आपदा का मलवा: अधिकारियों के लिए बना मुनाफे का हलवा

आपदा का सबसे बड़ा असर इसी वर्ग को झेलना होता है। जो सिर्फ वोट देकर अपने प्रतिनिधि चुनता है। कौन निर्माण कार्य करा रहा है? क्यों करा रहा है? घटिया निर्माण क्यों होता है? किसने इजाजत दी? कोई जनसुनवाई हुई क्या? जैसे सवालों से आम जन अक्सर बचा रहता है और घटिया निर्माण कार्य धड़ल्ले से जारी रहता है। आखिर में घटिया निर्माण के कारण आपदा से होने वाले जान-माल के नुकसान की सबसे ज़्यादा क्षति इसी वर्ग को होती है। यह वर्ग सरकार से अपील करते हुए कहता है कि हमारी जान की क्या कोई कीमत नहीं, अगर है तो घटिया निर्माण कार्य राज्य में इतने बड़े पैमाने पर धड़ल्ले से क्यों जारी है? मानवीय भूल और बेतहाशा दोहन का परिणाम देश भर में अलग-अलग रूपों में आई आपदा से स्पष्ट होता रहता है। उत्तराखंड में आपदा की सोच ही सिहरन पैदा करती है। हजारों मौतों का गवाह यह प्रदेश हाल फिलहाल तो निर्माण कार्यों से मुनाफा बनाने की जमीन बन चुका है। आपदा राहत के नाम पर हरिद्वार से उत्तरकाशी तक सम्बन्धित अधिकारियों द्वारा चाँदी बटोरने का काम जारी है। दैनिक अखबारों और चैनलों में कोई खास हलचल नहीं दिखाई देती और न ही मौजूदा सरकार इस मुद्दे पर तेजी दिखा रही है। सवाल उस पैसे का है जो प्रभावितों को राहत देने के लिए स्वीकृत हुआ है। देहरादून से प्रकाशित पर्वत जन का जून माह का अंक आपदा के घोटाले की पर्तें खोल रहा है। पत्रिका के हर पन्ने में आपदा घोटाले की एक नई खबर है।

पत्रिका में एक लेख प्रकाशित हुआ है जिसका शीर्षक है ‘ये मलवा नहीं हलुवा है।’पेज संख्या 47-आपदा पीड़ितों को मुआवजा बाँटने के लिए निकले राजस्व कर्मी पीड़ितों के हिस्से का मुआवजा खुद ही डकार गये। इस तरह जून माह का यह अंक आपदा घोटाले की पर्तें खोल रहा है। वर्ष 2011 में हरिद्वार में बाढ़ ने भारी तबाही मचाई। यहाँ तो राहत राशि बाँटने में अधिकारियों और कर्मचारियों ने इतनी लापरवाही किया कि तीसरी मंजिल में रहने वाले बाढ़ प्रभावितों को राहत राशि दे दी गई जबकि पहली मंजिल में रहने वाले को राहत राशि नहीं दी गई। शासन की ओर से लगभग 4 करोड़ 17 लाख रूपये की राहत राशि बाँटी गई जिसमें से करीब 2 करोड़ के घोटाले की आशंका है। यह मामला जब सीबीसीआईडी के पास पहुँचा तो जाँच में पता चला कि 882 बाढ़ प्रभावितों की सूची में आधे नाम फर्ज़ी हैं। जाँच के दौरान इस सूची में 450 नाम फर्ज़ी निकले। अब डीएम हरिद्वार को इस मामले में शामिल कर्मचारियों और अधिकारियों के नाम चिन्हित करने के आदेश हाईकोर्ट ने दिये हैं।

