य से किस प्रकार संगत बैठा पाएगा? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब गंगा को नया जीवन देने संबंधी घोषणा की तो इस नदी की दुर्दशा को लेकर एक किस्म की जो बेचैनी थी, उससे राहत महसूस हुई। मरणासन्न नदी के लिए एक किस्म की आशा का संचार हुआ। इसलिए भी कि जल संसाधन मंत्री उमा भारती खुद गंगा की मुक्ति के सवाल पर मुखर रही हैं। लेकिन संतोष का यह भाव अनेक निराशाजनक संकेतकों का ध्यान आते ही जल्द ही तिरोहित हो गया।

विरोधाभासी बातें


पहली तो यह कि जल संसाधन मंत्रालय को नया नाम दिया गया है, ‘जल संसाधन, नदी विकास एवं गंगा मुक्ति मंत्रालय।’ यहां ‘नदी विकास’ का क्या तात्पर्य है? जल प्रतिष्ठान में आम तौर पर इस्तेमाल होने वाले शब्दों ‘जल संसाधन विकास’ से हमें थोड़ा संकेत मिलता है।

एक जल अभियंता की भाषा में इसका अर्थ बांधों, बैराजों, जलाशयों, नहरों आदि के जरिए जल का ज्यादा-से-ज्यादा इस्तेमाल करना है। इसके हिस्से ‘नदी विकास’ का मतलब मानवीय उपयोग के लिए विकास में शुमार हो गया है। इसी से मिलता-जुलता शब्द है ‘नदी अभ्यास’

इसका अर्थ लगता है जैसे किसी नदी को दुलारा पशु या सर्कस के जानवर की तरह समझा जा रहा है, जिसे उसके मालिक प्रशिक्षित करने की तैयारी में हैं। इसलिए मंत्रालय के नाम में ‘नदी विकास’ शब्द जोड़े जाना इस बात का संकेत है कि अब और ज्यादा नदी परियोजनाएं शुरू की जाएंगी। ‘भरी’ पूरी नदी होने जैसी स्थिति से इसका क्या सामंजस्य हो सकता है?

बेचैन करने वाला दूसरा संकेतक है कि कुछ लोगों ने साबरमती मॉडल का उल्लेख किया है। साबरमती का उद्धार नहीं किया गया था। नदी के 10.4 किमी. हिस्से में नर्मदा से लाया गया पानी प्रवाहित किया गया था यानी दूसरी नदी से लाए गए पानी का अहमदाबाद के लिए कृत्रिम नदी तैयार करने में उपयोग किया गया था।

गंगा के लिए किस नदी का पानी लाया जाएगा? और वह भी इसके कितने लंबे हिस्से के लिए? केवल वाराणसी के लिए ही तो इस प्रकार की व्यवस्था नहीं की जा रही? मुझे लगता है कि ऐसा कोई विचार नहीं है। सो, साबरमती मॉडल का जिक्र भ्रामक बात है।

तीसरी चिंता में डालने वाली बात है कि वर्ष 2002 में अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में जिस परियोजना-नदियों को परस्पर जोड़े जाने की जोर-शोर से घोषणा की गई थी, उसे फिर से शुरू किए जाने की चर्चा है। उस परियोजना में गंगा को सुवर्णरेखा तथा महानदी से जोड़े जाने की बात थी। और उससे आगे दक्षिण की अन्य नदियों से इसे जोड़े जाने की बात कही गई थी। चिंता इस बात की है कि गंगा से पानी की दिशा बदला जाना नदी के भरा-पूरा होने के लक्ष्य से किस प्रकार संगत बैठा पाएगा?

गंगा बचाओ बनाम निर्मल, अविरल


चौथी चिंता इस बात से है कि ‘गंगा बचाओ’ अभियान में जो नारा दिया गया है - ‘निर्मल गंगा, अविरल गंगा’- इसके इन शब्दों का उपयोग एक आईआईटी संकाय और नेशनल गंगा रिवर बेसिन अथॉरिटी द्वारा पहले से ही किया जा रहा है। मोदी सरकार में कैबिनेट स्तर के एक मंत्री ने इस बीच घोषणा की है कि नदी पर हर 100 किमी. के पड़ाव पर ढांचागत निर्माण की श्रृंखला बनाई जाएगी। इसका गंगा पर क्या असर पड़ेगा? नदी के निर्मल-अविरल प्रवाह के मद्देनजर इसके निहितार्थ क्या होंगे?

पांचवी बात जो बेचैन करती है, वह है कि इन्हीं मंत्री ने गंगा में जलयान चलाने की बात कहते हुए गंगा को गहरा और इसके पाट को चौड़ा किए जाने का जिक्र किया है। एक तो यह कहना है कि मानवीय हस्तक्षेप से नदी को नुकसान पहुंचेगा और फिर नदी के तल को गहरा करने से थोड़ी राहत जैसी बात हुई भी तो इस रूप में होगी कि काफी समय से उथली नदी में जलराशि की मात्रा बढ़ जाएगी। लेकिन नदी में जलयान चलाने में मदद जैसी कोई राहत नहीं मिल पाएगी। इसलिए कि तमाम बांधों के निर्माण हो चुकने के चलते जलयानों को चलाने में बाधा दरपेश होगी। इसके लिए अलग से खासा इंतजाम किया जाना जरूरी होगा।

अविरल प्रवाह होने वाले हिस्से में जहां गाद नहीं होगी वहां जलयान या नौकायन जैसे उद्देश्यों के मद्देनजर नदी को गहरा करना क्या तर्क-संगत होगा? आखिर, यह कवायद खनन किए जाने से किस तरह से भिन्न है? जहां तक नदी का पाट चौड़ा करने की बात है, तो यह अच्छी बात है। लेकिन उसी सूरत में जब नदी का डुबाऊ क्षेत्र बचा रहे। बहरहाल, नदी को गहरा किया जाना और इसके पाट को चौड़ा किया जाना रिइंजीनियरिंग से ज्यादा कुछ नहीं। क्या इससे नदी भरी-पूरी बनेगी?

