आपदा जोखिम के लिये एक व्यापक और एक अधिक जन-केन्द्रित निवारक दृष्टिकोण होना चाहिए। आपदा जोखिम न्यूनीकरण कार्यों को सक्षम एवं प्रभावी होने के क्रम में समावेशी एवं सुलभ होने की आवश्यकता है। सरकार को सम्बन्धित हितधारकों, खासतौर से निजी क्षेत्र को सहूलियत तथा प्रोत्साहन के साथ-साथ नीतियों, योजनाओं एवं मानकों को बनाने तथा उनके कार्यान्वयन में शामिल करना चाहिए। इसे समावेशी बनाने के लिये महिलाओं को नेतृत्वकर्ता के रूप में तथा युवाओं, बच्चों, नागरिक समाज तथा शिक्षा-जगत के लोगों को शामिल करने की आवश्यकता है
बदलाव एकमात्र स्थिति है, जो सतत है। हमारे आस-पास की स्थितियाँ बदल रही हैं तथा वे नई आकांक्षाओं और नई चुनौतियों को जन्म दे रही हैं। विश्व भर में पर्यावरण और आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक वातावरण वैसा नहीं है, जो अस्सी और नब्बे के दशकों में हुआ करता था। प्रौद्योगिकी और प्राकृतिक वातावरण ने भी विकास के मुद्दे पर राह दिखाई है। वर्ष 2015 हमारे लिये बहुत महत्त्वपूर्ण रहा, जिसमें तीन प्रमुख समझौते हुए- सतत विकास लक्ष्य, जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौता- (कॉप 21) और आपदा जोखिम में कमी पर सेंदई फ्रेमवर्क 2015-30। अन्तरराष्ट्रीय समुदाय ने इन तीनों समझौतों में तय किए गए उद्दश्यों एवं लक्ष्यों को हासिल करने के लिये अपनी प्रतिबद्धता जताई है। इन तीनों समझौतों में ऐसे कई समान आधार हैं, जहाँ ये तीनों परस्पर सम्बद्ध हैं। आपदा से हुए नुकसान पर किए गए अध्ययन ये दर्शाते हैं कि यदि हमें सतत विकास के लक्ष्यों को हासिल करना है तो आपदा से हुए नुकसान को प्राथमिकता देनी होगी तथा आपदा जोखिमों को कम करने के लिये हमें चरम घटनाओं और जलवायु परिवर्तन के मुद्दों पर ध्यान देना होगा। विकास, आपदा जोखिम एवं जलवायु परिवर्तन, ये तीनों अन्तर्सम्बन्धित हैं और इसलिये इनके समाधानों को भी एकीकृत होने की आवश्यकता है।आपदा जोखिम न्यूनीकरण विकास के विभिन्न पक्षों एवं क्षेत्रों को प्रभावित करता है। संयुक्त राष्ट्र के 17 सतत विकास लक्ष्यों में से 10 के अन्तर्गत 25 लक्ष्य आपदा जोखिम न्यूनीकरण से सम्बन्धित हैं, जो आपदा जोखिम न्यूनीकरण को मूल विकास रणनीति के रूप में दृढ़ता से स्थापित करते हैं। अत्यधिक गरीबी को जड़ से उखाड़ फेंकने के उद्देश्य की पूर्ति के लिये आपदा प्रतिरोध-क्षमता का निर्माण आवश्यक है। आपदा जोखिम के प्रमुख चालकों में से एक के रूप में, जिस तरह ये आर्थिक एवं सामाजिक सुभेद्यता को जन्म देती और बढ़ाती है, गरीबी ने जोखिम की परिस्थितियों को काफी बढ़ा दिया है, जो आगे चलकर सतत विकास की प्रगति को सीमित करती है। प्रमाण यह संकेत करते हैं कि आपदाओं के प्रभाव विकासशील एवं विकसित, दोनों प्रकार के देशों में बड़ी मेहनत से हासिल किए गए विकास को क्षीण करते हैं, सम्भवतः गरीब और सर्वाधिक सुभेद्य तबकों को और अधिक गरीबी की ओर धकेल रहे हैं।
