प्राकृतिक आपदाओं के कारण प्रति वर्ष हजारों लोग अकाल मृत्यु के शिकार हो जाते हैं और उससे कहीं अधिक लोग घायल और बीमार हो जाते हैं। सम्पत्ति, परिसम्पत्ति और आधारभूत संरचनाओं का जो ह्रास होता है वह अलग। प्राकृतिक और मानव निर्मित आपदाएँ प्रायः मौत का कारण बनती हैं और आजीविका का ह्रास होता है। साथ ही सम्पत्ति, परिसम्पत्तियों और आधारभूत संरचना का विनाश होता है। आपदाओं के कारण असुरक्षित एवं वंचित वर्ग के लोगों के लिए खतरा बढ़ जाता है और आपदा-प्रभावित तथा आपदा-सम्भावित समुदायों में सामाजिक-मनोवैज्ञानिक तनाव और सदमा व्याप्त हो जाता है। बाढ़ जैसी बारम्बार आने वाली आपदाओं से आपदा-सम्भावित समुदाय संकट से जूझने के सामर्थ्य और शक्ति से हीन हो जाने के कारण विश्वास की कमी के शिकार हो जाते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि इनके अस्तित्व को ही खतरा पैदा हो जाता है और बार-बार महीनों तक उनका सामान्य जीवन बुरी तरह प्रभावित होता रहता है। आपदाओं के अचानक आने से, विशेषकर तब जब विस्थापित लोग अस्थायी राहत शिविरों में शरण लेने के लिए विवश हों, बच्चों, शिशुओं और बुजुर्ग लोगों के प्रति उपेक्षा और अभाव का खतरा और अधिक बढ़ जाता है।
प्राकृतिक आपदाओं के कारण प्रति वर्ष हजारों लोग अकाल मृत्यु के शिकार हो जाते हैं और उससे कहीं अधिक लोग घायल और बीमार हो जाते हैं। सम्पत्ति, परिसम्पत्ति और आधारभूत संरचनाओं का जो ह्रास होता है वह अलग।
वर्ष 2004 और 2005 में प्राकृतिक आपदाओं में 3 खरब 50 अरब डॉलर की आर्थिक क्षति हुई। विश्व बैंक के अध्ययनों का अनुमान है कि आपदाओं में मारे गए लोगों में से 97 प्रतिशत लोग विकासशील देशों के होते हैं। एशिया प्रशान्त क्षेत्रों में विश्व के निर्धनों का 63 प्रतिशत हिस्सा रहता है और इस क्षेत्र में अनेक प्रकार की प्राकृतिक और मानव निर्मित आपदाओं का खतरा बना रहता है। इससे पहले से ही हाशिये पर खड़े समुदायों के लिए खतरा और असुरक्षा और भी बढ़ जाती है।
विश्व बैंक का अनुमान है कि आपदाओं से होने वाली क्षति, प्रभावित देशों के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 2 से 15 प्रतिशत के बीच हो सकती है। विश्व आपदा रिपोर्ट, 2003 में कहा गया है कि पिछले दो दशकों में ही, प्रत्यक्ष रूप से होने वाली आर्थिक क्षति में पाँच गुनी वृद्धि हुई है जो कुल मिलाकर 6.29 खरब डॉलर के आसपास ठहरती है। यूएनडीपी की 2004 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, 1960 के दशक में वास्तविक वार्षिक आर्थिक क्षति औसतन 75 अरब 50 करोड़ डॉलर के बराबर रही, जबकि 1970 के दशक में 1 खरब 38 अरब 40 करोड़ डॉलर, 1980 के दशक में 2 खरब 13 अरब 90 करोड़ डॉलर और 1990 के दशक में आपदाओं के कारण होने वाली आर्थिक क्षति 6 खरब 59 अरब 90 करोड़ डॉलर (प्रति वर्ष औसतन) रही।
विकसित देशों की तुलना में विकासशील देशों में प्राकृतिक आपदाओं से होने वाली आर्थिक क्षति जीडीपी के प्रतिशत के मान से 20 गुनी अधिक होती है। उदाहरणार्थ, समोआ में 1991 में आए चक्रवात ‘हरीकेन वैल’ से सकल घरेलू उत्पाद का 230 प्रतिशत नुकसान हुआ। इसी प्रकार, कैरेबियन द्वीप ग्रेनाडा में 2004 के हरीकेन इबान में उसकी जीडीपी के 200 प्रतिशत की क्षति हुई।
विकासशील देशों में प्राकृतिक और मानव निर्मित आपदाओं की संख्या बढ़ती जा रही है। नतीजन, अब ज्यादा लोग इनके शिकार हो रहे हैं। अनुमान है कि 1980 और 1984 के बीच, विश्व भर में आई 800 आपदाओं में करीब 40 करोड़ लोगों का जीवन प्रभावित हुआ। 2000 और 2004 के बीच घटित लगभग 1,300 आपदायी घटनाओं में 1 अरब 40 करोड़ लोगों के जीवन पर विपरीत प्रभाव पड़ा। पिछले कुछ दशकों में आपदाओं की संख्या में भी वृद्धि हुई है और प्रभावित होने वाले लोगों की संख्या में भी। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) के ब्यूरो ऑव क्राइसिस प्रिवेंशन एण्ड रिकवरी (बीसीपीआर) के अनुसार विश्व जनंसख्या के करीब 75 प्रतिशत लोग उन क्षेत्रों में निवास करते हैं, जहाँ 1980 से 2000 के बीच भूकम्प, उष्ण-कटिबन्धीय चक्रवात, बाढ़ अथवा सूखे का प्रकोप कम से कम एक बार हो चुका है।
अनुमान है कि 2006 में 108 देशों में 426 आपदायी घटनाएँ हुईं जिनसे 14 करोड़ 30 लाख लोगों का जीवन प्रभावित हुआ और 34 अरब 60 करोड़ डॉलर की आर्थिक क्षति हुई। वर्ष 2008 में 300 से अधिक आपदाएँ घटित हुईं जिनके कारण 2 लाख 35 हजार लोग प्रभावित हुए और 1 खरब 81 अरब डॉलर की आर्थिक क्षति तथा सम्पत्ति का ह्रास हुआ। वर्ष 2008 में आई इन आपदाओं में सबसे विनाशकारी मई 2008 में चीन में आया भूकम्प और उसी महीने म्यांमार में आया नरगिस चक्रवात रहा।
विकासशील देशों के असुरक्षित समुदायों के भविष्य में जलवायु परिवर्तन सम्बन्धी आपदाओं के शिकार होने की सम्भावना ज्यादा बढ़ गई है। यदि जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न होने वाली आपदाओं का सामना करने वाले समाधानों पर विकास की योजनाएँ बनाते हुए ध्यान नहीं दिया गया तो इन आपदा सम्भावित क्षेत्रों में मानव जीवन और सम्पत्ति की क्षति का खतरा सदा बना रहेगा।विकासशील देशों की अति सघन जनसंख्या, विशेषकर अति जोखिम वाले तटीय क्षेत्र, इन आपदाओं की विशेष रूप से शिकार होती हैं। बाढ़, चक्रवात, तूफान जैसी प्राकृतिक आपदाओं में लाखों लोग इन देशों में प्रभावित होते हैं। अमेरिका का प्रमुख नगर न्यूयॉर्क 1950 में विश्व का एकमात्र महानगर था जिसकी जनसंख्या एक करोड़ से अधिक थी। इसके मुकाबले वर्ष 2006 में एक करोड़ से अधिक की आबादी वाले महानगरों की संख्या बढ़कर 25 हो गई। इनमें से 19 महानगर विकासशील देशों में थे। इन 25 महानगरों में 14 तटीय क्षेत्रों में स्थित हैं और इनमें हमेशा ही तूफानों, चक्रवातों, समुद्र की सतह में उफान आदि की आशंका बनी रहती है।
इस प्रकार, विकासशील देशों के असुरक्षित समुदायों के भविष्य में जलवायु परिवर्तन सम्बन्धी आपदाओं के शिकार होने की सम्भावना ज्यादा बढ़ गई है। यदि जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न होने वाली आपदाओं का सामना करने वाले समाधानों पर विकास की योजनाएँ बनाते हुए ध्यान नहीं दिया गया तो इन आपदा सम्भावित क्षेत्रों में मानव जीवन और सम्पत्ति की क्षति का खतरा सदा बना रहेगा।
