आपदाएं केवल जलवायु परिवर्तन ही नहीं बल्कि मानवकृत विकास से उत्पन्न त्रासदी के रूप में भी सामने आ रही है यह पुणे के मलिण गांव और उत्तराखंड के जखन्याली नौताड़ की घटना से सीखना चाहिए-
इस बार पुणे के मालिण गांव एवं उत्तराखंड के जखन्याली नौताड़ मे आई आपदा में लगभग पौने दो सौ लोग मारे गए हैं। आपदा प्रभावित ये दोनों गांव पहाड़ी क्षेत्र में निवास करते हैं। दोनों गांव के साथ प्रशासन की चूक बताई जा रही है। कहा जा रहा है कि यदि पहले सुरक्षा के इंतजाम किए जाते तो लोगों को बचाया जा सकता था।
जखन्याली नौताड़ के आस-पास पिछले वर्ष केदारनाथ आपदा के दौरान भी भूस्खलन हुआ था जो गांव की ओर सक्रिय होता रहा है। गांव के निवासियों ने इसको रोकने के लिए सुरक्षा दीवार लगाने की बार-बार मांग की थी, लेकिन पिछले 1 वर्ष में कोई सुरक्षा के इंतजाम वहाँ नहीं किए गए हैं।
30 जुलाई 2014 की रात को हुई घटना के बाद जखन्याली नौताड़ में ग्रामीणों का कहना है कि यदि लोक निर्माण विभाग इस गांव में भूस्खलन को न्योता देने वाले रईस गदेरे के दोनों ओर सुरक्षा दीवार बना देता तो आज यहां पर 14-15 घर मलबे में नहीं समा सकते थे और न ही 6 लोगों की जान-माल का खतरा होता।
इसी तरह मालिण गांव में भी आपदा प्रबंधन की पोल खुल गई है। यहां पर भी पवन चक्कियों के कारण गांव में भूस्खलन हुआ हैै। कृषि विभाग को भी लोग वहां पर इस घटना के लिए जिम्मेदार बता रहे हैं। पर्यावरणविद् माधव गाड़गिल ने भी पवन चक्कियों को मालिण गांव की तबाही का कारण बताया है। वहां पर बड़े पैमाने पर वृक्षों का कटान, पत्थरों के खनन के साथ अवैध निर्माण ने ही गांव के 160 से अधिक लोगों को जिंदा दफना दिया है।
16-17 जूून 2013 को केदारनाथ (उत्तराखंड) में आई आपदा के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह जी एवं वर्तमान राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने भी उत्तराखंड की आपदा को मानवजनित बताया था जिसमें उन्होंने निर्देश दिए थे कि भविष्य में ऐसी घटनाओं को रोकने के उपाय खोजे जाने चाहिए।
उत्तराखंड में इस आपदा के बाद विशेषकर पहाड़ों व हिमालय की गोद में बसी हुई आबादी और यहां की देवभूमि के रूप में आकर्षित करने वाली धरती पर बार-बार आ रहे संकट को देखते हुए सरकारी तथा गैर सरकारी संस्थाओं व वैज्ञानिकों ने दो दर्जन से अधिक अध्ययन किए हैं।
हाल ही में गांधी शांति पुरस्कार से सम्मानित चिपको के प्रणेता श्री चंडी प्रसाद भट्ट की एक रिपोर्ट में लिखा गया है कि 1991 के भूकंप से उत्तरकाशी से पिथौरागढ़ को जोड़ने वाली पहाड़ियों पर दरारें पड़ी हुई हैं इसके बाद भी लगातार छोटे-बड़े भूकंप आ रहे हैं, जो भूस्खलन को बार-बार न्यौता देगी।
