आपदाओं का आकलन करने वाली अंतरराष्ट्रीय डाटाबेस संस्था ‘सेंटर फॉर द रिसर्च ऑन इपिडिमियोलाजी ऑफ डिजास्टर’ का आकलन है कि भारत सन् 2000 से 2009 के बीच 24 अरब अमेरिकी डॉलर का नुकसान उठा चुका है, जिसमें सबसे ज्यादा 17 अरब डॉलर का नुकसान बाढ़ की वजह से, 4.5 अरब डॉलर की क्षति भूकंप की वजह से और 1.5 अरब डॉलर का नुकसान सूखे की वजह से और बाकी नुकसान अन्य प्रकार की आपदाओं से हुआ है। पिछले वर्ष राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के 9वें स्थापना दिवस पर आयोजित समारोह में अपने संबोधन में प्राधिकरण के अध्यक्ष व तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने कहा था कि उत्तराखंड को भारी त्रासदी का सामना करना पड़ा। इनमें बड़े पैमाने पर जानमाल का नुकसान हुआ और सार्वजनिक मूल सुविधाओं को हानि पहुंची। इन्हें रोकने और ऐसी आपदाओं का दुष्प्रभाव सीमित रखने की जरूरत है।
यह बात सचमुच ही बहुत महत्वपूर्ण है कि हम उत्तराखंड की घटनाओं से सही सबक सीखें। लेकिन इस साल भी कई आपदाओं ने देशभर में भारी जानमाल का नुकसान किया, जिसका सीधा अर्थ है कि हमने उत्तराखंड त्रासदी से कोई सबक नहीं सीखा और न ही सीखने का तैयार हैं।
किसी भी आपदा से मुकाबला करने के लिए राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण का गठन किया गया, लेकिन जब ये ही नाकारा साबित हो तो क्या कहा जाए। बाढ़ से लेकर भूकंप की त्रासदी के दौरान और इसके बाद आपदा प्रबंधन के लोगों ने कोई ऐसा उल्लेखनीय काम करके नहीं दिखाया है, जिससे इसके प्रति सम्मान का भाव पैदा हो।
देश में राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण का गठन कागजों में नौ वर्ष पूरे कर चुका है, लेकिन जमीन पर उसके पांव कितने कमजोर हैं, इसका अंदाजा आपदा के वक्त खुद-ब-खुद लग जाता है। किसी भी आपदा के वक्त केंद्र और संबंधित राज्य सरकारें आपदा प्रबंधन के ढांचे को विकसित, चुस्त और कारगर बनाने के दावे तो करती हैं, लेकिन आपदा का प्रभाव कम होते ही आपदा प्रबंधन को लेकर उत्साह भी दम तोड़ देता है।
आपदाओं का आकलन करने वाली अंतरराष्ट्रीय डाटाबेस संस्था ‘सेंटर फॉर द रिसर्च ऑन इपिडिमियोलाजी ऑफ डिजास्टर’ का आकलन है कि भारत सन् 2000 से 2009 के बीच 24 अरब अमेरिकी डॉलर का नुकसान उठा चुका है, जिसमें सबसे ज्यादा 17 अरब डॉलर का नुकसान बाढ़ की वजह से, 4.5 अरब डॉलर की क्षति भूकंप की वजह से और 1.5 अरब डॉलर का नुकसान सूखे की वजह से और बाकी नुकसान अन्य प्रकार की आपदाओं से हुआ है।
