अपने ही घर में पराई गंगा

गंगा
गंगा

 

गोमुख प्रणाली बहुत ही जटिल प्रणाली है। इसमें तीन प्रमुख छोटे ग्लेशियर या गोमुख के सहायक ग्लेशियर है - रक्तवरण, चतुरांगी और कीर्ति। लेकिन इनके अतिरिक्त लगभग 18 अन्य सहायक ग्लेशियर भी है। नासा, नेचुरल स्नो डाटा सेंटर और अमेरिकी जियोलॉजिकल सर्वे ने मिलकर विभिन्न ग्लेशियरों की स्थिति का आकलन किया है। इनमें गोमुख शामिल है। इसके हिसाब से पिछले 61 साल के आँकड़े बताते हैं कि गोमुख सचमुच पीछे जा रहा है। 1936 से 1996 तक यह 1147 मीटर पीछे गया है, यानी यह 19 मीटर प्रति वर्ष खिसक रहा है। लेकिन पिछली सदी के पिछले 25 सालों में गोमुख 34 मीटर प्रतिवर्ष की गति से पीछे चला गया।

भोजवासा से गोमुख तक जाने वाली इस पगडंडी तक कठोर चढ़ाई थी। इस अकेले भोज वृक्ष तक पहुँचते-पहुँचते मेरी साँस चढ़ गई थी और मैं इसके सहारे नीचे बैठकर अपनी साँसों को सामान्य बनाने का प्रयास करने लगा। अचानक मुझे उस समस्या का हल सूझ गया जो मुझे पिछले कई घंटों से परेशान कर रही थी।

जब मैं भोजवासा की इस डोरमैट्री तक आया जो इस सारे इलाके में पर्यटकों के लिये एकमात्र शरणस्थल थी, तो सांझ होने में कुछ ही देर थी। मुझे बताया गया था कि सांझ और प्रभात यहाँ नाटकीय ढंग से हो जाती है, जैसे किसी ने बत्ती बुझा दी हो। लाल बाबा का आश्रम एक और स्थान था, जहाँ कुछ तीर्थयात्री रातभर टिक सकते थे। सामान रखकर मैं भी बाबा से मिलने निकल पड़ा। वे यहाँ बीस वर्षों से डेरा डाले बैठे हैं और मुझे उम्मीद थी कि इस क्षेत्र और यहाँ के वनों के बारे में वे मुझे कुछ उपयोगी जानकारी दे पाएँगे। उन्होंने मेरा स्वागत मुस्कुराहट के साथ किया और चाय का एक प्याला मेरी ओर बढ़ाया। यहाँ रात-दिन अलाव जलती रहती है जिस पर चाय बनती है और हर आगंतुक को चाय पिलाना यहाँ की परम्परा है। मैंने अपना प्रश्न पूछ लिया जिसके लिये मैं यहाँ आया था। “बाबा इसे भोजवासा कहते हैं तो पहले कभी यहाँ भोजवन रहा होगा। लेकिन आज यहाँ कोई पेड़ दिखाई क्यों नहीं दे रहा है?” बाबा थोड़ी देर तक मुझे घूरने लगे और फिर बोले “तो आप भी उन पत्रकारों और बौद्धिकों में से हैं जो मुझ पर वन-विनाश का आरोप लगाते हैं?”