उत्तरकाशी से गंगोत्री के बीच बड़े-बड़े सुरंग बांधों के निर्माण से उन्होंने बड़ी तबाही के संकेत पहले ही दिए थे। इसके बाद यहां पर सन् 2010 से सन् 2013 तक लगातार बाढ़ आई है जिसके कारण 100 से अधिक लोग केवल उत्तरकाशी में ही मरे हैं। केदारनाथ की तबाही के बाद सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर डाॅ. रवि चोपड़ा की अध्यक्षता में गठित एक विशेषज्ञ समिति ने अध्ययन करके यह साबित किया है कि भारी बारिश के चलते लगभग 24 सुरंग बांधों के निर्माण से नदी तटों पर जमा हुए मलबे के ढेरों ने अधिकतर गांवों में तबाही की कहानी लिख दी थी। जिस पर तत्काल काम बंद करने के आदेश भी दिए गए थे। पहाड़ों की गोद को छलनी करने वाली जेसीबी मशीनों ने सड़कों के चौड़ीकरण के दौरान आपदा की अधिक गुंजाइशें पैदा की है यह बात कई रिर्पोटों में खुलकर सामने आई हैं।
इस रिपोर्ट में आगे लिखा है कि इसकी सूचना देने पर भी हजारों यात्रियों को केदारनाथ, गंगोत्री, यमनोत्री, बद्रीनाथ जाने दिया गया था। माउंटेन क्लैक्टिव द्वार उत्तराखंड में आपदा प्रभावित दलितों की आवाज नामक रिपोर्ट में बताया गया है कि एक ओर तो आपदा सभी के लिए बुरे दिन लेकर आती है वहीं आपदा राहत वितरण में दलित समाज को जाति का दंश झेलना पड़ता है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि रुद्रप्रयाग जिले के डमार गांव के अनुसूचित जाति के परिवारों को जब सरकार ने पास के गांव के सुरक्षित घरों में पहुंचाया तो उन्हें वहां पर खाना बनाने के लिए आग तक नहीं जलाने दी गई है। इसके अलावा उन्हें पर्याप्त मुआवजा भी नहीं मिला है। यहां से कुछ ही दूरी पर चन्द्रापुरी गांव की दलित बस्ती को सुरक्षित स्थान पर बसाने के लिए कई बार प्रशासन से गुहार करनी पड़ रही है।
गंगोत्री, यमुनोत्री, केदारनाथ, बद्रीनाथ में आने वाले तीर्थ यात्रियों पर इसका भारी प्रभाव इस बार देखने को मिल रहा है। खतरनाक सड़कों और खराब मौसम के चलते सैकड़ों तीर्थयात्री बीच-बीच में गाड़ियों पर ही सोने को मजबूर हो रहे हैं। जहां पिछले वर्ष जून 2013 लगभग ढाई लाख यात्री केवल गंगोत्री-यमुनोत्री आए थे वहीं इस बार केवल 35 हजार यात्री ही यहां पहुंचे हैं। जिसके कारण लगभग 40 हजार से अधिक लोगों का रोजगार प्रभावित हुआ है।
पर्यटन व तीर्थाटन के विकास में सड़कों का महत्व बहुत बड़ा माना जाता है। यहां तो स्थिति यह है कि पिछले 10 वर्षों में उत्तराखंड की सड़कों के कुल बजट में से बमुश्किल 30 प्रतिशत से अधिक खर्च ही नहीं हुआ है। यह संकेत निर्माण कार्यों की गुणवत्ता के कारण दिखाई दे रहा है।
इन घटनाओं के लिए जलवायु परिवर्तन को सरलता से जिम्मेदार बनाया जा सकता है। लेकिन यह भी सोचें कि इस तरह के जलवायु संकट को बढ़ाने वाले कारक कौन हैं? इसका पता लगाने के बाद ही आपदा को कम किया जा सकता है।
दुखः इस बात का भी है कि आपदा प्रबंध तंत्र समाज के लिए उतना जिम्मेदार नहीं है जितनी उन्होंने जिलाधिकारी, पुलिस अधिकारी और आपदा प्रबंधन विभाग पर डाल रखी है। समाज के साथ मिलकर काम करने की मजबूत आपदा नीति की भी आवश्यकता है, जो विभाग आपदा की गुजांइश पैदा करता है उसे तो दोषी बनाना ही होगा।
