प्राकृतिक आपदाओं से होनेवाले नुकसान को अगर वर्गीकृत करके अलग-अलग देखा जाए और समझने का प्रयास हो तो इसी वर्गीकरण के आधार पर काफी हद तक समाधान भी निकाले जा सकते हैं। नजीर के तौर पर अगर प्राकृतिक आपदाओं में हुई स्कूली बच्चों की मौतों के आंकड़ों पर गौर किया जाए तो आंकड़े वाकई चौंकाने वाले नजर आएंगे.. प्राकृतिक आपदाएं न तो बताकर आती हैं और न ही उसकी पूर्व सूचना ही किसी को होती है। हाल ही में उत्तराखंड में आई प्राकृतिक आपदा की विनाशलीला के तमाम पहलुओं पर बहुआयामी चर्चाएं हुई हैं। वैसे तो आपदाओं की आंखें नहीं होतीं और जब वे अपना कहर बरपाती हैं तो क्या बच्चे और क्या बूढ़े, क्या पुरुष और क्या महिलाएं, सबको अपने कालग्रास में लील जाती हैं। मगर ऐसा भी नहीं है कि आकस्मिक उत्पन्न होनेवाली आपदाओं को लेकर हम हाथ पर हाथ रखकर बैठ जाएं। बेशक हमारा नियंत्रण आपदाओं को रोकने में बहुत हद तक नहीं है, लेकिन कम से कम आपदाओं से होनेवाली क्षति और उन्हें रोकने के उपायों पर तो हमारे पास नीतियां व तैयारियां होनी ही चाहिए। प्राकृतिक आपदाओं से होनेवाले नुकसान को अगर वर्गीकृत करके अलग-अलग देखा जाए और समझने का प्रयास हो तो इसी वर्गीकरण के आधार पर काफी हद तक समाधान भी निकाले जा सकते हैं। नजीर के तौर पर अगर प्राकृतिक आपदाओं में हुई स्कूली बच्चों की मौतों के आंकड़ों पर गौर किया जाए तो आंकड़े वाकई चौंकाने वाले नजर आएंगे। आपदाओं के संदर्भ में विद्यालयों में सतर्कता उपायों का जिक्र अलग से करना इसलिए भी मुनासिब प्रतीत होता है, क्योंकि विद्यालय एक ऐसी जगह है, जहां नियमित सैकड़ों की संख्या में बच्चे एकत्र होते हैं और किसी भी आपदा का सीधा प्रभाव उन हजारों बच्चों पर एक जगह और एक साथ पड़ने की आशंका रहती है।
आंकड़े इस बात के गवाह हैं कि केवल 1990 के बाद आए भूकंपों में ही कई हजार स्कूली बच्चों ने जान गंवा दी, जबकि सैकड़ों विद्यालयों की इमारतें ध्वस्त हो गईं। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण द्वारा जारी रिपोर्ट में इस बात का साफ तौर पर उल्लेख है कि गुजरात में कुछ साल पहले आए भूकंप में 971 बच्चे स्कूल की इमारतें गिरने की वजह से जान गंवा चुके हैं। आपदाओं में जानेवाली जान को अगर वर्गीकृत करके अलग-अलग आंकड़ों में देखें तो मरने वालों में बड़ी संख्या बच्चों की निकल कर आती है, जिसे सही प्रबंधन आदि के द्वारा बहुत हद तक कम किया जा सकता है। दुनिया के तमाम देशों में आपदाओं से निपटने के लिए नुकसान के वर्गीकरण की यही पद्धति इस्तेमाल की जाती रही है। यह पद्धति अभी भारत में व्यापक तौर पर इस्तेमाल नहीं हो रही है। हालांकि इस दिशा में शुरुआती कदम बढ़ाते हुए अब राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण द्वारा राष्ट्रीय विद्यालय सुरक्षा कार्यक्रम चलाने की मुहिम शुरू की गई है। चूंकि राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण विभाग सीधे तौर पर प्रधानमंत्री कार्यालय के अधीन आता है और वर्तमान में इसके चेयरमैन स्वयं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ही हैं, अत: इस कार्यक्रम की सफलता को लेकर अपेक्षाएं ज्यादा होना लाजिमी है।