संयुक्त राष्ट्र ने बीसवीं शताब्दी के अन्तिम दशक को अन्तरराष्ट्रीय प्राकृतिक आपदा घटाव दशक (आईडीएनडीआर) घोषित किया था और आपदा सम्भावित समुदायों में आपदाओं से निपटने की तैयारियों को सुदृढ़ बनाने के लिए अनेक रणनीतियाँ बनाईं थीं। आईडीएनडीआर के बाद अन्तरराष्ट्रीय आपदा घटाव रणनीति (आईएसडीआर) शुरू हुई। इसमें बेहतर तैयारी, बेहतर आपदा शमन प्रयासों और बेहतर आपातकालीन अनुक्रिया क्षमताओं के जरिये वैश्विक, क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तरों पर आपदाओं के जोखिम को कम करने के प्रयासों में मजबूती लाने के लिए अनेक संस्थागत तन्त्र का प्रस्ताव किया गया था।
जापान के कोबे नगर में 18 से 22 जनवरी, 2005 के बीच हुए वर्ल्ड कॉन्फ्रेंस ऑन डिजास्टर रिडक्शन में 168 देशों ने ह्यूगो फ्रेमवर्क फॉर ऐक्शन (2005-2015) का अनुमोदन किया था। सम्मेलन में आपदा के बाद अनुक्रिया के स्थान पर आपदा का सामना करने की तैयारियों, शमन प्रयासों और आपदा सम्भावित देशों में आपात स्थिति में कार्रवाई करने की क्षमताओं को सुधारने पर विशेष जोर दिया गया था।
भारत सरकार ने राष्ट्रीय, राज्य और जिला स्तरों पर आपदा प्रबन्धन योजनाएँ तैयार करने के लिए 1999 में एक उच्च शक्ति समिति (एचपीसी) का गठन किया। एचपीसी देश भर में विभिन्न समूहों और मामले में दखल रहने वाले संगठनों से अभी बात कर ही रही थी कि अक्टूबर 1999 में उड़ीसा में चक्रवात का हादसा हो गया। इसके कुछ समय बाद ही 26 जनवरी, 2001 को गुजरात के भुज में भीषण भूकम्प के झटके लगे। इन दोनों आपदाओं ने हमारी तैयारियों और आपात स्थितियों में अनुक्रिया की क्षमताओं की पोल खोल दी और अनेक खामियों को उजागर कर दिया। भारत सरकार द्वारा गठित राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन समिति ने उच्च शक्ति समिति की रिपोर्ट की समीक्षा करने के बाद कुछ सिफारिशों का अनुमोदन कर दिया। इनमें, आपदा प्रबन्धन का मुख्य दायित्व कृषि मन्त्रालय से लेकर भारत सरकार के गृह मन्त्रालय को सौंपा जाना प्रमुख था।
हिन्द महासागर में 26 दिसम्बर, 2004 को आई सुमानी ने केरल, तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश, पुड्डुचेरी और अण्डमान एवं निकोबार द्वीप समूह के तटवर्ती समुदायों का जीवन तबाह कर दिया। इस हादसे के बाद आपदा प्रबन्धन के बारे में गम्भीर प्रयासों की शुरुआत हुई और केन्द्र सरकार ने एक के बाद एक कई कदम उठाए।हिन्द महासागर में 26 दिसम्बर, 2004 को आई सुमानी ने केरल, तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश, पुड्डुचेरी और अण्डमान एवं निकोबार द्वीप समूह के तटवर्ती समुदायों का जीवन तबाह कर दिया। इस हादसे के बाद आपदा प्रबन्धन के बारे में गम्भीर प्रयासों की शुरुआत हुई और केन्द्र सरकार ने एक के बाद एक कई कदम उठाए। भारत उन पहले कुछ देशों में था जिन्होंने राष्ट्रीय, राज्य और जिला स्तरों पर प्रभावी आपदा प्रबन्धन के लिए उपयुक्त संस्थागत व्यवस्था शुरू करने के लिए राष्ट्रीय प्रतिबद्धता व्यक्त की। संसद के दोनों सदनों में आपदा प्रबन्धन विधेयक, 2005 सर्वसम्मति से पारित हुआ जो इस बात की ओर इशारा करता है कि आपदा प्रबन्धन के बारे में सरकार के दृष्टिकोण में आमूल परिवर्तन आया है।
आपदा के उपरान्त अनुक्रिया के स्थान पर आपदा के पूर्व तैयारियों पर अब ज्यादा जोर दिया जा रहा है। आपदा शमन परियोजनाएँ शुरू की जा रही हैं और आपात स्थिति में कार्रवाई करने (अनुक्रिया) की क्षमताओं को सुदृढ़ बनाया जा रहा है। आपदा प्रबन्धन अधिनियम 2005 में आपदा प्रबन्धन योजनाओं के कार्यान्वयन की निगरानी आपदा के प्रभावों के शमन और बचाव के लिए सरकार के विभिन्न विभागों द्वारा किए जाने वाले उपायों और आपदा की स्थिति में समग्र, समन्वित और त्वरित कार्रवाई के लिए योजना बनाने तथा उनके कार्यान्वयन पर निगरानी के लिए आवश्यक संस्थागत व्यवस्था कायम करने पर जोर दिया गया है।
आपदा प्रबन्धन अधिनियम, 2005 में शीर्ष स्तर पर देश में आपदा प्रबन्धन के लिए प्रधानमन्त्री की अध्यक्षता में राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण (एनडीएमए) के गठन का प्रावधान किया गया है। इसके अलावा राज्य स्तर पर मुख्यमन्त्रियों और जिला स्तर पर जिला कलेक्टरों की अध्यक्षता में आपदा प्रबन्धन प्राधिकरणों की व्यवस्था भी की गई है। जिला स्तर की समितियों की सह अध्यक्षता सम्बन्धित जिला परिषदों के निर्वाचित प्रतिनिधि भी करेंगे। एनडीएमए की पहली बैठक के दौरान प्रधानमन्त्री ने निर्देश दिया कि भारत सरकार के गृह, वित्त और कृषि विभागों के मन्त्री तथा योजना आयोग के उपाध्यक्ष प्राधिकरण की बैठकों में स्थायी आमन्त्रित सदस्य होंगे ताकि निर्णयों में तालमेल बना रहे और विकास की मुख्यधारा में आपदा प्रबन्धन को उचित स्थान मिल सके।
देश में तैयारियों में मजबूती लाने और आपात स्थिति में तुरन्त कार्रवाई शुरू करने के लिए राष्ट्रीय आपदा अनुक्रिया बल (एनडीआरएफ) नाम की एक समर्पित एजेंसी गठित की गई है। एनडीआरएफ की आठ बटालियनें खड़ी की जा चुकी हैं और उन्हें देश के महत्वपूर्ण स्थानों में तैनात किया गया है। एनडीआरएफ को आधुनिकतम जीवन रक्षा उपकरणों, तलाशी और बचाव उपकरणों, हवा भरने वाली नौकाओं से लैस किया गया है और बल के कर्मियों को उनके उपयोग का समुचित प्रशिक्षण भी दिया गया है। एनडीआरएफ की चार बटालियनों के कार्मिकों को रासायनिक, जैविक, विकिरण सम्बन्धी एवं नाभिकीय (सीबीआरएफ) आपात स्थितियों में तैयार रहने के लिए प्रशिक्षण दिया जा रहा है।
देश में तैयारियों में मजबूती लाने और आपात स्थिति में तुरन्त कार्रवाई शुरू करने के लिए राष्ट्रीय आपदा अनुक्रिया बल (एनडीआरएफ) नाम की एक समर्पित एजेंसी गठित की गई है। एनडीआरएफ की आठ बटालियनें खड़ी की जा चुकी हैं और उन्हें देश के महत्वपूर्ण स्थानों में तैनात किया गया है।अपनी स्थापना के बाद से ही एनडीआरएफ के जवानों को विभिन्न प्राकृतिक आपदा घटनाओं के समय स्थानीय प्रशासन की मदद के लिए तैनात किया जाता रहा है। बिहार में 2008 की कोसी की बाढ़ के समय एनडीआरएफ के जवानों ने बाढ़ प्रभावित गाँवों से एक लाख से अधिक लोगों को निकाल कर उन्हें सुरक्षित स्थानों पर पहुँचाया। इस काम में एनडीआरएफ की तलाशी और बचाव टीमों ने बड़ी मदद की। हवा भरने वाली नौकाओं और स्थानीय देसी नौकाओं का प्रबन्ध भी एनडीआरएफ ने ही किया था।
राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन संस्थान (एनआईडीएम) को देश में आपदा प्रबन्धन के लिए शीर्ष प्रशिक्षण संस्था के रूप में स्थापित किया गया है। एनआईडीएम राज्य प्रशिक्षण संस्थाओं में आपदा प्रबन्धन का प्रशिक्षण देने वाले अध्यापकों के क्षमता विकास प्रयासों के समन्वयन का काम करता है। इसके अलावा वह विश्व बैंक संस्था की भागीदारी में आपदा प्रबन्धन के क्षेत्र में कुछ दूरवर्ती शिक्षण कार्यक्रम भी चलाता है। एनआईडीएम सार्क आपदा प्रबन्धन केन्द्र की मेजबानी भी करता है।