अब एक उदाहरण जो पिछले दिनों हिमाचल प्रदेश का है जहां व्यास नदी पर लारजी बिजली प्रोजेक्ट बांध से छोड़े गए पानी के कारण 24 छात्र-छात्राएं जिंदा बह गए थे यह एक तरह की भीषण मानवजनित आपदा है जिसने अनजाने में इतनी जिंदगियों क्षण भर में मृत्यु की गोद में सुला दिया है। बाढ़-अतिवृष्टि, बर्फबारी, भूस्खलन की घटनाएं पहले भी थी लेकिन अब जो प्राकृतिक आपदाएं आ रही है उस पर सवाल क्यों खड़े हो रहे हैं? इस दिशा में राज्यों का ध्यान जाना चाहिए, और केंद्र को भी नदियों, पर्वतों में हिमालय क्षेत्र हो या मैदानों का दोनों स्थितियों में बसी हुई आबादी की सुरक्षा के उपाय भी ढूंढने होंगे।
उत्तराखंड के जखन्याली नौताड़ और पुणे के मालिण गांव की घटना का दोषी किसे माना जाए? जिसने इतनी बड़ी आपदा सामने लाई है। वे लोग जो प्रकृति संहारक विकास विरोधी हैं उनके अनुसार तो यह मानव जनित आपदा है। लेकिन जिन्होंन सुरक्षा के काम पहले कर देने थे वे इसे प्राकृतिक आपदा ही कहेंगे। आज समस्या की जड़ ही यह बन गई है कि विकास के नाम पर पहाड़ों की कंदराओं में बसे हुए गांव तबाही के कगार पर खड़े हैं। वहां से भारी संख्या में लोग पलायन कर रहे हैं। यह संदेश इन दो घटनाओं ने दिया है।
लेखक उत्तराखंड के जाने माने गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता हैं।
इस बार पुणे के मालिण गांव एवं उत्तराखंड के जखन्याली नौताड़ मे आई आपदा में लगभग पौने दो सौ लोग मारे गए हैं। आपदा प्रभावित ये दोनों गांव पहाड़ी क्षेत्र में निवास करते हैं। दोनों गांव के साथ प्रशासन की चूक बताई जा रही है। कहा जा रहा है कि यदि पहले सुरक्षा के इंतजाम किए जाते तो लोगों को बचाया जा सकता था।
जखन्याली नौताड़ के आस-पास पिछले वर्ष केदारनाथ आपदा के दौरान भी भूस्खलन हुआ था जो गांव की ओर सक्रिय होता रहा है। गांव के निवासियों ने इसको रोकने के लिए सुरक्षा दीवार लगाने की बार-बार मांग की थी, लेकिन पिछले 1 वर्ष में कोई सुरक्षा के इंतजाम वहाँ नहीं किए गए हैं।
30 जुलाई 2014 की रात को हुई घटना के बाद जखन्याली नौताड़ में ग्रामीणों का कहना है कि यदि लोक निर्माण विभाग इस गांव में भूस्खलन को न्योता देने वाले रईस गदेरे के दोनों ओर सुरक्षा दीवार बना देता तो आज यहां पर 14-15 घर मलबे में नहीं समा सकते थे और न ही 6 लोगों की जान-माल का खतरा होता।
इसी तरह मालिण गांव में भी आपदा प्रबंधन की पोल खुल गई है। यहां पर भी पवन चक्कियों के कारण गांव में भूस्खलन हुआ हैै। कृषि विभाग को भी लोग वहां पर इस घटना के लिए जिम्मेदार बता रहे हैं। पर्यावरणविद् माधव गाड़गिल ने भी पवन चक्कियों को मालिण गांव की तबाही का कारण बताया है। वहां पर बड़े पैमाने पर वृक्षों का कटान, पत्थरों के खनन के साथ अवैध निर्माण ने ही गांव के 160 से अधिक लोगों को जिंदा दफना दिया है।
16-17 जूून 2013 को केदारनाथ (उत्तराखंड) में आई आपदा के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह जी एवं वर्तमान राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने भी उत्तराखंड की आपदा को मानवजनित बताया था जिसमें उन्होंने निर्देश दिए थे कि भविष्य में ऐसी घटनाओं को रोकने के उपाय खोजे जाने चाहिए।
उत्तराखंड में इस आपदा के बाद विशेषकर पहाड़ों व हिमालय की गोद में बसी हुई आबादी और यहां की देवभूमि के रूप में आकर्षित करने वाली धरती पर बार-बार आ रहे संकट को देखते हुए सरकारी तथा गैर सरकारी संस्थाओं व वैज्ञानिकों ने दो दर्जन से अधिक अध्ययन किए हैं।