2030 तक 32.5 करोड़ लोग, खासतौर से उप-सहारा, अफ्रीका और दक्षिण एशिया में, गरीबी के चंगुल में फँसे होंगे और प्राकृतिक विपदाओं तथा चरम जलवायवीय परिस्थितियों की एक पूरी श्रृंखला के सामने निरावरण खड़े होंगे। ये आँकड़ा यह सुझाता है कि हमें फौरी तौर पर भविष्य की आपदाओं, जो और अधिक लोगों को गरीबी की ओर धकेलती है, से बचाने के लिये गरीब समुदायों की प्रतिरोध-क्षमता निर्मित करने और उसे मजबूत बनाने की आवश्यकता है, साथ ही उनकी आजीविका और परिसम्पत्तियों की रक्षा करने की भी जरूरत है ताकि वे इन आपदाओं से उबर सकें।
नेपाल गोरखा भूकम्प
इस भूकम्प के उपरान्त क्षति एवं नुकसान का अध्ययन स्पष्टतः उल्लेखित करता है कि यह आपदा 2015-2016 में 2.5 से 3.5 प्रतिशत अतिरिक्त नेपाली लोगों को गरीबी की ओर ले जाएगी। यह प्रतिशत, संख्या में कम-से-कम 7 लाख बैठता है और इस आपदा से लगभग 7 बिलियन अमेरिकी डॉलर की क्षति का अनुमान है। इस अध्ययन से यह भी पता चलता है कि छह निम्नतम मानव विकास सूचकांक वाले जिलों दोलखा, सिन्धुपाल चौक, गोरखा, नुवाकोट, रसूवा और धादिंग में रह रही अपेक्षाकृत गरीब जनसंख्या, जिसने 1,30,000 नेपाली रुपया प्रति व्यक्ति का नुकसान झेला है। इससे यह सिद्ध होता है कि सबसे गरीब और सर्वाधिक सुभेद्य लोग ही आमतौर पर आपदाओं के सबसे बुरे प्रभाव को झेलते हैं।
हमारे समाजों पर पड़ने वाली आपदाओं का प्रभाव सतत सामाजिक-आर्थिक विकास हासिल करने के हमारे सपने में सबसे बड़ी बाधा बन गया है। अरबों डॉलर की आर्थिक क्षति एवं नुकसान हमारे एक समद्ध क्षेत्र के लक्ष्यों को धूमिल कर रहा है। हर आपदा के साथ कृषि, आवास, स्वास्थ्य, शिक्षा और आधारिक संरचना जैसे विकास के विभिन्न क्षेत्रों पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है।
विडम्बना यह है कि आपदाओं के बढ़े हुए प्रभाव और आपदाओं के समक्ष लोगों की बढ़ी हुई सुभेद्यता का कारण बहुत हद तक भूमि का अनुचित उपयोग और पर्यावरणीय निम्नीकरण जैसे अपोषणीय विकास-गतिविधियाँ हैं। हमारे क्षेत्रों में आपदाओं की बढ़ती आवृत्ति और पैमाने को देखते हुए, समुदायों, महत्त्वपूर्ण बुनियादी ढाँचे और विकास की रक्षा करने के लिये हमारे देशों को समन्वित समाधानों की आवश्यकता है।
यह जरूरी है कि विकास नियोजन प्रक्रिया जोखिम कम करने के उपायों में वर्तमान तथा आगामी सामाजिक एवं आर्थिक जोखिमों और कारकों के मूल कारणों की पहचान तथा उनका विश्लेषण करे। यदि रोजगार एवं व्यापार समेत वृद्धि एवं विकास के राष्ट्रीय लक्ष्यों को हासिल किया जाना है, तो संकट के प्रबन्धन से जोखिम के प्रबन्धन तक का बदलाव सार्वजनिक नीति की रूपरेखा और योजना-निर्णय की प्रक्रियाओं में निश्चित रूप से परिलक्षित होना चाहिए ताकि जोखिम आकलन आधारित निवेश और व्यवसाय को सक्षम बनाया जा सके।
आपदा प्रबन्धन
संयुक्त राष्ट्र द्वारा अपनाई गई आपदा की परिभाषा, जोकि आपदा प्रबन्धन के राष्ट्रीय अधिनियम, 2005 में भी सहयोजित है, इस प्रकार है - “आपदा किसी समुदाय या समाज के कामकाज में एक गम्भीर व्यवधान है, जिसके कारण बड़े पैमाने पर मानवीय आर्थिक और पर्यावरणीय क्षति होती है, जो उस समुदाय या समाज द्वारा अपने संसाधनों का उपयोग करते हुए इससे मुकाबला करने की क्षमता से परे है। सावधानी से बनायी गई योजना, तत्परता और शमन के उपायों के प्रयोग द्वारा संकटों से बचा जा सकता है।”
