उत्तराखंड में अतिवृष्टि को समाप्त हुए दो सप्ताह के लगभग हो गया है, किन्तु अभी तक जन-धन हानि, घरों के गिरने, सड़कों के टूटने, पुलों के बहने और खेतों के ध्वस्त होने के विश्वसनीय आँकडे़ नहीं आये हैं। आपदा प्रबंधन मंत्री खजान दास के अनुसार 80,000 मकान क्षतिग्रस्त हुए, जबकि राज्य सरकार का कहना था कि 1,571 भवनों को हानि पहुँची है। कुल नुकसान तब तक पाँच हजार करोड़ रुपए के लगभग आँका गया था। राज्य सरकार ने 21,000 करोड़ रुपए की क्षति का स्मरणपत्र केन्द्र को भेजे जाने के लिए तैयार कर लिया है क्योंकि सड़कें टूट गई थीं, अतः आपदा से हुई क्षति देखने मुख्यमंत्री हेलीकॉप्टर से जगह-जगह गये। उन्होंने मुनस्यारी, बागेश्वर, टिहरी, उत्तरकाशी, चमोली, इत्यादि जनपदों में उड़ान भरी। लेकिन मुख्यमंत्री द्वारा कुछ स्थलों को देखने से क्या फायदा हुआ ? सारे राज्य में यही हाल था। अधिकारी अपने मातहतों से जानकारी लेने के बजाय स्वयं ही जगह-जगह दौड़ने लगे।
यहाँ जोशीमठ में मलबा आने के कारण एक सड़क पर यातायात बंद हो गया। एक नागरिक यह खबर देने तहसील दौड़ा। तहसील में उप जिलाधिकारी नहीं थे। वे एक दूसरी सड़क खुलवाने गये थे। वहाँ पर गिरे एक बडे़ पत्थर को तुड़वाने का काम वे देख ही रहे थे कि यह सड़क भी अवरुद्ध हो गई और वे अपने कार्यालय भी वापस नहीं पहुँच सके। नायब तहसीलदार भी सड़क की हालत देखने चले गए थे। शहर में कोई अधिकारी नहीं था जिसे सड़क बंद हो जाने की खबर दी जा सकती। अधिकारी यदि अपने कार्यालय में रह कर कार्य करते तो नुकसान के आँकड़े एकत्र हो चुके होते। अब देखना है कि केंद्र से आने वाले अधिकारी क्या करते हैं।
अलग राज्य की माँग उठते समय से ही कहा जा रहा था कि राजधानी पहाड़ में होनी चाहिए। सब जानते थे कि देहरादून राज्य के एक दूर कोने में पड़ता है। इस बरसात में जैसे ही सड़कें टूटीं, राजधानी का बाकी राज्य से संबंध विच्छेद हो गया। वर्षा के कारण दूर-संचार तथा कुछ दिनों बिजली भी कई जगहों बंद रही। लगभग लाखों लोगों के पास मोबाइल फोन थे, लेकिन टावर मौसम के कारण काम नहीं कर रहे थे मोबाइल फोन बेकार हो गए थे। बी.एस.एन.एल. ने टेलीफोन-तार के केबल सड़कों के किनारे लगाए हैं। जैसे ही सड़कें टूटीं, केबल भी टूट गए और संचार कार्य ठप्प हो गया। कई नगरों तथा ग्रामीण क्षेत्रों में 15 दिन से भी अधिक समय बंद रही। राजधानी पहाड़ में होती तो ऐसी व्यवस्थायें ठीक रखी जातीं, लेकिन नौकरशाहों का हित देहरादून में जमे रहने में ही है।
राज्य बनने पर बहुत से दिवास्वप्न दिखाए गए थे। कहा गया उत्तराखंड को पर्यटन प्रदेश बनाया जाएगा। यहाँ की नैसर्गिक सुंदरता को देखते हुए यह विचार अव्यावहारिक भी नहीं है। लेकिन राज्य बने दस वर्ष हो गए और पर्यटन-साधनों का यहाँ समुचित विकास नहीं हो पाया। इस आपदा के समय पर्यटक तथा तीर्थ यात्री जगह-जगह फँस गए। यह स्थिति हो गई कि यात्रियों के लिए सब कुछ बहुत महंगा हो गया। कहीं कमरों का किराया पाँच हज़ार रुपए रोज़ हो गया तो चाय का प्याला पंद्रह रुपए तथा भोजन 100 रुपए से अधिक। यदि मजबूरी के वक्त कीमतें इतनी अधिक हो जायें, तो यहाँ पर्यटक बड़ी संख्या में क्यों आयेंगे ?
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