यह सच है कि देहरादून में मुझे कई मित्रों ने बताया था कि भोजवन के लोप के लिये बाबा का अलाव भी उत्तरदाई हो सकता है क्योंकि चौबीस घंटे अलाव जलाने लिये ईंधन तो बहुत लगता ही होगा। यह आश्चर्य की बात थी कि भागीरथी के दूसरे किनारे पर पहाड़ी ढलान पर अभी भी बहुत सारे भोजवृक्ष खड़े थे। लेकिन मुझे नहीं लगता था कि इतने बड़े परिवर्तन के लिये एक साधु की एक धूनी ही कारण हो सकती है। मैंने बाबा को यह कहकर शांत किया कि मैं तो केवल सच जानना चाहता हूँ और इस आशा से आया हूँ कि आपको यहाँ का बरसों का अनुभव है। “सच यह है कि यह रगड़ की भूमि है जहाँ लगातार हिमशैल गिरते रहते हैं और पेड़ों को रगड़ कर गिराते रहते हैं।” बाबा के कहने का तात्पर्य यह था कि जब पहाड़ों पर ताजा हिम गिरता है तो आंधी का कोई एक झोंका थोड़े से हिम को उठाकर नीचे गिराता है। यही छोटा सा गोला अपने साथ और हिम लपेट लेता है और नीचे आते-आते इसका आकार विशाल हो जाता है। इसकी गति भी बहुत बढ़ जाती है। जिस भी बाधा से यह टकराता है, उसे तोड़ देता है या उखाड़ देता है, चाहे मकान हो या पेड़। स्वामीजी का दावा था कि इन्हीं हिमशैलों की रगड़ से भोजवन नष्ट हुए। इस तर्क से सहमत न होते हुए भी मैंने बाबा से बहस करना उचित नहीं समझा और डोरमैट्री की ओर चल पड़ा।

जिस पेड़ के साथ पीठ टिकाकर बैठा था, वह इस सारी घाटी में अकेला भोज लगता था। भोज वृक्ष एक असाधारण पेड़ होता है। अत्यंत शीतल जलवायु में पनपने के कारण प्रकृति ने इसे शीत से बचाने के लिये एक आवरण पहना दिया है। पौधे के चारों ओर प्लास्टिक जैसी एक परत बन जाती है जो शीत को अंदर तक नहीं जाने देती। पेड़ के बड़ा होने पर ऐसी कई परतें एक दूसरे पर जम जाती हैं जो भोज को सुरक्षित रखती हैं। पुराने जमाने में इन्हीं परतों पर लिखा जाता था। इन भोजपत्रों को पूजा के काम में भी लगाया जाता था। जनसंख्या कम होने, वन प्रांतों में दुर्गम मार्ग होने और वनों की प्रचुरता के कारण भी भोजपत्रों के प्रयोग से वनों के विकास पर कोई बुरा असर नहीं पड़ता था। लेकिन अब इन भोजपत्रों का वह उपयोग नहीं है फिर भी मनुष्य केवल शौकिया भोज वृक्षों की छाल खींचने की आदत नहीं छोड़ता। अपनी संरक्षक परतों के हटने से पेड़ के लिये मौसम की मार असह्य हो जाती है और कालांतर में वह मर जाता है।

मुझे नहीं पता था कि यह अकेला पेड़ यहाँ कैसे बच गया, कैसे मानव की कुल्हाड़ी और शौकिया यात्रियों की छील-छीलकर पेड़ों को निर्वस्त्र करने की आदत के बावजूद यहाँ खड़ा है। लेकिन एक बात मुझे समझ में आ गई कि भोजवासा में भोज कैसे लुप्त हो गया। यह पेड़ जहाँ खड़ा था, वह कुछ ऊँची जगह थी और उसके बगल में ही एक सूखा नाला-सा था जिसमें कभी पानी होता होगा कि नहीं पता नहीं। पूरी पहाड़ी में ऐसी ऊँची-नीची पट्टियाँ थी। अचानक मेरी विवेक बुद्धि सक्रिय हो गई। ये नाले नहीं थे, हिमशैलों के बनाए रास्ते थे जिनसे वे नीचे उतरते थे और ये ऊँची पट्टियाँ वे स्थल थे जहाँ भोजवृक्ष उगते थे और बरफानी चट्टानों से सुरक्षित रहते थे। हिमशैलों और वृक्षों ने लाखों साल पहले सह-अस्तित्व में रहना सीख लिया था। हिमशैलों ने अपना सहज मार्ग बना लिया था और वृक्ष भी जानते थे कहाँ इनसे टकराने की सम्भावनाएँ नहीं थी। शायद ही कभी कोई हिमचट्टान अपना मार्ग छोड़ कर किसी पेड़ से टकराता हो, लेकिन इसे साधारण नियम नहीं, अपवाद कहा जा सकता था। भोजवनों का नाश प्रकृति ने नहीं मानव ने ही किया है जिसमें वनरक्षक और शौकिया पर्यावरण प्रेमी और पूजक मुख्य कारक होंगे और लाल बाबा जैसे लोग साधारण कारक।