विभिन्न हितधारकों ने ‘आपदा प्रबन्धन’ को अलग-अलग ढंग से समझा है। जो अनुक्रिया देते हैं, उनके लिये ये केवल एक अनुक्रिया प्रबन्धन है। जो राहत कार्यों एवं व्यवस्था को फिर से शीघ्र बहाल करने में संलग्न होते हैं, उनके लिये ये एक मानवीय संकट और राहत प्रबन्धन है। ये दोनों ही आपदा के उपरान्त होने वाली गतिविधियाँ हैं। जोखिम में कमी, जोखिम से राहत और तत्परता के लिये आपदा-पूर्व योजना इस क्षेत्र के नए नियम हैं, और जो इसमें विश्वास रखते हैं, उनके लिये ये आपदा-पूर्व जोखिम में कमी तथा आपदा-उपरान्त अनुक्रिया, दोनों है। विश्व के ज्यादातर हिस्सों में, खास तौर से दक्षिण एशिया में तथा भारत में भी आपदा-उपरान्त अनुक्रिया आपदा प्रबन्धन की सबसे महत्त्वपूर्ण गतिविधियों में से एक मानी जाती थी। अतः संस्थागत प्रणाली, नियमावलियाँ, नीतियाँ, कार्यक्रम केवल इन्हीं को ध्यान में रखकर बनाये जाते थे। आपदा प्रबन्धन के लिये सम्पूर्ण शासन आपदा के परिदृश्य को ध्यान में रखते हुए विकसित किया जाता था। किन्तु सौभाग्य से यह कहानी अब पुरानी हो चुकी है। पिछले डेढ़ दशक से, भारत में आपदा प्रबन्धन में बहुत बदलाव आया है और यह नए अनुभवों के साथ नियमित अन्तराल पर पुनर्परिभाषित हो रहा है।
2015 में सेंदई फ्रेमवर्क अपनाए जाने के बाद, भारत ने नवम्बर, 2016 में एशियाई तथा प्रशांत महासागरीय देशों के लिये आपदा जोखिम न्यूनीकरण, मुख्यतया आपदा-पूर्व गतिविधियों, के लिये एक एशियाई खाका तैयार करने के लिये प्रथम मन्त्रिस्तरीय सम्मेलन की मेजबानी की। भारत के माननीय प्रधानमंत्री ने सम्मेलन का उद्घाटन किया तथा आपदा जोखिम न्यूनीकरण और प्रतिरोध क्षमता के विकास के लिये 10 सिद्धान्त देकर पथ-प्रदर्शित किया। इसके पहले जोखिम न्यूनीकरण का वैश्विक खाका तैयार करने के लिये मार्च, 2015 में आयोजित सेंदई (जापान का एक छोटा-सा शहर) वैश्विक सम्मेलन में दुनिया के 185 से अधिक देशों ने आपदा जोखिम न्यूनीकरण के दस्तावेजों पर हस्ताक्षर किए, जिसे सेंदई फ्रेमवर्क फॉर एक्शन 2015-2030 कहा जाता है। भारत भी इसके हस्ताक्षरकर्ताओं में से एक है।
आपदा प्रतिक्रिया प्रत्यक्ष होती है, जिसमें उच्च जवाबदेही शामिल है, और इसलिये सभी प्रतिक्रिया के इच्छुक होते हैं। वहीं दूसरी ओर आपदा तत्परता और जोखिम न्यूनीकरण अप्रत्यक्ष किन्तु उच्च परिणाम वाला है, पर किसी का ध्यान ही नहीं जाता। विश्व भर में इस मुद्दे पर सम्मेलनों और घोषणाओं से अधिक कुछ हुआ नहीं है। अन्तरराष्ट्रीय समुदाय रोकथाम की सफलता के अनेक प्रमाण देख चुका है। भारत भी ऐसे उदाहरणों का गवाह है। ओडीशा में 1999 में आये भयंकर चक्रवात में 13000 से ज्यादा जानें गईं, साथ ही सम्पत्ति का भी भारी नुकसान हुआ जबकि 2013 में जब फिलिन चक्रवात हमारे तट से टकराया, जो 1999 के चक्रवात की पुनरावृत्ति जैसा ही था और उसकी ताकत भी लगभग सामान ही थी, उसका प्रभाव 1999 के बिल्कुल विपरीत था। हमने केवल 22 जानें गँवाईं, बेशक बड़े पैमाने पर सम्पत्ति की हानि हुई। यह घटना विश्व में एक बेहतरीन उदाहरण साबित हुई कि कैसे भारत मौतों की संख्या को काफी हद तक कम करने में सफल रहा।