आपदा प्रबन्धन विधेयक, 2005 में राष्ट्रीय, राज्य और जिला स्तरों पर आपदा अनुक्रिया कोष और आपदा शमन कोष के गठन का भी प्रावधान किया गया है। चूँकि बारहवें वित्त आयोग की सिफारिशें 2010 तक लागू हैं, इन कोषों की स्थापना के तौर-तरीकों और औचित्य के बारे में तेरहवें वित्त आयोग से विचार-विमर्श जारी है।
आपदा प्रबन्धन अधिनियम, 2005 में पूर्व के राहत-केन्द्रित अनुक्रिया के स्थान पर आगे बढ़कर स्वयं की बचाव और शमन करने तथा पहले से ही तैयार रहने का जो नया नजरिया अपनाया गया है वह पहले की नीति से आमूल रूप से भिन्न है। इसका उद्देश्य वैकासिक लाभों को बनाए रखने के साथ ही जीवन, आजीविका और सम्पत्ति की क्षति को न्यूनतम स्तर पर लाना है। आपदा प्रबन्धन का राष्ट्रीय विजन देश को सुरक्षित और आपदाओं से निपटने में सक्षम राष्ट्र बनाना है।
इस दूरगामी सोच को फलीभूत करने के लिए समग्र, तमाम तरह के खतरों को झेलने में सक्षम, प्रौद्योगिकी निर्देशित रणनीति अपनाई जाएगी और आपात स्थिति के आने के पूर्व ही प्रभावी कदम उठाए जाएँगे। यह सब बचाव, शमन और तैयारियों की संस्कृति के माध्यम से हासिल किया जाएगा ताकि आपदा के समय त्वरित और प्रभावी कदम उठाए जा सकें। समूची प्रक्रिया में समुदाय को केन्द्र में रखा जाए और सरकारी एजेंसियों तथा सरकारी संगठनों के सामूहिक प्रयासों के जरिये इन कार्यों को गति और ऊर्जा प्रदान की जाएगी।
विश्व में प्रचलित विचारधारा के समरूप देश में पहली बार दसवीं पंचवर्षीय योजना के दस्तावेज में आपदा प्रबन्धन पर एक पृथक अध्याय शामिल किया गया। योजना आयोग का विचार है कि अर्थव्यवस्था पर आपदाओं का प्रभाव विनाशकारी होता है, उनसे भारी मानवीय और आर्थिक क्षति होती है और वे किसी राज्य अथवा क्षेत्र के वैकासिक प्रयासों को नुकसान पहुँचा सकते हैं। हाल की दो आपदाओं उड़ीसा का चक्रवात और गुजरात का भूकम्प, इस बात के उदाहरण हैं। साल-दर-साल भारत जिस तरह आर्थिक क्षति सहता रहा है और विकास गतिविधियाँ प्रभावित होती रही हैं, जरूरत है कि विकास प्रक्रिया को आपदाओं से बचाने और उनके शमन के पहलुओं के प्रति संवेदनशील बनाया जाए। आपदाओं को विकास के नजरिये से भी देखे जाने की आवश्यकता है।
दसवीं पंचवर्षीय योजना के दस्तावेज में आगे कहा गया है कि स्थानीय स्तर पर विकास को प्रोत्साहन देने वाले विकास कार्यक्रमों को नियोजन की आम कवायद पर ही छोड़ दिया गया है। आपदा-शमन प्रयासों को स्थानीय स्तर के विकास कार्यों के नियोजन के साथ ही जोड़े जाने की आवश्यकता है। राष्ट्रीय, राज्य, जिला और स्थानीय सभी स्तरों पर आपदाओं के प्रबन्धन की दिशा में कदम उठाने के लिए सहायक और अनुकूल वातावरण बनाए जाने की आवश्यकता है। भारत में आपदा प्रबन्धन की जो भावी योजना है वह इस सिद्धान्त पर आधारित है कि आज के समाज में हादसे प्राकृतिक और अन्य, अवश्यम्भावी हैं और उनसे जो मुसीबतें (आपदाएँ) आती हैं वे भी स्वाभाविक हैं, परन्तु समाज को जब भी वे आए, उनसे प्रभावी तौर पर निपटने के लिये तैयार रहना चाहिए।
जोखिम के पूर्व प्रबन्धन के लिए बहुकोणीय रणनीति तैयार करने की जरूरत है। इसमें एक ओर तो बचाव, तैयारी, अनुक्रिया और स्वास्थ्य लाभ तो दूसरी ओर जोखिम को कम करने तथा शमन के लिए विकास कार्यों की पहल करने की जरूरत है। तभी हम सतत विकास के बारे में सोच सकते हैं।
दसवीं पंचवर्षीय योजना के दस्तावेज में इस बात पर स्पष्ट रूप से जोर दिया गया है कि 'आपदा से सम्बन्धित, जीवन, परिसम्पत्तियों और आर्थिक गतिविधियों की क्षति केवल परिसम्पत्तियों एवं मानवीय ह्रास की मिली-जुली लागत का वहन अकेले न तो कोई समुदाय कर सकता है और न कोई राष्ट्र। अतएव, सभी असुरक्षित क्षेत्रों की विकास योजनाओं में आपदा शमन विश्लेषण को भी शामिल किया जाना चाहिए ताकि परियोजना की सम्भाव्यता का आकलन क्षेत्र की संवेदनशीलता और विकास के निरन्तर शमन के हिसाब से हो सके। विशेषकर भीषण आपदाओं के सम्बन्ध में, आपदा शमन अवयवों के लिए यह भी आवश्यक है कि उन्हें सभी विकास योजनाओं में समाहित किया जाए। पुनर्निर्माण और बाद में होने वाले पुनर्वास पर होने वाले भारी व्यय को बचाने के लिए एक ऐसी व्यवस्था तैयार करनी होगी जिसमें इस बात की गुंजाइश हो कि अधिक आपदा सम्भावित क्षेत्रों में लगने वाली परियोजनाएँ योजना के अन्तर्गत वित्त पोषित परियोजनाओं की अनुमोदित लागत के एक भाग के रूप में प्राकृतिक आपदाओं के झटकों को झेल सके।'
जोखिम के पूर्व प्रबन्धन के लिए बहुकोणीय रणनीति तैयार करने की जरूरत है। इसमें एक ओर तो बचाव, तैयारी, अनुक्रिया और स्वास्थ्य लाभ तो दूसरी ओर जोखिम को कम करने तथा शमन के लिए विकास कार्यों की पहल करने की जरूरत है।और अन्त में, दसवीं पंचवर्षीय योजना का दस्तावेज कहता है कि दसवीं योजना के लिए सन्देश यह है कि सुरक्षित राष्ट्रीय विकास की ओर बढ़ने के लिए, वैकल्पिक परियोजनाओं को आपदा-शमन के प्रति संवेदनशील होना चाहिए। देश को जिस तरह की आर्थिक क्षति और वैकासिक आघात, साल-दर-साल झेलना पड़ता है उसे देखते हुए, इसे आर्थिक रूप से समझदारी ही कहा जाएगा कि इन उपायों पर थोड़ा-थोड़ा करके नियोजित ढंग से व्यय किया जाए जिससे आपदाओं का शमन और बचाव हो सके, बजाय इसके कि बाद में पुनर्वास और पुनरुद्धार पर कई गुना अधिक खर्च किया जाए। वैकासिक परियोजनाओं और विकास-प्रक्रिया के प्रारूप में आपदा शमन और बचाव के पहलुओं का भी समावेश होना चाहिए, अन्यथा विकास स्थायी रूप नहीं ले सकता और अन्त में इससे देश को अधिक मुसीबतों का सामना करना पड़ेगा और तमाम नुकसान होंगे।
समावेशी विकास की रणनीतियाँ तैयार करने के प्रारम्भिक चरणों में, योजना आयोग ने विकास योजनाओं की मुख्यधारा में आपदा प्रबन्धन को समाविष्ट करने के तौर-तरीके तय करने के लिए एनडीएमए सदस्य डॉ. मोहन काण्डा के अध्यक्षता में एक कार्यकारी समूह का गठन किया, जिसमें भारत सरकार के अनेक सम्बन्धित मन्त्रालयों और विभागों के प्रतिनिधि तथा जाने-माने आपदा प्रबन्धन विशेषज्ञ सदस्य शामिल थे।
इस कार्यकारी समूह की सिफारिशों के आधार पर ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना दस्तावेज ने दसवीं योजना में शुरू की गई संक्रमण की भावना को आगे बढ़ा दिया। ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना दस्तावेज में इस बात पर गौर किया है कि दसवीं योजना ने बचाव, राहत, पुनर्वास और पुनर्निर्माण पर जोर देने वाले अनुक्रिया केन्द्रित आपदा प्रबन्धन के स्थान पर आपदा प्रबन्धन चक्र के अन्य तत्वों— बचाव, शमन और तैयारी पर जोर दिया गया है ताकि वे भावी आपात स्थितियों के प्रभाव को दूर करने या उन्हें हल्का करने का साधन बन सकें।