वर्ल्ड बैंक के आकलन को सही मानें तो भारत जीडीपी का दो फीसद और राजस्व का 12 फीसद नुकसान सिर्फ इन आपदाओं की वजह से उठाता है। विभिन्न आंकड़ों पर नजर डालें तो स्पष्ट हो जाता है कि देश हर प्रकार की आपदा के समक्ष सिर्फ सिर झुकाते चला आ रहा है।
राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण भी लचर व्यवस्था तंत्र के आगे बौना साबित हो रहा है। किसी को भी इसके नियम-कायदों की शायद परवाह नहीं है। कहने को तो आपदा प्रबंधन के अनेक उपाय और प्रबंध हैं, पर वे हमेशा नाकाफी साबित होते हैं। गौरतलब है कि सरकार ने संगठित तौर पर 1954 से ही आपदा प्रबंधन की कोशिश शुरू की थी, मगर अभी तक यही तय नहीं हो सका है कि आपदा प्रबंधन की कमान किसके हाथ में है। हमारा आपदा प्रबंधन तंत्र इतना उलझा हुआ है कि इस पर शोध हो सकता है।
दरअसल, आपदा प्रबंधन के लिए 1990 में कृषि मंत्रालय के अंतर्गत डिजास्टर मैनेजमेंट सेल स्थापित की गई। इसके बाद लातूर के भूकंप (1993), मालपा के भूस्खलन (1994), ओडिशा के सुपर साइक्लोन (1999), भुज के भूकंप (2001) के बाद देश में पृथक व्यवस्था की जरूरत को महसूस करते हुए जीसी पंत की अध्यक्षता में ‘हाई पावर कमेटी’ की रिपोर्ट में व्यवस्थित और व्यापक निर्देशों को जारी किया गया।
फिर 2002 में आपदा को देश की आंतरिक सुरक्षा का मसला मानते हुए इसे गृह मंत्रालय के अंतर्गत लाया गया। आपदा प्रबंधन के इतिहास में भारत में एक बड़ा परिवर्तन तब हुआ, जब 2005 में ‘डिजास्टर मैनेजमेंट एक्ट-2005’ के तहत भारत सरकार ने अपनी कार्ययोजना को एक चक्रीय क्रम में सजाया। इसमें आपदा के आने के बाद इससे बचाव, नुकसान की भरपाई, फिर निदान और फिर आपदा पूर्व तैयारी की जाती है, जो आज भी जारी है।
लेकिन इस कार्ययोजना के लागू हो जाने के बाद के ही आंकड़े उठाकर देखें तो पाते हैं कि हर साल आपदा से होने वाले नुकसान में इजाफा ही हुआ है और हम एक ही प्रकार की समस्याओं से जूझते नजर आते हैं। ऐसे में यह तय कर पाना कठिन है कि क्या वाकई यह तंत्र समस्याओं से निपटने में सक्षम है? अब इसकी कार्यक्षमता पर कैग द्वारा लगाए गए प्रश्नचिन्ह ने आपदाओं को लेकर सरकारी दावों को आईना दिखाया है।
आपदाओं से निपटने के लिए 2005 में आपदा प्रबंधन अधिनियम लागू किया गया था। आपदा में फंसे लोगों को राहत देने और बचाव कार्यो के लिए भारत सरकार ने मई 2005 में एनडीएमए- नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी यानी राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण की स्थापना की। इस प्राधिकरण के अध्यक्ष खुद प्रधानमंत्री हैं। कैग रिपोर्ट कहती है कि शुरुआत से ही आपदा प्रबंधन बोर्ड की कोई योजना सफल नहीं हो पाई। आपदाओं से निपटने की तैयारियों को लेकर एनडीएमए के पास न तो जानकारियां होती हैं और न ही आपदाओं से निपटने पर उसका नियंत्रण है।