हाल ही में, तमिलनाडु में आये चक्रवात वरदा में भी मृतकों का आँकड़ा महज 14 ही रहा, हालाँकि सम्पत्ति की अपार क्षति हुई, जैसा कि हुदहुद चक्रवात के समय भी हुई थी। अतः यह स्पष्ट है कि क्षमता-निर्माण में पूर्वानुमानित निवेश करने में किए गए हमारे ईमानदार प्रयासों से मृतकों की संख्या कम करने की दिशा में सकारात्मक परिणाम नजर आया है। अब चिन्ता का विषय यह है कि सम्पत्ति- सड़कें, पुल, आवास, अस्पताल, बिजली, उत्पादक पूँजी आदि को हो रहे नुकसान से कैसे निपटा जाए।
आपदा जोखिम न्यूनीकरण को मुख्यधारा में ले आना
वैश्विक, क्षेत्रीय और स्थानीय स्तर पर विकास-प्रक्रिया में आपदा न्यूनीकरण को मुख्यधारा में ले आना एक महत्त्वपूर्ण एजेंडा रहा है लेकिन अनेक चुनौतियों समेत यह जटिल कार्य है। अगर हमें एक प्रतिरोध-क्षमतायुक्त भविष्य का निर्माण करना है तो हमें अपने अतीत से सीखना होगा।
समुदायों के बीच ज्ञान के आदान-प्रदान की आवश्यकता अभी भी शेष है तथा सरकार में मौजूद नीति-निर्माताओं और सभी प्रशासनिक स्तरों पर विद्यमान आपदा प्रबन्धकों के बीच विविधतापूर्ण संव्यवहार के सृजन के लिये एक साझा मंच की जरूरत है।
इसका मतलब यह है कि राष्ट्रीय और स्थानीय स्तर पर योजनाएँ ऐसी होनी चाहिए, जिसमें आपदा प्रतिरोध-क्षमता निर्माण वाली उपविधियाँ, भूमि उपयोग क्षेत्रीयकरण, संसाधन नियोजन, पूर्व चेतावनी प्रणाली की स्थापना और तकनीकी क्षमता अपनाने की जागरूकता को शामिल किया जा सके। इसके लिये यह भी आवश्यक है कि वैज्ञानिक एवं तकनीकी नवाचारों, पूर्व चेतावनी प्रणाली की मदद ली जाए और उनका प्रसार किया जाए तथा उन्हें राष्ट्रीय, उप-राष्ट्रीय और क्षेत्रीय नीति नियोजन में एकीकृत किया जाए। ज्यादातर सफलता की कहानियाँ, जिनमें भविष्य के सबक के लिये कुछ समानताएँ रेखांकित की जा सकती हैं, आपदा प्रबन्धन की पूरी बहस को बदल सकती हैं।
केवल प्रतिक्रिया एवं राहत पर ध्यान केन्द्रित करने की बजाय आपदा से पहले पूर्वानुमानित निवेश करना ज्यादा समझदारी का काम है, और भारत के लिये यह नया नहीं है। उदाहरण के लिये 1956 में अंजार (गुजरात) में आये भूकम्प को ही ले लीजिए। आपदा जोखिम न्यूनीकरण का सबसे बेहतरीन उदाहरण गुजरात में वहाँ था, जहाँ भूकम्प के बाद राज्य सरकार ने शहर के निर्माण को पुनर्स्थापित कर दिया था और एक आपदा प्रतिरोधी निर्माण कार्य करवाया था। आधी सदी बाद 2001 में भुज में आये भूकम्प में अंजार शहर से ज्यादातर घर तबाह हो गए थे, केवल उन घरों के अलावा जो 1956 की पुनर्स्थापन वाली जगह पर थे। यह विकास के क्षेत्र में आपदा जोखिम को मुख्यधारा में लाने का एक बेहतरीन उदाहरण प्रस्तुत करता है। दुर्भाग्यवश यह समय के साथ भुला दिया गया। हमें अपने अतीत के अनुभवों को सहेज कर रखने और उनसे सीखने की जरूरत है तथा राष्ट्रीय, क्षेत्रीय एवं स्थानीय स्तरों पर सुभेद्यताओं को कम करने के लिये इनका प्रयोग करने की आवश्यकता है।