ग्यारहवीं योजना का उद्देश्य सुरक्षा की संस्कृति को बढ़ावा देने वाली परियोजनाओं और कार्यक्रमों को प्रोत्साहन देकर इस प्रक्रिया को सुदृढ़ एवं आपदा शमन और बचाव को विकास प्रक्रिया में शामिल करना है। आपदा प्रबन्धन अधिनियम की वास्तविक भावना के अनुरूप इस आमूल परिवर्तन को हासिल करने के लिए दिशा-निर्देश और मार्गदर्शन एनडीएमए की ओर से, राज्य सरकारों, केन्द्र शासित प्रदेशों सहित सभी सम्बन्धित दावेदारों की ओर प्रवाहित होने की आवश्यकता है।
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना दस्तावेज के अनुसार 'आपदा प्रबन्धन को नियोजित विकास प्रक्रिया की मुख्यधारा में शामिल करने का अर्थ प्रत्येक उस गतिविधि की समीक्षा करनी होगी जिसकी योजना न केवल आपदा के जोखिम को कम करने के लिए बल्कि खतरे को कम से कम करने की गतिविधि के सम्भावित योगदान को लेकर बनाई जा रही है। मन्त्रालय की प्रत्येक विकास योजना में प्रभाव के आकलन, जोखिम को कम करने वाला और कोई नुकसान न पहुँचाएँ' दृष्टिकोण को शामिल किया जाना चाहिए। इस दृष्टिकोण के उदाहरण हैं— शहरी नियोजन और क्षेत्रवार नियोजन, भवन निर्माण नियमों का उन्नयन और उनका प्रभावी कार्यान्वयन, आपदा-सह्य आवासीय योजनाएँ और स्कूलों तथा अस्पतालों का निर्माण, बाढ़ से सुरक्षा, त्वरित कार्रवाई की तैयारी की योजना बनाना, बीमा, विभिन्न प्रकार की आपदाओं की पूर्व चेतावनी देने वाली प्रणालियों की स्थापना, तकनीकी क्षमता का विकास और अभियन्ताओं, वास्तुशिल्पियों, स्वास्थ्य विशेषज्ञों और वैज्ञानिकों में अनुसन्धान को प्रोत्साहन।'
एनडीएमए ने योजना आयोग और भारत सरकार के सभी सम्बन्धित मन्त्रालयों के परामर्श से, केन्द्रीय और राज्य सरकारों की विकास योजनाओं में आपदा प्रबन्धन कार्यक्रमों के समावेश की समीक्षा के तौर-तरीके निर्धारित किए हैं। इनका प्रारूप योजना आयोग के अनुमोदन के साथ-साथ सभी सम्बन्धित विभागों को योजना प्रस्तावों को भेजते समय अनुपालन के लिए भेज दिया गया है। इस प्रकार, ह्यूगो फ्रेमवर्क फॉर ऐक्शन में प्रस्तावित विकास योजनाओं की मुख्यधारा में आपदा प्रबन्धन को शामिल करने की भावना को मूर्त रूप देने में भारत उन देशों के साथ आ खड़ा हुआ है जिन्होंने सबसे पहले यह कदम उठाया।
चूँकि आपदा की किसी भी स्थिति में पड़ोस के लोग ही मदद के लिए पहले आते हैं, एनडीएमए व्यापक प्रशिक्षण कार्यक्रमों, जनजागृति अभियानों, प्रदर्शन अभ्यासों के जरिये समुदाय आधारित आपदा प्रबन्धन के सुदृढ़ीकरण के लिए सभी दावेदारों के समावेश को प्रोत्साहित कर रहा है।
पिछले कुछ वर्षों में, आपात स्थितियों के दौरान महिलाओं की भूमिका में आया परिवर्तन भी दिखाई दे रहा है। वे अब सामाजिक परिवर्तन के एजेंटों की निष्क्रिय शिकार बने रहने के स्थान पर अपने पास-पड़ोस के आपदा सम्भावित समुदायों में जीवन स्तर को सुधारने में योगदान दे रही हैं और सामाजिक लाभबन्दी के प्रयासों में बड़े पैमाने पर शामिल हो रही हैं।
आपदा के लिए तैयारियों को सुदृढ़ बनाने वाली गतिविधियों में दिशा-निर्देशों की तैयारी, जोखिम के आकलन में सुधार, खतरे की सम्भावना का विश्लेषण और पूर्व चेतावनी प्रणालियों, क्षमता विकास, जनजागृति और मॉक ड्रिल आदि शामिल हैं। एनडीएमए ने भूकम्प, बाढ़, चक्रवात, रासायनिक, जैविक विकिरण सम्बन्धी, नाभिकीय हादसों, चिकित्सा तैयारियों और व्यापक दुर्घटना प्रबन्धन आदि के बारे में राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन दिशा-निर्देश तैयार कर पहले ही जारी कर दिया है। राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन संस्थान (एनआईडीएम) और राज्यों की आपदा प्रबन्धन योजनाओं के निर्माण के लिए भी दिशा-निर्देश तैयार किए जा चुके हैं। भू-स्खलन, सुनामी, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक देखभाल और आघात, आपदा से जुड़ी समुदाय आधारित तैयारियाँ, राहत के न्यूनतम मानक, आपदा प्रबन्धन में गैर-सरकारी संगठनों की भूमिका आदि पर दिशा-निर्देश की तैयारियाँ अन्तिम चरण में हैं।
नागरिक सुरक्षा का पुनर्गठन किया जा रहा है और आपदा प्रबन्धन अब उसके प्रमुख दायित्वों में शामिल है। राज्य सरकारों को इस बात के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है कि पुलिस की मौजूदा बटालियनों में से लेकर राज्य आपदा अनुक्रिया बल (एसडीआरएफ) का गठन प्राकृतिक और मानव निर्मित आपदाओं से उनके भौगोलिक सीमाओं में निपटने के लिए ही किया जाए।
नागरिक सुरक्षा, होम गार्ड्स, भारतीय रेड क्रॉस सोसायटी के स्वयंसेवकों, राष्ट्रीय सेवा योजना के स्वयंसेवकों, नेहरू युवक केन्द्र के स्वयंसेवकों और स्काउट्स एवं गाइड्स को विशेषकर आपदा सम्भावित क्षेत्रों में, सामुदायिक तैयारियों में सुधार लाने में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा। चिकित्सकीय तैयारी और व्यापक दुर्घटना प्रबन्धन के दिशा-निर्देशों में जैसा स्पष्ट किया गया है, ग्यारहवीं योजना के दौरान एकीकृत एम्बुलेंस नेटवर्क, हेलीकॉप्टर एम्बुलेंस, कंटेनर वाले सचल मैदानी अस्पतालों, उन्नत जैव सुरक्षा प्रयोगशालाओं आदि के माध्यम से चिकित्सा तैयारियों को उन्नत बनाया जाएगा। राज्य सरकारों, जिला प्रशासन, एनडीआरएफ अग्निशमन और आपात सेवा कार्मिकों, नागरिक सुरक्षा के कार्मिकों और स्थानीय समुदायों के सहयोग से देश के विभिन्न भागों में 58 प्रदर्शन अभ्यास आयोजित किए गए जिनमें 15 लाख से अधिक लोगों ने भाग लिया।
एमडीएमए ने भूकम्प चक्रवात, बाढ़ और भू-स्खलनों के प्रबन्धन के लिए राष्ट्रीय स्तर की शमन परियोजनाएँ शुरू करने और सम्पर्क सुविधाओं के अन्तिम छोर तक आपदा संचार नेटवर्क को मजबूत बनाने के साथ-साथ राष्ट्रीय आपदा शमन रिजर्व गठित करने के कदम उठाए हैं। जोखिम के आकलन और खतरे का विश्लेषण, छोटे-छोटे क्षेत्रों में बाँटकर सम्भावित खतरों के क्षेत्रों के मानचित्र तैयार करने का कार्य भी शुरू हो चुका है। इस कार्य में सभी सम्बन्धित दावेदारों से सहयोग लिया जा रहा है। अधिक तीव्रता वाले भूकम्पों के प्रति संवेदनशील चौथी और पाँचवीं श्रेणी के अधिक जोखिम वाले भूकम्पीय क्षेत्रों में स्कूली छात्रों, शिक्षकों और अन्य दावेदारों में आपदा शमन और बचाव की तैयारियों तथा आपात स्थिति में त्वरित कार्रवाई की क्षमता को बल प्रदान करने के लिए राष्ट्रीय स्कूल सुरक्षा परियोजना भी शुरू की जा रही है।