उम्मीद कर सकते हैं कि ऐसे सभी संवेदनहीन अधिकारियों और कर्मचारियों के नाम जल्दी ही सार्वजनिक होंगे जो आपदा के नाम पर माल बनाने का एक दूसरा मामला है उत्तरकाशी में आई आपदा का-उत्तरकाशी में आई आपदा अफसरों की तिजोरी भरने का अभूतपूर्व मौका साबित हो रही है। हर जगह घटिया निर्माण और घोटाले साफ दिखाई दे रहे हैं। बिना पर्यावरण स्वीकृति व नदी के किनारे किसी भी तरह के प्रदूषण संयन्त्र लगाने पर उच्चतम न्यायालय व उच्च न्यायलय की कानूनी रोक के बावजूद भी अधिकारियों की मिली भगत के बाद भारी भरकम स्टोन क्रेसर थाप दिए गए हैं। निर्माण कार्यों के जानकार व आरटीआई कार्यकर्ता चन्दन पहाड़ी ने बताया कि- 2012 की आपदा के बाद हुए घटिया निर्माण कार्यों के कारण 2013 की बाढ़ ने खूब नुकसान किया। ठेकेदारों ने विभागीय मिली-भगत से बजरी में मिट्टी मिलाई, पहाड़ी निर्माण कार्यों के दौरान पानी में ही बुनियाद डालने, दीवार चिनाई में बिना कटे गोल पत्थरों का उपयोग करने से तटबन्ध और सुरक्षा दीवारें 2013 की बाढ़ को झेल नहीं पाये और सैकड़ों घर भागीरथी में समा गये।

ऐसे ही और भी दर्जनों निर्माण कार्य जारी हैं। आपदा फिर ना आये ऐसी दुआ कर सकते हैं पर जिस तरह का निर्माण कार्य जारी है उसको देखकर तो लगता है कि उत्तराखंड में आपदा का आना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। जिस तरह पहाड़ को कुरेद कर आलीशान आवास बनाये जा रहे हैं। नदियों और पहाड़ों को खोदकर सब कुछ बेचा जा रहा है, खनन से राजस्व और विकास के अप्रासंगिक सपने दिखाये जा रहे हैं उसकी कीमत उत्तरकाशी बाढ़ और केदारनाथ त्रासदी के रूप में राज्य के निवासी चुका रहे हैं। खास जन तो नहीं रहते भागीरथ के किनारे और न ही वह केदारनाथ की दुर्गम राहों पर मज़दूरी करते हैं, तो उनको क्या? प्राकृतिक आपदा की तबाही में हर ओर से मरता तो आम जन ही है। जबकि आपदा को नहीं पता कि कौन खास है कौन आमजन? फिर भी हमारे समाज में जीने का एक खास लहजा बन गया है। जिसमें दो तीन या चार तरह के वर्ग पनप रहे हैं। एक वर्ग तो सुविधा सम्पन्न है जो शहरों में सुरक्षित ठिकानों में रहता है, इनके व्यावसायिक होटल आदि उत्तराखंड की नदियों के किनारे या फिर केदारनाथ जैसे तीर्थ स्थलों में बने हैं। इनके लिए उत्तराखंड कमाई का जरिया है। आपदा आ भी जाये तो इनके पास राहत जुटाने के धंधे होते हैं। फिर आपदा पर राजनीतिक रोटी सेकने का फ़ार्मूला होता है।

अब बारी आती है आम आदमी की जो शहरीकरण के दायरे में आ चुके क्षेत्रों में या तो पुश्तैनी जमीन पर घर बना कर या फिर गाँव छोड़कर इस नये बस रहे शहर में किराये पर रहने लगा है। इस वर्ग को दो जून की रोटी के अलावा बस बच्चों की पढ़ाई लिखाई की चिन्ता है। आपदा का सबसे बड़ा असर इसी वर्ग को झेलना होता है। जो सिर्फ वोट देकर अपने प्रतिनिधि चुनता है। कौन निर्माण कार्य करा रहा है? क्यों करा रहा है? घटिया निर्माण क्यों होता है? किसने इजाजत दी? कोई जनसुनवाई हुई क्या? जैसे सवालों से आम जन अक्सर बचा रहता है और घटिया निर्माण कार्य धड़ल्ले से जारी रहता है। आखिर में घटिया निर्माण के कारण आपदा से होने वाले जान-माल के नुकसान की सबसे ज़्यादा क्षति इसी वर्ग को होती है। यह वर्ग सरकार से अपील करते हुए कहता है कि हमारी जान की क्या कोई कीमत नहीं, अगर है तो घटिया निर्माण कार्य राज्य में इतने बड़े पैमाने पर धड़ल्ले से क्यों जारी है?

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