2001 में कच्छ, (गुजरात) में आए भूकम्प में, दीर्घावधि के पुनर्निर्माण कार्यक्रम में आपदा जोखिम न्यूनीकरण को मुख्य-धारा में ले आना प्रमुख सिद्धान्त था, जो बिल्ड बैक बेटर जैसे एक पुनः बहाली कार्यक्रम की ओर ले गया। इसे संयुक्त राष्ट्र सासाकावा पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया और इसे विश्व स्तर पर मान्यता मिली है।
कई आर्थिक एवं वित्तीय अध्ययनों ने आपदा जोखिम न्यूनीकरण की जरूरतों और लाभों का वर्णन किया है। यूनेस्को के एक अनुमान के मुताबिक, आज मानवीय सहायता के लिये आवंटित प्रत्येक 100 डॉलर में से मात्र 4 डॉलर ही जोखिम कम करने के उपायों पर खर्च किये जा रहे हैं, इसके बावजूद आपदा जोखिम न्यूनीकरण पर किये जा रहे शोध आपदा से होने वाले नुकसान की एक महत्त्वपूर्ण राशि बचाने में योगदान देते हैं। पर्यावरण पर मानव गतिविधि के नकारात्मक प्रभावों को कम करने के लिये तथा प्राकृतिक संकटों से स्वयं की रक्षा के लिये सुभेद्य आबादी की क्षमता का निर्माण करने के लिये, आपदा जोखिम न्यूनीकरण आने वाले वर्षों में वैश्विक गरीबी में कमी लाने की पहल का एक महत्त्वपूर्ण पहलू होना चाहिए।
सेंदई फ्रेमवर्क 2015-2030
सेंदई फ्रेमवर्क ह्यूगो फ्रेमवर्क फॉर एक्शन (एचएफए) 2005-2015: आपदाओं के लिये राष्ट्रों और समुदायों की प्रतिरोध-क्षमता का निर्माण का उत्तराधिकारी है। एचएफए, 1989 के प्राकृतिक आपदा न्यूनीकरण के लिये अन्तरराष्ट्रीय दशक के इंटरनेशनल फ्रेमवर्क फॉर एक्शन तथा एक सुरक्षित भविष्य के लिये योकोहामा रणनीति : प्राकृतिक आपदा रोकथाम, तत्परता और शमन के लिये दिशा-निर्देश तथा 1994 में अपनाई गई इसकी कार्य-योजना तथा 1999 की आपदा न्यूनीकरण के लिये अन्तरराष्ट्रीय रणनीति के तहत जारी वैश्विक। और गति देने के लिये एचएफए का नियोजन किया गया था।
सेंदई फ्रेमवर्क का निर्माण उन तत्वों से मिलकर हुआ है, जो एचएफए के तहत राज्यों तथा हितधारकों द्वारा किए गए कार्य के साथ निरन्तरता सुनिश्चित करते हैं तथा जैसा मंत्रणाओं एवं वार्ताओं के दौरान तय हुआ था, ढेरों नवाचारों का सूत्रपात करता है।
कई टिप्पणीकार आपदा प्रबन्धन के बजाय आपदा जोखिम प्रबन्धन पर जोर देने, सात वैश्विक लक्ष्यों की परिभाषा, एक अपेक्षित परिणाम के रूप में आपदा जोखिम में कमी के अतिरिक्त नए जोखिमों की रोकथाम पर केन्द्रित लक्ष्य, विद्यमान जोखिम को कम करना और प्रतिरोध-क्षमता को दृढ़ करना तथा साथ ही आपदा जोखिम से बचाने और उसे कम करने के लिये राज्य की प्राथमिक जिम्मेदारी आदि के साथ समाज और राज्य की सभी संस्थाओं समेत मार्गदर्शक सिद्धान्तों के समूह को, सबसे महत्त्वपूर्ण परिवर्तन के रूप में देखते हैं।