आपदा जोखिम में कमी लाई जा सकती है जब सभी नागरिक तकनीकी-वैधानिक व्यवस्था के अनुसार काम करें, क्षमता विकास और जन जागृति अभियानों में सक्रिय रूप से भाग लें और मॉक ड्रिल प्रदर्शन अभ्यास की आवश्यकता का अपने पास-पड़ोस में प्रसार करें। आपदा से निपटने में सक्षम भारत की संकल्पना (विजन) समाज के सभी वर्गों में तैयारी की संस्कृति के विस्तार से ही मूर्त रूप ले सकती है।
(लेखक राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण के सदस्य हैं)
ई-मेल : vinodmenan@ndua.gov.in
प्राकृतिक आपदाओं के कारण प्रति वर्ष हजारों लोग अकाल मृत्यु के शिकार हो जाते हैं और उससे कहीं अधिक लोग घायल और बीमार हो जाते हैं। सम्पत्ति, परिसम्पत्ति और आधारभूत संरचनाओं का जो ह्रास होता है वह अलग।
वर्ष 2004 और 2005 में प्राकृतिक आपदाओं में 3 खरब 50 अरब डॉलर की आर्थिक क्षति हुई। विश्व बैंक के अध्ययनों का अनुमान है कि आपदाओं में मारे गए लोगों में से 97 प्रतिशत लोग विकासशील देशों के होते हैं। एशिया प्रशान्त क्षेत्रों में विश्व के निर्धनों का 63 प्रतिशत हिस्सा रहता है और इस क्षेत्र में अनेक प्रकार की प्राकृतिक और मानव निर्मित आपदाओं का खतरा बना रहता है। इससे पहले से ही हाशिये पर खड़े समुदायों के लिए खतरा और असुरक्षा और भी बढ़ जाती है।
विश्व बैंक का अनुमान है कि आपदाओं से होने वाली क्षति, प्रभावित देशों के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 2 से 15 प्रतिशत के बीच हो सकती है। विश्व आपदा रिपोर्ट, 2003 में कहा गया है कि पिछले दो दशकों में ही, प्रत्यक्ष रूप से होने वाली आर्थिक क्षति में पाँच गुनी वृद्धि हुई है जो कुल मिलाकर 6.29 खरब डॉलर के आसपास ठहरती है। यूएनडीपी की 2004 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, 1960 के दशक में वास्तविक वार्षिक आर्थिक क्षति औसतन 75 अरब 50 करोड़ डॉलर के बराबर रही, जबकि 1970 के दशक में 1 खरब 38 अरब 40 करोड़ डॉलर, 1980 के दशक में 2 खरब 13 अरब 90 करोड़ डॉलर और 1990 के दशक में आपदाओं के कारण होने वाली आर्थिक क्षति 6 खरब 59 अरब 90 करोड़ डॉलर (प्रति वर्ष औसतन) रही।
विकसित देशों की तुलना में विकासशील देशों में प्राकृतिक आपदाओं से होने वाली आर्थिक क्षति जीडीपी के प्रतिशत के मान से 20 गुनी अधिक होती है। उदाहरणार्थ, समोआ में 1991 में आए चक्रवात ‘हरीकेन वैल’ से सकल घरेलू उत्पाद का 230 प्रतिशत नुकसान हुआ। इसी प्रकार, कैरेबियन द्वीप ग्रेनाडा में 2004 के हरीकेन इबान में उसकी जीडीपी के 200 प्रतिशत की क्षति हुई।
आपदाओं की बढ़ती घटना
विकासशील देशों में प्राकृतिक और मानव निर्मित आपदाओं की संख्या बढ़ती जा रही है। नतीजन, अब ज्यादा लोग इनके शिकार हो रहे हैं। अनुमान है कि 1980 और 1984 के बीच, विश्व भर में आई 800 आपदाओं में करीब 40 करोड़ लोगों का जीवन प्रभावित हुआ। 2000 और 2004 के बीच घटित लगभग 1,300 आपदायी घटनाओं में 1 अरब 40 करोड़ लोगों के जीवन पर विपरीत प्रभाव पड़ा। पिछले कुछ दशकों में आपदाओं की संख्या में भी वृद्धि हुई है और प्रभावित होने वाले लोगों की संख्या में भी। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) के ब्यूरो ऑव क्राइसिस प्रिवेंशन एण्ड रिकवरी (बीसीपीआर) के अनुसार विश्व जनंसख्या के करीब 75 प्रतिशत लोग उन क्षेत्रों में निवास करते हैं, जहाँ 1980 से 2000 के बीच भूकम्प, उष्ण-कटिबन्धीय चक्रवात, बाढ़ अथवा सूखे का प्रकोप कम से कम एक बार हो चुका है।
अनुमान है कि 2006 में 108 देशों में 426 आपदायी घटनाएँ हुईं जिनसे 14 करोड़ 30 लाख लोगों का जीवन प्रभावित हुआ और 34 अरब 60 करोड़ डॉलर की आर्थिक क्षति हुई। वर्ष 2008 में 300 से अधिक आपदाएँ घटित हुईं जिनके कारण 2 लाख 35 हजार लोग प्रभावित हुए और 1 खरब 81 अरब डॉलर की आर्थिक क्षति तथा सम्पत्ति का ह्रास हुआ। वर्ष 2008 में आई इन आपदाओं में सबसे विनाशकारी मई 2008 में चीन में आया भूकम्प और उसी महीने म्यांमार में आया नरगिस चक्रवात रहा।
विकासशील देशों के असुरक्षित समुदायों के भविष्य में जलवायु परिवर्तन सम्बन्धी आपदाओं के शिकार होने की सम्भावना ज्यादा बढ़ गई है। यदि जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न होने वाली आपदाओं का सामना करने वाले समाधानों पर विकास की योजनाएँ बनाते हुए ध्यान नहीं दिया गया तो इन आपदा सम्भावित क्षेत्रों में मानव जीवन और सम्पत्ति की क्षति का खतरा सदा बना रहेगा।विकासशील देशों की अति सघन जनसंख्या, विशेषकर अति जोखिम वाले तटीय क्षेत्र, इन आपदाओं की विशेष रूप से शिकार होती हैं। बाढ़, चक्रवात, तूफान जैसी प्राकृतिक आपदाओं में लाखों लोग इन देशों में प्रभावित होते हैं। अमेरिका का प्रमुख नगर न्यूयॉर्क 1950 में विश्व का एकमात्र महानगर था जिसकी जनसंख्या एक करोड़ से अधिक थी। इसके मुकाबले वर्ष 2006 में एक करोड़ से अधिक की आबादी वाले महानगरों की संख्या बढ़कर 25 हो गई। इनमें से 19 महानगर विकासशील देशों में थे। इन 25 महानगरों में 14 तटीय क्षेत्रों में स्थित हैं और इनमें हमेशा ही तूफानों, चक्रवातों, समुद्र की सतह में उफान आदि की आशंका बनी रहती है।
इस प्रकार, विकासशील देशों के असुरक्षित समुदायों के भविष्य में जलवायु परिवर्तन सम्बन्धी आपदाओं के शिकार होने की सम्भावना ज्यादा बढ़ गई है। यदि जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न होने वाली आपदाओं का सामना करने वाले समाधानों पर विकास की योजनाएँ बनाते हुए ध्यान नहीं दिया गया तो इन आपदा सम्भावित क्षेत्रों में मानव जीवन और सम्पत्ति की क्षति का खतरा सदा बना रहेगा।
आपदाओं का जोखिम कम करने हेतु वैश्विक प्रयास
संयुक्त राष्ट्र ने बीसवीं शताब्दी के अन्तिम दशक को अन्तरराष्ट्रीय प्राकृतिक आपदा घटाव दशक (आईडीएनडीआर) घोषित किया था और आपदा सम्भावित समुदायों में आपदाओं से निपटने की तैयारियों को सुदृढ़ बनाने के लिए अनेक रणनीतियाँ बनाईं थीं। आईडीएनडीआर के बाद अन्तरराष्ट्रीय आपदा घटाव रणनीति (आईएसडीआर) शुरू हुई। इसमें बेहतर तैयारी, बेहतर आपदा शमन प्रयासों और बेहतर आपातकालीन अनुक्रिया क्षमताओं के जरिये वैश्विक, क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तरों पर आपदाओं के जोखिम को कम करने के प्रयासों में मजबूती लाने के लिए अनेक संस्थागत तन्त्र का प्रस्ताव किया गया था।
जापान के कोबे नगर में 18 से 22 जनवरी, 2005 के बीच हुए वर्ल्ड कॉन्फ्रेंस ऑन डिजास्टर रिडक्शन में 168 देशों ने ह्यूगो फ्रेमवर्क फॉर ऐक्शन (2005-2015) का अनुमोदन किया था। सम्मेलन में आपदा के बाद अनुक्रिया के स्थान पर आपदा का सामना करने की तैयारियों, शमन प्रयासों और आपदा सम्भावित देशों में आपात स्थिति में कार्रवाई करने की क्षमताओं को सुधारने पर विशेष जोर दिया गया था।
