उत्तराखण्ड में प्राकृतिक आपदाओं पर चंद्रशेखर जोशी के विचार

अलग राज्य बनने के बाद सबसे बड़ी जरूरत महसूस की गई उत्तराखण्ड के गाँवों को मुख्य सड़कों से जोड़ने की और पिछले एक दशक में इस दिशा में काफी काम भी हुआ। आज पहाड़ के अधिकतर गाँव कच्ची और पक्की सड़कों से जुड़ भी चुके हैं, लेकिन पहाड़ों की ये सबसे बड़ी जरूरत ही आज यहाँ के लोगों के लिये एक बड़ा खतरा बन चुकी है।
सड़कें बनाने के लिये यहाँ के पहाड़ों को बेतरतीब काटा गया। इसका परिणाम अब घातक हो रहा है। चूँकि उत्तराखण्ड की पहाड़ियाँ हिमालय रेंज के तहत आती हैं और हिमालय विश्व का सबसे नया पहाड़ी रेंज है। ये पहाड़ अभी अपने शैशवकाल से गुजर रहे हैं। ऐसे में जेसीबी मशीनों और ब्लास्टिंग के उपयोग से इन खोखले पहाड़ों में दरारें पड़ चुकी हैं। यही कारण है कि अब उत्तराखण्ड में जब भारी बारिश होती है या बादल फटते हैं तो पहाड़ों की बाहरी सतह आसानी से दरक जा रही है जो नीचे बसे गाँवों को मलबे से पाट देती है।
पहले उत्तराखण्ड में पहाड़ी की ढलानों और मजबूती को देखकर गाँव बसाए जाते थे और अधिकतर गाँव पहाड़ों की चोटियों पर बसे होते थे, लेकिन अब चूँकि मुख्य सड़कें पहाड़ों की तलहटी में हैं, इसलिये लोग पारिस्थितिकीय परिस्थितियों की अनदेखी कर इन सड़कों के किनारे बेतरतीब अपने घर और दुकानें बना रहे हैं। केदारनाथ आपदा के समय नदी के किनारे बने मुख्य मार्गों पर ज्यादा जानमाल का नुकसान हुआ था, क्योंकि इसमें नदी तटों पर अतिक्रमण कर निर्माण कार्य किये गये थे।

नदियों से रेता निकालने के अलावा पहाड़ों को खोदकर बजरी और पत्थर निकालने का धंधा भी यहाँ खूब पनप रहा है। इससे इन पहाड़ों में मौजूद प्राकृतिक जलस्रोतों को भी नुकसान पहुँचा रहा है। पहाड़ों में कम्पन होने के कारण ये पानी अपने पिछले स्थान से दरारों के माध्यम से अंदर ही अंदर कहीं और चला जाता है जिसके कारण या तो आज अधिकतर ऐसे स्रोत सूख चुकें हैं या उनमें बहुत कम पानी रह गया है जो पहाड़ों में पेयजल के संकट को लगातार गहरा रहा है।
जाहिर है, उत्तराखण्ड की पारिस्थितिकी में किसी भी तरह के बदलाव का फर्क सिर्फ पहाड़ों पर नहीं, बल्कि पूरे उत्तर भारत पर पड़ेगा। इसलिये पूरे देश की जिम्मेदारी है कि उत्तराखण्ड को प्रकृति के अनुकूल विकसित करें।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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