स्थापना के सालों बाद भी न तो वह राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन योजना को अंतिम रूप दे पाया और न ही प्रमुख प्रोजेक्ट पूरे कर पाया। अकर्मण्यता की हद देखिए कि एनडीएमए की राष्ट्रीय कार्यकारी समिति ने मई, 2008 के बाद से एक भी बैठक नहीं की, जबकि इस दौरान कई आपदाएं आईं-गईं। अनुचित नियोजन के चलते प्राधिकरण को अपने कार्य या तो बीच में ही बंद करने पड़ते हैं या फिर निर्धारित समय के बाद भी अधूरे पड़े रहते हैं।
रिपोर्ट के मुताबिक, प्राकृतिक आपदा के दौरान इस्तेमाल होने वाला सिंथेटिक अपॉर्चर राडार तंत्र 28.99 करोड़ रुपए खर्च होने के बाद भी स्थापित नहीं किया जा सका है। अन्य जरूरी उपकरणों का हाल भी यही है। न तो पर्याप्त संख्या में हेलिकॉप्टर हैं और न ही अन्य उपकरण। प्राधिकरण आपदा प्रभावित लोगों तक खाद्यान्न व अन्य राहत सामग्री भी समुचित प्रशिक्षण के अभाव में ठीक से नहीं पहुंचा पाता।
योजना आयोग द्वारा 12वीं पंचवर्षीय योजना की जारी की गई रिपोर्ट में बताया गया है कि 11वीं पंचवर्षीय योजना की अवधि यानी 2007-2012 के दौरान प्राकृतिक आपदा से 1.56 लाख करोड़ रुपए की विशुद्ध क्षति हुई है, जबकि इसमें स्थानीय अर्थव्यवस्था को हुआ नुकसान शामिल नहीं है। केवल प्राकृतिक आपदा से वर्ष 2001-2011 के दौरान 21 हजार 975 लोग मारे गए हैं। जबकि अमेरिका इस तरह के मामलों में छह घंटे पहले अलर्ट जारी कर देता है।
जापान और ब्राजील भी घंटों पहले क्षेत्र विशेष के लिए अलर्ट जारी कर देते हैं। भारत के पास विश्वस्तरीय राडार आधारित डॉप्लर सुनामी अलर्ट सिस्टम है। दरअसल, हिमालय क्षेत्र में इसका प्रयोग किया जाना चाहिए। यों देश ने कई क्षेत्रों में तरक्की की है, लेकिन समुचित समन्वय के कारण हम इनका उपयोग अपने विकास में नहीं कर पा रहे हैं। जबकि भारत अपने उपग्रहों द्वारा प्राप्त चित्र कई विकसित देशों को भी मुहैया कराता है।
सवाल है कि फिर हम खुद क्यों नहीं इनका उपयोग भयावह आपदाओं की पूर्व जानकारी या विकास से होने वाली क्षति का आकलन करने में करते हैं। हम कई देशों को सूचना तकनीक के क्षेत्र में सेवाएं उपलब्ध कराते हैं। फिर हम अपने देश में सामाजिक सुरक्षा के लिए तकनीक विकसित क्यों नहीं करते हैं? इजरायल का एक्वा स्टिक लिसनिंग डिवाइस सिस्टम, ब्रीदिंग सिस्टम, अंडर वाटर सर्च कैमरा, आधुनिक इंफेलेटेबल बोट, हाई वॉल्यूम वाटर पंपिंग, मोटर वाली जेट्स्की बोट और गोताखोरों को लगातार 12 घंटे तक ऑक्सीजन उपलब्ध कराने वाले अंडर वाटर ब्रीदिंग एपेरेट्स का हम कब प्रयोग करेंगे?