भारत में आपदा प्रबन्धन की पहल
भारत सरकार ने राष्ट्रीय, राज्य और जिला स्तरों पर आपदा प्रबन्धन योजनाएँ तैयार करने के लिए 1999 में एक उच्च शक्ति समिति (एचपीसी) का गठन किया। एचपीसी देश भर में विभिन्न समूहों और मामले में दखल रहने वाले संगठनों से अभी बात कर ही रही थी कि अक्टूबर 1999 में उड़ीसा में चक्रवात का हादसा हो गया। इसके कुछ समय बाद ही 26 जनवरी, 2001 को गुजरात के भुज में भीषण भूकम्प के झटके लगे। इन दोनों आपदाओं ने हमारी तैयारियों और आपात स्थितियों में अनुक्रिया की क्षमताओं की पोल खोल दी और अनेक खामियों को उजागर कर दिया। भारत सरकार द्वारा गठित राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन समिति ने उच्च शक्ति समिति की रिपोर्ट की समीक्षा करने के बाद कुछ सिफारिशों का अनुमोदन कर दिया। इनमें, आपदा प्रबन्धन का मुख्य दायित्व कृषि मन्त्रालय से लेकर भारत सरकार के गृह मन्त्रालय को सौंपा जाना प्रमुख था।
हिन्द महासागर में 26 दिसम्बर, 2004 को आई सुमानी ने केरल, तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश, पुड्डुचेरी और अण्डमान एवं निकोबार द्वीप समूह के तटवर्ती समुदायों का जीवन तबाह कर दिया। इस हादसे के बाद आपदा प्रबन्धन के बारे में गम्भीर प्रयासों की शुरुआत हुई और केन्द्र सरकार ने एक के बाद एक कई कदम उठाए।हिन्द महासागर में 26 दिसम्बर, 2004 को आई सुमानी ने केरल, तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश, पुड्डुचेरी और अण्डमान एवं निकोबार द्वीप समूह के तटवर्ती समुदायों का जीवन तबाह कर दिया। इस हादसे के बाद आपदा प्रबन्धन के बारे में गम्भीर प्रयासों की शुरुआत हुई और केन्द्र सरकार ने एक के बाद एक कई कदम उठाए। भारत उन पहले कुछ देशों में था जिन्होंने राष्ट्रीय, राज्य और जिला स्तरों पर प्रभावी आपदा प्रबन्धन के लिए उपयुक्त संस्थागत व्यवस्था शुरू करने के लिए राष्ट्रीय प्रतिबद्धता व्यक्त की। संसद के दोनों सदनों में आपदा प्रबन्धन विधेयक, 2005 सर्वसम्मति से पारित हुआ जो इस बात की ओर इशारा करता है कि आपदा प्रबन्धन के बारे में सरकार के दृष्टिकोण में आमूल परिवर्तन आया है।
आपदा के उपरान्त अनुक्रिया के स्थान पर आपदा के पूर्व तैयारियों पर अब ज्यादा जोर दिया जा रहा है। आपदा शमन परियोजनाएँ शुरू की जा रही हैं और आपात स्थिति में कार्रवाई करने (अनुक्रिया) की क्षमताओं को सुदृढ़ बनाया जा रहा है। आपदा प्रबन्धन अधिनियम 2005 में आपदा प्रबन्धन योजनाओं के कार्यान्वयन की निगरानी आपदा के प्रभावों के शमन और बचाव के लिए सरकार के विभिन्न विभागों द्वारा किए जाने वाले उपायों और आपदा की स्थिति में समग्र, समन्वित और त्वरित कार्रवाई के लिए योजना बनाने तथा उनके कार्यान्वयन पर निगरानी के लिए आवश्यक संस्थागत व्यवस्था कायम करने पर जोर दिया गया है।
नया वैधानिक और संस्थागत ढाँचा
आपदा प्रबन्धन अधिनियम, 2005 में शीर्ष स्तर पर देश में आपदा प्रबन्धन के लिए प्रधानमन्त्री की अध्यक्षता में राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण (एनडीएमए) के गठन का प्रावधान किया गया है। इसके अलावा राज्य स्तर पर मुख्यमन्त्रियों और जिला स्तर पर जिला कलेक्टरों की अध्यक्षता में आपदा प्रबन्धन प्राधिकरणों की व्यवस्था भी की गई है। जिला स्तर की समितियों की सह अध्यक्षता सम्बन्धित जिला परिषदों के निर्वाचित प्रतिनिधि भी करेंगे। एनडीएमए की पहली बैठक के दौरान प्रधानमन्त्री ने निर्देश दिया कि भारत सरकार के गृह, वित्त और कृषि विभागों के मन्त्री तथा योजना आयोग के उपाध्यक्ष प्राधिकरण की बैठकों में स्थायी आमन्त्रित सदस्य होंगे ताकि निर्णयों में तालमेल बना रहे और विकास की मुख्यधारा में आपदा प्रबन्धन को उचित स्थान मिल सके।
देश में तैयारियों में मजबूती लाने और आपात स्थिति में तुरन्त कार्रवाई शुरू करने के लिए राष्ट्रीय आपदा अनुक्रिया बल (एनडीआरएफ) नाम की एक समर्पित एजेंसी गठित की गई है। एनडीआरएफ की आठ बटालियनें खड़ी की जा चुकी हैं और उन्हें देश के महत्वपूर्ण स्थानों में तैनात किया गया है। एनडीआरएफ को आधुनिकतम जीवन रक्षा उपकरणों, तलाशी और बचाव उपकरणों, हवा भरने वाली नौकाओं से लैस किया गया है और बल के कर्मियों को उनके उपयोग का समुचित प्रशिक्षण भी दिया गया है। एनडीआरएफ की चार बटालियनों के कार्मिकों को रासायनिक, जैविक, विकिरण सम्बन्धी एवं नाभिकीय (सीबीआरएफ) आपात स्थितियों में तैयार रहने के लिए प्रशिक्षण दिया जा रहा है।
देश में तैयारियों में मजबूती लाने और आपात स्थिति में तुरन्त कार्रवाई शुरू करने के लिए राष्ट्रीय आपदा अनुक्रिया बल (एनडीआरएफ) नाम की एक समर्पित एजेंसी गठित की गई है। एनडीआरएफ की आठ बटालियनें खड़ी की जा चुकी हैं और उन्हें देश के महत्वपूर्ण स्थानों में तैनात किया गया है।अपनी स्थापना के बाद से ही एनडीआरएफ के जवानों को विभिन्न प्राकृतिक आपदा घटनाओं के समय स्थानीय प्रशासन की मदद के लिए तैनात किया जाता रहा है। बिहार में 2008 की कोसी की बाढ़ के समय एनडीआरएफ के जवानों ने बाढ़ प्रभावित गाँवों से एक लाख से अधिक लोगों को निकाल कर उन्हें सुरक्षित स्थानों पर पहुँचाया। इस काम में एनडीआरएफ की तलाशी और बचाव टीमों ने बड़ी मदद की। हवा भरने वाली नौकाओं और स्थानीय देसी नौकाओं का प्रबन्ध भी एनडीआरएफ ने ही किया था।
राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन संस्थान (एनआईडीएम) को देश में आपदा प्रबन्धन के लिए शीर्ष प्रशिक्षण संस्था के रूप में स्थापित किया गया है। एनआईडीएम राज्य प्रशिक्षण संस्थाओं में आपदा प्रबन्धन का प्रशिक्षण देने वाले अध्यापकों के क्षमता विकास प्रयासों के समन्वयन का काम करता है। इसके अलावा वह विश्व बैंक संस्था की भागीदारी में आपदा प्रबन्धन के क्षेत्र में कुछ दूरवर्ती शिक्षण कार्यक्रम भी चलाता है। एनआईडीएम सार्क आपदा प्रबन्धन केन्द्र की मेजबानी भी करता है।
आपदा प्रबन्धन विधेयक, 2005 में राष्ट्रीय, राज्य और जिला स्तरों पर आपदा अनुक्रिया कोष और आपदा शमन कोष के गठन का भी प्रावधान किया गया है। चूँकि बारहवें वित्त आयोग की सिफारिशें 2010 तक लागू हैं, इन कोषों की स्थापना के तौर-तरीकों और औचित्य के बारे में तेरहवें वित्त आयोग से विचार-विमर्श जारी है।
राष्ट्रीय संकल्पना