हाल ही में गांधी शांति पुरस्कार से सम्मानित चिपको के प्रणेता श्री चंडी प्रसाद भट्ट की एक रिपोर्ट में लिखा गया है कि 1991 के भूकंप से उत्तरकाशी से पिथौरागढ़ को जोड़ने वाली पहाड़ियों पर दरारें पड़ी हुई हैं इसके बाद भी लगातार छोटे-बड़े भूकंप आ रहे हैं, जो भूस्खलन को बार-बार न्यौता देगी।
उत्तरकाशी से गंगोत्री के बीच बड़े-बड़े सुरंग बांधों के निर्माण से उन्होंने बड़ी तबाही के संकेत पहले ही दिए थे। इसके बाद यहां पर सन् 2010 से सन् 2013 तक लगातार बाढ़ आई है जिसके कारण 100 से अधिक लोग केवल उत्तरकाशी में ही मरे हैं। केदारनाथ की तबाही के बाद सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर डाॅ. रवि चोपड़ा की अध्यक्षता में गठित एक विशेषज्ञ समिति ने अध्ययन करके यह साबित किया है कि भारी बारिश के चलते लगभग 24 सुरंग बांधों के निर्माण से नदी तटों पर जमा हुए मलबे के ढेरों ने अधिकतर गांवों में तबाही की कहानी लिख दी थी। जिस पर तत्काल काम बंद करने के आदेश भी दिए गए थे। पहाड़ों की गोद को छलनी करने वाली जेसीबी मशीनों ने सड़कों के चौड़ीकरण के दौरान आपदा की अधिक गुंजाइशें पैदा की है यह बात कई रिर्पोटों में खुलकर सामने आई हैं।
उत्तरकाशी से गंगोत्री के बीच बड़े-बड़े सुरंग बांधों के निर्माण से उन्होंने बड़ी तबाही के संकेत पहले ही दिए थे। इसके बाद यहां पर सन् 2010 से सन् 2013 तक लगातार बाढ़ आई है जिसके कारण 100 से अधिक लोग केवल उत्तरकाशी में ही मरे हैं। भारी बारिश के चलते लगभग 24 सुरंग बांधों के निर्माण से नदी तटों पर जमा हुए मलबे के ढेरों ने अधिकतर गांवों में तबाही की कहानी लिख दी थी। पहाड़ों की गोद को छलनी करने वाली जेसीबी मशीनों ने सड़कों के चौड़ीकरण के दौरान आपदा की अधिक गुंजाइशें पैदा की है यह बात कई रिर्पोटों में खुलकर सामने आई हैं।
आपदा पर उत्तराखंड की आवाज नामक एक नागरिक रिपोर्ट में लिखा गया है कि 16-17 जून की आपदा से 5-6 वर्ष पहलेे ही पर्यावरणविदों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, मौसमविदों और आम जन ने जिस तरह से संयमित विकास का सुझाव सरकार को दिया था यदि उसे अनसुना न किया जाता तोेेे जान-माल का इतना नुकसान नहीं हो सकता था। मौसम विभाग ने 9-10 जून 2013 को ही उत्तराखंड में एक बड़ी आपदा आने की सूचना के संकेत पहले ही दे दिए थे।इस रिपोर्ट में आगे लिखा है कि इसकी सूचना देने पर भी हजारों यात्रियों को केदारनाथ, गंगोत्री, यमनोत्री, बद्रीनाथ जाने दिया गया था। माउंटेन क्लैक्टिव द्वार उत्तराखंड में आपदा प्रभावित दलितों की आवाज नामक रिपोर्ट में बताया गया है कि एक ओर तो आपदा सभी के लिए बुरे दिन लेकर आती है वहीं आपदा राहत वितरण में दलित समाज को जाति का दंश झेलना पड़ता है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि रुद्रप्रयाग जिले के डमार गांव के अनुसूचित जाति के परिवारों को जब सरकार ने पास के गांव के सुरक्षित घरों में पहुंचाया तो उन्हें वहां पर खाना बनाने के लिए आग तक नहीं जलाने दी गई है। इसके अलावा उन्हें पर्याप्त मुआवजा भी नहीं मिला है। यहां से कुछ ही दूरी पर चन्द्रापुरी गांव की दलित बस्ती को सुरक्षित स्थान पर बसाने के लिए कई बार प्रशासन से गुहार करनी पड़ रही है।