हिमालय के ऊंचाई वाले इलाकों में रडार लगाने की मांग लंबे समय से की जा रही है। पहाड़ी इलाकों में संचार प्रणाली को भी मजबूत किए जाने की जरूरत है। इसके लिए ऑल वेदर कम्यूनिकेशन सिस्टम की जरूरत है। यानी सस्ते और सुलभ रेडियो पर जोर। अब तो हैंड वाइंडिंग रेडियों भी आ गए हैं, जिन्हें हाथ में घुमाकर चालू किया जा सकता है। ऐसी रेडियो प्रणालियां आपदा के मौकों पर बचाव को आसान बना सकती हैं।नीदरलैंड का हाइड्रोलिक रेस्क्यू इक्विपमेंट मजबूत छत को फोड़कर फर्श या गाड़ी में फंसे व्यक्ति को निकालने का रास्ता बनाता है, लेकिन यह उपकरण हमारे पास नहीं है। अमेरिका के सर्च कैमरे और स्वीडन के अंडर वाटर सर्च कैमरे का भी प्रयोग किया जा सकता है, लेकिन इस ओर ध्यान दिया जाए तब न! अमेरिका की लाइन थ्रोइंग गन के जरिए बाढ़ में या ऊंच इमारतों में फंसे व्यक्तियों तक रस्सा फेंककर उन्हें बचाया जा सकता है, लेकिन यह उपकरण भी आजतक विभाग के पास नहीं है।
हिमालय के ऊंचाई वाले इलाकों में रडार लगाने की मांग लंबे समय से की जा रही है। पहाड़ी इलाकों में संचार प्रणाली को भी मजबूत किए जाने की जरूरत है। इसके लिए ऑल वेदर कम्यूनिकेशन सिस्टम की जरूरत है। यानी सस्ते और सुलभ रेडियो पर जोर। अब तो हैंड वाइंडिंग रेडियों भी आ गए हैं, जिन्हें हाथ में घुमाकर चालू किया जा सकता है। ऐसी रेडियो प्रणालियां आपदा के मौकों पर बचाव को आसान बना सकती हैं।
प्रधानमंत्री की अगुवाई वाले राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के पास नजरिया होता तो देश में कुदरती आपदाओं का मुकाबला बेहतर ढंग से किया जा सकता था। कैग ने प्राधिकरण की कमियों के बारे में भी बताया है और कहा है कि आपदाओं को रोका नहीं जा सकता, लेकिन उनसे होने वाले जानमाल के नुकसान को कम किया जा सकता है। कुछ वर्ष पहले जापान और अमेरिका ने अपने देश में माई आपदाओं को जिस तरह से संभाला, वह अनुकरणीय है।
हालांकि देश में 2005 में आपदा प्रबंधन के लिए कानून बनाने के बाद से एक हद बदलाव भी आया है। इससे पहले अंग्रेजों के जमाने में 1883 में तैयार किए रिलीफ कोड के अनुरूप इस पर गंभीरता से बात करने लगे। केंद्रीय गृह मंत्रालय का आकलन है कि सिर्फ आपदा के कारण हर साल देश को जीडीपी का दो प्रतिशत नुकसान होता है, यह राशि 25 हजार करोड़ रुपए होती है।
प्रधानमंत्री ने भी कहा है कि विकास के लिए आपदा से होने वाले नुकसान को रोकना जरूरी है। देश में आपदाओं के कारण हर साल चार हजार से ज्यादा लोग मरते हैं। इन प्रत्यक्ष नुकसान के अलावा अप्रत्यक्ष नुकसान कहीं बड़ा होता है। इसे 2013 में आई केदारनाथ आपदा के संदर्भ में समझा जा सकता है।
भारत जैसे विशाल देश में, जहां तरह-तरह की आपदाएं आती रहती हैं, वहां आपदाओं का पूर्वानुमान लगाने और शमन क्षमता निर्माण का काम पूरा किया जाना है। हमारी संचार व्यवस्था में भी सुधार की जरूरत है, ताकि आपदा संबंधी चेतावनी गांवों तक अविलंब पहुंचाई जा सके। हमारे पंचायती राज निकायों और स्थानीय समुदायों की क्षमता भी बढ़ाई जाने की जरूरत है, क्योंकि यही निकाय किसी आपदा की स्थिति में पहले राहत कार्य करने वाले होते हैं।