आपदा प्रबन्धन अधिनियम, 2005 में पूर्व के राहत-केन्द्रित अनुक्रिया के स्थान पर आगे बढ़कर स्वयं की बचाव और शमन करने तथा पहले से ही तैयार रहने का जो नया नजरिया अपनाया गया है वह पहले की नीति से आमूल रूप से भिन्न है। इसका उद्देश्य वैकासिक लाभों को बनाए रखने के साथ ही जीवन, आजीविका और सम्पत्ति की क्षति को न्यूनतम स्तर पर लाना है। आपदा प्रबन्धन का राष्ट्रीय विजन देश को सुरक्षित और आपदाओं से निपटने में सक्षम राष्ट्र बनाना है।
इस दूरगामी सोच को फलीभूत करने के लिए समग्र, तमाम तरह के खतरों को झेलने में सक्षम, प्रौद्योगिकी निर्देशित रणनीति अपनाई जाएगी और आपात स्थिति के आने के पूर्व ही प्रभावी कदम उठाए जाएँगे। यह सब बचाव, शमन और तैयारियों की संस्कृति के माध्यम से हासिल किया जाएगा ताकि आपदा के समय त्वरित और प्रभावी कदम उठाए जा सकें। समूची प्रक्रिया में समुदाय को केन्द्र में रखा जाए और सरकारी एजेंसियों तथा सरकारी संगठनों के सामूहिक प्रयासों के जरिये इन कार्यों को गति और ऊर्जा प्रदान की जाएगी।
आपदा प्रबन्धन को विकास नियोजन की मुख्यधारा में लाना
विश्व में प्रचलित विचारधारा के समरूप देश में पहली बार दसवीं पंचवर्षीय योजना के दस्तावेज में आपदा प्रबन्धन पर एक पृथक अध्याय शामिल किया गया। योजना आयोग का विचार है कि अर्थव्यवस्था पर आपदाओं का प्रभाव विनाशकारी होता है, उनसे भारी मानवीय और आर्थिक क्षति होती है और वे किसी राज्य अथवा क्षेत्र के वैकासिक प्रयासों को नुकसान पहुँचा सकते हैं। हाल की दो आपदाओं उड़ीसा का चक्रवात और गुजरात का भूकम्प, इस बात के उदाहरण हैं। साल-दर-साल भारत जिस तरह आर्थिक क्षति सहता रहा है और विकास गतिविधियाँ प्रभावित होती रही हैं, जरूरत है कि विकास प्रक्रिया को आपदाओं से बचाने और उनके शमन के पहलुओं के प्रति संवेदनशील बनाया जाए। आपदाओं को विकास के नजरिये से भी देखे जाने की आवश्यकता है।
दसवीं पंचवर्षीय योजना के दस्तावेज में आगे कहा गया है कि स्थानीय स्तर पर विकास को प्रोत्साहन देने वाले विकास कार्यक्रमों को नियोजन की आम कवायद पर ही छोड़ दिया गया है। आपदा-शमन प्रयासों को स्थानीय स्तर के विकास कार्यों के नियोजन के साथ ही जोड़े जाने की आवश्यकता है। राष्ट्रीय, राज्य, जिला और स्थानीय सभी स्तरों पर आपदाओं के प्रबन्धन की दिशा में कदम उठाने के लिए सहायक और अनुकूल वातावरण बनाए जाने की आवश्यकता है। भारत में आपदा प्रबन्धन की जो भावी योजना है वह इस सिद्धान्त पर आधारित है कि आज के समाज में हादसे प्राकृतिक और अन्य, अवश्यम्भावी हैं और उनसे जो मुसीबतें (आपदाएँ) आती हैं वे भी स्वाभाविक हैं, परन्तु समाज को जब भी वे आए, उनसे प्रभावी तौर पर निपटने के लिये तैयार रहना चाहिए।
जोखिम के पूर्व प्रबन्धन के लिए बहुकोणीय रणनीति तैयार करने की जरूरत है। इसमें एक ओर तो बचाव, तैयारी, अनुक्रिया और स्वास्थ्य लाभ तो दूसरी ओर जोखिम को कम करने तथा शमन के लिए विकास कार्यों की पहल करने की जरूरत है। तभी हम सतत विकास के बारे में सोच सकते हैं।
दसवीं पंचवर्षीय योजना के दस्तावेज में इस बात पर स्पष्ट रूप से जोर दिया गया है कि 'आपदा से सम्बन्धित, जीवन, परिसम्पत्तियों और आर्थिक गतिविधियों की क्षति केवल परिसम्पत्तियों एवं मानवीय ह्रास की मिली-जुली लागत का वहन अकेले न तो कोई समुदाय कर सकता है और न कोई राष्ट्र। अतएव, सभी असुरक्षित क्षेत्रों की विकास योजनाओं में आपदा शमन विश्लेषण को भी शामिल किया जाना चाहिए ताकि परियोजना की सम्भाव्यता का आकलन क्षेत्र की संवेदनशीलता और विकास के निरन्तर शमन के हिसाब से हो सके। विशेषकर भीषण आपदाओं के सम्बन्ध में, आपदा शमन अवयवों के लिए यह भी आवश्यक है कि उन्हें सभी विकास योजनाओं में समाहित किया जाए। पुनर्निर्माण और बाद में होने वाले पुनर्वास पर होने वाले भारी व्यय को बचाने के लिए एक ऐसी व्यवस्था तैयार करनी होगी जिसमें इस बात की गुंजाइश हो कि अधिक आपदा सम्भावित क्षेत्रों में लगने वाली परियोजनाएँ योजना के अन्तर्गत वित्त पोषित परियोजनाओं की अनुमोदित लागत के एक भाग के रूप में प्राकृतिक आपदाओं के झटकों को झेल सके।'
जोखिम के पूर्व प्रबन्धन के लिए बहुकोणीय रणनीति तैयार करने की जरूरत है। इसमें एक ओर तो बचाव, तैयारी, अनुक्रिया और स्वास्थ्य लाभ तो दूसरी ओर जोखिम को कम करने तथा शमन के लिए विकास कार्यों की पहल करने की जरूरत है।और अन्त में, दसवीं पंचवर्षीय योजना का दस्तावेज कहता है कि दसवीं योजना के लिए सन्देश यह है कि सुरक्षित राष्ट्रीय विकास की ओर बढ़ने के लिए, वैकल्पिक परियोजनाओं को आपदा-शमन के प्रति संवेदनशील होना चाहिए। देश को जिस तरह की आर्थिक क्षति और वैकासिक आघात, साल-दर-साल झेलना पड़ता है उसे देखते हुए, इसे आर्थिक रूप से समझदारी ही कहा जाएगा कि इन उपायों पर थोड़ा-थोड़ा करके नियोजित ढंग से व्यय किया जाए जिससे आपदाओं का शमन और बचाव हो सके, बजाय इसके कि बाद में पुनर्वास और पुनरुद्धार पर कई गुना अधिक खर्च किया जाए। वैकासिक परियोजनाओं और विकास-प्रक्रिया के प्रारूप में आपदा शमन और बचाव के पहलुओं का भी समावेश होना चाहिए, अन्यथा विकास स्थायी रूप नहीं ले सकता और अन्त में इससे देश को अधिक मुसीबतों का सामना करना पड़ेगा और तमाम नुकसान होंगे।
समावेशी विकास की रणनीतियाँ तैयार करने के प्रारम्भिक चरणों में, योजना आयोग ने विकास योजनाओं की मुख्यधारा में आपदा प्रबन्धन को समाविष्ट करने के तौर-तरीके तय करने के लिए एनडीएमए सदस्य डॉ. मोहन काण्डा के अध्यक्षता में एक कार्यकारी समूह का गठन किया, जिसमें भारत सरकार के अनेक सम्बन्धित मन्त्रालयों और विभागों के प्रतिनिधि तथा जाने-माने आपदा प्रबन्धन विशेषज्ञ सदस्य शामिल थे।
इस कार्यकारी समूह की सिफारिशों के आधार पर ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना दस्तावेज ने दसवीं योजना में शुरू की गई संक्रमण की भावना को आगे बढ़ा दिया। ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना दस्तावेज में इस बात पर गौर किया है कि दसवीं योजना ने बचाव, राहत, पुनर्वास और पुनर्निर्माण पर जोर देने वाले अनुक्रिया केन्द्रित आपदा प्रबन्धन के स्थान पर आपदा प्रबन्धन चक्र के अन्य तत्वों— बचाव, शमन और तैयारी पर जोर दिया गया है ताकि वे भावी आपात स्थितियों के प्रभाव को दूर करने या उन्हें हल्का करने का साधन बन सकें।
ग्यारहवीं योजना का उद्देश्य सुरक्षा की संस्कृति को बढ़ावा देने वाली परियोजनाओं और कार्यक्रमों को प्रोत्साहन देकर इस प्रक्रिया को सुदृढ़ एवं आपदा शमन और बचाव को विकास प्रक्रिया में शामिल करना है। आपदा प्रबन्धन अधिनियम की वास्तविक भावना के अनुरूप इस आमूल परिवर्तन को हासिल करने के लिए दिशा-निर्देश और मार्गदर्शन एनडीएमए की ओर से, राज्य सरकारों, केन्द्र शासित प्रदेशों सहित सभी सम्बन्धित दावेदारों की ओर प्रवाहित होने की आवश्यकता है।