इसके अलावा, प्राकृतिक एवं मानव-जनित संकटों, दोनों तथा उनसे सम्बन्धित पर्यावरणीय, तकनीकी तथा जैविक संकटों एवं जोखिमों पर ध्यान केन्द्रित करने के कारण आपदा जोखिम न्यूनीकरण का कार्य-क्षेत्र काफी व्यापक हो गया है। इस दस्तावेज में शुरू से अन्त तक स्वास्थ्य प्रतिरोध-क्षमता को बढ़ावा देने की बात है। सेंदई फ्रेमवर्क निम्नलिखित मुद्दों का भी स्पष्ट उल्लेख करता है: आपदा जोखिम के निवारण, सुभेद्यता तथा संकट के सभी आयामों की बेहतर समझ की जरूरत, राष्ट्रीय मंचों समेत आपदा जोखिम शासन को सुदृढ़ करना, आपदा प्रबन्धन जोखिम के लिये जवाबदेही, ‘बिल्ड बैक बटेर’ के लिये तत्परता, नए जोखिमों के हितधारकों की पहचान, स्वास्थ्य के बुनियादी ढाँचे, सांस्कृतिक विरासत एवं कार्य-स्थल की प्रतिरोध-क्षमता, अन्तरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं द्वारा वित्तीय सहायता एवं ऋण समेत अन्तरराष्ट्रीय सहयोग और वैश्विक साझेदारी तथा जोखिम सूचित नीतियाँ एवं कार्यक्रम। नई राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन योजना (एनडीएमपी) सभी क्षेत्रों में विकास की गतिविधियों में आपदा जोखिम में कमी को एकीकृत करके सभी स्तरों पर आपदाओं से निपटने के लिये हमारे देश की क्षमता को अधिकतम सीमा तक ले जाएगी। एनडीएमपी आपदा प्रबन्धन के वैश्विक रुझानों को भी ध्यान में रखेगा और आपदा जोखिम न्यूनीकरण के लिये सेंदई फ्रेमवर्क 2015-2030, भारत जिसका हस्ताक्षरकर्ता है, में सुझाए गए दृष्टिकोण को भी सम्मिलित करता है।
निष्कर्ष
संसाधनों की कमी वाले राष्ट्रों/राज्यों में आपदा के प्रभाव को कम करने के लिये विकास नियोजन में पूर्वानुमानित जोखिम न्यूनीकरण निवेश करना महत्त्वपूर्ण है। निवेश करने के लिये जोखिम सूचित निर्णयों की ओर बढ़ना एक विवेकपूर्ण कदम होगा। उच्च आपदाग्रस्त क्षेत्रों में भविष्य के लिये नियोजित परियोजनाओं में अनिवार्य रूप से आपदा जोखिम का लेखा होना चाहिए। निवेश चाहे निजी हो या सार्वजनिक, वह विकास की उपलब्धियों की रक्षा करने तथा प्रतिरोध-क्षमता प्राप्त करने के मूलभूत सिद्धान्तों पर आधारित होना चाहिए। आपदा जोखिम के लिये एक व्यापक और एक अधिक जन-केन्द्रित निवारक दृष्टिकोण होना चाहिए। आपदा जोखिम न्यूनीकरण कार्यों को सक्षम एवं प्रभावी होने के क्रम में समावेशी एवं सुलभ होने की आवश्यकता है। सरकार को सम्बन्धित हितधारकों, खास तौर से निजी क्षेत्र को सहूलियत तथा प्रोत्साहन के साथ-साथ नीतियों, योजनाओं एवं मानकों को बनाने तथा उनके कार्यान्वयन में शामिल करना चाहिए। इसे समावेशी बनाने के लिये महिलाओं को नेतृत्वकर्ता के रूप में तथा युवाओं, बच्चों, नागरिक समाज तथा शिक्षा-जगत के लोगों को शामिल करने की आवश्यकता है। साथ ही सभी राज्यों को साथ काम करने और सहयोग के अवसर पैदा करने के लिये वैज्ञानिक एवं शोध संस्थाओं को साथ जोड़ना चाहिए तथा व्यापार क्षेत्र को अपने प्रबन्धन में आपदा जोखिम को एकीकृत करना चाहिए ताकि सतत विकास लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सके।
लेखक परिचय
लेखक वर्तमान में एनआईडीएम के कार्यकारी निदेशक हैं और सार्क डिजास्टर मैनेजमेंट सेंटर, दिल्ली के पूर्व निदेशक रह चुके हैं। राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर कार्यान्वित किए गए आपदा प्रबन्धन कार्यक्रमों से भी सम्बन्धित रहे हैं। ईमेल: profsantosh@gmail.com
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