बहरहाल, राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण द्वारा लगभग 48.47 करोड़ रुपए विद्यालय सुरक्षा कार्यक्रम के लिए प्रस्तावित किए गए हैं और इस दिशा में काफी हद तक काम पूरा भी किया जा चुका है। अगर स्कूल सेफ्टी से जुड़े इस पूरे कार्यक्रम को समझने का प्रयास करें तो प्रारंभिक स्तर पर इस मुहिम में फिलहाल 22 राज्य शामिल किए गए हैं। इन राज्यों में प्रत्येक में दो सर्वाधिक आपदा प्रभावित जिलों को रखा गया है। इस अभियान के तहत प्रत्येक राज्य से जिन दो जिलों को चुना गया है, उनमें हर जिले से दो सौ विद्यालयों को आपदा रिस्क एजुकेशन का प्रशिक्षण दिए जाने का प्रावधान है। इसके तहत यह लक्ष्य रखा गया है कि प्रारंभिक स्तर पर प्रत्येक जिले में लगभग 500 शिक्षकों को प्रशिक्षित किया जाए।
आपदा प्रबंधन के इस कार्यक्रम के प्रशिक्षण आदि के लिए प्राथमिक स्तर पर शिक्षण संस्थानों को चुनना भी एक सही फैसला है। इस पहल को सकारात्मक नजरिए से देखने की जरूरत है। यह तो कहा ही जा सकता है कि बिना किसी नीति और बिना किसी नियामक के चलते आ रहे आपदा प्रबंधन कार्य को ऐसे कार्यक्रमों के माध्यम से काफी मदद मिल सकती है, बशर्ते यह कार्यक्रम कई अच्छी योजनाओं की तरह महज फाइलों और कागजों के ढेर में न दबकर रह जाए। आपदाओं से निपटने और स्कूली स्तर पर उनसे सतर्क रहने के साथ-साथ पूरे प्रशिक्षण में इस बात पर विशेष जोर दिया गया है कि आपदाओं के प्रति सतर्क होकर किस तरह से विद्यालयों की मरम्मत आदि का ख्याल रखा जाए। केंद्रीय स्तर पर चली इस मुहिम की जिम्मेदारी राज्यों पर भी दी गई है कि वे केंद्र की तर्ज पर राज्य स्तरीय स्कूल सेफ्टी कार्यक्रम चलाएं और आपदा संभावित क्षेत्रों में इन नीतियों को लागू करने का प्रयास करें। फिलहाल केंद्र द्वारा प्रारंभिक स्तर पर चलाए जा रहे इस कार्यक्रम में देश के 88 सौ विद्यालय और लगभग 11 हजार शिक्षक इससे जुड़ जाएंगे। सो आपदाओं से निपटने की दिशा में इसे एक प्रभावी कदम माना जा सकता है। तमाम नियामकों और तय समय के अंदर कार्यक्रम पूरा करने की जवाबदेही आदि के प्रावधानों से युक्त राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण का यह प्रोजेक्ट अगर वाकई पूरी इमानदारी के साथ अपने काम को अंजाम देता है तो आपदा प्रबंधन के क्षेत्र में यह एक तरह का बड़ा परिवर्तन माना जाएगा, जो अपने देश में अब तक हीला-हवाली के हवाले ही रहा है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि स्कूल सेफ्टी प्रोग्राम अगर सफल होता है तो इसी की तर्ज पर आपदा प्रबंधन की दिशा में तमाम नए प्रयोगों के रास्ते खुलते नजर आएंगे। असल में आपदाओं से निपटने के मामले में हमेशा से देखा गया है कि अपने देश में कोई ठोस नियामक नहीं रहा है और बड़ी से बड़ी आपदाओं को महज मुआवजे से पाटने की परंपरा रही है। जबकि मुआवजा कभी भी किसी आपदा से निपटने का वाजिब समाधान नहीं होता, बल्कि आपदाओं से नीतियों व कार्य प्रणाली के माध्यम से ही निपटा जा सकता है।