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना दस्तावेज के अनुसार 'आपदा प्रबन्धन को नियोजित विकास प्रक्रिया की मुख्यधारा में शामिल करने का अर्थ प्रत्येक उस गतिविधि की समीक्षा करनी होगी जिसकी योजना न केवल आपदा के जोखिम को कम करने के लिए बल्कि खतरे को कम से कम करने की गतिविधि के सम्भावित योगदान को लेकर बनाई जा रही है। मन्त्रालय की प्रत्येक विकास योजना में प्रभाव के आकलन, जोखिम को कम करने वाला और कोई नुकसान न पहुँचाएँ' दृष्टिकोण को शामिल किया जाना चाहिए। इस दृष्टिकोण के उदाहरण हैं— शहरी नियोजन और क्षेत्रवार नियोजन, भवन निर्माण नियमों का उन्नयन और उनका प्रभावी कार्यान्वयन, आपदा-सह्य आवासीय योजनाएँ और स्कूलों तथा अस्पतालों का निर्माण, बाढ़ से सुरक्षा, त्वरित कार्रवाई की तैयारी की योजना बनाना, बीमा, विभिन्न प्रकार की आपदाओं की पूर्व चेतावनी देने वाली प्रणालियों की स्थापना, तकनीकी क्षमता का विकास और अभियन्ताओं, वास्तुशिल्पियों, स्वास्थ्य विशेषज्ञों और वैज्ञानिकों में अनुसन्धान को प्रोत्साहन।'
एनडीएमए ने योजना आयोग और भारत सरकार के सभी सम्बन्धित मन्त्रालयों के परामर्श से, केन्द्रीय और राज्य सरकारों की विकास योजनाओं में आपदा प्रबन्धन कार्यक्रमों के समावेश की समीक्षा के तौर-तरीके निर्धारित किए हैं। इनका प्रारूप योजना आयोग के अनुमोदन के साथ-साथ सभी सम्बन्धित विभागों को योजना प्रस्तावों को भेजते समय अनुपालन के लिए भेज दिया गया है। इस प्रकार, ह्यूगो फ्रेमवर्क फॉर ऐक्शन में प्रस्तावित विकास योजनाओं की मुख्यधारा में आपदा प्रबन्धन को शामिल करने की भावना को मूर्त रूप देने में भारत उन देशों के साथ आ खड़ा हुआ है जिन्होंने सबसे पहले यह कदम उठाया।
समुदायों को केन्द्रीय भूमिका में लाना
चूँकि आपदा की किसी भी स्थिति में पड़ोस के लोग ही मदद के लिए पहले आते हैं, एनडीएमए व्यापक प्रशिक्षण कार्यक्रमों, जनजागृति अभियानों, प्रदर्शन अभ्यासों के जरिये समुदाय आधारित आपदा प्रबन्धन के सुदृढ़ीकरण के लिए सभी दावेदारों के समावेश को प्रोत्साहित कर रहा है।
पिछले कुछ वर्षों में, आपात स्थितियों के दौरान महिलाओं की भूमिका में आया परिवर्तन भी दिखाई दे रहा है। वे अब सामाजिक परिवर्तन के एजेंटों की निष्क्रिय शिकार बने रहने के स्थान पर अपने पास-पड़ोस के आपदा सम्भावित समुदायों में जीवन स्तर को सुधारने में योगदान दे रही हैं और सामाजिक लाभबन्दी के प्रयासों में बड़े पैमाने पर शामिल हो रही हैं।
उन्नत तैयारी में निवेश
आपदा के लिए तैयारियों को सुदृढ़ बनाने वाली गतिविधियों में दिशा-निर्देशों की तैयारी, जोखिम के आकलन में सुधार, खतरे की सम्भावना का विश्लेषण और पूर्व चेतावनी प्रणालियों, क्षमता विकास, जनजागृति और मॉक ड्रिल आदि शामिल हैं। एनडीएमए ने भूकम्प, बाढ़, चक्रवात, रासायनिक, जैविक विकिरण सम्बन्धी, नाभिकीय हादसों, चिकित्सा तैयारियों और व्यापक दुर्घटना प्रबन्धन आदि के बारे में राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन दिशा-निर्देश तैयार कर पहले ही जारी कर दिया है। राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन संस्थान (एनआईडीएम) और राज्यों की आपदा प्रबन्धन योजनाओं के निर्माण के लिए भी दिशा-निर्देश तैयार किए जा चुके हैं। भू-स्खलन, सुनामी, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक देखभाल और आघात, आपदा से जुड़ी समुदाय आधारित तैयारियाँ, राहत के न्यूनतम मानक, आपदा प्रबन्धन में गैर-सरकारी संगठनों की भूमिका आदि पर दिशा-निर्देश की तैयारियाँ अन्तिम चरण में हैं।
नागरिक सुरक्षा का पुनर्गठन किया जा रहा है और आपदा प्रबन्धन अब उसके प्रमुख दायित्वों में शामिल है। राज्य सरकारों को इस बात के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है कि पुलिस की मौजूदा बटालियनों में से लेकर राज्य आपदा अनुक्रिया बल (एसडीआरएफ) का गठन प्राकृतिक और मानव निर्मित आपदाओं से उनके भौगोलिक सीमाओं में निपटने के लिए ही किया जाए।
नागरिक सुरक्षा, होम गार्ड्स, भारतीय रेड क्रॉस सोसायटी के स्वयंसेवकों, राष्ट्रीय सेवा योजना के स्वयंसेवकों, नेहरू युवक केन्द्र के स्वयंसेवकों और स्काउट्स एवं गाइड्स को विशेषकर आपदा सम्भावित क्षेत्रों में, सामुदायिक तैयारियों में सुधार लाने में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा। चिकित्सकीय तैयारी और व्यापक दुर्घटना प्रबन्धन के दिशा-निर्देशों में जैसा स्पष्ट किया गया है, ग्यारहवीं योजना के दौरान एकीकृत एम्बुलेंस नेटवर्क, हेलीकॉप्टर एम्बुलेंस, कंटेनर वाले सचल मैदानी अस्पतालों, उन्नत जैव सुरक्षा प्रयोगशालाओं आदि के माध्यम से चिकित्सा तैयारियों को उन्नत बनाया जाएगा। राज्य सरकारों, जिला प्रशासन, एनडीआरएफ अग्निशमन और आपात सेवा कार्मिकों, नागरिक सुरक्षा के कार्मिकों और स्थानीय समुदायों के सहयोग से देश के विभिन्न भागों में 58 प्रदर्शन अभ्यास आयोजित किए गए जिनमें 15 लाख से अधिक लोगों ने भाग लिया।
शमन परियोजनाएँ
एमडीएमए ने भूकम्प चक्रवात, बाढ़ और भू-स्खलनों के प्रबन्धन के लिए राष्ट्रीय स्तर की शमन परियोजनाएँ शुरू करने और सम्पर्क सुविधाओं के अन्तिम छोर तक आपदा संचार नेटवर्क को मजबूत बनाने के साथ-साथ राष्ट्रीय आपदा शमन रिजर्व गठित करने के कदम उठाए हैं। जोखिम के आकलन और खतरे का विश्लेषण, छोटे-छोटे क्षेत्रों में बाँटकर सम्भावित खतरों के क्षेत्रों के मानचित्र तैयार करने का कार्य भी शुरू हो चुका है। इस कार्य में सभी सम्बन्धित दावेदारों से सहयोग लिया जा रहा है। अधिक तीव्रता वाले भूकम्पों के प्रति संवेदनशील चौथी और पाँचवीं श्रेणी के अधिक जोखिम वाले भूकम्पीय क्षेत्रों में स्कूली छात्रों, शिक्षकों और अन्य दावेदारों में आपदा शमन और बचाव की तैयारियों तथा आपात स्थिति में त्वरित कार्रवाई की क्षमता को बल प्रदान करने के लिए राष्ट्रीय स्कूल सुरक्षा परियोजना भी शुरू की जा रही है।
आपदा जोखिम में कमी लाई जा सकती है जब सभी नागरिक तकनीकी-वैधानिक व्यवस्था के अनुसार काम करें, क्षमता विकास और जन जागृति अभियानों में सक्रिय रूप से भाग लें और मॉक ड्रिल प्रदर्शन अभ्यास की आवश्यकता का अपने पास-पड़ोस में प्रसार करें। आपदा से निपटने में सक्षम भारत की संकल्पना (विजन) समाज के सभी वर्गों में तैयारी की संस्कृति के विस्तार से ही मूर्त रूप ले सकती है।
(लेखक राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण के सदस्य हैं)
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