बहुत-से विशेषज्ञों का मानना है कि गोमुख ग्लेशियर लगातार पीछे की ओर खिसकता रहा है। पीछे खिसकने का कारण है कि यह ग्लेशियर बहुत तेजी से पिघल रहा है और इसका आकार घट रहा है। इस बात के एकदम पुख्ता आँकड़े उपलब्ध नहीं कि गोमुख कितना घट रहा है। कुछ लोगों के अनुसार सामान्यतया गोमुख कई किलोमीटर पीछे चला गया है। इस बात के फोटोग्राफ मौजूद हैं जिनसे पता चलता है कि गोमुख ग्लेशियर जहाँ है उससे काफी पहले हुआ करता था, केवल पचास-साठ साल पहले ही। स्वामी सुंदरानंद गंगोत्री क्षेत्र में लगभग पचास वर्ष तक रहे हैं। उन्होंने आरम्भ से ही पर्यावरण के बदलते रूपों का चित्रांकन किया है जिनसे इस बात की पुष्टि होती है कि सचमुच गोमुख न केवल पीछे भाग गया है अपितु कुछ दशक पहले भोजवासा घाटी भी हरी-भरी हुआ करती थी। यह हाल केवल गोमुख का ही नहीं, जिन ग्लेशियरों से भागीरथी की सहायक नदियाँ निकलती हैं, वे भी आकार में घटते रहे हैं और पूरे क्षेत्र में पानी की मात्रा भी कम हो गई है। वनों के विनाश और ग्लेशियरों के घटने का सीधा रिश्ता है।

इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेटिक चेंज ने कुछ समय पहले अपनी रपट से खलबली मचा दी थी। कुछ वैज्ञानिकों ने इसकी तीखी आलोचना की। यह सच है कि इसमें जो दावा किया गया था, वह कुछ अतिरंजित था कि 2035 तक हिमालय के बहुत सारे ग्लेशियर पिघल कर समाप्त हो जाएँगे। इस रपट की तकनीकी खामियों के बावजूद कोई वैज्ञानिक नहीं था जो घोषित कर पाता कि ग्लेशियरों के समाप्त होने की सम्भावना निकट भविष्य में है ही नहीं या वे ग्लेशियरों के विज्ञान को पूरी तरह समझते हैं।

नेब्रासा विश्वविद्यालय के प्रोफेसर माइकेल बिशप के अनुसार लोगों को लगता है कि हमें ग्लेशियरों के बारे में सब कुछ मालूम है लेकिन सच है कि ये बहुत ही जटिल प्रणालियाँ हैं और इनके बारे में बहुत कुछ जानना आवश्यक है। अरिजोना विश्व विद्यालय के डॉ. जेफ्री कारगिल के अनुसार जहाँ कुछ हिमालयी ग्लेशियर क्षीण हो रहे हैं वहीं कराकोरम श्रृंखला के कुछ ग्लेशियरों का आकार बढ़ रहा है क्योंकि वहाँ हिमपात अधिक हो रहा है। इस पर कारगिल का दावा है कि “अगर ये ग्लेशियर अभी समाप्त हो जाते हैं तो इसका मतलब यह नहीं होता कि करोड़ों लोगों के पानी के नलके ही सूख जाएँगे।” मतलब यह कि उत्तर भारत की नदियों में केवल दस प्रतिशत पानी ही सीधे ग्लेशियरों से आता है शेष पानी तो बरसात का होता है। वैज्ञानिकों के लिये कोई निश्चित घोषणा करने के लिये भले ही पर्याप्त आँकड़े उपलब्ध न हों, लेकिन आँखों देखे साक्ष्य और विभिन्न देशों के यात्रियों के अनुसार ग्लेशियरों में भारी कमी आ रही है।