असल में आपदा का खतरा कम करने की नीतियां हमारी विकास प्रक्रियाओं का एक अभिन्न अंग होनी चाहिए। अपने पूरे आपदा प्रबंधन तंत्र में यदि किसी को सराहना की जा सकती है तो वह है एनडीआरएफ यानी राष्ट्रीय आपदा मोचन बल। इसका गठन जनवरी, 2006 में विशेष तौर पर आपदा से निपटने के लिए हुआ था।
आपदा की स्थिति में सबसे पहले इसी को सहायता और बचाव कार्यों के लिए भेजा जाता है। उत्तराखंड में भी ऐसा ही किया गया। तंत्र के पास योजना और पैसा दोनों ही हैं, लेकिन फिर भी यदि हम हर मोर्चे पर असफल हो रहे हैं तो इसका सीधा मतलब है कि योजनाओं को संचालित करने वाले और योजनाओं के लाभार्थियों के बीच बड़े स्तर पर खामियां हैं।
यह बात सचमुच ही बहुत महत्वपूर्ण है कि हम उत्तराखंड की घटनाओं से सही सबक सीखें। लेकिन इस साल भी कई आपदाओं ने देशभर में भारी जानमाल का नुकसान किया, जिसका सीधा अर्थ है कि हमने उत्तराखंड त्रासदी से कोई सबक नहीं सीखा और न ही सीखने का तैयार हैं।
किसी भी आपदा से मुकाबला करने के लिए राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण का गठन किया गया, लेकिन जब ये ही नाकारा साबित हो तो क्या कहा जाए। बाढ़ से लेकर भूकंप की त्रासदी के दौरान और इसके बाद आपदा प्रबंधन के लोगों ने कोई ऐसा उल्लेखनीय काम करके नहीं दिखाया है, जिससे इसके प्रति सम्मान का भाव पैदा हो।
देश में राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण का गठन कागजों में नौ वर्ष पूरे कर चुका है, लेकिन जमीन पर उसके पांव कितने कमजोर हैं, इसका अंदाजा आपदा के वक्त खुद-ब-खुद लग जाता है। किसी भी आपदा के वक्त केंद्र और संबंधित राज्य सरकारें आपदा प्रबंधन के ढांचे को विकसित, चुस्त और कारगर बनाने के दावे तो करती हैं, लेकिन आपदा का प्रभाव कम होते ही आपदा प्रबंधन को लेकर उत्साह भी दम तोड़ देता है।
आपदाओं का आकलन करने वाली अंतरराष्ट्रीय डाटाबेस संस्था ‘सेंटर फॉर द रिसर्च ऑन इपिडिमियोलाजी ऑफ डिजास्टर’ का आकलन है कि भारत सन् 2000 से 2009 के बीच 24 अरब अमेरिकी डॉलर का नुकसान उठा चुका है, जिसमें सबसे ज्यादा 17 अरब डॉलर का नुकसान बाढ़ की वजह से, 4.5 अरब डॉलर की क्षति भूकंप की वजह से और 1.5 अरब डॉलर का नुकसान सूखे की वजह से और बाकी नुकसान अन्य प्रकार की आपदाओं से हुआ है।
वर्ल्ड बैंक के आकलन को सही मानें तो भारत जीडीपी का दो फीसद और राजस्व का 12 फीसद नुकसान सिर्फ इन आपदाओं की वजह से उठाता है। विभिन्न आंकड़ों पर नजर डालें तो स्पष्ट हो जाता है कि देश हर प्रकार की आपदा के समक्ष सिर्फ सिर झुकाते चला आ रहा है।
राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण भी लचर व्यवस्था तंत्र के आगे बौना साबित हो रहा है। किसी को भी इसके नियम-कायदों की शायद परवाह नहीं है। कहने को तो आपदा प्रबंधन के अनेक उपाय और प्रबंध हैं, पर वे हमेशा नाकाफी साबित होते हैं। गौरतलब है कि सरकार ने संगठित तौर पर 1954 से ही आपदा प्रबंधन की कोशिश शुरू की थी, मगर अभी तक यही तय नहीं हो सका है कि आपदा प्रबंधन की कमान किसके हाथ में है। हमारा आपदा प्रबंधन तंत्र इतना उलझा हुआ है कि इस पर शोध हो सकता है।
दरअसल, आपदा प्रबंधन के लिए 1990 में कृषि मंत्रालय के अंतर्गत डिजास्टर मैनेजमेंट सेल स्थापित की गई। इसके बाद लातूर के भूकंप (1993), मालपा के भूस्खलन (1994), ओडिशा के सुपर साइक्लोन (1999), भुज के भूकंप (2001) के बाद देश में पृथक व्यवस्था की जरूरत को महसूस करते हुए जीसी पंत की अध्यक्षता में ‘हाई पावर कमेटी’ की रिपोर्ट में व्यवस्थित और व्यापक निर्देशों को जारी किया गया।
फिर 2002 में आपदा को देश की आंतरिक सुरक्षा का मसला मानते हुए इसे गृह मंत्रालय के अंतर्गत लाया गया। आपदा प्रबंधन के इतिहास में भारत में एक बड़ा परिवर्तन तब हुआ, जब 2005 में ‘डिजास्टर मैनेजमेंट एक्ट-2005’ के तहत भारत सरकार ने अपनी कार्ययोजना को एक चक्रीय क्रम में सजाया। इसमें आपदा के आने के बाद इससे बचाव, नुकसान की भरपाई, फिर निदान और फिर आपदा पूर्व तैयारी की जाती है, जो आज भी जारी है।
लेकिन इस कार्ययोजना के लागू हो जाने के बाद के ही आंकड़े उठाकर देखें तो पाते हैं कि हर साल आपदा से होने वाले नुकसान में इजाफा ही हुआ है और हम एक ही प्रकार की समस्याओं से जूझते नजर आते हैं। ऐसे में यह तय कर पाना कठिन है कि क्या वाकई यह तंत्र समस्याओं से निपटने में सक्षम है? अब इसकी कार्यक्षमता पर कैग द्वारा लगाए गए प्रश्नचिन्ह ने आपदाओं को लेकर सरकारी दावों को आईना दिखाया है।
आपदाओं से निपटने के लिए 2005 में आपदा प्रबंधन अधिनियम लागू किया गया था। आपदा में फंसे लोगों को राहत देने और बचाव कार्यो के लिए भारत सरकार ने मई 2005 में एनडीएमए- नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी यानी राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण की स्थापना की। इस प्राधिकरण के अध्यक्ष खुद प्रधानमंत्री हैं। कैग रिपोर्ट कहती है कि शुरुआत से ही आपदा प्रबंधन बोर्ड की कोई योजना सफल नहीं हो पाई। आपदाओं से निपटने की तैयारियों को लेकर एनडीएमए के पास न तो जानकारियां होती हैं और न ही आपदाओं से निपटने पर उसका नियंत्रण है।
स्थापना के सालों बाद भी न तो वह राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन योजना को अंतिम रूप दे पाया और न ही प्रमुख प्रोजेक्ट पूरे कर पाया। अकर्मण्यता की हद देखिए कि एनडीएमए की राष्ट्रीय कार्यकारी समिति ने मई, 2008 के बाद से एक भी बैठक नहीं की, जबकि इस दौरान कई आपदाएं आईं-गईं। अनुचित नियोजन के चलते प्राधिकरण को अपने कार्य या तो बीच में ही बंद करने पड़ते हैं या फिर निर्धारित समय के बाद भी अधूरे पड़े रहते हैं।
