देश में आपदा प्रबन्धन के लिए स्थापित किए गए विभागों पर लगभग दो करोड़ रुपए मासिक व्यय आता है, फिर भी लोगों को आपदा प्रबन्धन का तत्काल लाभ प्रदान नहीं किया जाता है। 21वीं सदी में जीने के बावजूद जिसे वैज्ञानिक युग कहा जाता है, आपदा प्रबन्धन का कोई ठोस फार्मूला ईजाद नहीं किया गया...देश में किसी भी प्रकार की प्राकृतिक आपदा आती है तो उसे नियन्त्रित करने में सरकारी तन्त्र एक प्रकार से असहाय दिखाई देने लगता है। आपदा चाहे राष्ट्रीय हो अथवा क्षेत्रीय, आपदा प्रबन्धन विफल नजर आने लगता है। देश में आपदा प्रबन्धन के लिए स्थापित किए गए विभागों पर लगभग दो करोड़ रुपए मासिक व्यय आता है, फिर भी लोगों को आपदा प्रबन्धन का तत्काल लाभ प्रदान नहीं किया जाता है।
21वीं सदी में जीने के बावजूद जिसे वैज्ञानिक युग कहा जाता है, आपदा प्रबन्धन का कोई ठोस फार्मूला ईजाद नहीं किया गया। जब भी देश के किसी क्षेत्र में आपदा आती है तो राजनीति यह शुरू हो जाती है कि इसे कौन सी आपदा की श्रेणी में रखा जाए। राष्ट्रीय आपदा घोषित किया जाए अथवा क्षेत्रीय आपदा तक सीमित रखा जाए। आपदा प्रबन्धन से जुड़े विभागों से क्यों नहीं पूछताछ की जाती है। विभाग की निगरानी क्यों नहीं की जाती है। कुछ आपदाएँ ऐसी हैं, जिन्हें अपने समय पर आना ही है।
बुंदेलखंड में सूखे की विपदा से लाखों लोग प्रभावित होते हैं। जबकि सूखे की विपदा का प्रबन्धन किया जा सकता है। लेकिन प्रबन्धन के कर्ता-धर्ता समय रहते इस ओर ध्यान नहीं देते और जब स्थिति नाजुक होने लगती है, तब हाथ खड़े कर दिए जाते हैं। दैवीय आपदा के बाद काफी हायतौबा मचाने के बाद सरकारी राहत ऊँट के मुँह में जीरा के समान होती है। इसी दौरान जाने कितने किसान परिवार भुखमरी के शिकार होते हैं और कितने आत्महत्या कर लेते हैं।
यदि समय पर आपदा प्रबन्धन किया गया होता तो जो लोग विपरीत परिस्थितियों के कारण दुनिया से चले गए, उन्हें बचाया जा सकता था। लेकिन जैसे सरकारी तन्त्रों की आदत सी हो गई है, पहले शान्त बने रहो, हालात बिगड़ने पर देखा जाएगा। टालने की प्रवृत्ति के कारण आपदा में हालात नाजुक स्थिति में पहुँच जाते हैं।
इसी प्रकार दूसरी आपदा बाढ़ की है, जो देश के किसी न किसी भाग में प्रतिवर्ष आती है और बड़ी तबाही मचाती है। बीते पचास वर्षों से बाढ़ आपदा से निपटने की कोई कारगर रणनीति नहीं बनाई गई। इस आपदा को लोग अपना नसीब मानने लगे हैं। आमतौर पर लोग सोचते हैं कि ये दैवीय आपदाएँ हैं, जिसका परिणाम झेलना हमारा नसीब है। लोगों को यह नहीं पता कि यह दैवीय आपदा नहीं है, यह हमारे नीति नियंताओं के गलत प्रबन्धन का दुष्परिणाम है।
देश में बाढ़ की जानकारी देने के लिए कुल 116 केन्द्र स्थापित किए गए हैं, जिनमें 134 केन्द्र जलस्तर व 32 केन्द्र जल के प्रवाह की जानकारी प्रदान करते हैं। अक्टूबर 2007 में यूरोपीय सहायता संगठन की मदद से 17 राज्यों में बाढ़ प्रभावित 169 जनपदों में आपदा प्रबन्धन कार्य किया जा रहा है, लेकिन यह आपदा ऐसी है, जो इतने के बावजूद कम के बजाय अधिक होती जा रही है।