प्रसिद्ध पर्वतारोही जार्ज मैलोरी एवरेस्ट शिखर पर चढ़ते हुए मारे गए। लेकिन मरने से पहले उन्होंने हिमालय की तराई में एक घाटी का चित्र खींचा था। यह चित्र 1921 में खींचा गया। 88 साल बाद एक और पर्वतारोही डेविड ब्रेशियर्स ने भी उसी स्थान से उसी कोण से उसी घाटी का चित्र लिया। दोनों चित्रों की तुलना करने पर वह हैरान रह गया। इस स्थान में आश्चर्यजनक परिवर्तन आ गया था। घाटी में हिम की परतें और ग्लेशियर कम-से-कम आधा किलोमीटर पीछे चले गए थे और घाटी काफी सूख गई थी। तबसे ब्रेशियर्स इन दोनों चित्रों को बहुत बार प्रदर्शित कर चुके हैं ताकि लोगों को विश्वास हो जो कि सचमुच ग्लेशियर पीछे जा रहे हैं।

गोमुख प्रणाली बहुत ही जटिल प्रणाली है। इसमें तीन प्रमुख छोटे ग्लेशियर या गोमुख के सहायक ग्लेशियर है - रक्तवरण, चतुरांगी और कीर्ति। लेकिन इनके अतिरिक्त लगभग 18 अन्य सहायक ग्लेशियर भी है। नासा, नेचुरल स्नो डाटा सेंटर और अमेरिकी जियोलॉजिकल सर्वे ने मिलकर विभिन्न ग्लेशियरों की स्थिति का आकलन किया है। इनमें गोमुख शामिल है। इसके हिसाब से पिछले 61 साल के आँकड़े बताते हैं कि गोमुख सचमुच पीछे जा रहा है। 1936 से 1996 तक यह 1147 मीटर पीछे गया है, यानी यह 19 मीटर प्रति वर्ष खिसक रहा है। लेकिन पिछली सदी के पिछले 25 सालों में गोमुख 34 मीटर प्रतिवर्ष की गति से पीछे चला गया।

एक तर्क यह है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण ही यह हो रहा है और यह विश्वव्यापी है, केवल भारत तक सीमित नहीं है। लेकिन अगर कराकोरम में ग्लेशियर पीछे नहीं जा रहे हैं और हिमालय में जा रहे हैं तो इसका कारण ग्लोबल नहीं स्थानीय ही होगा। सच तो यह है कि स्थानीय कारण सबसे अधिक भूमिका निभाते रहे हैं। हिमालय क्षेत्र में पर्यावरण के विनाश और मानवजनित कारकों से जो हाल हुआ है, उसके लिये किसी जटिल वैज्ञानिक सर्वेक्षण की भी आवश्यकता नहीं है। जिन लोगों का तर्क है कि अगर ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं तो इसका मतलब होगा कि हवा में अधिक नमी आती है और यह अधिक बरसात का कारण बन जाएगी, अधिक बरसात का मतलब होगा अधिक पानी, लेकिन यह तर्क कोई आशाजनक तर्क नहीं है। तेजी से गलने का अर्थ यह भी होगा कि ग्लेशियर जल्द ही समाप्त होंगे और अधिक बरसात की उम्मीद भी अस्थाई राहत होगी। फिर अधिक नमी का मतलब बरसात तो हो सकता है, हिम की अधिकता नहीं, जिसके बिना ग्लेशियर नहीं बनते। गंगा नदी शायद गोमुख के बिना भी बरसात में उत्तर भारत में बहती रहेगी, लेकिन उत्तराखण्ड में नहीं।
 

 

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