रिपोर्ट के मुताबिक, प्राकृतिक आपदा के दौरान इस्तेमाल होने वाला सिंथेटिक अपॉर्चर राडार तंत्र 28.99 करोड़ रुपए खर्च होने के बाद भी स्थापित नहीं किया जा सका है। अन्य जरूरी उपकरणों का हाल भी यही है। न तो पर्याप्त संख्या में हेलिकॉप्टर हैं और न ही अन्य उपकरण। प्राधिकरण आपदा प्रभावित लोगों तक खाद्यान्न व अन्य राहत सामग्री भी समुचित प्रशिक्षण के अभाव में ठीक से नहीं पहुंचा पाता।
योजना आयोग द्वारा 12वीं पंचवर्षीय योजना की जारी की गई रिपोर्ट में बताया गया है कि 11वीं पंचवर्षीय योजना की अवधि यानी 2007-2012 के दौरान प्राकृतिक आपदा से 1.56 लाख करोड़ रुपए की विशुद्ध क्षति हुई है, जबकि इसमें स्थानीय अर्थव्यवस्था को हुआ नुकसान शामिल नहीं है। केवल प्राकृतिक आपदा से वर्ष 2001-2011 के दौरान 21 हजार 975 लोग मारे गए हैं। जबकि अमेरिका इस तरह के मामलों में छह घंटे पहले अलर्ट जारी कर देता है।
जापान और ब्राजील भी घंटों पहले क्षेत्र विशेष के लिए अलर्ट जारी कर देते हैं। भारत के पास विश्वस्तरीय राडार आधारित डॉप्लर सुनामी अलर्ट सिस्टम है। दरअसल, हिमालय क्षेत्र में इसका प्रयोग किया जाना चाहिए। यों देश ने कई क्षेत्रों में तरक्की की है, लेकिन समुचित समन्वय के कारण हम इनका उपयोग अपने विकास में नहीं कर पा रहे हैं। जबकि भारत अपने उपग्रहों द्वारा प्राप्त चित्र कई विकसित देशों को भी मुहैया कराता है।
सवाल है कि फिर हम खुद क्यों नहीं इनका उपयोग भयावह आपदाओं की पूर्व जानकारी या विकास से होने वाली क्षति का आकलन करने में करते हैं। हम कई देशों को सूचना तकनीक के क्षेत्र में सेवाएं उपलब्ध कराते हैं। फिर हम अपने देश में सामाजिक सुरक्षा के लिए तकनीक विकसित क्यों नहीं करते हैं? इजरायल का एक्वा स्टिक लिसनिंग डिवाइस सिस्टम, ब्रीदिंग सिस्टम, अंडर वाटर सर्च कैमरा, आधुनिक इंफेलेटेबल बोट, हाई वॉल्यूम वाटर पंपिंग, मोटर वाली जेट्स्की बोट और गोताखोरों को लगातार 12 घंटे तक ऑक्सीजन उपलब्ध कराने वाले अंडर वाटर ब्रीदिंग एपेरेट्स का हम कब प्रयोग करेंगे?
हिमालय के ऊंचाई वाले इलाकों में रडार लगाने की मांग लंबे समय से की जा रही है। पहाड़ी इलाकों में संचार प्रणाली को भी मजबूत किए जाने की जरूरत है। इसके लिए ऑल वेदर कम्यूनिकेशन सिस्टम की जरूरत है। यानी सस्ते और सुलभ रेडियो पर जोर। अब तो हैंड वाइंडिंग रेडियों भी आ गए हैं, जिन्हें हाथ में घुमाकर चालू किया जा सकता है। ऐसी रेडियो प्रणालियां आपदा के मौकों पर बचाव को आसान बना सकती हैं।नीदरलैंड का हाइड्रोलिक रेस्क्यू इक्विपमेंट मजबूत छत को फोड़कर फर्श या गाड़ी में फंसे व्यक्ति को निकालने का रास्ता बनाता है, लेकिन यह उपकरण हमारे पास नहीं है। अमेरिका के सर्च कैमरे और स्वीडन के अंडर वाटर सर्च कैमरे का भी प्रयोग किया जा सकता है, लेकिन इस ओर ध्यान दिया जाए तब न! अमेरिका की लाइन थ्रोइंग गन के जरिए बाढ़ में या ऊंच इमारतों में फंसे व्यक्तियों तक रस्सा फेंककर उन्हें बचाया जा सकता है, लेकिन यह उपकरण भी आजतक विभाग के पास नहीं है।