देश में दिनोंदिन बाढ़ प्रभावित क्षेत्र बढ़ते जा रहे हैं। 1980 से 2010 के मध्य लगभग 25 फीसदी बाढ़ प्रभावित क्षेत्र में वृद्धि दर्ज की गई। बाढ़ का प्रमुख कारण जब किसी बड़े बाँध से ढेर सारा पानी छोड़ा जाता है तो उसकी जद में आने वाले गाँवों का वजूद मिटने लगता है। इसे रोका जा सकता है यह बाढ़ पूर्ण रूप से प्रबन्धन की कमी के कारण पैदा हुई है। लेकिन विभागीय अधिकारी इस ओर से आँख बंद करके बैठे रहते हैं और बरसात में जब बाँध में आवश्यकता से अधिक पानी हो जाता है तो बाँध टूटने का खतरा बताते हुए उससे ढ़ेर सारा पानी एक साथ छोड़ दिया जाता है।
यह किसी प्रकार की दैवीय आपदा नहीं है, जिसका खामियाजा जान माल गवाँकर लोग भुगतते हैं। इसे सौ फीसदी रणनीति के तहत रोका जा सकता है, लेकिन विभाग की सुसुप्तावस्था के कारण लोग बाढ़ की विभीषिका झेलने को अभिशप्त हैं। हैरत की बात हैै, बीते पचास वर्षों के दौरान तटबँधों के तटवर्ती क्षेत्रों की सुरक्षा की योजना नहीं बनाई जा सकी है। इसी प्रकार तीसरी आपदा, जो आती है, उसे भी नियन्त्रित किया जा सकता है, लेकिन नहीं किया जाता है।
बाढ़ के पश्चात तमाम बीमारियाँ महामारी बनकर उस क्षेत्र में धावा बोल देती हैं, जो सुनिश्चित है, लेकिन प्रबन्धन करने वाले विभाग लोगों के मरने का इन्तजार करते रहते हैं। जब महामारी की नौबत आ जाती है, तब विभाग अपनी चिर निद्रा से जागता है और हाथ-पाँव मारना शुरू करता है।
लेकिन इस दौरान सैकड़ों लोग काल कवलित हो चुके होते हैं। यहाँ भी लोग अपने नसीब को कोसते हैं कि हमारे नसीब में यही था, जबकि इस त्रासदी को भी रोका जा सकता था, जोकि लापरवाही के कारण नहीं रोका गया। इन सभी विपदाओं की ओर समय पर ध्यान क्यों नहीं दिया जाता, जबकि उक्त विपदाएँ प्रतिवर्ष आती हैं और आगे भी आती रहेंगी।
21वीं सदी में जीने के बावजूद जिसे वैज्ञानिक युग कहा जाता है, आपदा प्रबन्धन का कोई ठोस फार्मूला ईजाद नहीं किया गया। जब भी देश के किसी क्षेत्र में आपदा आती है तो राजनीति यह शुरू हो जाती है कि इसे कौन सी आपदा की श्रेणी में रखा जाए। राष्ट्रीय आपदा घोषित किया जाए अथवा क्षेत्रीय आपदा तक सीमित रखा जाए। आपदा प्रबन्धन से जुड़े विभागों से क्यों नहीं पूछताछ की जाती है। विभाग की निगरानी क्यों नहीं की जाती है। कुछ आपदाएँ ऐसी हैं, जिन्हें अपने समय पर आना ही है।
बुंदेलखंड में सूखे की विपदा से लाखों लोग प्रभावित होते हैं। जबकि सूखे की विपदा का प्रबन्धन किया जा सकता है। लेकिन प्रबन्धन के कर्ता-धर्ता समय रहते इस ओर ध्यान नहीं देते और जब स्थिति नाजुक होने लगती है, तब हाथ खड़े कर दिए जाते हैं। दैवीय आपदा के बाद काफी हायतौबा मचाने के बाद सरकारी राहत ऊँट के मुँह में जीरा के समान होती है। इसी दौरान जाने कितने किसान परिवार भुखमरी के शिकार होते हैं और कितने आत्महत्या कर लेते हैं।