अब तक देखा तो यही जाता रहा है कि कहीं किसी आपदा की खबर आते ही मुआवजे आदि घोषणाएं और आरोप-प्रत्यारोप प्रमुख कार्यवाहियों में शामिल रहते हैं। अब तकनीकी रूप से व्यवस्थित शायद यह अपने आप में पहला कार्यक्रम है, जो आपदाओं के प्रति लोगों को प्रशिक्षित व परिपक्व बनाने की दिशा में काम कर रहा है। बेशक अभी इस कार्यक्रम के तहत आपदाओं से प्रभावित एक खास तबके को ही चुना गया है, लेकिन उम्मीद यही है कि सफल होने के बाद इसके दायरे को विस्तृत रूप दिया जाएगा। आपदा प्रबंधन के इस कार्यक्रम के प्रशिक्षण आदि के लिए प्राथमिक स्तर पर शिक्षण संस्थानों को चुनना भी एक सही फैसला है। इस पहल को सकारात्मक नजरिए से देखने की जरूरत है। यह तो कहा ही जा सकता है कि बिना किसी नीति और बिना किसी नियामक के चलते आ रहे आपदा प्रबंधन कार्य को ऐसे कार्यक्रमों के माध्यम से काफी मदद मिल सकती है, बशर्ते यह कार्यक्रम कई अच्छी योजनाओं की तरह महज फाइलों और कागजों के ढेर में न दबकर रह जाए।
ईमेल - saharkavi111@gmail.com
आंकड़े इस बात के गवाह हैं कि केवल 1990 के बाद आए भूकंपों में ही कई हजार स्कूली बच्चों ने जान गंवा दी, जबकि सैकड़ों विद्यालयों की इमारतें ध्वस्त हो गईं। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण द्वारा जारी रिपोर्ट में इस बात का साफ तौर पर उल्लेख है कि गुजरात में कुछ साल पहले आए भूकंप में 971 बच्चे स्कूल की इमारतें गिरने की वजह से जान गंवा चुके हैं। आपदाओं में जानेवाली जान को अगर वर्गीकृत करके अलग-अलग आंकड़ों में देखें तो मरने वालों में बड़ी संख्या बच्चों की निकल कर आती है, जिसे सही प्रबंधन आदि के द्वारा बहुत हद तक कम किया जा सकता है। दुनिया के तमाम देशों में आपदाओं से निपटने के लिए नुकसान के वर्गीकरण की यही पद्धति इस्तेमाल की जाती रही है। यह पद्धति अभी भारत में व्यापक तौर पर इस्तेमाल नहीं हो रही है। हालांकि इस दिशा में शुरुआती कदम बढ़ाते हुए अब राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण द्वारा राष्ट्रीय विद्यालय सुरक्षा कार्यक्रम चलाने की मुहिम शुरू की गई है। चूंकि राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण विभाग सीधे तौर पर प्रधानमंत्री कार्यालय के अधीन आता है और वर्तमान में इसके चेयरमैन स्वयं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ही हैं, अत: इस कार्यक्रम की सफलता को लेकर अपेक्षाएं ज्यादा होना लाजिमी है।
बहरहाल, राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण द्वारा लगभग 48.47 करोड़ रुपए विद्यालय सुरक्षा कार्यक्रम के लिए प्रस्तावित किए गए हैं और इस दिशा में काफी हद तक काम पूरा भी किया जा चुका है। अगर स्कूल सेफ्टी से जुड़े इस पूरे कार्यक्रम को समझने का प्रयास करें तो प्रारंभिक स्तर पर इस मुहिम में फिलहाल 22 राज्य शामिल किए गए हैं। इन राज्यों में प्रत्येक में दो सर्वाधिक आपदा प्रभावित जिलों को रखा गया है। इस अभियान के तहत प्रत्येक राज्य से जिन दो जिलों को चुना गया है, उनमें हर जिले से दो सौ विद्यालयों को आपदा रिस्क एजुकेशन का प्रशिक्षण दिए जाने का प्रावधान है। इसके तहत यह लक्ष्य रखा गया है कि प्रारंभिक स्तर पर प्रत्येक जिले में लगभग 500 शिक्षकों को प्रशिक्षित किया जाए।