हिमालय के ऊंचाई वाले इलाकों में रडार लगाने की मांग लंबे समय से की जा रही है। पहाड़ी इलाकों में संचार प्रणाली को भी मजबूत किए जाने की जरूरत है। इसके लिए ऑल वेदर कम्यूनिकेशन सिस्टम की जरूरत है। यानी सस्ते और सुलभ रेडियो पर जोर। अब तो हैंड वाइंडिंग रेडियों भी आ गए हैं, जिन्हें हाथ में घुमाकर चालू किया जा सकता है। ऐसी रेडियो प्रणालियां आपदा के मौकों पर बचाव को आसान बना सकती हैं।
प्रधानमंत्री की अगुवाई वाले राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के पास नजरिया होता तो देश में कुदरती आपदाओं का मुकाबला बेहतर ढंग से किया जा सकता था। कैग ने प्राधिकरण की कमियों के बारे में भी बताया है और कहा है कि आपदाओं को रोका नहीं जा सकता, लेकिन उनसे होने वाले जानमाल के नुकसान को कम किया जा सकता है। कुछ वर्ष पहले जापान और अमेरिका ने अपने देश में माई आपदाओं को जिस तरह से संभाला, वह अनुकरणीय है।
हालांकि देश में 2005 में आपदा प्रबंधन के लिए कानून बनाने के बाद से एक हद बदलाव भी आया है। इससे पहले अंग्रेजों के जमाने में 1883 में तैयार किए रिलीफ कोड के अनुरूप इस पर गंभीरता से बात करने लगे। केंद्रीय गृह मंत्रालय का आकलन है कि सिर्फ आपदा के कारण हर साल देश को जीडीपी का दो प्रतिशत नुकसान होता है, यह राशि 25 हजार करोड़ रुपए होती है।
प्रधानमंत्री ने भी कहा है कि विकास के लिए आपदा से होने वाले नुकसान को रोकना जरूरी है। देश में आपदाओं के कारण हर साल चार हजार से ज्यादा लोग मरते हैं। इन प्रत्यक्ष नुकसान के अलावा अप्रत्यक्ष नुकसान कहीं बड़ा होता है। इसे 2013 में आई केदारनाथ आपदा के संदर्भ में समझा जा सकता है।
भारत जैसे विशाल देश में, जहां तरह-तरह की आपदाएं आती रहती हैं, वहां आपदाओं का पूर्वानुमान लगाने और शमन क्षमता निर्माण का काम पूरा किया जाना है। हमारी संचार व्यवस्था में भी सुधार की जरूरत है, ताकि आपदा संबंधी चेतावनी गांवों तक अविलंब पहुंचाई जा सके। हमारे पंचायती राज निकायों और स्थानीय समुदायों की क्षमता भी बढ़ाई जाने की जरूरत है, क्योंकि यही निकाय किसी आपदा की स्थिति में पहले राहत कार्य करने वाले होते हैं।
असल में आपदा का खतरा कम करने की नीतियां हमारी विकास प्रक्रियाओं का एक अभिन्न अंग होनी चाहिए। अपने पूरे आपदा प्रबंधन तंत्र में यदि किसी को सराहना की जा सकती है तो वह है एनडीआरएफ यानी राष्ट्रीय आपदा मोचन बल। इसका गठन जनवरी, 2006 में विशेष तौर पर आपदा से निपटने के लिए हुआ था।
आपदा की स्थिति में सबसे पहले इसी को सहायता और बचाव कार्यों के लिए भेजा जाता है। उत्तराखंड में भी ऐसा ही किया गया। तंत्र के पास योजना और पैसा दोनों ही हैं, लेकिन फिर भी यदि हम हर मोर्चे पर असफल हो रहे हैं तो इसका सीधा मतलब है कि योजनाओं को संचालित करने वाले और योजनाओं के लाभार्थियों के बीच बड़े स्तर पर खामियां हैं।
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Post By: Shivendra