यदि समय पर आपदा प्रबन्धन किया गया होता तो जो लोग विपरीत परिस्थितियों के कारण दुनिया से चले गए, उन्हें बचाया जा सकता था। लेकिन जैसे सरकारी तन्त्रों की आदत सी हो गई है, पहले शान्त बने रहो, हालात बिगड़ने पर देखा जाएगा। टालने की प्रवृत्ति के कारण आपदा में हालात नाजुक स्थिति में पहुँच जाते हैं।
इसी प्रकार दूसरी आपदा बाढ़ की है, जो देश के किसी न किसी भाग में प्रतिवर्ष आती है और बड़ी तबाही मचाती है। बीते पचास वर्षों से बाढ़ आपदा से निपटने की कोई कारगर रणनीति नहीं बनाई गई। इस आपदा को लोग अपना नसीब मानने लगे हैं। आमतौर पर लोग सोचते हैं कि ये दैवीय आपदाएँ हैं, जिसका परिणाम झेलना हमारा नसीब है। लोगों को यह नहीं पता कि यह दैवीय आपदा नहीं है, यह हमारे नीति नियंताओं के गलत प्रबन्धन का दुष्परिणाम है।
देश में बाढ़ की जानकारी देने के लिए कुल 116 केन्द्र स्थापित किए गए हैं, जिनमें 134 केन्द्र जलस्तर व 32 केन्द्र जल के प्रवाह की जानकारी प्रदान करते हैं। अक्टूबर 2007 में यूरोपीय सहायता संगठन की मदद से 17 राज्यों में बाढ़ प्रभावित 169 जनपदों में आपदा प्रबन्धन कार्य किया जा रहा है, लेकिन यह आपदा ऐसी है, जो इतने के बावजूद कम के बजाय अधिक होती जा रही है।
देश में दिनोंदिन बाढ़ प्रभावित क्षेत्र बढ़ते जा रहे हैं। 1980 से 2010 के मध्य लगभग 25 फीसदी बाढ़ प्रभावित क्षेत्र में वृद्धि दर्ज की गई। बाढ़ का प्रमुख कारण जब किसी बड़े बाँध से ढेर सारा पानी छोड़ा जाता है तो उसकी जद में आने वाले गाँवों का वजूद मिटने लगता है। इसे रोका जा सकता है यह बाढ़ पूर्ण रूप से प्रबन्धन की कमी के कारण पैदा हुई है। लेकिन विभागीय अधिकारी इस ओर से आँख बंद करके बैठे रहते हैं और बरसात में जब बाँध में आवश्यकता से अधिक पानी हो जाता है तो बाँध टूटने का खतरा बताते हुए उससे ढ़ेर सारा पानी एक साथ छोड़ दिया जाता है।
यह किसी प्रकार की दैवीय आपदा नहीं है, जिसका खामियाजा जान माल गवाँकर लोग भुगतते हैं। इसे सौ फीसदी रणनीति के तहत रोका जा सकता है, लेकिन विभाग की सुसुप्तावस्था के कारण लोग बाढ़ की विभीषिका झेलने को अभिशप्त हैं। हैरत की बात हैै, बीते पचास वर्षों के दौरान तटबँधों के तटवर्ती क्षेत्रों की सुरक्षा की योजना नहीं बनाई जा सकी है। इसी प्रकार तीसरी आपदा, जो आती है, उसे भी नियन्त्रित किया जा सकता है, लेकिन नहीं किया जाता है।
बाढ़ के पश्चात तमाम बीमारियाँ महामारी बनकर उस क्षेत्र में धावा बोल देती हैं, जो सुनिश्चित है, लेकिन प्रबन्धन करने वाले विभाग लोगों के मरने का इन्तजार करते रहते हैं। जब महामारी की नौबत आ जाती है, तब विभाग अपनी चिर निद्रा से जागता है और हाथ-पाँव मारना शुरू करता है।
लेकिन इस दौरान सैकड़ों लोग काल कवलित हो चुके होते हैं। यहाँ भी लोग अपने नसीब को कोसते हैं कि हमारे नसीब में यही था, जबकि इस त्रासदी को भी रोका जा सकता था, जोकि लापरवाही के कारण नहीं रोका गया। इन सभी विपदाओं की ओर समय पर ध्यान क्यों नहीं दिया जाता, जबकि उक्त विपदाएँ प्रतिवर्ष आती हैं और आगे भी आती रहेंगी।
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Post By: RuralWater