गंगोत्री, यमुनोत्री, केदारनाथ, बद्रीनाथ में आने वाले तीर्थ यात्रियों पर इसका भारी प्रभाव इस बार देखने को मिल रहा है। खतरनाक सड़कों और खराब मौसम के चलते सैकड़ों तीर्थयात्री बीच-बीच में गाड़ियों पर ही सोने को मजबूर हो रहे हैं। जहां पिछले वर्ष जून 2013 लगभग ढाई लाख यात्री केवल गंगोत्री-यमुनोत्री आए थे वहीं इस बार केवल 35 हजार यात्री ही यहां पहुंचे हैं। जिसके कारण लगभग 40 हजार से अधिक लोगों का रोजगार प्रभावित हुआ है।
पर्यटन व तीर्थाटन के विकास में सड़कों का महत्व बहुत बड़ा माना जाता है। यहां तो स्थिति यह है कि पिछले 10 वर्षों में उत्तराखंड की सड़कों के कुल बजट में से बमुश्किल 30 प्रतिशत से अधिक खर्च ही नहीं हुआ है। यह संकेत निर्माण कार्यों की गुणवत्ता के कारण दिखाई दे रहा है।
इन घटनाओं के लिए जलवायु परिवर्तन को सरलता से जिम्मेदार बनाया जा सकता है। लेकिन यह भी सोचें कि इस तरह के जलवायु संकट को बढ़ाने वाले कारक कौन हैं? इसका पता लगाने के बाद ही आपदा को कम किया जा सकता है।
दुखः इस बात का भी है कि आपदा प्रबंध तंत्र समाज के लिए उतना जिम्मेदार नहीं है जितनी उन्होंने जिलाधिकारी, पुलिस अधिकारी और आपदा प्रबंधन विभाग पर डाल रखी है। समाज के साथ मिलकर काम करने की मजबूत आपदा नीति की भी आवश्यकता है, जो विभाग आपदा की गुजांइश पैदा करता है उसे तो दोषी बनाना ही होगा।
अब एक उदाहरण जो पिछले दिनों हिमाचल प्रदेश का है जहां व्यास नदी पर लारजी बिजली प्रोजेक्ट बांध से छोड़े गए पानी के कारण 24 छात्र-छात्राएं जिंदा बह गए थे यह एक तरह की भीषण मानवजनित आपदा है जिसने अनजाने में इतनी जिंदगियों क्षण भर में मृत्यु की गोद में सुला दिया है। बाढ़-अतिवृष्टि, बर्फबारी, भूस्खलन की घटनाएं पहले भी थी लेकिन अब जो प्राकृतिक आपदाएं आ रही है उस पर सवाल क्यों खड़े हो रहे हैं? इस दिशा में राज्यों का ध्यान जाना चाहिए, और केंद्र को भी नदियों, पर्वतों में हिमालय क्षेत्र हो या मैदानों का दोनों स्थितियों में बसी हुई आबादी की सुरक्षा के उपाय भी ढूंढने होंगे।
उत्तराखंड के जखन्याली नौताड़ और पुणे के मालिण गांव की घटना का दोषी किसे माना जाए? जिसने इतनी बड़ी आपदा सामने लाई है। वे लोग जो प्रकृति संहारक विकास विरोधी हैं उनके अनुसार तो यह मानव जनित आपदा है। लेकिन जिन्होंन सुरक्षा के काम पहले कर देने थे वे इसे प्राकृतिक आपदा ही कहेंगे। आज समस्या की जड़ ही यह बन गई है कि विकास के नाम पर पहाड़ों की कंदराओं में बसे हुए गांव तबाही के कगार पर खड़े हैं। वहां से भारी संख्या में लोग पलायन कर रहे हैं। यह संदेश इन दो घटनाओं ने दिया है।
लेखक उत्तराखंड के जाने माने गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता हैं।
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Post By: Shivendra