अपना बलिदान देकर वृक्षों को बचाने वाले बिश्नोई

खेजड़ी
खेजड़ी

कश्मीर में जैसे नुन्द ऋषि वैसे राजस्थान के रेतीले क्षेत्र में 500 वर्ष पूर्व बिश्नोई सन्त झम्बोजी हो गए। राजस्थान की शुष्क धरती में खेजड़ी वृक्षों को जीवन दान देने का अभूतपूर्व कार्य उनकी सिखावन के कारण हुआ था। आजकल के वर्षों में ही उनकी कथा सर्वत्र हो गई है। विश्व मंच पर भी पर्यावरण-सेवकों को उनके शिष्यगणों के अद्भुत बलिदान की कहानी प्रेरणादायी लगी है।

झम्बोजी एक छोटे से गाँव में रहने वाले गोपालक थे। राजस्थान यानी अकाल-ग्रस्त रेतीला क्षेत्र। हमेशा ही लोगों को अपना पशुधन लेकर जान बचाने के लिये अन्य प्रान्तों में जाना पड़ता था। अकाल के समय एक बार झम्बोजी गाँव के लोगों के साथ अपने पशु लेकर स्थानान्तर करके गए नहीं। गाँव में अकेले ही रहने पर उनको सोचने का मौका मिला। उनके ध्यान में जीवन का एक सत्य खुल गया। मनुष्य की किसी गम्भीर गलती के कारण, भूल के कारण यह अकाल का, वर्षा के अभाव का अभिशाप प्रकृति माता व्यक्त करती हैं।

सृष्टि के साथ हमारा कोई गहरा गैर-व्यवहार होता है। इस व्यवहार में सुधार होगा तब यह अभिशाप भी टलेगा। इस श्रद्धा से झम्बोजी ने सभी लोगों के लिये उनतीस नियमों का उपदेश तैयार किया। उन दिनों उस क्षेत्र में लोगों को केवल बीस तक की गिनती ही सिखाई जाती थी। उनतीस नियमों को बीस और नौ ऐसा गिना जाता था। इसी वजह से ‘बिसनबी’ बिश्नोई कहने लगे। इनमें से दो नियम सबसे महत्व के थे। पहला व्रत था रेतीले शुष्क देश की जो खेजड़ी वृक्षों से बनी हरियाली थी उसको संरक्षण देना। उसे बढ़ाना, काटना नहीं। दूसरा व्रत था जंगल में रहने वाले पशुओं की हत्या नहीं करना। इससे मांसाहार का त्याग करना भी सहज हो गया। इस तरह प्राण देकर भी वृक्षों को बचाना और अहिंसा के व्रत-पालन से शाकाहारी रहना। इन दो व्रतों के लिये बिश्नोई लोग प्रसिद्ध हो गए। अकाल के बाद जब लोग अपने गाँवों में लौट आये तब उन्होंने झम्बोजी को गुरु मानकर उनके सिखाये व्रत चलाये।

जोधपुर के आस-पास के क्षेत्र में सभी गाँवों के पास खेजड़ी वृक्षों को सुरक्षा मिलने से इनकी संख्या खूब बढ़ी। जोधपुर के महाराजा अजय सिंह को महल बाँधना था। चूना-भट्टी तैयार हो गई लेकिन लकड़ी कहाँ से लायें उसे जलाने के लिये? इस सवाल को हल करने का उपाय राजा के सलाहकारों ने सुझाया- खेजड़ी के वृक्ष जो हैं। राजा के मजदूर कुल्हाड़ी लेकर गाँवों में पहुँच गए। दोपहर का समय था। पुरुष लोग गाँव से बाहर गए थे। मजदूर आराम से वृक्षों पर कुल्हाड़ियों से आघात करने लगे।

रसोई-घर में काम कर रही अमृता देवी को पेड़ों के कटने की आवाज आई, वह तत्काल घर से बाहर निकलकर मजदूरों को कहने लगी- “ये पेड़ मत काटो, रोक दो कुल्हाड़ियों को।” ‘यह राजाज्ञा है।’ मजदूर बोले। अमृता ने बताया- “हमारे गुरु का आदेश है, ये पेड़ हमारी श्रद्धा के प्रतीक हैं। इनको काटना हमारे धर्म के विरुद्ध है।” ‘तब आप लोग जुर्माना भरो।’ यह तो हो ही नहीं सकता, हमारे व्रत के विरोध में हैं, जुर्माना भरना।

अमृता ने कहा- “इससे तो प्राण देना हमें पसन्द है।” यह कहकर वह एक पेड़ को आलिगंन करके खड़ी हो गई। घर की लड़कियाँ, पड़ोस की स्त्रियाँ सभी दोड़कर आईं। उन सबके सामने कुल्हाड़ी वालों ने खेजड़ी वृक्ष के साथ अमृता देवी के शरीर के भी टुकड़े-टुकडे कर डाले। अब बेटियों से रहा नहीं गया। आस-पास की बहनें भी आगे आईं। सभी ने एक-एक वृक्ष का आलिगंन किया और देखते-देखते वहाँ कितने ही वृक्षों के साथ बहनों का और भाइयों का बलिदान हो गया। आस-पास के गाँवों में भी यही हुआ। कुल 363 वीर स्त्री-पुरुषों ने अपने पवित्र वृक्षों के लिये जीवन समर्पित किया। मानवी इतिहास में यह एक अभूतपूर्व महायज्ञ ही घटित हो गया।

राजा को जब इस भयानक कांड का पता लगा तब वह दौड़ता हुआ खेजड़ी गाँव पहुँचा। वह अभिभूत हो गया वहाँ का दृश्य देखकर। इस नर संहार के पाप का प्रायश्चित करना ही था। तुरन्त इस क्षेत्र के वृक्षों की हत्या उसने बन्द करवाई। धार्मिक श्रद्धा के प्रतीक खेजड़ी वृक्ष फिर से सुरक्षा पा गए। ‘चिपको’ यज्ञ का इस तरह प्राण देकर अनुष्ठान करने वाले बिश्नोई लोग तीन-चार सौ वर्ष पहले राजस्थान में हो गए!

विश्व विख्यात ‘वृक्ष मानव’ रिचर्ड सेंट बार्बे बेकर ने कुछ वर्ष पहले इस सत्य कथा को अपनी वृक्ष मानव संस्था से दुनियाभर की 108 शाखाओं में प्रसारित किया। मनुष्य ने प्रेम और श्रद्धा के खातिर मनुष्य के लिये अपने प्राण न्योछावर करने का इतिहास अनेक जगहों पर घटित हुआ है। परन्तु वृक्षों को बचाने के लिये प्राण देने की यह सत्य कथा आत्मौपम्य का विरल ही उदाहरण है।

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