आपदा प्रबंधन के इस कार्यक्रम के प्रशिक्षण आदि के लिए प्राथमिक स्तर पर शिक्षण संस्थानों को चुनना भी एक सही फैसला है। इस पहल को सकारात्मक नजरिए से देखने की जरूरत है। यह तो कहा ही जा सकता है कि बिना किसी नीति और बिना किसी नियामक के चलते आ रहे आपदा प्रबंधन कार्य को ऐसे कार्यक्रमों के माध्यम से काफी मदद मिल सकती है, बशर्ते यह कार्यक्रम कई अच्छी योजनाओं की तरह महज फाइलों और कागजों के ढेर में न दबकर रह जाए। आपदाओं से निपटने और स्कूली स्तर पर उनसे सतर्क रहने के साथ-साथ पूरे प्रशिक्षण में इस बात पर विशेष जोर दिया गया है कि आपदाओं के प्रति सतर्क होकर किस तरह से विद्यालयों की मरम्मत आदि का ख्याल रखा जाए। केंद्रीय स्तर पर चली इस मुहिम की जिम्मेदारी राज्यों पर भी दी गई है कि वे केंद्र की तर्ज पर राज्य स्तरीय स्कूल सेफ्टी कार्यक्रम चलाएं और आपदा संभावित क्षेत्रों में इन नीतियों को लागू करने का प्रयास करें। फिलहाल केंद्र द्वारा प्रारंभिक स्तर पर चलाए जा रहे इस कार्यक्रम में देश के 88 सौ विद्यालय और लगभग 11 हजार शिक्षक इससे जुड़ जाएंगे। सो आपदाओं से निपटने की दिशा में इसे एक प्रभावी कदम माना जा सकता है। तमाम नियामकों और तय समय के अंदर कार्यक्रम पूरा करने की जवाबदेही आदि के प्रावधानों से युक्त राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण का यह प्रोजेक्ट अगर वाकई पूरी इमानदारी के साथ अपने काम को अंजाम देता है तो आपदा प्रबंधन के क्षेत्र में यह एक तरह का बड़ा परिवर्तन माना जाएगा, जो अपने देश में अब तक हीला-हवाली के हवाले ही रहा है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि स्कूल सेफ्टी प्रोग्राम अगर सफल होता है तो इसी की तर्ज पर आपदा प्रबंधन की दिशा में तमाम नए प्रयोगों के रास्ते खुलते नजर आएंगे। असल में आपदाओं से निपटने के मामले में हमेशा से देखा गया है कि अपने देश में कोई ठोस नियामक नहीं रहा है और बड़ी से बड़ी आपदाओं को महज मुआवजे से पाटने की परंपरा रही है। जबकि मुआवजा कभी भी किसी आपदा से निपटने का वाजिब समाधान नहीं होता, बल्कि आपदाओं से नीतियों व कार्य प्रणाली के माध्यम से ही निपटा जा सकता है।
अब तक देखा तो यही जाता रहा है कि कहीं किसी आपदा की खबर आते ही मुआवजे आदि घोषणाएं और आरोप-प्रत्यारोप प्रमुख कार्यवाहियों में शामिल रहते हैं। अब तकनीकी रूप से व्यवस्थित शायद यह अपने आप में पहला कार्यक्रम है, जो आपदाओं के प्रति लोगों को प्रशिक्षित व परिपक्व बनाने की दिशा में काम कर रहा है। बेशक अभी इस कार्यक्रम के तहत आपदाओं से प्रभावित एक खास तबके को ही चुना गया है, लेकिन उम्मीद यही है कि सफल होने के बाद इसके दायरे को विस्तृत रूप दिया जाएगा। आपदा प्रबंधन के इस कार्यक्रम के प्रशिक्षण आदि के लिए प्राथमिक स्तर पर शिक्षण संस्थानों को चुनना भी एक सही फैसला है। इस पहल को सकारात्मक नजरिए से देखने की जरूरत है। यह तो कहा ही जा सकता है कि बिना किसी नीति और बिना किसी नियामक के चलते आ रहे आपदा प्रबंधन कार्य को ऐसे कार्यक्रमों के माध्यम से काफी मदद मिल सकती है, बशर्ते यह कार्यक्रम कई अच्छी योजनाओं की तरह महज फाइलों और कागजों के ढेर में न दबकर रह जाए।
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