और आखिरी बात। आइए गंगा मंथन पर हुई एक हालिया बैठक पर गौर करते हैं। ‘गंगा मंथन’ - शब्द पौराणिक शब्दों ‘समुद्र मंथन’ से लिए गए हैं। गंगा का मंथन कैसा और किस मंशा से? इस कवायद में कौन से ‘अमृत’ या ‘विष’ की उम्मीद की जा रही है? मंतव्य तो यह लगता है कि गंगा से संबंधित मुद्दों को मथा जाए। इन शब्दों में जो समरूपता दिखलाई पड़ रही है, वह गुमराह करने वाली है।

परियोजनाओं के प्रभाव


सरकार पर दोहरी बात कहने का आरोप लगाने का हमारा मंतव्य नहीं है। सरकार पूरी तरह से गंगा की खोई प्रतिष्ठा हासिल करने को तत्पर है, लेकिन सरकार के स्तर से ही अनेक परस्पर विरोधी संकेत मिल रहे हैं। जरूरी हो गया है कि प्रधानमंत्री हस्तक्षेप करते हुए सुनिश्चित करें ताकि मरणासन्न नदी में फिर से जान डाली जा सके। और इस उद्देश्य के सामने विभिन्न क्षेत्रों की योजनाओं, कार्यक्रमों और परियोजनाओं को आड़े नहीं आने दिया जाना चाहिए।

सबसे बढ़कर तो यह कि गंगा पर अनेक परियोजनाओं के प्रभावों संबंधी अध्ययन में जो चिंता जताई गई हैं, उन्हें नहीं बिसराया जाना चाहिए। बांधों और बैराजों का निर्माण करके हम पहले ही नदी को खासा नुकसान पहुंचा चुके हैं। समय आ गया है कि बिना समुचित अध्ययन और उनके निष्कर्षों पर विचार किए बिना अब गंगा पर और परियोजनाएं शुरू नहीं की जाएं। सच तो यह है कि अब गंगा और ज्यादा हस्तक्षेप बर्दाश्त नहीं कर सकती। अभी तक जो हमारा करा-धरा है, जरूरी है कि उसमें से भी कुछ से निजात पा ही ली जाए।

खासकर यह बात ध्यान रखी जानी चाहिए कि जहां कुछ बांधों के प्रभावों को कम या खत्म किया जा सकता है, वहीं नदी के प्रवाह पर बनाई जाने वाली पनबिजली परियोजनाएं कहीं ज्यादा घातक हैं। हालांकि गुमराह करते हुए इन्हें पर्यावरण के अनुकूल बताया जाता है, लेकिन यह सच नहीं है। दो कारणों से पनबिजली परियोजनाएं नुकसानदेह हैं।

पहला तो यह कि पानी के दिशा-परिवर्तन और टरबाइनों तक और पानी के वापस नदी में लौटने तक की जो दूरियां होती हैं, उनके बीच तमाम अवरोध होते हैं। क्या इसके बाद भी कोई नदी सही मायनों में नदी रह पाती है? दूसरा कारण यह कि ये परियोजनाएं मौसमी परियोजनाएं हैं यानी टरबाइन बिजली की बाजार मांग निकलने पर चलाए जाते हैं।

इसका अर्थ हुआ कि पानी को संग्रहित किया जाता है, और जब टरबाइन चलाने की जरूरत पड़ती है, तो उसे छोड़ा जाता है। नतीजतन नदी के प्रवाह में नित बदलाव आने लगते हैं। जो यह बात कही जाती है कि पनबिजली परियोजनाएं ‘पर्यावरण-अनुकूल’ हैं, उसका कोई तार्किक आधार है।

मुक्त बाजार की पूंजीवादी ताकतें और ऊर्जा के लिए लालच से लबरेज जो ‘विकासात्मक’ मांग है, वह गंगा को लेकर तमाम पर्यावरणीय चिंताओं और बेचैनी को बढ़ा देगी। हमारी नदियों का मरना शायद वह कीमत है, जो हमें ‘विकास’ के नाम पर चुकानी पड़ेगी। हम तो सरकार से बस इतनी ही गुजारिश कर सकते हैं कि वह जो कुछ भी करने जा रही है, उसे लेकर सतर्क रहे।

नदी संरक्षण के लिए जो किया जाना चाहिए


1. राष्ट्रीय नदी संरक्षण प्राधिकरण की स्थाई कमेटी के साथ राज्यों की क्रियान्वयन करने वाली एजेंसियों की बैठकें की जाएं।
2. इस काम के लिए नदियों के आवंटित बजट में इजाफा किया जाए।
3. गंभीर रूप से प्रदूषित करने वाली परियोजनाओं को प्राथमिकता के स्तर पर लिया जाना चाहिए।
4. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वित्तीय पोषण करने वाली एजेंसियों से धन लेने के बारे में नियम कायदे तय किए जाएं।

लेखक जल संसाधन मंत्रालय में पूर्व केंद्रीय सचिव रहे हैं।

Path Alias

/articles/apanae-hai-maodala-para-bahanae-daen-usae-saapha-aura-taeja

Post By: Shivendra
×